कानून का करेला प्रभावशाली नही / जयप्रकाश चौकसे

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कानून का करेला प्रभावशाली नहीं

प्रकाशन तिथि : 10 जनवरी 2011

सरकार बेचैन है कि प्राइवेट चैनलों की नाक में कैसे नकेल डालें और कैसे संवैधानिक तरीके से मदमस्त हाथी पर अंकुश लगाएं। अभद्रता पर अंकुश महज बहाना है। असली मकसद कुछ और है। टेलीविजन पर अनेक अश्लील और हिंसक कार्यक्रम आते रहे हैं और कुरीतियों तथा अंधविश्वास को बढ़ावा देने का काम भी चल रहा है। इस पर सड़क से संसद तक विरोध जताया जा रहा है और सरकार द्वारा दिए गए हुक्म को अदालत ने स्थगित कर दिया है। सरकार बेचैन है कि इन प्राइवेट चैनलों की नाक में कैसे नकेल डालें और कैसे संवैधानिक तरीके से मदमस्त हाथी पर अंकुश लगाएं। भीतर की बात यह है कि इस शक्तिशाली और व्यापक पहुंच वाले माध्यम पर सरकार अपना शिकंजा जमाना चाहती है ताकि चुनावी प्रचार में इनकी सहायता ले सके और अपने राजनीतिक स्वार्थ की रोटियां सेक सके।

अभद्रता पर अंकुश महज बहाना है। असली मकसद कुछ और है। इसी कारण सरकारी शिकंजे का विरोध किया जाना चाहिए। जगहित के मासूम से मुखौटे के पीछे उनकी महत्वाकांक्षा और अधिकारलोलुपता स्पष्ट नजर आ रही है। हाल ही में उजागर राडिया टेप्स से जाहिर होता है कि अनेक सितारा हैसियत वाले पत्रकार भी उस साजिश में शामिल हैं जो पहले उद्योगपति और नेताओं के बीच सीमित थी। सितारा पत्रकारों की सिफारिश पर मंत्रियों ने देशहित के खिलाफ फैसले लिए हैं, क्योंकि उन्हें अपनी छवि की फिक्र रही है।

सरकार के अधिकार क्षेत्र में दूरदर्शन अपनी व्यापक पहुंच के बावजूद पंगु हो गया है और उसे सशक्त बनाकर प्रतिस्पर्धा में खड़े करने की कोई कोशिश नहीं हो रही है। प्राइवेट चैनल शासित हैं लोकप्रियता को आंकने वाली टीआरपी व्यवस्था से। इस तरह का देशज व्यवस्था तंत्र क्यों नहीं खड़ा किया जा सकता? राज्य सरकारें केबल ऑपरेटर्स के इस षड्यंत्र को विफल करें कि उनके प्रसारण के साथ छेड़छाड़ की जाती है। यह बात सरकार ने कैसे विस्मृत कर दी कि छोटे परदे पर गुणवत्ता और सामाजिक प्रतिबद्धता के साथ दूरदर्शन जैसे कार्यक्रम असीमित साधनों के बावजूद प्राइवेट चैनल प्राप्त नहीं कर पाए?

अमेरिका और इंग्लैंड की तरह चैनल को अपनी आचार संहिता बनानी चाहिए। उसे विषयवस्तु का परीक्षण करना चाहिए, क्योंकि टेलीविजन परिवार के मनोरंजन का माध्यम है और यह चैनल के हित में है क्योंकि अभद्रता के कारण दर्शक संख्या घट सकती है। विदेशों में भी चैनलों के बीच भारी प्रतिद्वंद्विता है, परंतु उनके बीच सीधा संवाद बना हुआ है और दर्शक की प्रतिक्रिया का भारी सम्मान किया जाता है। हमारे यहां लोकप्रियता आंकने के सीमित तंत्र के कारण अवाम का मत वहां नहीं पहुंच रहा है।

इस पूरे प्रकरण का सबसे महत्वपूर्ण और सचमुच में निर्णायक पक्ष माता-पिता का है, जिन्हें अपने बच्चों को इन खतरों से बचाना है। कोई भी प्रतिबंध या सेंसरशिप प्रभावी नहीं हो सकती। इस युग के माता-पिता का दायित्व पिछले किसी भी कालखंड से अधिक है, क्योंकि आज के बच्चों को टेक्नोलॉजी द्वारा उत्पन्न अनेक जरिए उपलब्ध हैं। माता-पिता स्वयं जीवन की भागमभाग में व्यस्त हैं और चौबीस घंटे घर में कैसे निगरानी रखें? आपको कम उम्र से ही बच्चों को मानसिक रूप से मजबूत बनाना होगा।

हबीब फैजल की ऋषि-नीतू कपूर अभिनीत फिल्म 'दो दुनी चार' में किशोर क्रिकेट सट्टे में लिप्त है और पिता को सच मालूम होते ही वह बच्चे के हाथ से जीत की रकम फकीरों में बंटवा देता है और बच्चे को उसका मनपसंद भोजन करवाता है। आश्चर्यचकित किशोर पिता से पूछता है कि आप पीटने के बदले भोजन करवा रहे हैं। पिता कहता है कि बचपन में उसके अंगूठा चूसने की आदत पर करेला, नीम और कुनैन तक के लेप भी असफल रहे तो उसे अंगूठा चूसने दिया गया। एक दिन स्वयं बच्चे ने लत छोड़ दी। क्रिकेट सट्टा भी वह छोड़ेगा। आज माता-पिता को बच्चों का दोस्त बनना होगा, उनके सपनों और डरों को समझना होगा और यह करते समय अपने बचपन के भूत-प्रेतों का भी स्मरण करना होगा।राह कठिन है।