काठलूम अपने-अपने / मुक्ता

Gadya Kosh से
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“कहाँ चलना है ? “

“घंटे का हिसाब बताओ ? “

रिक्शे वाले के चेहरे पर झुंझलाहट उभरी, “खींचने में जाँगर लगता है। जाना कहाँ है... दूरी के हिसाब से न बताएँगे। “

“पुराने रईसों का इलाका तो पक्का महाल है, उधर जाने का समय नहीं है, महमूरगंज ले चलो। लेकिन पहले पैसा तय करो। वाजिब होगा तभी न बैठेंगे, हमें तो फेरी लगानी है। “

रिक्शेवाले ने ऊपर से नीचे तक घूरकर देखा। रिक्शा बढ़ाते हुए लापरवाही से बोला, “हमें नहीं जाना। “

“क्यों भई... क्या बात है? कुछ तो बोलो। "सैयद अली के चेहरे पर निराशा तैर गई। भाई के कंधे को सहारा देते हुए बुदबुदाहट जैसे शब्द निकले, “या अल्लाह! हमने तो किसी को नहीं सताया। “

“भाईजान। “जावेद की आँखों ने हौसला बँधाया। दोनों ने बोझ को बांटा और आगे बढ़े। दूर- दूर तक कोई रिक्शा नहीं दिखा। इंगलिशिया चौराहे पर पुलिस वालों का डंडा लहरा रहा था।

नुक्कड़ पर चाय की दुकान देख सैयद अली को कुछ राहत मिली, “कुछ खाना है जावेद? भूख तो लगी होगी। “

“दो चाय, साथ में रस्क। “कहकर सैयद अली ने कालीन बेंच पर टिका दी।

“कालीन नीचे रखो, बोहनी का टैम है। “चाय वाला कड़क कर बोला।

“नीचे गंदी हो जाएगी, ग्राहक आते ही हटा लेंगे। “

“उठाओ कालीन, यहाँ से चलते बनो, चाय में देर है। “

“गला तर हो जाता तो तुम्हें दुआ ही देते भाई। “

“कहा न आगे बढ़ो।“ चाय वाले ने डपटा।

“ऐसे धौंस जमा रहे हो जैसे मुफ्त में चाय माँग रहे हैं। “ जावेद का धैर्य चुक गया।

सैयद अली ने जावेद को बरजा और कालीन उठाने का इशारा किया। दोनों ने फिर से बोझ को आधा बाँट लिया।

“इम्तहान की घड़ी में सब्र से काम लेना चाहिए। “ सैयद अली बुदबुदाया।

जावेद के दिमाग में टन्न से बजे शब्द ‘ इम्तहान की घड़ी।' गरीबों के लिए इम्तहान की घड़ी का क्या? पूरी उम्र ही इम्तहान है – यह सब अमीरों के बुने चोंचले हैं। उसका मन बीड़ी के सुट्टे के लिए मचलने लगा।

“जावेद क्यों न इस सड़क के अंदर मुड़ लें ? यहाँ भी अच्छे – भले घर दिखाई पड़ रहे हैं। शायद यहीं किस्मत साथ दे जाए। अब यह बोझ हम कहाँ तक उठाए फिरेंगे ? “

जावेद ने सहमति में सिर हिलाया। दोनों दायीं ओर की संकरी सड़क की ओर मुड़ गए। घरों का सिलसिला शुरू होते ही सैयद अली के सूखे होंठों पर तरावट आने लगी।

“गलीचे ! ईरानी बेलबूटों का नगमा। फर्श पर बिछाएँ नर्म कालीन। कालीन लें... कालीन... “

पहले घर का दरवाजा खुलते ही सैयद अली ने जोर देकर कहा, “साहब ! कालीन दिखाएँ ? “

“नहीं, हम तो दफ्तर जा रहे हैं। “

“बेगम साहिबा तो हैं ! देख लीजिये, पसंद आए तो लीजिएगा। देखने के पैसे नहीं लगते। “

स्कूटर स्टार्ट होते ही खट की आवाज के साथ गेट बंद हो गया। सैयद अली की आवाज के साथ ही आमने – सामने घरों के कई दरवाजे खुले और बंद हुए। किसी ने आवाज नहीं दी। दिन का दूसरा पहर बीत चला। सैयद अली की जुबान पर चढ़े कालीन बेचने के तमाम जुमले एकाएक गुम होने लगे। गला सूखने लगा।

“जावेद ! ईद का चाँद आज न दिखे तो एक दिन और मिल जाता। “नीची नजर से ही जावेद ने भाई के चेहरे की रेखाएँ पढ़ लीं। आगे बढ़कर बगल वाले घर की घंटी बाजा दी। गेट खुला। औरत के चेहरे पर झुंझलाहट थी, “नहीं चाहिए... यह कौन सा समय है घंटी बजने का। “

“एक बार देख लीजिये... लेना जरूरी नहीं है... कारीगर की मेहनत है, देखने के कोई दाम नहीं। “

“सुबह से घूम रहे हैं – बस एक बार देख लीजिये। “

“ठीक है, यहाँ बरामदे में बिछा दो। “

कालीन के बिछते ही बेल – बूटों का रंगीन तिलस्म फैल गया। गहरे लाल रंग पर पीले फिरोजी बूटों की महीन कारीगरी पूरे वातावरण को खुशनुमा बना रही थी।

औरत का चेहरा चमक उठा, “बहुत खूबसूरत है ! लेकिन हमें लेना नहीं है, तुम जिद कर रहे थे इसीलिए बुला लिया। “

“मजबूरी है, इसीलिए बेच रहे हैं। वरना बुजुर्गों की निशानी नमूने का कालीन है। आप समझ कर पैसे दे दीजिएगा... “सैयद अली कठिनाई से बोल पा रहा था।

“कितने की है ? “दबी जुबान से औरत ने पूछा।

“वैसे तो पंद्रह से ऊपर का है, आप दस दे दीजिए। “

“दस हजार, नहीं भई मुझे नहीं लेना। आप जाइए, तंग मत करिए। “औरत ने निर्णय सुना दिया।

“ऐसा मत कहिए ! तीन बजने को आए, बीबी – बच्चे राह देख रहे हैं। खाली हाथ कैसे जाएँ ? कल ईद है “सैयद अली की आँखें डबडबा आईं।

औरत के चेहरे के खिंचाव ढीले पड़े।

“आपका काम कितने में चल जाएगा –मेरे पास इस समय तीन हजार हैं। आप कालीन छोड़ जाइए। ईद के बाद पैसे देकर कालीन ले जायेगा। “औरत यह जोड़ना नहीं भूली कि “मैं तो मदद कर रही हूँ। मुझे कालीन की जरूरत नहीं है। “

सैयद अली ने बेबसी से जावेद की ओर देखा। जावेद ने कालीन समेटते हुए कहा, “जाने दीजिये, कहीं और देखेंगे। “

“कहाँ ? अभी कल की तैयारी करनी है। कुछ तो खरीदना होगा। फिर भदोही पहुँचने में भी समय लगेगा। आप मोहतरमा रहम दिल हैं। औरों ने तो बात ही नहीं की। ठीक है ! हम ईद की सेवइयाँ लेकर आयेंगे और कालीन भी ले जायेंगे। आपका अहसान रहा हमपर। “

रास्ते में जावेद ने चुप्पी तोड़ी, “आपको वह औरत रहम दिल लगी ! मुझे तो बहुत चालाक दिखी, इतना कीमती कालीन और केवल तीन हजार। “

“हमने बेचा तो नहीं है। “

“खुदा जाने। “

भय और आशंका से दोनों घिरे थे। अपनी – अपनी पगडंडियों से दोनों ही अदृश्य पुल की ओर बढ़ने की कोशिश कर रहे थे।

दालमंडी बाजार पहुँचते ही सैयद अली का चेहरा चमक उठा। सभी के लिए कपड़े, मिठाइयाँ, खिलौने खरीदे गए। जावेद का तनाव बढ़ता जा रहा था। उसने चुप्पी ओढ़ रखी थी, ईरानी बूटों वाला अब्बा का कालीन उसके इर्द – गिर्द घूम रहा था।

बस में बैठते ही सैयद अली ऊँघने लगा। बीती रात जावेद की आँखों में तैरने लगी।

“घर में राशन खत्म हो चुका है। अब तो फाके की नौबत आ गई है... “आखिरी लफ्ज बोलते ही भाभी जान की आँखें बरसने लगीं।

“अम्मी कल ईद है, हमारे कपड़े अभी नहीं आए ? “नन्हा साजिद बीच में बोल पड़ा। सभी गुमसुम खड़े थे। अपनी उम्र से बहुत बड़े हो गए थे बच्चे।

“जावेद, ईरानी बूटों वाला कालीन टाँड़ से उतार लो। कल शहर चलेंगे। “

“अब्बा की निशानी है वह। ... फिर नमूने का कालीन है, उसे बेचेंगे ? “

“बहस मत करो ! अब्बा होते तो वे क्या करते ? तीन महीने पहले बजाज का आदमी दो कालीन ले गया था, तकाजा करते – करते हार गया। आज तक पैसे न मिले। अब क्या किया जा सकता है। “भाई का स्याह चेहरा जावेद से न झेला गया। साजिद को गोद में उठाकर उसने बाहर का रुख किया।

बस रुकी थी। सवारियों के उतारने – चढ़ने का सिलसिला जारी था। जावेद ने भाई की ओर देखा। उसे सुकून मिला। जैसे अब्बा सो रहे हों। भदोही की सीमा में घुसते ही जावेद ने भाई को जगाया। कंडक्टर की आवाज गूँजी, “घोसिया टाउन एरिया। “

घर की ओर बढ़ते जावेद और भी उदास हो गया। लोगों की भीड़ आम दिनों से ज्यादा थी। एक ही चर्चा थी, ‘ ईद का चाँद नहीं दिखा। ‘

जावेद को सामान सौंप एक जोड़ी कुर्ता पायजामा, मिठाई का डिब्बा ले सैयद अली सुलेमान उस्ताद की गली में मुड़ गया।

भदोही के बहुत से बुनकरों को सुलेमान उस्ताद ने तैयार किया है। काम की तंगी के कारण अधिकतर शहर छोड़ गए। सैयद अली का हाथ पकड़कर काठलूम को कील से गाड़ना सिखाया। काती पकाना, कालीन के सभी हुनर छैतगी तार, नौ चौवन, बारह चालीस, सोलह अस्सी, चौदह सत्तर गांठों का कमाल, जिसमें चौदह सत्तर सबसे अव्वल। ऊन की पहचान, ताना – बाना, छूरा पंजा औजारों की पहचान, फिर डाई के फन, रंगों की पहचान, सब कुछ उस्ताद ने सिखाया। उम्र के कारण उस्ताद से अब भाग – दौड़ नहीं होती। घर में तीन जवान बेटियाँ हैं। बीबी की मौत हुए कई साल बीत चुके हैं।

अंधेरी कोठरी में घुसते ही सैयद अली बेचैन हो उठा।

“उस्ताद सलाम। आप खैरियत से हैं ? “

ठठरी में हरकत हुई। काँपती लौ में दो आँखें चमकीं।

“वालेकुम सलाम। कौन... कौन हैं जनाब ? “

“उस्ताद, मैं सैयद अली। “

“सैयद अली ! कैसे आए ? अब तो यहाँ कोई नहीं आता। हाल पूछने की किसको फुर्सत है। सभी कस्बा छोड़ रहे हैं। “

“उस्ताद। “

“या अल्लाह। यह क्या हो रहा है, किसकी नजर लग गई। याद है न सैयद अली, क्या रौनक थी। रामपुर के नवाब तक हमारे हुनर के कायल थे। पक्का महाल के रईसों से लेकर दालमंडी की महफिलें तक हमारे कालीन के बिना सूनी थीं। जाने कैसा समय आ गया है। कभी सोचा न था कि हम अब दरबदर हो जायेंगे। इससे अच्छा तो अंग्रेजों का राज्य था... हमारी इज्जत तो ढँकी थी। रोज ही खबरें आ रही हैं बनारसी साड़ी के कारीगर खुदकुशी कर रहे हैं। अपनी भूख कोई बर्दाश्त कर भी ले, बच्चों की भूख कैसे बर्दाश्त करें... “सुलेमान उस्ताद को खांसी का तेज दौरा पड़ा। सिर सीने से जा लगा।

“अब्बा आप ज्यादा न बोलें, जोर पड़ता है। “हाथ में पानी का गिलास लिए रजिया खड़ी थी, सैयद अली ने हाथ का सहारा दे उस्ताद को दो घूँट पानी पिलाया। सामान रजिया को थमा वह बाहर आ गया।

अतीत अभी भी सैयद अली के कंधे पर टिका था। वह आकाश की ओर देखने लगा।

घर में घुसते ही नसरीन की मुस्कुराहट ने आश्वस्त किया। रुपये वह नसरीन को थमा वह गुसलखाने की ओर बढ़ा।

ईद का चाँद देखते ही पूरे साल की तल्खी हवा हो गई। सभी के चेहरे खिल उठे। ‘ ईद मुबारक ‘ के स्वर से भदोही गूँज रहा था। वर्षों की सधी आदत। नमाज के बाद सैयद अली सीधे उस्ताद के घर पहुँचा। रजिया दुपट्टे में मुँह दबाये सिसक रही थी।

“दफा हो जा ! अभी इसी समय मेरी नजरों के आगे से दफा हो जाओ। ऐसी औलाद से बेऔलाद होना बेहतर है। “सुलेमान उस्ताद की आँखें आग उगल रहीं थीं। कमजोर काया पेंडुलम सरीखी हिल रही थी।

“तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई उस टुच्चे – लफंगे से आशनाई करने की ! बेगैरत ! हमें कहीं मुँह दिखने लायक नहीं रखा। “

“अब्बा, हमने ऐसा कुछ नहीं किया ! चार दिनों से हम सबके मुँह में एक निवाला नहीं गया। अशरफ ने थोड़ी मदद कर दी तो कौन – सी इज्जत चली गई ? हम खुद गए थे उससे नौकरी माँगने। हमने अपनी तनख्वाह की पेशगी ली है। “

“अब जुबान भी चलाने लगी ! वह लफंगा आवारा तुम्हें कौन सी नौकरी देगा, हम खूब जानते हैं। तुम्हारी जुर्रत कैसे हुई बिना इजाजत के पैर निकालने की... “

“अब्बा, हम भूखे हैं, और भूख से बढ़कर कोई जलालत नहीं। आप हमें कत्ल कर दें... अब घर के ये हालात हमसे देखे नहीं जाते। “

“चुप रह बदजुबान। “सुलेमान उस्ताद पूरी ताकत से चीखा।

दरवाजे के कोने में खड़ा सैयद अली काठ बना खड़ा था। उससे और न देखा गया। वह चुपचाप लौट आया।

कमरे में पड़े काठलूम, ऊन के गट्ठर, औज़ार, चुरा, पंजा को देर तक निहारता रहा। सैयद अली ने कालीन के साथ कैसे – कैसे सपने बुने थे। बेटी की रुख्सती, बच्चों की पढ़ाई... अब तो रोटी भी मयस्सर नहीं। बच्चों के शोर – शराबे ने ध्यान खींचा। मायूसी को झिटक वह बाहर आया। दस्तरखान पर सभी चुप थे। अँधेरे की साजिश को सभी पकड़ रहे थे।

“जावेद ! कल बजाज कार्पेट चलना है। अपना हिसाब करने। “सैयद अली ने चुप्पी तोड़ी।

गेट के अंदर घुसते ही बजाज कार्पेट का नया रंग – रोगन किया बोर्ड जावेद की आँखों में चुभा।

“पूरी कोठी चमक रही है... और हमें देने को पैसे नहीं हैं... एक दिन हमारा लहू रंग लाएगा। “

“जावेद ! यह सब किताबी बातें हैं। “

“यह तो आप ही कहते थे भाई जान ! आपको क्या हो गया, आपकी तबियत तो ठीक है ? चलिये आज लौट चलें। “

“लौटने से क्या होगा ?... कितने दिन लौटेंगे, तुम परेशान मत होओ। “

खबर अंदर भिजवाकर दोनों बरामदे में पड़ी कुर्सियों पर बैठ गए।

“भाईजान, इस किताब की कीमत विदेश में ढाई सौ डालर है – करीब दस हजार। “

“देखें ? “सैयद अली पन्ने पलटने लगा।

“जावेद, यह तो अपना वही कालीन है फिरोजी रंग वाला, इसके ऊन की डाई में दुगने पैसे लगे थे, पूरा साल लगा था इसे तैयार करने में, फोटो भी बहुत बेहतरीन आई है। “

“भाईजान, दूसरों के हाट में यह सोने के भाव बिका होगा। अपने हाथ में तो ठीकरा भी नहीं आया। अब तो बुनकरों के खैरख्वाह बहुत से एन.जी.ओ. भी हो गए हैं, वे भी अपनी रोटी सेंक रहे हैं। हमें यहाँ क्या मिलना है, आप बेकार ही यहाँ आए हैं। इनका जमीर तो पहले ही बिक चुका है। “

“साहब ने कहा है, आप लोग कल आइये, मैनेजर साहब जा चुके हैं। “दरबान का चेहरा सपाट था।

“मेहरबानी करके एक बार साहब को बुला दीजिये। “

“क्या फायदा भाईजान ! चलिये ! “जावेद ने बीच में टोंका, “आज तक कभी वे सामने आए हैं ? आप बेकार उम्मीद लगा बैठते हैं। मैनेजर घाटे का रोना रोएगा। हमारी सुनने वाला कौन है ? “

“तो फिर... कल आते हैं। “सैयद अली की आवाज डूबने लगी। दूसरे दिन बजाज का एजेंट हिसाब कर गया। कच्चे माल का पुराना पैसा काट कर कुल डेढ़ हजार हाथ पर रख गया। जावेद गुस्से से तमतमाता रह गया। “यह तो वह हुआ, जैसे बीच बाजार में लूट ले। “

“हमारे मुँह में जब तक ताले पड़े रहेंगे तो यही होगा जावेद। क्या हमने कभी साहूकारों के खिलाफ मुँह खोला ? हमेशा डरते रहे। दलालों की मंडी बन गया बुनकारी का धंधा – छोटे – बड़े कई दलाल, जिनकी पहुँच गैर मुल्कों तक है। “

“भाईजान ! “जावेद के स्वर में आश्चर्य था। उसने सैयद अली को ऐसी बातें करते पहले कभी नहीं सुना था। धरती के कंपन से उसकी यह पहली पहचान है।

सुबह सुलेमान उस्ताद की मौत की खबर पूरे शहर को मायूस कर गई। सैयद अली और जावेद ने सब इंतजाम किया। जमा पूंजी का बड़ा हिस्सा सैयद अली ने उस्ताद की मैयत में लगा दिया। जनाजा उठने से पहले पुलिस का हुजूम घर में दाखिल हुआ। “मंत्री जी आ रहे हैं। “बच्चे सहम उठे, मीडिया के फोटोग्राफरों से घिरे मंत्री जी ने आश्वासन दिए। प्रेस के लिए उनका अंतिम वाक्य था, “मौत भुखमरी से नहीं, बीमारी और कुपोषण से हुई है। बुनकरों के हित के लिए सरकार ने बहुत सी योजनाएँ लागू की हैं, इसलिए भुखमरी का सवाल ही नहीं उठता। “

कोने में खड़ा नन्हा साजिद जिद करने लगा, “चच्चू, इन्हें हमारे घर ले चलिये, हम भी फोटू खिंचवाएंगे। “

“ये लोग मरने के बाद आते हैं -जिंदा लोगों से इन्हें क्या काम ? “जावेद ने बेरुखी से कहा।

सुबह का सूरज अब पहले जैसा सुकून न देता। तपिश बढ़ाने के साथ ही सवाल और भी बढ़ते जाते। सैयद अली मस्जिद की ओर मुड़ा। उस्ताद का चेहरा आँखों के आगे नाच रहा था। उस्ताद की उँगलियाँ काठलूम गाड़ते ही हरकत में आ जाती थीं। दिमाग अमीरों की ड्योढ़ी के चक्कर काटने लगता, “मियाँ, उन दिनों आजकल - सी मेज - कुर्सियाँ न थीं। मकानों में तख्तों के चौके होते, पलंग होते और तख्तों के ऊपर बिछाने के लिए नाजुक खुशनुमा पलंगड़ियाँ होतीं। चौके पर पलंग के आगे सदर नशीनी ले किए फर्श के ऊपर कालीन बिछा होता, मसनद बगल में और कालीन से मिला गाव होता, जिस पर रोज के इस्तेमाल के लिए तो सफेद गिलाफ रहता, मगर आला तकरीबी के मौकों पर निहायत कीमती रेशमी और अक्सर कारचोबी काम के गिलाफ चढ़ा दिये जाते। हमारी मेहनत की मुँहमाँगी कीमत मिलती थी। कोई कालीन नजर में चढ़ जाए तो रईसों में ठन जाती थी। फिर तो बोलियाँ लगती थीं, बोलियाँ... “

“लेकिन उस्ताद माफ करेंगे। आपकी गरीबी तो न गई। “

“तुम नहीं समझोगे सैयद अली। हमारी आँखों ने वह मंजर देखा है कि और कुछ देखने कि चाह न रही। हमारी किस्मत तो कोई मिटा नहीं सकता। “

सैयद अली का पैर ईंट से तकराया। तंद्रा भंग हुई। मस्जिद में प्रवेश करते ही खंभों से टिके मायूस चेहरे नजर आए। सभी परिचित लेकिन खोए हुए। अब ये किसी की ओर नहीं देखते। अपरिचय के लंबे साए ने इन्हें घेर लिया है। इनके लिए न सुबह होती है शाम। हड्डियों के ढाँचे भर रह गए हैं इनके जिस्म। रात दिन ये लोग मस्जिद में दिखाई देते हैं। दीवार से टिके, शून्य में ताकते हुए। सैयद अली की हताशा और भी बढ़ गई। उस्ताद की आँखें कई आँखों में बंट गईं। सपनों के मरने का यह दृश्य बेहद खौफनाक था।

रात देर से आँख लगी। भोर जगते ही नसरीन ने आवाज दी। वह घबराई हुई थी, “साजिद को तेज बुखार है, डाक्टर को दिखाना होगा। “

“तुम नाहक परेशान हो। मौसमी बुखार है, उतर जाएगा। “

“मैं बार – बार कह रही हूँ भदोही छोड़िए, सभी छोड़ रहे हैं। कब तक भूखे मरेंगे ? खालिद भाईजान चेन्नई पहुंचकर खुशहाल हैं। बार – बार बुला रहे हैं – यहाँ की जमीन में अब बरकत नहीं है। बाप – दादा का वास्ता देकर क्या पेट भरा जा सकता है ? “

“नसरीन, तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है। इस समय केवल बच्चे का खयाल करो। “सैयद अली का स्वर कठोर था।

“वही तो कर रही हूँ। “नसरीन फफक पड़ी।

तीन दिन बाद भी बुखार नहीं उतरा। डाक्टर ने दिमागी बुखार बताकर बी. एच. यू. अस्पताल ले जाने को कहा। डाक्टर ने मुआयना कर बच्चे को भर्ती कर लिया। जावेद दवाइयों की लंबी फेहरिस्त लिए दुकान में अकेला खड़ा था। रुपये कम पड़ रहे थे। जमा पूंजी खत्म हो चुकी थी। उसकी आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा। अचानक एक रोशनी कौंधी। जावेद ऑटो स्टैंड की ओर बढ़ा।

“तुम ! अकेले आए हो ? तुम्हारा कालीन रखा है। बहुत दिन लगा दिये, पैसे लाये हो ? “

“जी, भाईजान अस्पताल में हैं। “

“क्या हुआ ? “

“बच्चा बहुत बीमार है। “

“अच्छा, पैसे लाये हो ? कालीन संभालना बहुत मुश्किल हो रहा है। अपनी अमानत ले जाओ, मैं तंग आ गई हूँ। “

“हमें कुछ रुपये चाहिए। बच्चा बहुत बीमार है, दवा के लिए पैसे चाहिए। आप रहमदिल हैं। “

“ये तो कलाई पकड़कर पहुंचा पकड़ने वाली बात हुई। एक बार मदद कर दी तो तुम लोग पीछे ही पड़ गए। हमें नहीं चाहिए कालीन। हमारे पैसे वापस करो, तुम दोनों भाई अच्छा नाटक कर लेते हो। “

“बच्चे की बीमारी में सब पैसे खर्च हो गए, यकीन कीजिये ! खुदा गवाह है ! कालीन बहुत कीमती है। मजबूरी में हमें बेचना पड़ रहा है। इस समय रुपयों की सख्त जरूरत है। बच्चे की जान बचानी है, आप बस पाँच हजार और दे दीजिये, अभी भी समझिए हम आधी कीमत ले रहे हैं। “

“मक्कारी की हद है। तुम झूठ – पर - झूठ बोले जा रहे हो ! कालीन की कीमत दो हजार से अधिक नहीं। तीन हजार तुम पहले ही अधिक ले चुके हो। जबरदस्ती का सौदा मेरे सिर मढ़ रहे हो। मेरे तो पैसे फंस गए, अब फिर लूटने आए हो ! दफा हो जाओ। “

जावेद गुस्से से तमतमा उठा। वह बहुत कुछ कहना चाहता था। शब्द अदृश्य में घूमने लगे। अब्बा की आँखें सामने थीं। इतना ही कह सका, “ठीक है ! कालीन आपके पास गिरवी रहा... हम पैसे लेकर जल्दी ही लौटेंगे। “

जावेद अपने मित्र रिक्शा चालक बालकरन के घर की ओर बढ़ा।

साजिद को स्वस्थ होने में दस दिन लग गए। बालकरन की सहायता से ही इलाज संभव हो सका। गोरा – गुदगुदा साजिद हड्डियों का ढांचा भर रह गया। घर लौटने का उत्साह साजिद के चेहरे पर छलक रहा था।

“अम्मी। “नन्हा साजिद माँ से लिपट गया। नसरीन की आँखें बरसने लगीं।

“अभी सवेरे ही तो अस्पताल से आई हो। साजिद तो तुम्हारे साथ ही था, फिर यह रोना कैसा ? मनहूसियत से तौबा करो। शुक्र है, बच्चा ठीक हो गया। “सैयद अली ने समझाया।

“अस्पताल में किसी तरह खाने का इंतजाम तो हो रहा था... । यहाँ क्या है, बच्चे फाके कर रहे हैं। “

“मैं अभी आता हूँ। “कहकर जावेद बाहर निकल गया। पूरी रात आँखों में कट गई। जावेद वापस नहीं लौटा। दूसरे दिन सवेरे जावेद लौटा। उसके हाथ में आटे का थैला, सब्जियाँ और कुछ अंडे थे। रात के बारे में किसी ने कुछ नहीं पूछा। सन्नाटा पूरे घर में भायं – भायं कर रहा था। सभी एक दूसरे से आँखें चुरा रहे थे। दस्तरखान पर सैयद अली ने चुप्पी तोड़ी, “जावेद हमने चेन्नई जाने का फैसला कर लिया है। अभी घर में ताला लगाकर चलेंगे। वहाँ कारोबार जम गया तो लौटकर घर बेच देंगे। “

“यह पुश्तैनी घर... यह जमीन आप बेच देंगे ? “

“तो क्या करें, तुम्हीं बताओ ? मौत के मुँह से किसी तरह साजिद बाहर आया है, अब इन बच्चों को फिर से मौत के हवाले कर दें ?“

“ठीक है भाईजान, आप जैसा सोचिए। हम नहीं जाएँगे। हम यहीं रहेंगे। “

“ सोच लो जावेद, जल्दबाजी में फैसला मत करो। “

“हमने सोच लिया है, हम यहीं रहेंगे। आपका फैसला अपनी जगह सही है। “

स्टेशन पर गाड़ी ने सीटी दी तो सैयद अली का रोका वेग टूट पड़ा।

“मुन्ने... हम तुम्हें छोड़कर नहीं जा रहे हैं, तुम मेरे जिगर के टुकड़े हो, तुम्हारा फैसला ज्यादा ठीक है। मुन्ने, अब्बा के कमरे में लोहबान सुलगाना मत भूलना। हम जल्दी लौटेंगे। “

जावेद ने सिर पर अब्बा का हाथ महसूस किया।

जावेद कालीन वाले मोहल्ले के चक्कर लगाता। उसे बार – बार महसूस होता, जैसे अब्बा कैद हैं। उसने कालीन नहीं, अब्बा को गिरवी रख दिया है। जावेद की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। उसने घर में ताला लगाया। थैले में कुछ कपड़े रखे और बनारस जाने वाली बस में बैठ गया।

जावेद रात - दिन रिक्शा चलाता है। चेहरे पर बेतरतीब दाढ़ी फैल गई है। रिक्शे के पहिये के साथ ही घूमता रहता है अब्बा की मुक्ति का सपना।

“रिक्शेवाले। “आवाज की दिशा में जावेद मुड़ा। उसकी नजर कालीन पर थी। कालीन बुनने वाले हाथों को वह खूब पहचानता है। परिचय और अपरिचय के पार वह अपने काठलूम के पास खड़ा है। कोठियों की कतारें शुरू हो गईं हैं। कालीन वाले ने आवाज देनी शुरू की, “कालीन... उम्दा कालीन, कालीन लीजिये कालीन। “

शब्द जावेद के कानों में हथौड़े जैसे बजने लगे। नसें झनझना उठीं। रगों में सदियों से बहते शब्द फूट पड़े, “गलीचे... ईरानी बेलबूटों का नगमा... फर्श पर बिछाएँ नर्म कालीन... कालीन लें, कालीन। “