काम को सलाम/ गिरिराज शरण अग्रवाल

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पात्र-परिचय

रामगोपाल शास्त्री : सेठ मोहनलाल मनचंदा के मित्र

सेठ मोहनलाल मनचंदा : नगर सेठ

युवती, अरजा मनचंदा : सेठ मोहनलाल की पुत्री

उषा मनचंदा : सेठ मोहनलाल की पत्नी

राजेंद्र : अरजा का ससुर

अलका : राजेंद्र की पत्नी, अरजा की सास

संजीव : युवक, नलकूप विभाग में इंजीनियर, अरजा का पति

कुछ महिलाएँ

दृश्य: एक

(एक भव्य भवन का दृश्य उभरता है। यह नगर के एक प्रमुख धनवान व्यक्ति का आवास है। लॉन में कुछ बच्चे खेल रहे हैं। तभी एक बूढ़ा व्यक्ति, प्रवेश करता है। उसके माथे पर लंबा-सा टीका लगा है। कुर्ता-धोती पहने हुए है। हाथ में बैंत लिए है। वह बोर्ड पर लगे स्विच पर हाथ रख देता है। संगीत जैसी धुन में घंटी बजते ही एक सुंदर युवती बाहर आती है।)

व्यक्ति : सेठ मोहनदास मनचंदा हैं, बेटी!

युवती : हाँ हैं जी। (आगंतुक को आदरपूर्वक ड्राइंग रूम में बैठाती है)

व्यक्ति : उनसे कहना, रामगोपाल शास्त्री आए हैं।

युवती : कहाँ से आए है, महाराज आप?

शास्त्री : कोई एक ठौर-ठिकाना नहीं है बेटी हमारा, अभी यहाँ, अभी वहाँ। आज इस शहर में तो कल उस शहर में।

युवती : तो क्या कहकर आपका परिचय दूँ, पापा जी को?

शास्त्री : नाम सुनते ही समझ जाएँगे बेटी वह!

(युवती भीतर जाती है और कुछ क्षण बाद एक टेª में पानी का गिलास लिए हुए वापस आती है और अत्यंत सुसभ्य ढंग से गिलास अतिथि के सामने मेज पर रख देती है।)

युवती : आप भोजन लेंगे?

शास्त्री : नहीं। पहले तुम्हारे पापा से मिलेंगे। (घड़ी देखता है) अरे ढाई बज रहे हैं। क्या कर रहे हैं बेटी, मनचंदा जी?

(भीतर से किसी के आने की आहट होती है। मनचंदा धीमे क़दमों से ड्राइंग रूप में प्रवेश करते हैं। शास्त्री मनचंदा को प्रसन्नतापूर्वक प्रणाम करते हैं और दोनों एक-दूसरे से गले मिलते हैं।)

मनचंदा : (शास्त्री को प्रेमपूर्वक सोफ़े पर बैठाते हुए) अचानक कहाँ से भटक आए, शास्त्री?

शास्त्री : तुम्हारे शहर में आया था। सोचा, तुमसे मिले बग़्ौर जाना उचित न होगा मेरे लिए और यहाँ आ गया।

मनचंदा : और बताओ कैसे रहे इस बीच?

शास्त्री : भगवान की दया समझो। सब ठीक-ठाक, कुशल-मंगल है। अपनी सुनाओ। कारोबार कैसा चल रहा है इन दिनों?

मनचंदा : वैसे तो सब ठीक है मित्रवर। इस वर्ष जो नया खाँडसारी प्लांट लगाया था, वह काप़्ाफ़ी घाटे में गया। यों तो शेष छह इकाइयों के चलते इस घाटे का कोई महत्त्व नहीं है फिर भी कोई इकाई घाटा आखि़र क्यों दे?

शास्त्री : तो सात खाँडसारी प्लांट चल रहे हैं इन दिनों?

मनचंदा : (विनम्रता से) भगवान की कृपा और आपके आशीर्वाद से।

(मनचंदा घंटी बजाता है। कुछ ही देर बाद वही युवती फिर बाहर आती है।)

युवती : कहिए पापा जी!

मनचंदा : भोला खाना खाकर आ गया होगा। उससे बोलो, शास्त्री जी के लिए चाय-नाश्ता लेकर आए।

युवती : जी अच्छा?

मनचंदा : और सुनो, यह शास्त्री जी हमारे बहुत पुराने मित्र हैं। ज्योतिषविद्या में निपुण हैं। जिसे जो बता दिया, कभी ग़लत नहीं हुआ। तुम भी इनका आशीर्वाद लो और चरण छुओ।

(युवती झुककर शास्त्री जी के चरण छूती है।)

शास्त्री : (सिर पर हाथ रखते हुए) युग-युग जियो, फलो, फूलो। क्या नाम है बेटी तुम्हारा?

युवती : अरजा मनचंदा!

शास्त्री : वाह, अति सुंदर! बहुत ही सुंदर नाम है तुम्हारा तो।

(अरजा मनचंदा शरमाती हुई भीतर चली जाती है, मोहनदास मनचंदा आपस में बतियाते रहते हैं।)

शास्त्री : बहुत ही सुंदर, बहुत ही प्यारी बेटी है अरजा! जिस आँगन में जाएगी, चंद्रमा का प्रकाश फैल जाएगा वहाँ।

मनचंदा : लेकिन शास्त्री, इसका भविष्य देखकर यह तो बताओ कि विवाह का मुहूर्त कब है?

शास्त्री : (आश्चर्य से) इतनी सुंदर कन्या का विवाह नहीं हो पा रहा है तुमसे, आश्चर्य की बात है।

मनचंदा : कई जगह वर देखने गया। देखे भी। कितने ही लोग देखने आए अरजा को, लेकिन बात नहीं बनी।

(नौकर मेज पर चाय और नाश्ता लाकर सजा देता है और मालिक का इशारा पाकर फिर बाहर चला जाता है।)

शास्त्री : भगवान से ऐसा अद्भुत सौंदर्य पाकर भी हाथ पीले नहीं हो रहे हैं बेटी के, बात क्या है मनचंदा?

मनचंदा : समय का फेर है शास्त्री। पसंद तो अरजा को सब करते हैं, पर कोई परिवार हाथ थामने को तैयार नहीं होता।

शास्त्री : क्यों? ऐसा क्यों है मनचंदा जी?

मनचंदा : असल बात यह है शास्त्री जी, जो भी अरजा को देखने आता है, मैं उसको बता देता हूँ कि अरजा से कभी कोई काम नहीं लिया गया है, सिखाया ही नहीं गया कोई काम करना उसे। भगवान का दिया घर में सब-कुछ है, नौकर-चाकर हैं, ऐसी आवश्यकता ही नहीं पड़ी, जो अरजा को ख़ुद कोई काम करना पड़ता।

शास्त्री : तो केवल सौंदर्य के नाम पर ब्याहने चले हो बेटी को मनचंदा। यह व्यावहारिक नहीं है, दुनिया में।

मनचंदा : व्यावहारिक क्यों नहीं है शास्त्री जी! मैं मुँह-माँगा धन देने को तैयार हूँ, पर शर्त यही है कि अरजा से ससुराल में कोई काम नहीं लिया जाएगा।

(इसी बीच मिसेज उषा मनचंदा आती हैं और शास्त्री जी को प्रणाम करके बैठ जाती है। मनचंदा अपनी बात जारी रखता है।)

मनचंदा : अरजा हमारी इकलौती बेटी है। हमने तो कभी धूप की आँच भी नहीं लगने दी है उसे।

उषा : (बातचीत का प्रसंग समझते हुए) अरजा जन्म से ही इतनी कोमल है कि छूते ही रंग मैला होता है उसका।

शास्त्री : नहीं-नहीं बहन जी। यह आपने ठीक नहीं किया है, अरजा के साथ। आपको उसे घर-गृहस्थी का काम सिखाना चाहिए था और उसे भी सारे काम करने चाहिए थे। केवल रूप-लावण्य पर तो जीवन की गाड़ी नहीं चलती है, बहन जी।

उषा : शास्त्री जी, इसके लिए आपको कोई अच्छा और उपयुक्त घराना मिले तो बताएँ।

(बातचीत के साथ-साथ नाश्ते का कार्यक्रम भी समाप्त हो जाता है और शास्त्री उठकर जाने लगते हैं।)

दृश्य: दो

(तीन अजनबी, जिनमें एक युवक, एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति और एक पचास वर्षीय महिला शामिल है, मनचंदा की कोठी के सामने दिखाई देते हैं। अधेड़ उम्र का व्यक्ति कॉलबेल पर उँगली रखता है। मनचंदा बाहर आते हैं और अतिथियों को आदरपूर्वक ड्रांइग रूम में बैठाते हैं।)

मनचंदा : कहिए, कहाँ से आना हुआ आप लोगों का?

व्यक्ति : हम पड़ोस के जिले अनूपशहर से आए हैं।

मनचंदा : शुभनाम आपका?

व्यक्ति : (परिचय देते हुए) राजेंद्रकुमार, यह मेरी पत्नी अलका और यह मेरा बेटा संजीव। नलकूप विभाग में इंजीनियर है।

मनचंदा : (हाथ जोड़कर प्रणाम करता हुआ) अच्छा-अच्छा, बड़ी प्रसन्नता हुई आप लोगों से मिलकर।

(मनचंदा घंटी बजाता है, नौकर आता है।)

मनचंदा : (नौकर से) मेहमानों के लिए जलपान की व्यवस्था करो, जल्दी।

(नौकर चला जाता है।) मनचंदा : (मेहमानों को सम्बोधित करता हुआ) बताइए बंधुवर, कैसे कष्ट किया इस समय?

राजेंद्र : (एक चिट्टी आगे बढ़ाते हुए) लड़की देखने आए हैं, शास्त्री जी के बताने पर?

मनचंदा : (शास्त्री का पत्र पढ़ते हुए) शास्त्री जी तो अपने ही परिवार के एक सदस्य हैं राजेंद्र भाई, जैसा उनका आदेश होगा। हमें स्वीकार है।

(नौकर चाय-नाश्ता लेकर आता है। मनचंदा नौकर से अरजा को भेजने के लिए कहते हैं। कुछ क्षण बाद सजी-सँवरी अरजा ड्राइंग रूप में प्रवेश करती है और झुककर सभी को प्रणाम करती है।)

राजेंद्र : (अरजा की ओर ध्यान से देखते हुए) अति सुंदर। हमें पसंद है भाई मनचंदा जी। विवाह की व्यवस्था कीजिए।

मनचंदा : लेकिन भाभी और लड़के से तो पूछ लिया होता भाई राजेंद्र जी।

अलका : इनकी पसंद सबकी पसंद है, फिर लड़की तो ख़ुद ऐसी सुंदर है कि कौन इसे पसंद नहीं करेगा?

मनचंदा : लेकिन भाभी! एक बात साप़्ाफ़ बता दूँ। अरजा घर का काम-धंधा नहीं करेगी, उसे सिखाया ही नहीं गया है, कुछ करना। इकलौती बेटी है। घर में भगवान का दिया सब-कुछ है। उसे कुछ करने की ज़रूरत नहीं पड़ी कभी।

राजेंद्र : कोई बात नहीं भाई साहब! वहाँ भी अलका के भाग्य से सब-कुछ है। किसी चीज की कमी नहीं, बहुत बड़ा कृषि-फार्म है, संयुक्त परिवार है, नौकर-चाकर हैं। जिसका जी चाहे कुछ करे, जिसका जी न चाहे न करे। कोई पाबंदी नहीं है, किसी पर।

मनचंदा : ठीक है भाई साहब! बहुत-बहुत धन्यवाद।

(मिष्ठान और जलपान के बाद मेहमान विदा हो जाते हैं। मंच ख़ाली हो रहता है।)

दृश्य: तीन

(बारात चढ़ती दिखाई देती है। शहनाई और बैंडबाजे की धुन पर नृत्य हो रहा है। विवाह-मंडप का दृश्य उभरता है। विवाह-संस्कार के उपरांत अरजा ससुराल के लिए विदा हो जाती है।) दृश्य: चार

अलका : (लॉन में खचाखच भरी औरतों की भीड़ से) बहू क्या है, चौदहवीं का चाँद है। बिल्कुल चौदहवीं का चाँद।

(अरजा और संजीव सुनहरी कुर्सियों पर सजे बैठे हैं। अरजा का सौंदर्य शृंगार के बाद और भी बढ़ गया है। जो भी आता है, प्रशंसा के दो बोल अवश्य उसकी जुबान से निकल जाते हैं।)

आवाज : बहू को देखकर तो लगता है कि ख़ुद गढ़ा है भगवान ने अपने हाथों से।

दूसरी : क्या सुंदर कन्या है, वाह-वाह!

तीसरी : घर में चाँद उतर आया है, चाँद।

दृश्य: पाँच

(घर में अरजा अकेली है। सब लोग जेठ, जेठानी, ससुर, देवर, सास तथा घर के अन्य सदस्य अपने-अपने काम में लगे हैं। सास किचन में रसोइए को सहयोग दे रही है। ननदें सिलाई-कढ़ाई में व्यस्त हैं। ससुर फ़ार्म पर जाने के लिए घर से निकल गए हैं। पति संजीव अपनी ड्यूटी पर चला गया है। अरजा अपने गद्देदार पलंग पर अकेली पड़ी है। कोई उसके पास नहीं आता है।)

अरजा : (रसाई में सास के पास जाते हुए) मम्मी जी! मुझे इस घर में आए एक महीने से अधिक हो गया है ना!

सास : हाँ बेटी! क्या दिल नहीं लग रहा है तुम्हारा यहाँ?

अरजा : नहीं मम्मी, ऐसी बात तो नहीं पर…।

सास : हाँ, हाँ कहो, झिझको नहीं।

अरजा : यहाँ कोई मेरा आदर नहीं करता है मम्मी? मुझे बहुत अखरता है यह।

सास : लेकिन तुमने यह कैसे जाना कि कोई तुम्हारा आदर नहीं करता?

अरजा : इस परिवार का यह नियम मैं देखती हूँ मम्मी कि घर में आते ही हर छोटा, बड़े को शीश नवाता है। छोटे भाई बड़े भाइयों को और लड़कियाँ, माता-पिता को। अपने कामों से निबटकर जब शाम को लोग घर लौटते हैं, तो सब एक-दूसरे को प्रणाम करते हैं, लेकिन मेरी ओर कोई नहीं आता है। कोई पूछता ही नहीं मुझे।

सास : (हँसकर) तुम्हें समय पर खाना तो मिल जाता है बेटी!

अरजा : हाँ मम्मी। खाना भी, नाश्ता भी।

सास : कोई काम तो नहीं करना पड़ता तुम्हें। यही एक शर्त रखी थी तुम्हारे पिता ने शादी से पहले। कहा था, कोई काम तुमसे नहीं लिया जाएगा।

अरजा : वह तो ठीक है मम्मी। पर कुछ मेरा आदर-सम्मान भी तो होना चाहिए। जैसा औरों का होता है। मुझे तो खाना इस प्रकार दिया जाता है, जैसे भिखारी को दान दिया जाता है।

सास : अच्छा! तुम ऐसा सोचती हो। यह शिकायत है तुम्हें। तो आने दो संजीव को, उससे कहूँगी।

(तभी राजेंद्रकुमार घर में प्रवेश करते हैं।)

सास : (पति की ओर देखते हुए) अजी कुछ सुना तुमने, बहू को शिकायत है, यहाँ कोई उसका आदर नहीं करता। छोटे बच्चे नमस्ते तक नहीं करते हैं। उसे।

राजेंद्र : बात यह है बेटी! दुनिया में करते को नमस्ते और काम को सलाम होता है। चाम और नाम को नहीं। समझीं?

अरजा : (झुककर ससुर के पाँव छूती है) समझ गई हूँ पापा। समझ गई हूँ। दुनिया में करते को नमस्ते, निकम्मे को नहीं।