कागज़, स्याही, बनारस और ज्ञानेन्द्रपति / अशोक अग्रवाल

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‘बहुमत’ पत्रिका के अगस्त 2021 में पुनः प्रकाशित दशकों पहले लिखी गई ज्ञानेन्द्रपति की कविताएँ आज भी समय और समाज की विसंगतियों से उसी ऊर्जस्वित स्वर में रचनात्मक मुठभेड़ करती दिखाई देती हैं. काल का दीर्घ अंतराल इन कविताओं के आंतरिक सत्य को तनिक भी खरोंच न पहुँचा पाया.

इनका पुनर्पाठ करते हुए ज्ञानेन्द्रपति का स्मरण हो आया. स्मृतियाँ आकार लेने लगीं.

दिसंबर वर्ष 1970 में पटना में नंदकिशोर नवल द्वारा आयोजित युवा लेखक सम्मेलन इस मामले में अनूठा था कि इसमें उन्होंने सातवें और आठवें दशक के उस समय के सौ से भी अधिक कवियों, कहानीकारों और आलोचकों को एक मंच पर एकत्रित किया था. दूधनाथ सिंह, ज्ञानरंजन, काशीनाथ सिंह, रवीन्द्र कालिया, विजय मोहन सिंह, सुरेंद्र चौधरी, चंद्रकांत देवताले, धूमिल, लीलाधर जगूड़ी, अशोक वाजपेयी जैसे चर्चित लेखकों के साथ ज्ञानेन्द्रपति, इब्राहिम शरीफ, जितेंद्र भाटिया और मुझ जैसे अनेक ऐसे लेखक जिन्हें लेखन की शुरुआत किए मुश्किल से दो या तीन साल ही हुए होंगे.

उसी युवा लेखक सम्मेलन में अनौपचारिक काव्य-पाठ की एक गोष्ठी में ज्ञानेन्द्रपति की कविताओं से प्रभावित हो अशोक वाजपेयी ने अपनी प्रारम्भ होने वाली ‘पहचान’ सीरीज के लिए उनकी कविताएँ आमंत्रित कीं. ज्ञानेन्द्रपति के द्वारा भेजी गई तेईस कविताओं में बीस कविताओं के चयन और उन्हें क्रम देने का कार्य श्री नेमिचंद्र जैन ने सम्पन्न किया. ज्ञानेन्द्रपति ने कभी अनौपचारिक बातचीत में बताया था कि इस कविता पुस्तिका का नाम उन्होंने ‘धीरे धीरे आँख से हाथ बनते हुए’ रखा था जिसे संशोधित करते हुए श्री नेमिचंद्र जैन ने ‘धीरे-धीरे’ इन दो शब्दों और आँख से हाथ के बीच आये शब्द ‘से’ को हटाकर नया नाम दिया- ‘आँख हाथ बनते हुए’. उस समय के वरिष्ठ लेखक युवा लेखक को तराशने का कार्य कितने मनोयोग से करते थे यह उसका उदाहरण है. वर्ष 1971 में ‘पहचान’ सीरीज के अंतर्गत प्रकाशित ज्ञानेन्द्रपति की कविताओं के इस संचयन की पर्याप्त चर्चा हुई थी. ‘पहचान’ सीरीज की उस पहली शृंखला की पाँच पुस्तिकाओं के दो अन्य कवि विष्णु खरे और जितेंद्र कुमार थे जिनकी कविताएँ पहली बार संकलित हो पुस्तिका रूप में छपी थीं. चौथी पुस्तिका में वरिष्ठ कवि श्री शमशेर बहादुर सिंह की छह नई कविताएँ और उनकी सर्जनात्मकता को रेखांकित करता रमेशचंद्र शाह का एक निबंध था और पाँचवी पुस्तिका में ‘भाषा का अवमूल्यन’ शीर्षक से ‘सीधी लेखक शिविर के दस्तावेज’ प्रकाशित हुए थे.

उस युवा लेखक सम्मेलन में व्यक्तिगत रूप से मेरा ज्ञानेन्द्रपति से कोई संवाद संभव न हो सका था.

वर्ष 1980 में संभावना प्रकाशन के द्वारा आमंत्रित किए जाने पर उन्होंने अपने पहले कविता-संग्रह ‘शब्द लिखने के लिए ही यह कागज बना है’ की पांडुलिपि तैयार की. इस संग्रह की उनकी कविता ‘ट्राम में एक याद’ ने 1978 में ‘दस्तावेज’ में प्रकाशित होने के उपरांत जो अपार लोकप्रियता अर्जित की थी वह आज भी उसी तरह बरकरार है-

चेतना पारीक कहाँ हो कैसी हो?

बोलो बोलो पहले जैसी हो?

कुछ-कुछ खुश कुछ-कुछ उदास

कभी देखती तारे कभी देखती घास

जैसी प्रेम की सघन अनुभूतियों के महीन तंतुओं से बुनी हुईं इसी कविता में कोलाहल से भरी भीड़ और विकास की तेज गति से भागता हुआ कोलकाता महानगर भी जीवंतता से उपस्थित है और जो अनछुआ और अनुपस्थित है उसे कवि अपनी संवेदनशील दृष्टि से रेखांकित करता है-

इस महावन में फिर भी एक गौरैये की जगह खाली है

एक छोटी चिड़िया से एक नन्ही पत्ती से सूनी डाली है

महानगर के महाट्टहास में एक हँसी कम है

विराट धक्-धक् में एक धड़कन कम है कोरस में एक कण्ठ कम है

तुम्हारी दो तलवे जितनी जगह लेते हैं उतनी जगह खाली है

वहाँ उगी है घास वहाँ चुई है ओस वहाँ किसी ने निगाह तक नहीं डाली है

इस संग्रह की अधिकांश कविताओं में दर्ज कोलकाता और पटना की नागर छवियाँ और सामाजिक विसंगतियों के दृश्यों की मार्मिक कलात्मक अभिव्यक्ति आज भी उसी तरह प्रभावित करती हैं. ‘बनानी मुखर्जी’ कविता हो या ‘नदी और नगर’ जैसी छोटी कविता-

नदी के किनारे नगर बसते हैं

नगर के बसने के बाद

नगर के किनारे से

नदी बहती है

वर्ष 1980 में ज्ञानेन्द्रपति पहली बार हापुड़ आए थे. अपने कविता-संग्रह को प्रकाशन पूर्व अंतिम प्रारूप देने के लिए. यहाँ इस तथ्य से परिचित होना मौजू होगा कि उस समय जो दो कविता-संग्रह अपने लंबे शीर्षकों के कारण भी चर्चा में रहे थे उनमें दूसरा कविता-संग्रह विनोद कुमार शुक्ल का ‘वह आदमी नया गरम कोट पहन कर चला गया विचार की तरह’ था. ये दोनों कविता-संग्रह एक ही वर्ष 1981 में संभावना से प्रकाशित हुए.

ज्ञानेन्द्रपति अन्य कवियों की अपेक्षा भिन्न और गंभीर स्वभाव के कवि थे. वह मेरे हमउम्र थे. उनका हर वाक्य नपातुला और सुचिंतित होता था. साहित्यिक गुटबाजी और निंदारस से वह पूर्णतया अछूते थे. ज्ञानेन्द्रपति तुनकमिजाज भी कम नहीं थे. कोई बात उन्हें नागवार गुजरती तो सामने वाले को झिड़कने में उन्हें एक पल भी न लगता.

रात्रि निवास का मेरे यहाँ कोई समुचित प्रबंध नहीं था. जीने की गुमटी में प्लाईवुड का दरवाजा लगाकर उसे छोटे कमरे का रूप दे दिया गया था. फोल्डिंग पलंग बिछाने के बाद मुश्किल से आने-जाने की जगह भर शेष बचती थी. जीने की इसी गुमटी में बाहर से आने वाले साहित्यिक मित्र ठहरा करते. आज सोचता हूँ तो लगता है उन सभी मित्रों को काफी असुविधा का सामना करना होता होगा लेकिन कभी किसी ने कोई शिकायत नहीं की. बाबा नागार्जुन तो इसी छोटी जगह में दस-पन्द्रह दिन आराम से ठहर जाते. ज्ञानेन्द्रपति का भी रात्रि निवास इसी गुमटी में हुआ.

प्रातःकाल हम हापुड़ शटल से दिल्ली के लिए रवाना हुए. प्रसिद्ध चित्राकार जगदीश स्वामीनाथन के गढ़ी स्थित स्टूडियो पहुँचे. भीड़-भाड़ शोर-गुल और संकरी सड़कों के बीच छिपे गढ़ी के विशालकाय लोहे के गेट के भीतर प्रवेश करने पर रेगिस्तान में नखलिस्तान जैसी सुखद अनुभूति होती है. कलाकारों के लिए गढ़ी ऐसी छोटी-सी नगरी थी जहाँ आवासीय सुविधाओं के साथ उनके स्टूडियो बने थे.

जे स्वामीनाथन से मेरी यह पहली मुलाकात थी- भरी हुई सांवली देह-यष्टि, घने केश और बेतरतीब दाढ़ी में वह मलंग अवधूत से लगते. उनके स्टूडियो के समीप कृष्ण खन्ना की नामपट्टिका देख जिस पुलकन का अहसास हुआ उसका स्मरण आज भी है. कृष्ण खन्ना मेरे पसंदीदा कलाकार रहे हैं.

जे स्वामीनाथन ज्ञानेन्द्रपति के अच्छे मित्र थे. उन्हांने हिमाचल प्रदेश में अपना स्थानीय निवास बना लिया था. वे दक्षिण भारतीय थे, लेकिन हिन्दी बहुत अच्छी तरह लिख और पढ़ लेते थे. वे अंग्रेजी-हिन्दी में कविताएँ भी लिखते थे. स्वर्गीय रघुवीर सहाय के सम्पादन में निकलने वाली साप्ताहिक पत्रिका ‘दिनमान’ में भी उनकी हिन्दी कविताएँ प्रकाशित हुई थीं. करीब दो घंटे तक हम जे स्वामीनाथन के साथ रहे. इन दो घंटों के दौरान जे स्वामीनाथन ने बीड़ी दर बीड़ी फूंकते हुए हमारे लिए दो बार काली चाय तैयार की. यह सुबह का समय था. हम कुछ देर बाद आए होते तो कोकोकोला में मिली रम में हम भी उनके सहपायी होते. ज्ञानेन्द्रपति ने अपने कविता-संग्रह‘ शब्द लिखने के लिए ही यह कागज बना है’ के आवरण के लिए उनसे आग्रह किया. जे स्वामीनाथन ने प्रसन्नता से प्रस्ताव स्वीकार किया लेकिन कहा कि वे पहले कविता-संग्रह की पूरी पांडुलिपि पढ़ना चाहेंगे. उसी के बाद उनके लिए आवरण बनाना संभव होगा. बाद में मैं कविता-संग्रह के प्रिंटआउट लेकर उनके पास गया. उन दिनों गढ़ी में उनके स्टूडियो में फोन की कोई सुविधा नहीं थी. कुछ दिन बाद जे स्वामीनाथन का संदेश आया कि उन्होंने आवरण तैयार कर लिया है. मैं गढ़ी में उनके स्टूडियो गया. जे स्वामीनाथन ने आवरण का निर्माण पुस्तक-शीर्षक में आए कागज और स्याही के अनुरूप केवल श्वेत-श्याम रंगों से किया था. कविता-संग्रह और लेखक का नाम भी उन्होंने स्वयं अपने हस्तलेख में लिखा था. यहाँ इस तथ्य का उल्लेख दिलचस्प होगा कि इस संग्रह तक ज्ञानेन्द्रपति अपना नाम ज्ञानेन्द्र और पति अलग करके लिखते थे. इसके बाद छपने वाली कविताओं और कविता संकलनों में उन्होंने ज्ञानेन्द्र और पति को संयुक्त करके एक नाम ज्ञानेन्द्रपति कर दिया.

फ्लैप पर मुद्रित ज्ञानेन्द्रपति की छवि का रेखांकन स्वर्गीय कलाकार करुणानिधान मुखर्जी ने बनाया था. करुणानिधान मुखर्जी के जीवन का बड़ा हिस्सा बनारस में व्यतीत हुआ था. करुणानिधान, अनिल करंजई और विभास दास की तिगड़ी उस समय के बनारस के साहित्यिक जगत में जाने-पहचाने नाम थे.

एलेन गिंसबर्ग के बनारस प्रवास के दौरान उनकी हर नशे की संगत में ये शरीक रहते. आठवें दशक में उन्होंने बनारस में अपनी संयुक्त चित्राकला प्रदर्शनी का भी आयोजन किया था. बाद में तीनों दिल्ली चले आए. अनिल करंजई अकेले कला की मुख्यधारा से जुड़े रहे. अति यथार्थवादी शैली से शुरुआत कर वे भूदृश्यों की तरफ बढ़ गए थे. उनकी असामयिक मृत्यु से कला जगत ने एक संभावनाशील चित्रकार को खो दिया. शेष दोनों जीविकोपार्जन के चक्कर में व्यावसायिक कला की दुनिया में चले आए. उन दिनों प्रकाशित होने वाली अनेकानेक लघु पत्रिकाओं में इन तीनों कलाकारों की उपस्थिति देखी जा सकती है. ये तीनों कलाकार अब हमारे बीच नहीं हैं. जे स्वामीनाथन के आवरण की प्रिंटिंग का सारा कार्य करुणानिधान मुखर्जी ने बड़े मनोयोग से अपनी देख-रेख में कराया.

इस कविता-संग्रह का ब्लर्ब उस समय के चर्चित कवि सौमित्र मोहन ने लिखा था. कविताओं की विशेषताओं को उन्होंने इस तरह रेखांकित किया-

‘‘ज्ञानेन्द्रपति महत्त्वपूर्ण युवा कवि हैं यह कहना काफी नहीं होगा. उन्होंने कविता के मुहावरे को निजता दी है. वह कविता लिखते नहीं जीते हैं और यह सीधा अनुभव कविता में तब्दील होता है. ज्ञानेन्द्रपति के अपनी पीढ़ी के तमाम कवियों में विशिष्ट लगने का कारण भी यही है.

इस संग्रह की कविताएँ किसी चीज या केंद्रीय भाव या अनुभव के विकसित होने की प्रक्रिया की कविताएँ हैं- निर्णयात्मक परिणतियाँ इस कविता के क्षेत्रा के बाहर पड़ती हैं. यही वजह है कि इनमें चीजें अंकुराती हैं और अपने विकास-क्रम व आवेग के बल से बढ़ती हैं. यह विकास किसी अदृश्य गोलक में होता हुआ निपट अकेला नहीं है. उसका हमेशा कोई साक्षी है. हमारी सभ्यता का प्रातिनिधिक साक्षात्कार उसमें निहित है. यह जीवन के निकट आने की ललक न होकर स्वयं जीवन है.”

उपर्युक्त कथन को इस आलोक में देखने की जरूरत है कि जिस कंजूसी और संकीर्णता से ग्रस्त हिन्दी कवि अपने और अपने मित्रों के सिवाय दूसरों पर बोलने और लिखने से बचते रहे हैं वहाँ वैचारिक स्तर पर दो विपरीत ध्रुव पर स्थित होने के बावजूद एक वरिष्ठ कवि अपने बाद की कविता और कवियों को कितनी बारीकी से देख और रेखांकित कर रहा था. वरिष्ठ कवि ‘अकविता आंदोलन’ का सिरमौर कवि था और युवा कवि वास्तविक जीवन के प्रवाहमान दृश्यों को अपनी कविता में रेखांकित कर रहा था. उन दिनों अनौपचारिक मित्राताओं में ‘श्रेय लेने’ या ‘श्रेय देने’ जैसे भाव गैर जरूरी लगते थे. ‘उत्कृष्ट कविता का सम्मान’ सिर्फ यही एक सूत्रा इन दो कवियों को एक साथ जोड़ता था.

इस कविता-संग्रह का प्रकाशन 1980 के अक्टूबर माह में हो गया था लेकिन समाप्त होते हुए वर्ष को देखकर उस पर प्रकाशन वर्ष 1981 देना उचित प्रतीत हुआ.

इस कविता-संग्रह पर विस्तार से लिखने का कारण इसकी प्रकाशन-प्रक्रिया का पुनः स्मरण करने के साथ यह भी है कि अब ‘शब्द लिखने के लिए ही यह कागज बना है’ संग्रह अतीत हो चुका है. मनुष्य की तरह किताब भी निश्चित नियति और गति को प्राप्त होती है. इस संग्रह की कविताएँ ‘आँख हाथ बनते हुए’ की कविताओं के साथ ज्ञानेन्द्रपति के 2006 में प्रकाशित कविता-संग्रह ‘भिनसार’ का नया कलेवर धारण कर चुकी हैं.

ज्ञानेन्द्रपति ने वर्ष 1989 में ‘कारा एवं सुधार सेवा’ के अपने पद से त्यागपत्र दे दिया. उनकी आकांक्षा दूसरों के दिए उधार पर जीने की बजाए अपनी शर्तों पर अपनी तरह से पूर्णकालिक कवि का जीवन जीने की थी. बनारस उन्हें अपने स्वभाव और मनोवृत्ति के अनुकूल प्रतीत होता था. वर्ष 1987 से 1989 के बीच उनकी वाराणसी आवाजाही बनी रही. वर्ष 1989 से उन्होंने वाराणसी को पूरी तरह अंगीकार कर लिया.

वर्ष 1994 से वर्ष 2000 के बीच मेरा वाराणसी दो-तीन बार जाना हुआ. अपनी इन यात्राओं में ज्ञानेन्द्रपति और उनकी दिनचर्या को नजदीक से देखने का अवसर मिला. उनके निवास पर कबीर चौरा के प्रमुख महंत विवेक दास से हुई भेंट का स्मरण मुझे आज भी है. ज्ञानेन्द्रपति की ‘विवेक दास’ शीर्षक से लिखी कविता मैं पढ़ चुका था. विवेक दास कुछ दिन पहले ही फ्रांस की यात्रा से लौटे थे और उनकी कलाई पर महंगी घड़ी सजी थी.

संध्याचार के लिए ज्ञानेन्द्रपति मुझे अपने साथ लेकर नियमित सैर पर निकले. सबसे पहले वह पत्र-पत्रिकाओं के स्टाल पर पहुँचे और अंग्रेजी के कुछ दैनिक अखबार और पत्रिकाएँ लेने के बाद मिष्टान्न की दुकान पर कुछ मिठाइयों का सेवन कराया. इसका नाम ‘असरकारी भांग की दुकान होना चाहिए’, कहते हुए वह ‘सरकारी भांग की दुकान’ की ओर बढ़े. वहाँ उन्होंने भांग की गोली ली और पानी का इस्तेमाल न कर उसे जीभ पर रख धीरे-धीरे मुँह में घुलाते हुए चलने लगे. दूसरे शहरों के लिए भांग चाहे कुछ अन्य अर्थ रखती हो लेकिन बनारसवासियों के लिए यही भांग उनके भीतर बनारसीपन भरती है. कहते हैं कि बनारसी संस्कृति में रचे-बसे व्यक्ति की धमनियों में प्रवाहित लहू का परीक्षण यदि किसी माइक्रोस्कोप से किया जाए तो उसमें भांग का हरा रंग भी दिखाई दे जाएगा. बनारस की छोटी-छोटी गलियों से निकालते भारतेंदु हरिश्चंद्र की हवेली (भारतेन्दु-भवन) और दालमंडी की नारियल वाली गली से गुजरते हुए जयशंकर प्रसाद की पुश्तैनी तम्बाकू की दुकान जो सुंघनी साहू की दुकान के नाम से ख्यात है, से जुड़े दिलचस्प किस्से सुनाते दशाश्वमेघ घाट पहुँचे. वहाँ उन्होंने अपने परिचित नाविक की तलाश की और फिर उसकी नौका में सवार हो हम मणिकर्णिका घाट की ओर निकले. घाट के किनारे बनी हवेलियों के इतिहास और वर्तमान के बारे में बताते हुए वह एक अच्छे किस्सागो लग रहे थे. नाव से उतरते ज्ञानेन्द्रपति बोले- ‘‘आपके लिए यह सिर्फ एक नाव है जैसे सड़क पर जाता हुआ आदमी. आँख-नाक-कान आदि अनेक अंगों ने उसे आदमी की शक्ल दी है. आदमी की तरह नाव के भी अनेक अंग हैं.’’ फिर ज्ञानेन्द्रपति ने नाव के ऊपरी हिस्से से शुरू कर उसके एक-एक अंग के नाम और उनके बारे में मुझे विस्तार से बताया.

ज्ञानेन्द्रपति ने नाव के बारे में ये जानकारियाँ दशाश्वमेघ घाट के एक वरिष्ठ मल्लाह के साहचर्य में अपना काफी वक्त गुजारने के बाद बटोरी थीं. उस मल्लाह की उम्र उस समय नब्बे साल की होगी. युवा मल्लाहों को नाव के अंग-प्रत्यंगों के बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं. वैसे भी ‘गंगातट’ से ‘गंगा-बीती’ तक आते-आते चप्पू चलाने वाले हाथों की संख्या तेजी से कम होती चली गई है. कुछ सालों में चप्पू चलाने वाले हाथ अदृश्य हो जाएँगे और नावों की खाली जगह मोटरबोट, बैटरी चालित नावें और स्टीमर भर रहे होंगे.

कागज और कलम हमेशा ज्ञानेन्द्रपति की जेब में रहते. घूमते हुए यदि कोई दृश्य, घटना, बिम्ब या पात्रा उन्हें विचलित करता तो एक दो पंक्तियाँ अथवा सूत्रा रूप में कुछ शब्द अवश्य नोट कर लेते.

तीन-चार घंटे की सैर उनकी नियमित दिनचर्या का हिस्सा होती. वापस लौट अखबारों को पढ़ते, पत्रिकाओं को उलटते-पलटते और यदि उन्हें लगता कि कोई महत्वपूर्ण तथ्य उनमें दर्ज होने से छूट गया है तो वह अपनी डायरी में उस छूटे हुए सत्य और उन जेब में रखे कागज के शब्दों को सूत्र रुप में या विस्तार से अपने विचारों के साथ लिपिबद्ध करते. उनकी डायरी में दर्ज ये टिप्पणियाँ कभी पुस्तकाकार प्रकाशित हुईं तो उन्हें पढ़ना अपने समय के इतिहास को एक संवेदनशील कवि की आँख से देखना होगा. ये ही देखे और अनुभूत किए दृश्य बाद में उनकी कविताओं का कलेवर धारण करते. भोर के समय जब बनारस जाग रहा होता तब वह सोने की चेष्टा कर रहे होते. इतने साल गुजरने के बाद ज्ञानेन्द्रपति की दिनचर्या में कुछ परिवर्तन आया है या नहीं इस बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं.

‘वरुणा’ और ‘असी’ के बीच गंगा के तट पर बसी यह नगरी वाराणसी आध्यात्मिक दृष्टि से देखने पर काशी हो जाती है लेकिन जनमानस में यह बनारस के नाम से ही स्वीकृत है जोकि एक सामासिक संस्कृति का परिचायक है. बनारस में बसने वाले सभी लेखकों और कवियों ने इसमें अपने-अपने बनारस को ढूँढा और उसे रचनात्मक रूप से व्यक्त किया. केदारनाथ सिंह की बनारस पर लिखी एक मशहूर कविता है. बाद के दिनों में केदारनाथ सिंह दिल्ली वासी हो गए. धूमिल अपने समय के सबसे बेजोड़ कवि हैं जिनकी कविताओं में प्रतिरोध और राजनीतिक स्वर के साथ-साथ भाषा की चमक दिखाई देती है. उनकी कविताओं में बनारसी मिजाज को भी चीन्हा जा सकता है. त्रिलोचन बनारस के जनजीवन के चितेरे हैं जिनकी कविताओं में बनारस का जीवन-प्रवाह देखा जा सकता है. एक प्रकार से ज्ञानेन्द्रपति को त्रिलोचन की परंपरा का संवाहक कवि कहा जा सकता है.

ज्ञानेन्द्रपति की कविताएँ त्रिलोचन से एक मायने में भिन्न हैं कि उनकी कविताओं में सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक पराभव की आहटें आप अधिक स्पष्टता से सुन सकते हैं. वर्ष 2000 में आए उनके कविता-संग्रह ‘गंगातट’ में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद ज्ञानवापी मस्जिद के इर्द-गिर्द कर्फ्यू और उस घटना से झनझनाते बनारस की झलकियाँ भी देखी जा सकती हैं.

वर्ष 2004 में प्रकाशित उनका कविता-संग्रह ‘संशयात्मा’ (वर्ष 2006 का साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त) बहुआयामी संग्रह है, जिसकी बुनियाद में पर्यावरण प्रमुख चिंता है. उनके इस कविता-संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए मलयालम की साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त प्रसिद्ध कवयित्रा सुगता कुमारी का स्मरण हो आता है. सुगता कुमारी की कविताओं में पर्यावरण एक प्रमुख विषय के रूप में उपस्थित हुआ है. ‘वर्षा काल की हरियाली’ जैसी उनकी कविताओं के साथ ज्ञानेन्द्रपति के कविता-संग्रह ‘संशयात्मा’ की अनेक कविताएँ रखी जा सकती हैं. सुगता कुमारी का अभी पिछले वर्ष 23 दिसंबर 2020 को कोरोना से ग्रस्त होने के बाद निधन हुआ.

वर्ष 2013 में प्रकाशित उनके कविता-संग्रह ‘मनु को बनाती मनई’ की कविताओं के केंद्र में स्त्री है तो ‘गंगातट’ के बीस साल बाद 2019 में प्रकाशित उनके कविता-संग्रह ‘गंगा-बीती’ की कविताएँ भूमंडलीकरण और बाजारवाद के हाथों मरती गंगा और बनारस का महाख्यान हैं.

आह! लेकिन स्वार्थी कारखानों का तेजाबी पेशाब झेलते

बैंगनी हो गई तुम्हारी शुभ्र त्वचा

हिमालय के होते भी तुम्हारे सिरहाने

हथेली भर की एक साबुन की टिकिया से

हार गई तुम युद्ध

(‘गंगातट’ से)

वर्ष 2014 में देश में हुए परिवर्तन के बाद के बनारस और गंगा के सांस्कृतिक पराभव की गूंज आप ‘गंगा-बीती’ संग्रह की कविताओं में सुन सकते हैं.

ज्ञानेन्द्रपति की पुस्तक-निर्माण की प्रक्रिया अन्य कवियों से भिन्न है. अधिकांश कवि प्रायः अपने पहले प्रकाशित कविता-संग्रह के बाद लिखी गई कविताओं को दूसरे संग्रह में सम्मिलित करते हैं जबकि ज्ञानेन्द्रपति के कविता-संग्रह एक विशेष बिंदु पर केंद्रित विचार-सूत्रों को समेटे होते हैं जिसके कारण उनके प्रत्येक कविता-संग्रह में कुछ कविताएँ बहुत पहले की लिखी होती हैं तो कुछ बाद की. इस दृष्टि से उनके वर्ष 2020 में प्रकाशित कविता-संग्रह ‘कविता भविता’ को भी देखा जा सकता है जिसका केंद्रीय विषय कविता की रचना-प्रक्रिया है.

ज्ञानेन्द्रपति अपनी कविताओं में अनेक स्थलों पर पौराणिक मिथकों और आख्यानों को प्रयुक्त करते हैं. पाठक को यदि उनकी जानकारी नहीं है तो कविताएँ अपना सम्पूर्ण अर्थ खोलने से इनकार कर सकती हैं.

वर्ष 2007 में प्रतिष्ठित पहल सम्मान से ज्ञानेन्द्रपति को सम्मानित करते हुए वाराणसी में संपन्न सम्मान समारोह में पहल संपादक और वरिष्ठ कथाकार ज्ञानरंजन ने कहा था कि ज्ञानेन्द्रपति अभी भी बनारस का खनिज टटोल रहे हैं. बनारस में उन्हें बहुत कुछ मिला मगर जितना मिला उससे कहीं अधिक पाने की पिपासा उनमें दिखाई पड़ती है.

‘साखी’ के नवीनतम अंक में ‘कोरोना-कवलित काल-खंड में’ शीर्षक के अंतर्गत प्रकाशित ज्ञानेन्दपति की तेरह कविताएँ ज्ञानरंजन के कहे का एक बार फिर समर्थन करती हैं. कोरोनावायरस के चलते पिछले दो साल से अपने-अपने घरों में कैद कवियों की इस दौरान लिखी गई अधिकांश कविताओं की तरह ये एकांतिक अवसाद, इकहरे दृश्यों या अनुभूतियों की कविताएँ नहीं हैं. स्मृति-संपन्नता के साथ इतिहास-बोध समेटे ये कविताएँ उस वैकल्पिक इतिहास को कविता में दर्ज करती हैं जिसकी कोई उपस्थिति आपको बदरंग मीडिया में नहीं दिखाई देगी.

‘अबके, नागपंचमी में’ कवि पड़ोस में बसी निर्धन बस्ती के छोटे-छोटे बच्चों की उन आहटों और पुकारों और द्वार-घंटी की देर तक बजने वाली खिलंदड़ी ध्वनियों को जो नागपंचमी के दिन सुनाई देती थी इस बार तालाबंदी के दौरान अनुपस्थित पाता है-

नाग ले लो जी, नाग ले लो

बड़े गुरु का! छोटे गुरु का!

नाग ले लो!

बड़ा बच्चा यानी बड़ा गुरु छोटा बच्चा यानी छोटा गुरु. बड़ा गुरु यानी ‘अष्टाध्यायी’ का रचयिता महान वैयाकरण पाणिनि और छोटा गुरु ‘महाभाष्य’ का कर्ता पतंजलि.

कवि इन स्वरों का पीछा करते हुए बनारस के जैतपुरा में चारों तरफ से उतरती सीढ़ियों वाली बावड़ी के पास चला आता है. जनश्रुति में यह बावड़ी ‘नागकूप’ के नाम से विख्यात है. जिसके चौकोर जल के नीचे से पाताल को जाता गुप्त रास्ता है जो सीधे नागलोक पहुँचाता है, जिसके पावन पड़ोस में कभी पाणिनि और पतंजलि ने अपनी अमर कृतियाँ रची थीं.

महानगर से तिरस्कृत अपने-अपने गाँव लौटने को मजबूर जालौर से औरंगाबाद रेल की पटरियों पर गहरी नींद में सोये मजदूरों के कुचले हुए जिस्म, मांस के लोथड़े, छितरायी रोटियाँ और पिचके टिफिन के विचलित करने वाले दृश्य अभी भी हमारी स्मृति में हैं लेकिन ज्ञानेन्द्रपति ‘साक्षी चाँद’ कविता में बांग्ला कवि सुकांत भट्टाचार्य की कविता के पूर्णिमा का चाँद जिसे उन्होंने झुलसी हुई रोटी की तरह देखा था और संस्कृत के कवि-नाटककार भास के नाटक ‘दरिद्र चारुदत्त’ के उज्जयिनी में उगे पूर्णचंद्र को याद करते हुए इसे एक अविस्मरणीय त्रासदी के रूप में काव्यांतरित कर देते हैं.

श्मशान घाट में शवों की दुर्दशा देख उन्हें शब्दर्षि यास्क का निरुक्त में किया एक निर्वचन याद आता है-

श्मशान श्म शयन है वस्तुतः

यानी जहाँ शरीर को सुलाया जाता है

यह ‘मुँह फेर लेंगे’ कविता की पंक्तियाँ हैं, लेकिन कई अर्थपूर्ण ध्वनियां हमें कविता के बाहर सुनाई देने लगती हैं. जैसे कि श्मशान और कब्रिस्तान में कोई फर्क नहीं है. ऋषि यास्क के समय और उसके बाद भी शवों को लिटाये जाने यानी दफनाने का प्रचलन था. यह भी संभव है कि आपको कर्नाटक के हिन्दू धर्मावलंबी लिंगायत समुदाय की शव दफन करने की परंपरा का भी स्मरण हो आए और इसके साथ सुप्रसिद्ध पत्रकार गौरी लंकेश का भी. यह भी स्मरण हो आए कि जनता की क्षणभंगुर स्मृति और सांस्कृतिक परंपरा से अनभिज्ञ होने का लाभ उठाते हुए हिन्दुत्ववादी राजनीतिक दल ने एक प्रांत विशेष का चुनाव जीतने के लिए ‘श्मशान बनाम कब्रिस्तान’ का मुद्दा बेहद बेशर्मी से उठाया था.

‘रहबर रहमदिल’ कविता की प्रारंभिक पंक्तियां हैं-

कोरोना काल में

खिड़कियाँ दरवाजे बंद किए

करुणा-प्लावित कविताएँ लिख रहे हैं कविगण

फेसबुक पर लाइव हो रहे हैं

लाइक्स लूट रहे हैं

और रफीक मियां रमजान के महीने में देवास से गुजरती शाहराह की दुफक्की पर खड़े होकर बिहार-यूपी के अपने गाँवों को पैदल लौटते मजदूरों को छोटा रास्ता बताते हुए सुबह से शाम तक खड़े रहते हैं. यही वह नेक काम है जिसे उन्होंने रमजान के महीने में करने को चुना है. बगल का खेतिहर अनिल ताजा ककड़ी उन्हें सौंपता है ताकि रफीक मियां मगरिब की नमाज के बाद अपना रोजा उसकी दी हुई ककड़ी से खोलें.

यहाँ कवि आत्म-प्रश्न करता है-

कौन लिख रहा है कोरोना काल की सच्ची कविता

घरबंद कवि

या पिघलते-से कोलतार वाली तपती सड़क पर खड़ा

वह रहबर रहमदिल

पूछता हूँ मैं खुद से.

भारत की सांस्कृतिक जीवन-परंपरा का यह ताना-बाना इस कविता का आंतरिक सत्य है और विध्वंसकारी राजनितिक सत्ता इसे किस तरह ध्वस्त करने में जुटी है, इसका अहसास कविता के साथ-साथ रहता है.

गोद में नन्हा बच्चा और सिर पर गठरी-मोटरी सम्हालती औरतें, नदी किनारे रेती पर मंडराते गिद्ध-चील-कौए, ‘मृत्यु-उपत्यका हो रहे देश’ को देख नवारुण भट्टाचार्य की कविता-‘मृत्यु-उपत्यका नहीं है यह मेरा देश’, कोरोना माई की पूजा के लिए अड़हुल के फूल खोजती म्लान औरत और उसके लिए सहानुभूति से विकल महिला डाक्टर… ऐसे अनेकानेक दृश्य, ध्वनियां और आहटें इन कविताओं को अनेकार्थी बनाते हुए एक विशेष काल-खंड के वैकल्पिक इतिहास-निर्माण का कार्य भी करते हैं.

एक कहानीकार की दृष्टि से जब मैं ज्ञानेन्द्रपति की रचना प्रक्रिया और उनकी अद्यतन संपूर्ण कविताओं को एक साथ देखता हूँ तो मुझे उनकी कविताएँ औपन्यासिक वितान रचती अपने समय का एक महाख्यान लगती हैं.