कागज के फूल आज भी महक रहे हैं / जयप्रकाश चौकसे

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कागज के फूल आज भी महक रहे हैं
प्रकाशन तिथि : 10 जुलाई 2019


नौ जुलाई गुरुदत्त का जन्म दिन था और फिल्म उद्योग ने उनका स्मरण भी नहीं किया। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं। हम वर्तमान के पलों में इतने रमे हुए हैं कि विगत के विषय में कुछ सोचना ही नहीं चाहते। गुरुदत्त, रहमान और देव आनंद प्रभात फिल्म कंपनी में काम करते थे। उन्हीं दिनों देव आनंद ने गुरुदत्त को वचन दिया था कि अवसर मिलते ही वे गुरुदत्त को फिल्म निर्देशित करने के साधन जुटा देंगे और वही उन्होंने किया भी। गुरुदत्त ने अपने प्रारंभिक दौर में अपराध फिल्में बनाई और किसी को अहसास नहीं था कि यह व्यक्ति सीने में 'प्यासा' और 'कागज के फूल' दबाए सही समय की तलाश में है। ज्ञातव्य है कि 1951 में उन्होंने 'कश्मकश' नामक कथा लिखी और अपनी विदुषी मां को पढ़ने को दी थी। उनकी मां को कथा पसंद आई परंतु उस पर आधारित फिल्म की संभावना उन्हें अत्यंत क्षीण लगी थी।

यह 'कश्मकश' ही 'प्यासा' के नाम से बनाई गई और इसी फिल्म के एक गीत में गुरुदत्त ने अपने अंत का संकेत भी दे दिया था 'ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है'। दुनिया में सफलता और ऐश्वर्य के खोखलेपन से गुरुदत्त हमेशा ही वाकिफ रहे थे। मीडिया में बहुत बड़ा भ्रम यह रचा गया कि गुरुदत्त को वहीदा रहमान से प्रेम हो गया था। उन्होंने कुछ वर्ष पूर्व ही गायिका गीता दत्त से प्रेम विवाह किया था। दरअसल, गुरुदत्त की फिल्म 'साहब, बीबी और गुलाम' में ढहते सामंतवादी परिवार में एक बहू अपने पति का प्यार पाने के लिए उसी के इसरार पर शराब पीने लगी थी। पति का प्रेम तो उसे मिल गया परंतु शराबनोशी उससे छोड़ते नहीं बनी। यह असहायता ही उसकी त्रासदी थी। कुछ ऐसा हुआ कि मीना कुमारी भी अपने जीवन में बेतहाशा पीती रहीं और उनके लिए पार्श्वगायन करने वाली गीता दत्त भी आदतन पियक्कड़ हो गईं। नागपुर के एक शो में गीता दत्त अधिक शराब पीने के कारण कार्यक्रम नहीं दे पाईं और आयोजकों को भारी घाटा हुआ। आयोजक गुरुदत्त से मिला और उन्होंने उसकी भरपाई कर दी। उसी रात उन्होंने अधिक मात्रा में नींद की गोलियां खाकर अपने कश्मकश भरे जीवन का अंत कर लिया।

अपनी मृत्यु के कुछ समय पूर्व वे 'कनीज़' नामक पटकथा लिख रहे थे, जो 'अलीबाबा चालीस चोर' से प्रेरित थी परंतु इस फंतासी को वे वर्तमान से जोड़कर वर्तमान के खोखलेपन को प्रस्तुत करना चाहते थे। इसी के लिए उन्होंने राज कपूर से अलीबाबा की भूमिका अभिनीत करने की बात की थी और राज कपूर ने सहर्ष प्रस्ताव स्वीकार भी किया था। उन दिनों गुरुदत्त और राज कपूर टेनिस खेलने जाते थे। उस भयावह रात गुरुदत्त ने राज कपूर को फोन करके तुरंत उनके घर आने को कहा था। वे अपने नैराश्य के सागर में तिनके का सहारा खोज रहे थे। राज कपूर स्वयं काफी पी चुके थे और रात में कोई ड्राइवर भी उपलब्ध नहीं था। इसी दुर्घटना के बाद राज कपूर ने रात पाली के लिए एक ड्राइवर नियुक्त किया था।

इस तरह गुरुदत्त जैसे असाधारण प्रतिभाशाली फिल्मकार की असमय मृत्यु हुई। उनके जीवन के खंडहर की खुदाई हम 'साहब बीबी गुलाम' में प्रस्तुत सामंतवादी हवेली की खुदाई की तरह करें तो जर्जर हवेली की नींव में कई कहानियों के कंकाल खोज पाएंगे। हर आम आदमी भी जाने कितने अनकहे फसाने दिल में लिए विदा हो जाता है। जितनी कथाएं लिखी गईं उनसे कहीं अधिक कहानियां अनलिखी रह जाती हैं। पृथ्वी इन्हीं अनलिखी कहानियों की धुरी पर घूम रही है।

ज्ञातव्य है कि गुरुदत्त ने उदयशंकर की नृत्य प्रशिक्षण पाठशाला में दाखिला लिया था। अलमोड़ा स्थित इस विलक्षण विद्यापीठ में हर छात्र को स्वयं द्वारा बनाया एक नृत्य प्रस्तुत करना होता था गोयाकि छात्र स्वयं अपना प्रश्न-पत्र बनाता था और उत्तर भी देता था। गुरुदत्त ने नृत्य प्रस्तुत किया, जिसमें नाचने वाले के जिस्म पर एक सर्प मौजूद है। सांप का जहरीला फन नाचने वाले के हाथ में है और वह उसे जान से बचाने का प्रयास करते हुए नृत्य कर रहा है। यह जीवन में हर क्षण मौजूद मृत्यु का विवरण था, जिसे हमजाद कहा जाता है। मनोहर श्याम जोशी की 'कुरुकरु स्वाहा' में इसका विवरण दिया गया है। गुरुदत्त सारा जीवन इसी हमजाद की कश्मकश को जीते रहे।

मृत्यु मनुष्य की हमसफर, हमसाया है। इसी तड़प को गालिब ने बयां किया है कि कोई ऐसी किरण हो, जिसके नीचे वे अपनी परछाई से पीछा छुड़ा सकें। चेतन आनंद की 'कुदरत' के लिए कतील शिफाई का लिखा गीत याद आता है 'खुद को छुपाने वालों का, पल पल पीछा ये करे, जहां भी हो मिटे निशां, वहीं जाके पांव ये धरे, फिर दिल का हरेक घाव, अश्कों से ये धोती है, दुख सुख की हर एक माला, कुदरत ही पिरोती है, हाथों की लकीरों में, ये जागती सोती है'। गुरुदत्त के कागज के फूल आज भी महकते हैं। उन्हें मुरझाने का कोई खतरा नहीं है।