कान फिल्म समारोह में कंगना रनोट का प्रवेश / जयप्रकाश चौकसे

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कान फिल्म समारोह में कंगना रनोट का प्रवेश
प्रकाशन तिथि : 15 मई 2019

आज से कान फिल्म समारोह की शुरुआत हो गई। 24 मई तक यह आयोजन चलेगा। मेहमानों के लिए सड़क से मुख्य द्वार तक लाल कालीन बिछाया जाता है। बड़ी अदा से चलते हुए मेहमान अपने-अपने देश का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस वर्ष समारोह में कंगना रनोट भारतीय बुनकरों द्वारा बनाई हुई साड़ी पहनकर शिरकत करेंगी। यह बुनकरों के प्रति उनके सम्मान का प्रदर्शन है। कान समारोह के बाजार विभाग में फिल्म प्रदर्शन के अधिकार खरीदे जाते हैं। कान फिल्म समारोह में फैशन और बाजार तत्व शामिल हैं। सारे होटलों में महीनों पूर्व आरक्षण कर लिया जाता है। लगभग दो दर्जन सिनेमाघरों में प्रात: 9 बजे से रात 12 बजे तक फिल्मों का प्रदर्शन जारी रहता है। कंगना अपनी फिल्म 'पंगा' की शूटिंग में व्यस्त रहने के कारण कान के लिए पूर्व तैयारी नहीं कर पाईं। बुनकरों ने एक सप्ताह में उनकी मनपंसद साड़ी बना दी। बेहतर होता कि वे खादी पर बुनाई करातीं। महात्मा गांधी और खादी नए भारत में भुला दिए गए हैं। कुछ वर्ष पूर्व हरियाणा की मल्लिका शेरावत को एक निर्माता ने 20 लाख रुपए के पारिश्रमिक पर अपनी फिल्म के लिए अनुबंधित किया था परंतु कान फिल्म समारोह में लाल कालीन पर शिरकत के बाद उन्होंने निर्माता से 50 लाख रुपए की मांग की। निर्माता ने उन्हें यह यथार्थ बताया कि कान में रेड कारपेट पर चलने से भारत में एक दर्शक भी अधिक नहीं आता। यह खेल अखबारों की सुर्खियों तक ही सीमित है। कान में मटकने से भारतीय बॉक्स ऑफिस पर कोई फर्क नहीं पड़ता। वह निर्माता तो अब भी फिल्में बना रहा है परंतु शेरावत अब कहीं नज़र नहीं आतीं।

पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 1952 में पहला अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह मुंबई में आयोजित किया था। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में समारोह आयोजन का प्रकोष्ठ स्थापित किया गया। उस दौर में एक वर्ष फिल्म समारोह दिल्ली में आयोजित किया जाता था, दूसरे वर्ष भारत के किसी अन्य शहर में। इसी सिलसिले में खाकसार ने कोलकाता, कोचिन, तिरुवनंतपुरम, बेंगलुरू, इत्यादि शहरों की यात्राएं कीं। कुछ वर्ष पूर्व गोवा को समारोह का स्थायी स्थान बना दिया गया। परंतु गोवा में यथेष्ठ संख्या में सिनेमाघर नहीं थे। अब शायद बनाए गए हैं। गोवा को स्थायी बनाते ही इसकी गरिमा गिर गई। इस तरह के समारोह में फिल्म उद्योग और पत्रकार डेलीगेट्स होते हैं। उन्हें कभी भी कोई भी फिल्म देखने की स्वतंत्रता होती है। विगत पांच वर्षों में एक परिवर्तन यह किया गया है कि डेलीगेट्स को मनपसंद फिल्म देखने के लिए एक आवेदन-पत्र देकर पैसे जमा करने होते हैं। यह व्यावसायिकरण फिल्म महोत्सव की मूल भावना को ही खंडित कर देता है। इस तरह के आयोजन बॉक्स ऑफिस के परे उत्पन्न सिनेमा के पोषक होते हैं परंतु प्रवेश दर लगाकर सब कुछ समाप्त कर दिया गया है।

एक दौर में पुणे फिल्म संस्थान अपने छात्रों को गोवा भेजता था। आज तो पुणे संस्थान सब कुछ खो चुका है। गोवा प्रसिद्ध पर्यटन केंद्र है। इसलिए होटल महंगे हैं और मध्यम वर्ग का सिनेप्रेमी गोवा नहीं जा पाता। जवाहरलाल नेहरू द्वारा आयोजित प्रथम समारोह में भारतीय फिल्मकारों ने पहली बार फिल्म में नव-यथार्थवाद देखा, जिसके प्रभाव के कारण बिमल रॉय ने 'दो बीघा जमीन' और राज कपूर ने 'बूट पॉलिश' का निर्माण किया। इसी तरह 'ऑटम सोनाटा' ने गुलजार को 'मौसम' की प्रेरणा दी। एक महोत्सव में रूस में बनी फिल्म में अमीर खुसरों का गीत 'जिहाल-ए -मिस्कीन मकुन बरंजिश , बेहाल-ए -हिजरा बेचारा दिल है..' सुनकर बड़ी प्रसन्नता हुई। कालांतर में इस गीत को जेपी दत्ता की एक फिल्म में भी लिया गया। अमीर खुसरो, कबीर, टैगोर एवं नजरूल इस्लाम का प्रभाव अनेक कवियों पर पड़ा है। व्यक्तिगत प्रतिभा अपनी परंपरा से प्रेरित होकर अपने व्यक्तिगत योगदान से परंपरा को मजबूत करते हुए चलती है।

ज्ञातव्य है कि अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में दिखाई जाने वाली फिल्म के लिए सेंसर का प्रमाण-पत्र आवश्यक नहीं है। इसलिए एक दौर में यौन संबंध के दृश्यों को देखने के लिए भारी भीड़ जुटती थी। इस तरह यह लम्पटई का उत्सव भी बन जाता था।दूतावासों द्वारा फिल्में उपलब्ध कराई जाती हैं। ऐसा भी हुआ है कि प्रोजेक्शन रूम में प्रदर्शन के बाद साहसी दृश्य काटकर उन्हें देशज फिल्मों में जोड़ा गया, जिसे इंटरपोलेशन कहा जाता है। अवैध काम करने में हमें बहुत आनंद प्राप्त होता है। अमेरिकी फिल्म 'बोनी एंड क्लायड' में युवा लोग केवल थ्रिल के लिए डाके डालते हैं। उन्हें पैसे की कमी नहीं है। वे साधन संपन्न परिवार के युवा हैं। कुछ अपराध गरीबी की कोख से जन्म लेते हैं तो कुछ अपराध अत्यधिक संपन्नता के कारण किए जाते हैं। कुछ वर्ष पूर्व धनाढ्य परिवार के भोपाल निवासी युवा भी ऐसा करते हुए पकड़े गए थे।

दरअसल, गोवा महोत्सव में आई फिल्मों के प्रदर्शन अन्य शहरों में भी किए जाने चाहिए ताकि अधिकतम सिने प्रेमी उन्हें देख सकें। व्यवस्था न्यूनतम लोगों द्वारा विशिष्ट व्यक्तियों के लिए संचालित की जा रही है। अधिकतम हाशिए में धकेल दिया गया है। अंतरराष्ट्रीय फिल्मकार अन्य महोत्सव में भेजने के बाद अपनी फिल्म गोवा भेजते हैं गोयाकि हमें झूठन ही मिलती है।