कामरेड का रिक्शावाला / कुबेर

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कामरेड सोमेश साहब इस शहर में एक जानी-मानी हस्ती हैं। इस समय उनकी अवस्था लगभग साठ की है। ऊँगलियों के पोरों से लेकर पुतलियों के नीचे तक अर्थात् नख से शिख तक चर्बी की एक मोटी परत जमा हो गई है और शरीर हिप्पोपोटेमस के शरीर के समान चिकना, चमकदार और थुलथुला हो गया है। किसी समारोह में अतिथि वक्ता के रूप में इन्हें आमंत्रित करने के पहले आयोजक का पहला महान कर्तव्य होता है, इनके शरीर के अनुरूप इनके लिए आसन और असन की समुचित व्यवस्था करना।

इनका भरापूरा परिवार और देश-विदेश में फैला विस्तृत कारोबार है। शहर और शासन के अति विशिष्ट हस्तियों के साथ इनका बड़ा मधुर और पारिवारिक परंतु पारदर्शी संबंध है।

पारदर्शी चीजें अक्सर दिखाई नहीं पड़तीं।

मज़दूर संघों से इनका रिश्ता आज का नहीं अपितु संघर्ष के दिनों से है, जब ये युवा थे और शरीर छरहरा था, पुतलियाँ आँख-कोटर में धँसी और शिराएँत्वचा के ऊपर उभरी हुई होती थी। तब ये अपने माता-पिता के साथ किराये केमकान में रहा करते थे।

शहर में इनकी प्रसिद्धि के वर्ग-वार अलग-अलग कारण हैं। साहित्यिक हल्कोंमें ये अपनी प्रगतिशील विचारधारा के लिए पूजे जाते हैं। इनकी लिखी ’भारतमें साम्यवाद की दिशा और दशा’ शीर्षक से वृहद् गंरथ माला की दो खंडों काप्रकाशन अब तक हो चुका है।

व्यवसायियों और पूँजीपतियों के लिए ये बड़े काम की चीज हैं, क्यांेकि श्रमिक वर्ग और शासन-तंत्र के साथ इस वर्ग का संतुलन बनाये रखने में येउस्ताद हैं।

श्रमिकों के लिये तो ये कार्ल माकर्स के साक्षात अवतार ही हैं। उन्हेंआशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि ये साहब एक दिन इस शहर में उनका (अर्थातश्रमिकों का) राज स्थापित करने में जरूर कामयाब होंगे।

रिक्शा वालों के बीच इनकी प्रसिद्धि का कारण कुछ अलग है। आइये एक सत्यघटना के आधार पर इसे समझने का प्रयास करें।

यूँ तो यह घटना हर वर्ष मई दिवस अर्थात एक मई को घटित होती है, परंतु जिसघटना का विवरण यहाँ दिया जा रहा है वह इसी वर्ष की है। दिन दुनिया भर केमजदूरों-श्रमिकों के लिये जश्न मनाने, रैलियाँ निकालने ओैर नारे बुलंदकरने का था। चूकि यह शहर भी दुनिया का ही मजदूर बहुल एक हिस्सा है, और सोमेश साहब जैसा व्यक्ति उनका खेवनहार हैं, अतः यहाँ भी यह परंपरा निभाईजा रही थी। तय कार्यक्रम के अनुसार विभिन्न मजदूर संगठनों को अपना-अपनाजुलूस, शहर के विभिन्न मार्गों से गुजार कर, अंततः शासकीय स्कूल के विशालमैदान में आम-सभा के रूप में परिवर्तित कर लेना था, जहाँ दिन के दो बजेसोमेश साहब प्रकट होकर मजदूरामृत वाणी की मधुर वर्षा से मजदूरों कोनव-जीवन देने वाले थे।

सोमेश साहब अपने सिद्धांत के पक्के हैं। श्रमिक-सभाओं के मंच परउपस्थित होने के लिए वे मोटर वाहन का उपयोग न कर रिक्शे का ही उपयोग करतेहैं। आधे घंटे से वे अपने भव्य ’श्रमिक निवास’ के सामने खड़े होकर किसीरिक्शे की प्रतीक्षा कर रहे थे, पर न जाने शहर के सारे रिक्शा वाले कहाँ मर गए थे।

दरअसल शहर के रिक्शा वाले जानते हैं कि कामरेड साहब अपने रिक्शा चढ़ने कीतीन सौ चैसठ दिनों की दमित-संचित साध मई दिवस के दिन ही पूरी करतेहैं, ठीक वैसे ही जैसे होली के दिन लोग दुश्मनी भुनाने की साध पूरी करतेहैं।दो बजने वाले थे। सूरज आग उगल रहा था। सड़क के ऊपर डामर पिघल कर फैलने लगाथा। धूप से बचने के लिए लोग गमछों-तौलियों का प्रयोग करने लगे थे। तभीइशारा पाकर एक रिक्शा सोमेश साहब के पास आकर रुका। चालक शायद नया था।सवारी और चालक, दोनों ने एक दूसरे को पतियाते हुए निगाहों से तौला।ग्राहक की आँखों में कांइयापन साफ झलक रहा था जबकि चालक की आँखों मेंविवशता और लाचारी हिलोरें मार रही थी। पाँच मिनट की खासी मोल-भाव के बादरिक्शा आगे बढ़ा।

कुछ ही दूर चलने के बाद रिक्शा वाले की साँसें फूलने लगी। शरीर पसीने सेलतपथ हो गया। रिक्शे की चाल धीमी हो गई। सोमेश साहब को रिक्शे की सवारीका वांछित आनंद नहीं मिल पा रहा था। मोल-भाव के कारण वे वैसे भी झुंझलाएहुए थे। मंच पर पहुँचने का समय भी निकला जा रहा था। अब तो धैर्य जवाब देगया। वे रिक्शा वाले पर बरस पड़े -”अबे, जल्दी चल, दम नहीं है तो रिक्शाक्यों चलाता है।”

पूरे शरीर की ताकत पैरों में समेट कर रिक्शा वाले ने जोर लगाया।

किसी तरह मंजिल आई। रिक्शा वाले की जैसे जान बची। एक हाथ से गले में लटकरहे गमछे से चेहरे का पसीना पोंछते हुए उन्होंने दूसरा हाथ मजदूरी के लिएआगे बढ़ा दिया। उनके इस दुःसाहस से सोमेश साहब उबल पड़े - “कौन वापस लेकरजायेगा, तेरा बाप? और फिर इस जलसे में क्या तुम शामिल नहीं होगे ?तुम्हारे जैसे लोगों के कारण ही मजदूरों का संगठन आज इतनी कमजोर हुई जारही है।”

तब तक सोमेश साहब आयोजकों से घिर चुके थे।

रिक्शा वाला प्रत्युत्तर में दम साध कर कुछ बोलने ही जा रहा था कि अचानकउसे खाँसी का दौर शुरू हो गया। मुँह पर गमछा रख वह खाँसने लगा। सोमेशसाहब आयोजकों के साथ मंच की ओर बढ़ गये।

रिक्शा वाला खाँसते-खाँसते निढ़ाल हो गया। वह वहीं जमीन पर बैठ गया। अब तोउसे इस जलसे का हिस्सा बनना ही था।उधर सोमेश साहब मंच पर मुख्य अतिथि की आसंदी का शोभा बढ़ा रहे थे औरभावपूर्ण, आत्मीय स्वागत से गद्गद् हो रहे थे।सोमेश साहब अपने सारगर्भित और ओजस्वी भाषण में हिंदुस्तान के मजदूरों की दयनीय हालत, उनके अधिकार जिनसे वे वंचित कर दिये गए हैं, पूँजीपतियों केजुल्मों-सितम और शासन तंत्र का पूँजीपतियों के हाथों बिक जाने आदि न जानेकितने रहस्यों पर से एक-एक करके परदा उठाते चले जा रहे थे। मजदूरों को साम्यवाद का सिद्धांत अच्छी तरह समझा रहे थे।

रिक्शा वाला उधर लगातार खांसे जा रहा था। सोमेश साहब के किसी रहस्योद्घाटन से अथवा साम्यवाद के किसी सिद्धांत से उसकी खाँसी पल भर केलिये भी थम नहीं रही थी। इस जलसे के किसी तामझाम से उसे कोई लेना-देना भीनहीं था। उसे लेना था सोमेश साहब से अपनी मेहनत की तयशुदा वह रकम जिसकेअनुसार उसने उसके भारी-भरकम शरीर को यहाँ तक ढो कर लाया था और जिससे उसेखाँसी की दवाइयाँ खरीदनी थी।

अंत में ’हर जोर जुल्म के आगे में, संघर्ष हमारा नारा है’ और ’इन्कलाब,जिंदाबाद’ के नारों के साथ सभा के समापन की घोषणा हुई।

जिंदाबाद के गगनभेदी नारों के बीच भी रिक्शा वाले की निगाहें निरंतरसोमेश साहब का पीछा करती रहीं। उसके लस्त-पस्त शरीर में थोड़ी बहुत जान जोबची थी वह इन नारों की वजह से नहीं बल्कि अपनी मेहनत के उन्हीं पैसों केमिलने की आस में बची थी, जिसे सोमेश साहब से लेना था।

परन्तु सोमेश साहब अब न जानें भीड़ के किस कोने में गुम हो चुके थे।

भीड़ धीरे-धीरे पूरी छट गई। विवशता के कारण छलछला आई रिक्शा वाले की निगाहें उन्हें अब भी मैदान के चारों ओर तलाश रही थी। उसे अब भी उम्मीदथा कि मजदूरों का यह मसीहा उसकी मजदूरी का पैसा देने उसके सामने जरूर आयेगा और यह भी कि वह वापस घर भी उन्हीं की रिक्शा में बैठ कर जायेगा। परसोमेश साहब अंतर्ध्यान हो चुके थे।

मसीहा अक्सर अंतर्ध्यान हो जाया करते हैं।

रिक्शा वाले की खाँसी रुकने का नाम नहीं ले रही थी।