काजी नजरूल इस्लाम / संजय कृष्ण

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चुरुलिया गांव का तालाब वैसे ही था, जैसे काजी नजरूल इस्लाम के समय में था। सौ सालों में कोई तब्दीली नहीं। जैसे तालाब में समय ठहर गया हो।

यह अप्रैल की आखिरी तारीख थी। 42 डिग्री तापमान। आसनसोल से चुरुलिया के लिए बस पकड़ा तो उसने डेढ़ घंटे में उनके गांव के बाहर उतार दिया। गांव में जाने वाली सड़क के दाहिने ओर एक तालाब है। दिन के डेढ़ बजे थे। सड़कों पर सन्नाटा पसरा था। एक-एक कदम चलना भारी पड़ रहा था। चलते हुए लगता, किसी कोयले की भट्टी से गुजर रहे हों।

यह गांव भी अन्य गांव जैसा ही था। पर, यहां पुआल की झोपडिय़ां अलग किस्म की थीं। सड़कें अलबत्ता पक्की थीं। कुछ पक्के मकान भी थे जो विकास का दावा कर रहे थे। स्कूल, जिसमें काजी ने आरंभिक शिक्षा पाई, वह भी पक्का हो चुका था। वह मस्जिद, जिसमें कुछ दिनों तक पिता के इंतकाल के बाद सेवा की थी, जिसके बदले काजी को ’मुल्ला’ की उपाधि मिली थी, बहुत की उदास खड़ी थी। उसकी दीवारें, मुख्य द्वार अपनी दुर्दशा की कहानी खुद बयां कर रही थी। मस्जिद की बाईं ओर दो पत्थर, जिस पर बैठकर काजी कविताएं गुनगुनाते थे, नई धुन बनाते थे, वह भी वैसे ही पड़ा था। अफसोस उसे भी था, काजी एक बार गए तो फिर कहां वापस आए? शायद, अब भी उसे इंतजार हो कवि के आने का।

वह तालाब, जिसका ऊपर जिक्र किया है, इसे लोग पीरपुकुर के नाम से पुकारते हैं। इस तालाब के पक्कीकरण की सोच अभी तक पं बंगाल की सरकार के दिमाग में नहीं आई है। इस तालाब के बाईं ओर पीरपुकुर की मजार भी है। मजार क्या है, पत्थर के कई टुकड़े रख दिए गए हैं और उन्हें चूने से रंग दिया गया है। कहते हैं काजी के बचपन की दुनिया मस्जिद से लेकर इस मजार तक ही सिमटी थी।

थोड़ी देर तक अकेले इन गलियों का चक्कर लगाता हूं। इसके बाद नजरूल अकादमी का दरवाजा खुल जाता है। यह अकादमी, उसी स्थान पर बना है, जहां काजी नजरूल तपते जेठ के महीने में पैदा हुए थे। पहले मिट्टी का मकान था। 1958 में इसे अकादमी का रूप दे दिया गया। अकादमी के अंदर दाखिल होता हूं। राहुल नाम का एक युवक मिलता है। अपने आने का प्रयोजन बताने के बाद वह हमें संग्रहालय दिखाता है। फोटो की मनाही थी। 1982 में बने संग्रहालय में उनकी कुछ दुर्लभ तस्वीरें थीं। छोटा और एक बड़ा ग्रामोफोन रखा हुआ था। एक लकड़ी की कुर्सी व एक बेड भी, जिसका इस्तेमाल नजरूल करते थे, रखा हुआ था। शीशों से ढंकी काजी की कुछ हस्तलिखित कापियां और पांडुलिपियां भी रखी हुई हैं। तानपुरा और कुछ स्मृतिचिह्न भी हैं। यह संग्रहालय निजी प्रयास से चल रहा है। काजी के भतीजे काजी मोजाहर हुसैन ही अकादमी और इसकी देखभाल करते हैं। संग्रहालय देखने के बाद राहुल ही हमें वह स्कूल भी दिखाता है, जिसमें काजी ने आरंभिक शिक्षा पाई थी। स्कूल के प्रांगण में ही एक विशाल मंच बना हुआ है। नाम है प्रमिला मंच। यहीं पर हर साल काजी की जयंती पर एक सप्ताह तक सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। इस कार्यक्रम में भाग लेने के लिए कोलकाता, बंगलादेश, उड़ीसा, राजस्थान आदि से लोक कलाकार आते हैं। सातों रात बाउल, नजरूल गीति, रवींद्र गीति की गूंज से चुरुलिया का कोना-कोना प्राणवान हो उठता है। नृत्य, संगीत, गीत की त्रिवेणी गांव में बहने लगती है। स्कूल प्रांगण से सटे ही एक उद्यान दिखता है। उद्यान में काजी नजरूल इस्लाम की सोने की तरह चमक बिखेरती आदमकद प्रतिमा है, जिसे उनकी स्वर्ण जयंती के मौके पर स्थापित की गई थी। बीच में एक कीर्ति स्तंभ भी काले पत्थरों का बना हुआ है। कीर्ति स्तंभ के दाहिनी ओर काजी की समाधि है और उससे सटे प्रमिला नजरूल की। प्रमिला की अंतिम इच्छा थी कि मुझे ससुराल में दफन किया जाए। 30 जून, 1962 को कोलकाता में निधन हो गया तो उन्हें कोलकाता से ले आकर यहां एक जुलाई को मिट्टी दी गई। अस्सी की उम्र की छू रहे काजी के भतीजे मोजाहर जी एक और बात कहते हैं। उन्होंने बताया कि प्रमिला नजरूल की एक और इच्छा थी कि उनके बगल में ही कवि की समाधि बनाई जाए। इसलिए, उनके बगल में उस समय जमीन छोड़ दी गई थी। बाद में जब ढाका में कवि का देहांत हुआ तो वहां से मिट्टी ले आकर उनके बगल में उनकी समाधि बना दी गई।

मोजाहर जी बात बताते हैं कि बीमार काजी को बंगलादेश की सरकार ने आमंत्रित किया और वे वहां चले गए। वहीं पर उनका निधन हो गया। काजी के दो बेटे तो बचपन में ही चल बसे थे। 22 फरवरी, 1974 को उनके छोटे बेटे अनिरुद्ध की भी मृत्यु हो गई। दो साल बाद कवि भी नहीं रहे तो कोलकाता से उनके बड़े बेटे सव्यसाची इस्लाम अपने पिता के शव को लेने ढाका पहुंचे। पर इसमें न पं बंगाल की सरकार ने कोई रुचि ली न केंद्र सरकार ने। राज्य सरकार ने कहा, यह केंद्र का मामला है। नेता अपनी जिम्मेदारी से भागते हुए एक दूसरे पर ठीकरा फोड़ते रहे। तब तक बहुत देर हो चुकी थी। फिर तो वहां से उनकी मिट्टी ले आकर प्रमिला के बगल में समाधि दी गई। इस तरह उनकी दूसरी इच्छा पूरी की गई।

कवि ने एक लंबी अवधि वाक्हत बिताई। नौ जुलाई, 1942 से लेकर 29 अगस्त 1976 तक कवि ने कुछ नहीं बोला। देशी-विदेशी डाक्टरों ने उनकी चिकित्सा की। कोई सुधार नहीं हुआ। इसके बाद लुंबिनी के अस्पताल भेजा गया। यहां भी कोई सुधार नहीं। फिर रांची के मानसिक अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। यहां भी कोई सुधार नहीं हो सका। इसके बाद उन्हें लंदन ले जाया गया। रांची मानसिक अस्पताल के सुपरिटेंडेंट मेजर डेविस ने लंदन सेनीटोरियम थामस अस्पताल के मानसिक चिकित्सक डा. विलियम सर्जेंट को एक परिचय पत्र कवि के बारे में उनके साथ के व्यक्तियों के हाथों भेज दिया। लंदन में भी कोई लाभ नहीं हुआ। अंत में वियना ले जाए गए पर अंतत: 14 दिसंबर, 1953 को कोलकाता वापस आ गए। कोलकाता से फिर 24 मई, 1972 को नवगठित बंगलादेश के पीएम मुजीबर रहमान के आमंत्रण पर ढाका लाए गए और यहीं पर उन्होंने दम तोड़ा। ढाका विश्वविद्यालय परिसर में ही उनकी समाधि बना दी गई। बचपन में दुक्खु मियां जो नाम पड़ा तो जीवन भर दुख ने उनका साथ नहीं छोड़ा।

रांची से जुड़े कवि प्रसंग की चर्चा मोजाहर साहब से करता हूं तो वे अनभिज्ञता प्रकट करते हैं। गर्मियों की छुट्टियों में वे अक्सर रांची आते रहते थे। हिनू के पास तारिणी कुटीर में रहते थे। उनकी पत्नी प्रमिला के मामा प्रफुल्ल चंद्र दासगुप्ता यहां एजी थे। प्रमिला-नजरूल ने 12 नवंबर, 1937 को एक पोस्टकार्ड हिनू के पते पर भेजा था।

पत्र के एक तरफ प्रमिला ने लिखा और पते वाले साइड पर कवि ने। मजमून इस प्रकार है-

चरण स्पर्श, मामा बाबू

आपका पत्र मिला। इसके अलावा आपने नूर को जो दो पत्र दिया, वो भी काफी दिन बाद पढऩे को मिला। दोनों चिट्ठी का नूर को पता नहीं था। घर में हम लोगों की तबीयत खराब चल रही है। लेकिन इसके चलते जो हम चिट्ठी नहीं लिख सके, ऐसा नहीं है। सच बोलूं तो मामा चि_ी लिखने में आलस लगता है, यही मेरी अभद्रता है। आप लोगों के ऊपर हमलोग गुस्सा करेंगे, यह बात आपके मन में आएगा, मैंने कभी नहीं सोचा। खैर, आप और दीदी, चिट्ठी नहीं लिखने की गलती के लिए क्षमा करेंगे। इति

निवेदिका

दूसरी तरफ नजरूल ने लिखा है-

श्री चरणेषु

मेरा दुर्गा पूजा का प्रणाम स्वीकार कीजिए। मामी को भी प्रणाम बोलिएगा। छोटों को आशीर्वाद। आपका पत्र आफिस में पड़ा था, इसलिए उत्तर देने में देरी हुई। आशा है, भूलचूक माफ करेंगे। आप कैसे हैं? मेरी तबीयत अच्छी नहीं है। इति।

नजरूल

यह पत्र भी भास्कर गुप्ता ने उपलब्ध कराया। प्रफुल्लचंद्र दासगुप्ता भास्कर के पिता परमेशचंद्र गुप्ता के फूफा लगते थे। मोजाहर साहब की आंखें रांची प्रसंग को सुनकर चमक उठती हैं। वह पत्र के लिए लालायित हो उठते हैं। कहते हैं, वह पत्र दिलवा दीजिए, यहां संग्रहालय में उसे रख देंगे, ताकि दूर-दराज से आने वाले लोग इसका लाभ ले सकें। बातचीत करते-करते सांझ हो उठती है। वहां से चल देता हूं। गलियों में चहल-पहल बढ़ गई है। कुछ युवा सड़क किनारे ताश खेल रहे थे। 14 हजार की आबादी वाले गांव के किसान खेती के लिए भगवान पर भरोसा रखते हैं। गांव से सटे कोलियरी का लाभ गांव वालों को नहीं मिलता। विकास के इस विद्रूप सच के साथ बस पकड़ लेता हूं। मन में कवि की पंक्तियां गूंजने लगती हैं-मैं आता हंू हर युग में, आया हूं फिर महाविप्लव हेतु..हूं स्रष्टा का शनि महाकाल धूमकेतु।