काग-चेष्टा, बको-ध्यानं, बैल-प्रवृत्ति... / कमलेश पाण्डेय

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जम्बूद्वीप का कोई रजत या कांस्य काल होगा. सम्राट तिकड़मादित्य के साम्राज्य का एक ग्राम.

ब्राम्ह मुहूर्त है. निरीहानंद स्नानादि के उपरान्त बैलों को गाड़ी में जोतने का उपक्रम कर रहे हैं. ऊंघते बैलों ने गर्दन दायें-बाएं हिलाकर आपत्ति जताई है. वे कहते हैं- शीघ्र उठो धृष्ट बैलों! यदि समय रहते मंडी न पहुंचे तो हमारा ही नहीं तुम दोनों का चारा भी न मिलेगा.

कुछ ही क्षणों में गाड़ी ग्राम के कंद-मूल व अन्नादि की मंडी की दिशा में छूट भागती है. मार्ग में निरीहानंद बैलों से वार्तालाप करते जाते हैं क्योंकि वही तो उनके संगी साथी और समस्त परिस्थितियों के राज़दार हैं.

“जाने सम्राट को ये क्या सूझी. विद्याश्रम में बाल-गोपालों के हेतु मध्य-दिवस कंद-मूल व भोजन-वितरण का आखिर क्या औचित्य है. आचार्य और छात्र-गण यों भी शिक्षा का लेन-देन कर ही रहे थे. जिसे पढ़ना होता स्वयं पधार जाता था. पहले तो सम्राट ने किसी मूढ़ मंत्री के परामर्श पर सबको शिक्षा अनिवार्य कर दी, ले आओ विद्यार्थी घर–घर से पकड़ कर और पढाओ. अब ये लो! करो सबके लिए भोजन की व्यवस्था. पिटवा दी डुग्गी कि सभी बालक-बालिकाओं को दिन का भोजन सम्राट ही करवाएंगे. दो सहस्त्र मुद्राएँ हर ग्राम को हर माह राजकोष से मिल रही हैं. तिस पर ये आदेश कि शिक्षक ही ग्राम–पिता से मुद्रा लेकर इस भोजन की व्यवस्था करेंगे. अब ग्राम–पिता तो ग्राम–पिता ही ठहरे, समस्त व्यवस्था मेरे ही कोमल कंधों पर डाल दी है..”, नन्द अंटी में बंधी मुद्राओं को स्पर्श कर ऊर्जा ग्रहण करते हुए बैलों को बताते हैं, “सम्राट सारी प्रजा को साक्षर करना चाहते हैं. क्या उन्हें ज्ञात नहीं कि ये उनके स्वास्थ्य के लिए कदापि हितकर नहीं है? “

नन्द एक समर्पित युवा शिक्षक हैं. बाल-गोपालों को अक्षर-ज्ञान देने से लेकर चलचित्रों की कथाएं तक बड़े चाव और संलग्नता से सुनाते हैं. उन्हें प्रायः ये अनुभव होता है कि ईश्वर ने उन्हें बाल-गोपालों को पढ़ाने हेतु ही पृथ्वी पर भेजा है. ये प्रतीति उन्हें तब से हुई जब कई बार राजकीय सेवा के लिए होनेवाली प्रतियोगी परीक्षाओं में धूलधूसरित होने के बाद वे राजकीय शिक्षक बन कर संतुष्ट हो लिए. नगर में शिक्षण करते हुए, ट्यूशन-आदि के द्वारा अच्छी मुद्रा अर्जित करते हुए जीवन बड़े आनंद से कट रहा था कि सम्राट की नई शिक्षा-नीति आ गई और ग्राम-ग्राम में विद्यालय खुल गए. उन्हें भी नगर के आश्रम से उठा कर जमुनापुरी उच्च-माध्यमिक विद्यालय में भेज दिया गया. ग्रामीण विद्यालयों के विषय में जैसा उन्हें ज्ञात था वहां भी आरम्भ मे सुख ही सुख मिला. छात्रों से संसर्ग के अवसर यदा-कदा ही आते और दुग्ध-घी और शाक-फलादि के उपहार मिलते ही रहते. प्रायः शिक्षक-गण नगर में निवास करते हुए ही ग्राम में शिक्षण कर लेते थे. वे भी नित्य-प्रति निकटवर्ती ग्राम में अपनी भार्या से मिलन कर आते थे और कई बार वहीं रहते हुए यहाँ शिक्षण करते रहते. किन्तु इधर सम्राट का ग्रामों के प्रति प्रेम बढ़ता जा रहा है और उनकी कृपा ग्रामों पर मेघ की भाँति बरसने लगी है. सम्राट के ग्राम-प्रेम और विद्याश्रमों में इस मध्य-दिवस भोजन के कार्यक्रम ने उनका जीवन नरक-तुल्य कर दिया है.

मंडी पंहुच कर वे दो-सौ विद्यार्थियों के लिए कंद-मूल-अन्न आदि का संधान करते हुए उन स्थलों पर जाते हैं जहां ग्रामीण बालक-बालिकाओं की पाचन शक्ति के उपयुक्त वस्तुएं उपलब्ध हों. पर्याप्त श्रम के उपरांत वे कुछ ऐसे पदार्थ ढूँढने में सफल हुए हैं जो अब तक मनुष्यों के खाने योग्य भी हैं और न्यूनतम मूल्य में ही उपलब्ध हैं. प्रति छात्र पांच दमड़ी बचा लेने की आश्वस्ति के बाद उन्होंने भोज-पत्र पर लेखा-जोखा अंकित कर आढ़ती से अंगूठा लगवाया है और आगे भी उसी आढ़ती से नियमित क्रय करने का आश्वासन देकर सारी सामग्री गाड़ी में लदवाय के लौट पड़े हैं. मार्ग में एक मनोरम स्थल पर रुक कर निज सेवन हेतु अलग रखे उत्तम-प्रकार के फलों से जलपान कर वे विश्राम-लीन हो गए हैं.

पर शिक्षक को विश्राम कहाँ! नेत्र मूंदते ही उन्हें चिंता ने घेर लिया है. कितना कार्य शेष है अभी. ग्राम पहुँचने तक कक्षाएं लग गयी होंगी. बालकों ने गायों का दूध दुह लिया होगा और बालिकाएं विद्यालय प्रांगण को बुहार कर गोबर से लीप रही होगी. चपला हैं ये बालिकाएं- परस्पर वार्ता करती हुई कार्य करती हैं, जाने मुख चलता रहता है तो हाथ क्यों रुक जाते हैं. कुछ अधीर किस्म के बालक कक्षाओं में जा बैठे होंगे और आपस में सामान्य ज्ञान बाँट रहे होंगे. शेष तो विद्यालय प्रांगण से निकट स्थित मधुवन में भांति-भाँति की क्रीडाओं में लीन होंगे ही. इस समूचे परिदृश्य में शिक्षक हेतु रिक्त स्थान कहाँ पर है- निरिहानन्द कौतुकपूर्ण जिज्ञासा में डूबे हैं.

कितना कार्य शेष है. गत माह राज्यादेश से जो जनगणना की गयी थी, उसके आंकड़ों को भोज-पत्रों पर टंकित करने का अवकाश ही न मिला. जनगणना वास्तव में संपन्न हुई होती तो आंकड़े होते भी- यहाँ तो अपनी कल्पनाशक्ति के भरपूर दोहन से विविध प्रकार के खानों को भरना है. कैसी विकट प्रश्नावली भिजवाई है सम्राट के मंत्री ने – धर्म-जाति, भार्या व् बच्चों की संख्या, आजीविका और आय के स्त्रोत के अलावा गृह में खाटों और घड़ों की संख्या भी जानने की उत्कंठा क्यों है सम्राट को?

कल ही आये नए आदेश में तो अति है. ग्राम में कितने वृक्ष हैं, कितने तडाग और कितनी पगडंडियाँ? यों नियमित चल रही ढोर –डंगरों की गणना में भी क्या तर्क संगत है. क्या पशुओं से जिज्ञासा करते फिरें कि तुम्हारे सींग कितने हैं और दिन-भर में कितना गोबर करते हो? कभी आर्थिक जनगणना तो कभी बौद्धिक. कभी मूढ़मतियों की गणना तो कभी मति-भ्रष्टों की. समझ में नहीं आता कि सम्राट चाहते क्या हैं, और चाहते भी हैं तो हम शिक्षकों से ही क्यों चाहते हैं- निरिहानंद किसी मधुमक्खी की भाँति भुनभुनाये.

आये दिन अपने स्वर्ग-सदृश प्रासादों में बैठे सम्राट के ये मंत्री उनके कानों में नए-नए पिंगल-मन्त्र पढ़ते रहते हैं. दामिनी जो है सो हम शिक्षकों पर गिरती है. राज-वैद्य ने कह दिया कि दुधमुहें बालकों को हर माह मधु चटाने से पोलियो नामक रोग न होगा. बस क्या था- ग्राम-ग्राम दो मधुघटों के साथ पठा दिया आदेश कि प्रत्येक शुक्ल-पक्ष चतुर्दशी को उस ग्राम का राजकीय शिक्षक नवजात शिशुओं के मुख में दो बूँद मधु के डलवायें. लो! अब हर पूर्णिमा को होने वाले अवकाश में भार्या से मिल आने का अवसर भी जाता रहा. चतुर्दशी को अर्द्ध-दिवस का कार्यभार अपने साथी शिक्षक मूढानन्द को देकर ही तो अपने ग्राम निकल पाते थे.

सूर्य को क्षितिज पर चढ़ता देख निरिहानन्द घबडा कर उठ बैठे हैं. उनींदे बैलों को चैतन्य किया है और गाड़ी में जोत कर चल पड़े हैं. अभी चार कोस की यात्रा और है, एक प्रहर बीतने पर ही पहुंचेंगे. गाड़ी की मद्धम चाल के साथ-साथ उनका चिंतन भी मद्धम-मद्धम चलने लगा है और बैलों को संबोधित उद्गारों के रूप में प्रकट हो रहा है....”एक ही कर्म हो तो बताऊँ. विगत वर्ष ग्रामों की देखभाल हेतु ग्राम-पिता अथवा ग्राममाता के चयन का आदेश हुआ. लो- पुनः आरम्भ हुआ शिक्षकों का एक नवीन व्यायाम. द्वार-द्वार जाओ, नर-नारियों से उनका नाम और आयु पूछो. कैसे-कैसे तो विचित्र नाम होते हैं इन ग्रामीणों के- घड़ानन्द, चषकराम या कंचुकी देवी. आयु तो उनके देवों को भी स्मरण न हो. कोई कहे जिस वर्ष दुर्भिक्ष पडा था उसी वर्ष की श्रावण तृतीया को उसने अवतार लिया तो किसी को अपने भुजंग सदृश पुत्र का किसी अमावस्या-रात्रि को जन्मना याद होगा. कई तो राज-भय के मारे अपनी आयु सत्रह वर्ष ग्यारह माह ही बतावें. चलो, सूची बन गई, तब एक भोज वृक्ष पर चढ़ो, उसके पत्ते झाड़ कर सुखाओ. ये नाम-आयु-पता आदि उसपर अंकित कर राजधानी भेजो. क्या सम्राट को ज्ञात नहीं कि प्रजा किसे चुनेगी. सीधे उसे मनोनीत ही क्यों नहीं कर देते.

“क्या सम्राट की इच्छा है कि शिक्षकगण बालक-बालिकाओं की धाय-माता की भूमिका भी निभाएं? “गर्दभ को भी ज्ञान” नामक योजना के आदेश में शिक्षकों को छात्रों हेतु पोथियों, सरकंडे-दावात के अतिरिक्त वल्कल-वस्त्र, लंगोट-जनेऊ आदि का भी वितरक घोषित किया गया. ये पदार्थ नगर से सीधे मंजूषाओं में भरकर ग्राम भेजे जाते हैं. प्रथम बार हमने बाल-गोपालों की सूची तैयार कर वितरण की मंशा से जब सम्राट के इस उपहार को खोला तो मात्र अधोवस्त्र ही निकले. उत्तरीय वस्त्रों का कहीं पता न था. पोथियाँ, कलम-दावात और उनके थैले तो प्रति छात्र एक चौथाई ही थे. स्पष्ट था कि इस योजना के संचालक और वस्तुओं के प्रमुख वितरक ने जो कि शिक्षण-मंत्री महोदय के जामाता हैं, शेष वस्तुएं मार्ग में ही कुतर ली थीं. हमने भी सोचा कि ज्ञान कौन सा इन वस्तुओं पर ही आश्रित है सो उन्हें उसी मार्ग से वापस नगर पठवा दिया, जहां के विद्यालयों में ये वस्तुएं अनिवार्य मानी जाती हैं. बदले में जो मुद्रा अर्जित हुई सो अंततः शिक्षा के कल्याण में ही लगी. शिक्षक को शिक्षा से अलग थोड़े ही माना जा सकता है. अपने ग्राम पिता ने तो आगे जामाता श्री से सीधे संपर्क कर इन वस्तुओं की आवाजाही में व्यर्थ श्रम न कर, किंचित कम ही, पर मुद्राएँ ही भेजने का प्रस्ताव किया. परन्तु प्रमुख वितरक महोदय इस नेक प्रस्ताव पर अब तक तो सहमत नहीं हुए हैं.”

निरिहानंद ग्राम के सीवान से दो कोस की दूरी पर हैं अभी. चिंतन-चक्र चल रहा है. मष्तिष्क और काया दोनों क्लांत हैं. आँखें मुंदी जा रही हैं. किन्तु अभी तो ग्राम पहुँच कर भण्डार-गृह में प्रतीक्षा रत महाराजिन को निर्देश देना है कि भोजन में क्या पकेगा. वैसे ये कोई कठिन कार्य नहीं क्योंकि प्रायः सभी अवसरों पर चावल-दाल, शाक-कंद-मूल आदि को लवण-हल्दी के साथ एक विशाल हंडे में जलसमाधि दे कर नीचे काष्ठ सुलगा दिए जाते हैं. केवल पावस ऋतु को छोड़ कर, जब लकड़ी गीली होती है, इस प्रक्रिया से एक भोज्य-सा पदार्थ बन ही जाता है. शिक्षक को ही इस भोजन का परीक्षण भी करना होता है सो प्रथम बार उन्हें इस भोज्य वस्तु को जिव्हा पर रखना पडा था. तब से आज तक महाराजिन ही उनका भोजन अपने साथ ही अलग पका लेती है. उस स्वाद के स्मरण मात्र से निरीहानन्द के उदर में पचने का प्रयास कर रहे कंद-मूल बाहर आने को आतुर होने लगे तो उन्होंने चिंतन-धारा को कार्य-सूची के अगले मद की ओर मोड़ दिया. भोजन बनाने के निर्देश देने के पश्चात उन्हें ग्राम-पिता के दर्शनों को जाना है जहां आज की खरीद का लेखा प्रस्तुत करना होगा. वहीं रुककर कुछ काल तक ग्राम-पिता के चार उद्दंड बालकों और एक कोकिलवर्णा कन्या पर ज्ञान के छींटे मारने होंगे. निरिहानंद के अधरों पर एक मुस्कान तैर गयी. वस्तुतः ज्ञान तो वहां उन्हें ही प्राप्त होता है. वे दुष्ट बालक जाने-कहाँ-कहाँ से विचित्र प्रकार की सूचनाओं का संचय करते और उन्हीं पर ज्ञान-वर्षा करते रहते हैं. एक के पास चलचित्रों पर अद्यतन ज्ञान का भण्डार है तो दूसरा राष्ट्रीय क्रीड़ा चौपड का विशेषज्ञ है. ग्राम-भर में घटित होने वाले प्रेम-प्रसंगों और कन्या-पलायन आदि की अंतरिम और अंतिम सूचनाएं उन्हें वहीं प्राप्त होती हैं.

अस्तु, यहाँ से तो निकले, परन्तु विद्यालय लौटने तक तीसरा प्रहर आरम्भ हो चुका होगा. भूखे बाल-गोपाल भोजन के हंडे के चारों ओर खड़े अपना भाग ले लेने के प्रयास में लगे होंगे. भोजन वितरण के निरीक्षण का दायित्व भी उन्हीं का है. परन्तु भोजन हो तो उन्हें किसी विधि से बाँटें. वहां तो एक मलीदा-सा रखा होगा जो पात्रों में रखते ही बहने लगेगा. नन्हें बालकों के क्रंदन एवं घोर छीन-झपट में बलशाली की विजय के साथ ही ये समारोह भी समाप्त होगा और बाल-गोपाल श्रद्धानुसार शयन या क्रीडाओं में निमग्न हो जायेंगे. वे कार्यसूची के अगले मद अर्थात पशुगणना हेतु ग्राम के छूटे हुए भागों की ओर छूट भागेंगे.

उफ़! आज तो चतुर्दशी भी है. मधुघट आ पहुंचे होंगे. उनमें उचित मात्रा में गंगाजल मिश्रित करना और शेष मधु को ग्राम-पिता और स्वयं के लिए भण्डार-गृह में सुरक्षित रखवाना होगा. तत्पश्चात, ‘गर्दभ को भी ज्ञान’ योजना के पदार्थों को नगर-हाट भिजवाना, विविध-प्रकार की जन-गणनाओं को भोजपत्रों में अंकित करना व सहेजना, द्वार-द्वार घूम कर बैलों, गधों व मनुष्यों के विषय में सूचना एकत्र करना और आकस्मिक रूप से आये सम्राट के आदेशों के अनुरूप न जाने क्या-क्या करना अभी उनकी दिनचर्या के कर्तव्यों में शेष हैं.

उनकी चिंतित मुद्रा पर एक विचार ने अनायास मुस्कान का लेप कर दिया है. उन्हें ध्यान आया है कि शिक्षक होने के नाते उनका प्रमुख कर्तव्य अर्थात् बालकों को शिक्षा देना उनकी कार्य-सूची में कहीं नहीं है- अतः वे कर्तव्य-मुक्त हैं. उनके मुख से ‘सम्राट तिकड़मादित्य की जय’ का उद्घोष होने को ही है कि उनकी दृष्टि अपनी गाड़ी को खींचते बैलों पर पड़ी है. लौटते ही दोनों बैलों को ग्राम-पिता की भूमि पर हल चलाने में जोत दिया जाएगा. सायं काल ये बैल विद्यालय प्रांगण से सटे कोल्हू में तेल निकालने की क्रिया में भी उपयोग किये जाने हैं. किन्तु वे निर्विकार-भाव से अपने ऊपर लादे बोझ से निस्पृह मद्धिम गति से लीक पर चले जा रहे हैं.

निरीहानंद ने तत्क्षण एक प्रचलित सूक्ति में एक नया सूत्र जोड़ा है- काग-चेष्टा, बको-ध्यानं, ‘बैल-प्रवृत्ति’ और उसे अपनी आचार-संहिता में जोड़ कर उन्होंने आँखें मूँद लीं हैं.

बैलगाड़ी ग्राम में प्रवेश कर चुकी है.