कागज़ी इंसाफ़ / रणविजय
अब लगभग 10 साल हो गये हैं, इस केस को चलते हुए। इलाहाबाद कैट (CAT) कोर्ट में रेलवे की तरफ़ के वकील ने भी ख़ूब पैरवी चलायी। कल इस मामले की आखिरी तारीख है और फ़ैसला सुनाया जायेगा। रामनरेश व तीन अन्य बनाम भारत सरकार। भारत सरकार की तरफ़ से पार्टी हैं, महाप्रबंधक, उत्तर मध्य रेलवे तथा मंडल रेल प्रबंधक उत्तर मध्य रेलवे, इलाहाबाद।
पिछले 10 साल में सरकारों की तरह ही सुनवाई करने वाले जज भी चार बार बदल चुके हैं। इसलिए जज साहब ने पूरी केस फाइल मँगाकर अध्ययन करना ज़रूरी समझा। बरसात में सीली हुई दीवालों से पानी पी हुई मुलायम लुजलुजी फाइल कवर को किसी तरह सँभालते हुए जज साहब ने पलटना शुरू किया। आज के विश्वविद्यालयों में कुकरमुत्ता की
तरह बेकार से फैले हुए शोधग्रंथों की तरह इस फाइल में भी पदार्थ तत्त्व कम ही था। ज्यादातर पन्नों पर केवल तारीखें बढ़ाई गयी थीं। हर तारीख पर बढ़ी हुई एक और तारीख, वादियों की बढ़ती हुई दाढ़ी और उम्र पर एक चोट और मार जाती थी। उनकी आँखों से रोशनी का एक कतरा छीन जाती थी। वादी-प्रतिवादी की बहस, मिसिल पढ़ने के बाद जो तस्वीर सामने निकलकर आयी वह कुछ इस तरह थी-
रामनरेश, राजकुमार साहू, प्रेम प्रकाश तिवारी तथा रामदेव यादव चारों आदमी पी.डब्ल्यू.आई., इटावा के अधीन कार्यरत थे। इन लोगों का काम रेलवे ट्रैक, स्लीपर, गिट्टियों तथा ट्रैक और उससे सम्बंधित रख-रखाव था। इनका जो सुपरवाइजर (पी.डब्ल्यू.आई.) था उससे इन लोगों की नहीं बनती थी। ये कर्मचारी, ट्रेड यूनियन के सक्रिय सदस्य थे तथा अपने यूनियन के पदाधिकारी के साथ ही हमेशा हेकड़ी से घूमा करते थे। सुपरवाइजर, क्योंकि डिपो का मालिक था तो उसे अपने मातहतों की शेखी और उनके द्वारा की गयी अवहेलना एवं अवमानना खटकती थी। यूनियन के इन सक्रिय सदस्यों को वह किसी तरह बरदाश्त कर रहा था। इस क्षेत्र के अधिकारी के रूप में अभी 6 महीने पहले एक नये अफसर आये। उम्र से कोई पचीस साल के जवान, नई भर्ती की पहली पोस्टिंग पर सहायक इंजीनियर (इटावा) बनकर आये। नीचे का स्टाफ संकोचवश अभी साहब से नहीं मिल रहा था। स। इंजी. के ऊपर वरिष्ठ मंडल इंजीनियर थे, जो कि मंडल कार्यालय, इलाहाबाद में बैठते थे। उनसे पी.डब्ल्यू.आई. के नीचे का कर्मचारी शायद ही कभी मिल पाता था।
नया अधिकारी सीधी सोच का व्यक्ति था। उसे राजनीतिक चालों तथा अलिखित रसूखों का ज्ञान नहीं था। तर्क और क़ानून से चलने वाली समझ के अनुसार उसने अपना प्रशासन चलाना शुरू किया। परंतु इस व्यवस्था की मशीनरी में पुराने पुर्जे फिट नहीं हो पा रहे थे। यूनियन और उसकी शह पर बिगड़े कुछ रंगरूट वही पुराने पुर्जे थे। नई व्यवस्था को सुपरवाइजर ने अपनी तरफ़ से पोषित किया, क्योंकि इससे उसकी ज़िन्दगी भी आसान हो रही थी।
सुपरवाइजर तथा यूनियन के बीच आंतरिक विरोध बढ़ता जा रहा था। धीरे-धीरे एक-दूसरे को उखाड़ फेंकने का अघोषित संकल्प दोनों पक्षों ने ले लिया। जगह-जगह स। इंजी. तथा पी.डब्ल्यू.आई. के विरोध में पोस्टर चिपके दिखने लगे। दीवारों पर नारे लिखे गये थे। इस उखाड़-पछाड़ को मैदानी युद्ध देने के लिए एक उचित कारण की तलाश में यूनियन पहले से ही थी। ऐसे में एक दीर्घकालिक महत्त्वहीन तथा एक तात्कालिक मुद्दे को सुरसा के बदन की तरह बड़ा करके युद्ध की घोषणा कर दी गयी। कई कर्मचारियों को, पद रिक्त होते हुए भी पदोन्नति नहीं मिली थी। पदोन्नति एवं रिक्तियाँ ये सरकारी व्यवस्था में गंगा नदी-सी न सूखने वाली समस्याएँ हैं। कुछ कर्मचारियों का यात्रा भत्ता काटा गया था। इस बात पर माहौल कई दिन से गरमाया हुआ था। जिन कर्मचारियों ने बिना ड्यूटी किये ग़लत तरीके से यात्रा भत्ता क्लेम किया था उनका सुपरवाइजर द्वारा यात्रा भत्ता काट लेना, मलाई की प्लेट मुँह के पास से छीन लेने के बराबर था। यह तात्कालिक कारण ज़्यादा उबाल भरा था।
स। इंजी. को अनुभव की कमी थी। उन्होंने लोहे को काटने के लिए लोहे का प्रयोग ही उचित समझा। अपने अधीनस्थ सुपरवाइजर के नीचे किसी से मिलना, बातचीत करना कभी उचित नहीं समझा था। इस कारण शांत सतह के नीचे कितनी धाराएँ, ज्वालाएँ प्रवहमान हैं , इसका उन्हें अंदाजा भी न हुआ।
इटावा तथा इकदिल स्टेशन के बीच में ट्रैक में फ्रैक्चर हो गया था, जिससे वहाँ पर 20 किलोमीटर प्रतिघंटा का गति प्रतिबंध लगा दिया गया था। दिल्ली, इलाहाबाद की यह लाइन 130 किलोमीटर प्रतिघंटा की स्पीड से गाड़ियाँ चलाती थी, परंतु एक जगह पर आकर गाड़ियों के लिए स्पीड 20 किलोमीटर प्रतिघंटा करनी पड़ती थी। इस प्रतिबंध की वजह से चाल धीमी करने में तथा 20 किलोमीटर प्रतिघंटा चलने से गाड़ियों के समय में 5 मिनट का नुक़सान हो रहा था और इस ट्रैक पर एक के पीछे एक गाड़ियाँ लगी रहती हैं। सभी गाड़ियों को इस कारण लेट होना पड़ रहा था। 5-5 मिनट का यह समय जुड़ते-जुड़ते 6-8 घंटे बाद गाड़ियों को घंटा-घंटा भर लेट करा रहा था। मंडल रेल प्रबंधक को बार-बार ऊपर से डाँट पड़ रही थी क्योंकि गाड़ियों की समय पालनता प्रभावित हो रही थी। इस समस्या से निपटने के लिए उन्होंने आदेश दिया कि ट्रैक के उस भाग को नये से बदल दिया जाये।
27 दिसम्बर, 1989 को इस कार्य के लिए भारतीय रेल के व्यस्ततम मार्ग पर, यातायात आवागमन 4 घंटे के लिए रोका गया। ऐसा रेल इतिहास में बहुत कम ही होता है कि आवागमन 4 घंटों तक रोक दिया जाये। स। इंजी. को इलाहाबाद से पक्का फ़रमान था कि इन्हीं 4 घंटों में ये काम ज़रूर निपट जाना चाहिए। उसी हिसाब से डिपो की फ़ौज को काम बाँट दिया गया था। दिन के ठीक 12 बजे से लेकर 4 बजे तक में काम ख़त्म करना था। सभी साधन, संसाधन, मशीन साइट पर पहले ही पहुँच गये थे। कार्य चालू हुआ, परंतु कुछ लोगों ने जान-बूझकर काम नहीं किया। वे तीन-चार दिनों से ही धरना प्रदर्शन कर रहे थे। पी.डब्ल्यू.आई. को आशंका ही नहीं, गड़बड़ी का विश्वास था। परंतु हुक्म तो तामील करने के लिए दिये गये थे, आशंकाएँ व्यक्त कर टालने के लिए नहीं।
यूनियन ने माँग रखी थी कि जब तक पदोन्नति तथा यात्रा भत्ता का मामला सुलझा नहीं लिया जायेगा, तब तक इसी तरह धरना-प्रदर्शन जारी रहेगा। स। इंजी. श्रीवास्तव नये अधिकारी थे। उनको इसका अंदाजा भी न था कि दिन में स्टाफ इतने ज़रूरी कार्य पर नखरे भी कर सकता है। अपनी जायज-नाजायज माँगों को लेकर इस हद तक भी वह जा सकता है। व्यावसायिक जीवन में व्यावहारिकता की शिक्षा-दीक्षा वरिष्ठ ही नहीं, मातहत भी देते हैं। आज वही शिक्षा की घड़ी थी।
तीन बजे तक हाहाकार जैसी स्थिति हो गयी। जिसको देखिये वही आग-बबूला हुआ जा रहा है, आख़िर क्यों न हो, 4 घंटे से आवागमन जो रुका है। जबकि कुछ लोग साइट पर मौजूद होते हुए भी कार्य नहीं कर रहे हैं। जिस गति से कार्य हो रहा है, उससे अभी 3 घंटे और लगेगा। ब्यूरोक्रेसी की झाड़-लताड़ अपने चरम पर थी। मंडल रेल प्रबंधक को ऊपर से बहुत डाँट पड़ी, उन्होंने वरि। मंडल इंजी. को बहुत डाँटा और इसी तरह वरि। मंडल इंजी. ने स। इंजी. को डाँटा, गरियाया।
झाँय-झाँय में तय हुआ कि 4 बजे तक बिना बदले ही रेल को बाँध दिया जाये। अब यह कार्य किसी और दिन किया जायेगा। रेल बिना बदले ही दुबारा बाँध दी गयी। रेल में जब भी कभी इस तरह का कार्य होता है तो एक क़ायदा है कि साइट से गुजरने वाली पहली रेलगाड़ी का मूवमेंट अवश्य निरीक्षण किया जाता है। कार्य करने वाले कर्मचारियों व अधिकारियों के लिए संतोष की बात तब होती है जब पहली गाड़ी सकुशल गुजर जाती है। फ़िर माना जाता है कि आगे आने वाली भी सकुशल चली जायेंगी।
4.30 बजे जब पहली गाड़ी इस ट्रैक पर चली तो वह पटरी ढीली होने के कारण डिरेल (गिर) हो गयी। इंजन के तीन पहिए पटरी से नीचे आ गिरे। गति प्रतिबंध 10 किलोमीटर प्रति घंटा लगा होने के कारण रेलगाड़ी की गति कम थी जिससे कोई हताहत नहीं हुआ। वहाँ पर काम कर रहे कर्मचारियों तथा स। इंजी. को अब काटो तो ख़ून नहीं। मुर्दनी छा गयी सभी के चेहरों पर। अब 3 घंटे और लगेंगे। क्योंकि अब रिलीफ ट्रेन बुलानी पड़ेगी, फ़िर इंजन उठाने के लिए जैक की आवश्यकता होगी क्योंकि इंजन सबसे ज़्यादा भारी होता है। जो समस्या अभी तक केवल मंडल स्तर पर डील की जा रही थी, वह अचानक भारतवर्ष की समस्या हो गयी। किसी एक स्थान पर 7 घंटे तक आवागमन को रोक देने का मतलब अगले 18-20 घंटों तक हावड़ा से दिल्ली चलने वाली सभी गाड़ियों को प्रभावित कर देना। दिल्ली से लेकर हावड़ा तक जहाँ-तहाँ गाड़ियाँ खड़ी होने लगीं, क्योंकि बीच में मार्ग अवरुद्ध था। अब इस लाइन पर हर स्टेशन पर कोई-न-कोई गाड़ी खड़ी थी। माहौल बिगड़ने से तय हो गया कि अब कुछ प्रसाद ज़रूर मिलेगा। इंजन डिरेल होने के बाद जो लोग कार्य नहीं कर रहे थे, उनको भी स्थिति की ग़म्भीरता ने दबा लिया, वे भी फ़ौरन सहायता में जुटे, परंतु तब तक जो नुक़सान होना था वह हो चुका था।
वरिष्ठ मंडल इंजी. तथा स। इंजी. श्रीवास्तव का तबादला सुदूर दक्षिण भारत कर दिया गया। पी.डब्ल्यू.आई. को डिपो इंचार्ज से हटा दिया गया तथा सजा देकर पदावनत कर दिया गया। चार लोगों को महौल भड़काने, लोगों को उकसाने तथा रेल कार्य न करने के दोष में बिना नोटिस के नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया।
केस के मूल में बस इतनी ही बात थी। रामनरेश, राजकुमार साहू, प्रेम प्रकाश तिवारी तथा रामदेव यादव-चारों ने निर्णय को चैलेंज किया है तथा लाभ सहित बहाली की प्रार्थना की है। उनको देखकर ही उन चारों की घरेलू तथा आर्थिक स्थिति का आभास हो जाता था। रोजगार से खिलवाड़ का नतीजा सामने था।
आज 12 अक्टूबर, 1999 है। जज ने मानवीय दृष्टिकोण से भी मामले को देखा। ऐसे अपराधों के परिणाम की सजा एवं संदेश तो रेलवे ने दे ही दिया था। सजायाफ्ता को भी अब तक इसका ज्ञान हो गया है कि उनसे क्या ग़लती हुई है? क्योंकि रेल हादसे में कोई जानमाल की हानि नहीं हुई है तो क्यों न इन लोगों को बिना कोई अन्य लाभ दिये उन्हीं पदों पर दुबारा स्थापित कर दिया जाये तथा इन दस वर्षों को बिना वेतन विशेष अवकाश मान लिया जाये। जज साहब ने इसी निर्णय को सुनाना पक्का किया।
12 दिसम्बर, 1999 को आदेश की प्रति मंडल रेल प्रबंधक इलाहाबाद कार्यालय में प्राप्त करा दी गयी। निर्णय के अनुसार 90 दिनों में बहाली कर कोर्ट को सूचित किया जाना है। 12 दिसम्बर, 1999 को आदेश की प्रामाणिक प्रति लेकर बूढ़ा रामनरेश अपने बेटे के साथ तथा अन्य तीनों व्यक्ति , विनीत सूरत लेकर मंडल कार्यालय, इलाहाबाद प्रात: ही पहुँच गये। इटावा से इलाहाबाद कैट तो वे पिछले कई वर्षों से नाच रहे थे।
कोर्ट ने चारों व्यक्तियों को 90 दिनों के भीतर बहाल करने का आदेश दिया। परन्तु कार्मिक शाखा के बाबू उनको एक टेबल से दूसरे टेबल टहलाते रहे। किसी बाबू ने डरा दिया कि रेलवे अभी निर्णय को चैलेंज करेगा, तुम लोग अभी आगे भी केस लड़ो। यह सुनकर इन लोगों के हौसले पस्त हो गये। यूनियन ने कई वर्षों पूर्व ही इन लोगों से किनारा कर लिया था।
अब रोज़ सबेरे आना तथा रात तक रुके रहना या यहीं कहीं ठौर बनाकर अगले दो-तीन दिन रुके रहना ही इन लोगों की ज़िन्दगी बन गयी। रामनरेश की हालत बिगड़ती जा रही थी। इलाज के लिए पैसा भी नहीं था और न ही रेलवे पास तथा अस्पताल की सुविधाएँ थीं। विपरीत परिस्थितियों में बहाली के आदेश के इंतज़ार में रामनरेश हर दिन मौत से लड़ा जा रहा था। जब तक मंडल ने केस को आगे न लड़ने तथा कर्मचारियों को ज्वॉइन कराने का निर्णय लिया, तब तक रामनरेश बच न सका।
राजकुमार साहू, प्रेम प्रकाश तिवारी तथा रामदेव यादव तो इटावा डिपो में मेहनत से दुबारा नौकरी करने लगे हैं। परंतु रामनरेश का बेटा तथा बेवा अभी भी मंडल कार्यालय के चक्कर काट रहे हैं। क़ानून का पेंच कुछ ऐसा फँस गया है कि काग़ज़ पर इंसाफ़ तो हुआ है परन्तु असल ज़िन्दगी तक नहीं पहुँच पाया। रामनरेश बिना ड्यूटी ज्वॉइन किये मर गया। क्योंकि वह नौकरी करते हुए नहीं मरा, इसलिए उसकी फेमिली की पेंशन भी नहीं बन सकती। न ही उसके बेटे को मृतक आश्रित कटेगरी में नौकरी मिल सकती है। लोग सहायता करना चाहकर भी मजबूर हो गये हैं, क्योंकि ऐसी अवस्थिति की परिकल्पना करके कोई नियम नहीं बना।
यदि रामनरेश ड्यूटी ज्वॉइन करने के बाद मरता तो मृतक आश्रित में एक सदस्य को उसके स्थान पर नौकरी मिल जाती तथा बेवा को फेमिली पेंशन भी मिलती। परंतु अब रामनरेश का परिवार उसे भी खो चुका है, साथ ही नौकरी और पेंशन भी खो चुका है।
इंसाफ़ पाने के लिए पुनः 10 वर्ष या और अधिक ही न्यायालय में चक्कर लगाना पड़ेगा। विधाता के विधान और इंसान के विधान में यही फ़र्क़ है। एक असल इंसाफ़ देता है, दूसरा काग़ज़ी इंसाफ़। पर यहाँ तो रामनरेश के परिवार को असल में भी इंसाफ़ नहीं मिला या विधाता ही जाने कि इंसाफ़ का कौन-सा मोती छिपा के रखा है समयानुकूल देने के लिए।
