कालिखपुता / मुकेश मानस

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कालिखपुता

1

शंकर के खानदान में उस तक कोई नहीं पढ़ा था और शायद आगे भी न हो क्योंकि अब तक शंकर की दो बेटियाँ पैदा होकर मर चुकी हैं और तीसरे बेटे के जन्म के दौरान शंकर की पत्नी भी चल बसी। बहुत कमजोर थी बेचारी, उसकी उमर भी बहुत कम थी। अस्पताल में उस भूरे हाथों वाले डाक्टर ने शंकर का तीन बोतल खून निकाल लिया था पर फिर भी शंकरी नहीं बची। बिना खून चढ़वाए ही मर गई।

जिस झुग्गी बस्ती में आजकर शंकर रहता है शंकरी उसी के आसपास कूड़ा-करकट बीनती थी। एक दिन बस्ती के चिकने मुँह वाले आदमी ने उसे अपनी झुग्गी के पास कुछ टटोटलते हुए देखा। उसने दौड़कर उसका हाथ कसकर पकड़ लिया और लगा पीटने। वह पिटाई कम कर रहा था और उसकी छातियों को ज्यादा दबा रहा था। इस चिकने मुँह वाले आदमी को सब तेल वाला लाला कहते थे क्योंकि वो सरकारी दुकान पर आये मिट्टी के तेल को ब्लैक करता था। उसकी दुकान में तेल है या नहीं बस्ती के लोग उसके चेहरे की चिकनाहट को देखकर पता लगाते थे। शंकर उधर से गुजरते हुए चीख-पुकार सुनी। उसने लड़की को हाथ-वाथ जोड़कर छुड़वा लिया और उसे अपनी झुग्गी में ले आया। शंकर ने उस लड़की को अपनी झुग्गी में लाकर पहले रोटी खिलाई और फिर उसे दवा दिलाने ले गया। लड़की घर संभालने लगी। धीरे-धीरे लोग उसे शंकरी के नाम से बुलाने लगे।

2

शंकर जब छोटा था, तब वह एक गाँव में रहता था। उसके बड़े दो भाई और एक बड़ी बहन थी। एक छोटी-सी कोठरी ही उसका घर था। अपने माँ-बाप को वह ठीक से पहचानता नहीं था। माँ-बाप अक्सर उसके जागने से पहले निकल जाते और रात को घर लौटते। वह बहन को ही अपनी माँ समझता था। एक दिन सुबह उठा तो एक मरियल-सा आदमी, जिसके चेहरे पर ऐसे दाग थे मानो वहाँ काँटे घुसाकर निकाल लिए गए हों, उसकी बहन को बालों से पकड़-पकड़ कर मार रहा था। वह उसके पेट और छाती पर लात चला रहा था और गालों पर झापड़ मारते हुए गाली दे रहा था।

शंकर तो सहमकर खड़ा रहा मगर उसके पीछे से फुसफुसाती हुई आवाज़ आई – “अरे शंकर के बाप क्या जान लेगा अभागिन की।”

उसके बाप पर न कोई असर पड़ना था, न पड़ा। मगर शंकर ने पहली बार ठीक से अपने बाप को पहचान लिया था। उसके बाद फिर सब कुछ सामान्य हो गया। इस तरह की घटनाएँ पूरे गाँव में आम थीं जो चिंघाड़कर घटतीं और घोड़े बेचकर सोने वालों की तरह खामोश हो जाती और पूरा गाँव बिना हरकत किए पूरी तन्मयता के साथ अपने काम में लगा रहता।

वह अपनी माँ की पहचान उसके मिट्टी में सने स्तन से करता था। कभी-कभी माँ सोते हुए उसके खुले मुँह में अपना मिट्टी सना स्तन डाल देती जिसे वह अनायास ही खींचने लगता। मगर उनमें से दूध् ऐसे ही निकलता था जैसे किसी गरीब के घर में भूखे चूहे रात को खाली बरतनों में कुछ खाने लायक वस्तु ढूँढ़ते रहते हों और उन्हें कुछ नहीं मिलता हो। सुबह अक्सर उसे अपना मुँह मिट्टी से सना मिलता था। एक दिन उसे अपना मुँह खून में सना मिला। उसने देखा कि उसकी माँ को घर के बाहर कुछ लोग रास्ते में सफेद चादर में लकड़ी की टिकटी पर बाँध रहे थे। वह माँ की तरफ दौड़ा मगर बहन ने उसे बीच में ही रोक लिया और बोली-“अब वो तुझे कभी दूध् नहीं पिलायेगी।”

कुछ आवाजें फुसफुसा रही थीं – “कैसा अनर्थ है? कब तक वे हमारी औरतों को चीरते रहेंगे?” धीरे-धीरे आवाजें फुसफुसाती रहीं और खामोश पड़ती गई।

एक दिन उसकी बहन भी एक अधेड़ मुच्छड़ के साथ चली गई जो उसकी बहन को जितनी ही बार देखता था तो उतनी ही बार उसके होठ गीले हो जाते और उसके मुँह से लार टपकने लगती थी। एक दिन उसका बड़ा भाई रात को खेत में पानी देता हुए मर गया। उसका भाई नाली के बीचों-बीच मरा पड़ा था। उसका पेट फूलकर ढोल की तरह हो गया था। उसे जलाकर आने वाले लोग फुसफुसा रहे थे-“ उसके पेट में पानी बहुत था और उसे जलाने में बहुत लकड़ियाँ खर्च हुई।”


3

जब वह ग्यारह साल का हुआ तो एक दिन एक सूअरनुमा आदमी उसके घर आया। उसके बाप ने उसे बुलाकर कहा – “देख ये तेरा मामा है। नानी के घर जायेगा।” उसने शंकर को नयी कमीज और लट्ठे का पाजामा दिया। कमीज पाजामा देखकर वह नानी के घर जाने से इंकार नहीं कर सका। वो सूअरनुमा आदमी उसे दिल्ली शहर ले आया और एक बड़े से घर में ले जाकर पटक दिया। उस घर का मालिक शक्ल से बहुत-बहुत सुन्दर था मगर उसके किसी काम के लिए ना-नुकर करते ही दाँत भींचकर एक मोटे से डंडे से ऐसे मारता था जैसे कोई जानवर अपने शिकार को पकड़ने के लिए फाड़ता है।

धीरे-धीरे शंकर ने ना-नुकर करना छोड़ दिया। शंकर जब जवान हुआ तो मालिक ने उसे पूरी तरह से ट्रेंड मानकर बाहर भेजना भी शुरू कर दिया। लेकिन कुत्ते की पूंछ न सीधी होनी थी, न हुई। एक दिन ऐसे ही मौका पाकर वह भाग निकला। दरियागंज इलाके में रात को फुटपाथ पर सोते हुए एक हवलदार ने उसकी खूब ठुकाई कर दी। उसे इतना मारा कि उसकी अंतड़ियाँ तक हिल गई, मुँह से खून आने लगा। एक अफीमची भिखारी ने उसे कुछ दिन अपनी झुग्गी में रखा और ऐसा रखा कि फिर वह वहीं का होकर रह गया।

शंकरी को जब वह अपनी झुग्गी में लाया था, उससे दो दिन पहले ही उसे ओखला के एक तार बनाने के कारखाने में प्लास्टिक को बाल्टी में डालकर तपाने की नौकरी मिल गई थी। पहले भट्ठी में लकड़ी जलती थी, फिर कोयला आने लगा, बाद में भट्ठी बिजली से चलने लगी।

शंकर पहले नंगे पैर आता था, फिर चप्पल पहन कर आने लगा और जब उसके कारखाने के बाहर ग्यारह कारें और छ: मोटर साईकिलें खड़ी होने लगीं तब उसने बड़ी मुश्किल से कुछ लोगों से माँग कर पैसे का जुगाड़ किया और अपने लिए एक पुरानी साईकिल खरीदी जो बिल्कुल उसी की तरह लड़खड़ा कर चलती थी।

धीरे-धीरे प्लास्टिक की कालिख की कई परतें उसके चेहरे पर चढ़ गई और इनके पीछे शंकर का असली चेहरा दिखना बन्द हो गया था। अब वह शंकर नहीं ‘कालिखपुता’ था। कारखाने में और बस्ती में लोग उसे कालिखपुता बुलाने लगे थे। कारखाने में उसे अपने जैसे कभी पाँच या छह: कालिखपुते दिख जाते थे। कभी-कभी लंच के वक्त वह सड़क पर पड़ी चाय की दुकान पर कुछ सिक्के फैंकता और वहाँ बैठे कुछ सहमे से कालिखपुतों के साथ चाय पीता।

4

एक दिन उसने हजारों मजदूरों को सड़क पर लाल झंडे लिए ‘मजदूर एकता जिंदाबाद’, ‘मजदूरों का खून चूसने वाले मालिक लोग मुर्दाबाद’ के नारे लगाते हुए अपनी ओर आता देखा तो वह डर गया। उसकी साईकिल लड़खड़ा गई और वह गिर गया। जूलुस में आ रहे कुछ लोगों ने उसे उठाया और उसकी साईकिल संभाली। इतने सारे अपने जैसे कालिखपुते चेहरों को देखकर वह अचंभे में था कि इतने सारे लोग अचानक कहाँ से आ गए? उसके उनके नारे समझ नहीं आ रहे थे। पर नारे थे कि खत्म ही न होते थे। वह नारे लगाते हुए एक-एक आदमी के चेहरे पर जोश और जोश में तनी हुई मुट्ठियों में हार न मानने वाली हिम्मत देख रहा था। उसने वहाँ एक गाना भी सुना-“जाम करो मिलके ये शोषण का पहिया, मालिकों से लड़ने को एक हो जा भैया।”

भीड़ जब काफी आगे निकल गई तब भी वह सोचता रहा कि शोषण का क्या मतलब हो सकता है। वह सोच रहा था कि वह आज तक किसी से ऊँचा नहीं बोला था बल्कि लोग ही उससे ऊँचा बोलते आये थे। अगर कोई उससे ऊँचा बोलता है तो उसे पेशाब आता महसूस होता। वह आज तक किसी से नहीं लड़ा और फिर मालिक से लड़ने का ख्याल तो उसे कभी सपने में भी नहीं आया है। वह तो अपने मालिक को अपना भगवान समझता आया है। हालाँकि एक बार नहीं, कई बार कारखाने में उसकी बेईज़्ज़ती हुई। मालिकनुमा कोई भी आदमी उससे ‘अबे-तबे’ करके बात करता था। शुरू-शुरू में तो एक-दो बार उसने उससे थप्पड़ भी खाये थे। उसे अपने तमाम दु:ख भरे दिन और असुरक्षा में कटी रातें याद आती रहीं।

एक दिन शंकर को नौकरी से निकाल दिया गया। रोज उससे मांगकर बीड़ी पीने वाले हवलदार ने उस दिन उसे तनकर दरवाजे पर रोक दिया और भीतर जाने नहीं दिया। उसी से शंकर को पता चला कि उसकी नौकरी छूट गई है क्योंकि उसके चेहरे पर ज्यादा कालिख पुत गई है और वो काम करने के काबिल नहीं रहा है। वह गेट पर बैठ गया कि मालिक आयेगा तो वह उसके हाथ-पाँव जोड़ेगा मगर सात दिनों तक गेट पर बैठते रहने पर भी वह मालिक को ठीक से पहचान नहीं पाया। थोड़ा बहुत पहचानने की कोशिश भी करता तो उसकी छाती में धुक-धुकी इतनी तेज हो जाती कि वह कुछ न कह पाता था। इस बीच मालिक कितनी ही बार अन्दर-बाहर गया होगा। कार से उतर कारखाने के भीतर जाने वाले सारे लोग, जिन्हें हवलदार तनकर सलाम ठोकता था, उसे एक जैसे लगते थे।

कई दिनों तक वह इध्र-उध्र पागलों की तरह मारा-मारा फिरता रहा। फिर उसे न जाने कहाँ से यह विचार आया और वह घर-घर जाकर धूपबत्ती बेचने लगा। एक दिन अचानक मेरे घर आकर उसने मुझे पहचान लिया। मजदूरों के एक जलसे में उसने मुझे देखा था। अब तो वह बीच-बीच में आकर मुझे ‘नमस्ते’ कर जाता। मेरे घर में ढेरों किताबों को देखकर वह हमेशा अचंभे में दिखता था। जब तक वह चाय पीता, किताबों की तरफ एकटक देखता रहता। चाय पीने के बाद वह मुझे दो सिगरेट मांगता था एक पीने के लिए और एक रखने के लिए।

एक दिन उसने बताया कि उसे एक नए कारखाने में पहले जैसा काम मिल गया है। मैंने उसे बधाई दी और कहा कि इस बार मालिक को जरूर पहचान लेना। उसने कहा कि अब वह किसी भी मालिक को पहचानने में कभी कोई गलती नहीं कर सकता है क्योंकि अब उसे एक ऐसी नजर मिल गई है कि अब वह इस मालिक को तो क्या दुनिया के किसी भी मालिक को पहचान सकता है। नई फैक्टरी में कुछ दिन काम करने के बाद ही उसे करंट लग गया। मालिक ने उसे खतम जानकर पास के ही एक सीवर में फिंकवा दिया।

सुबह वह नाले के किनारे के खत्ते पर जिंदा पड़ा था। खत्ते पर कबाड़ा चुनने आए एक कबाड़ी से जब उसने बीड़ी मांगी तो वह उसे भूत समझकर भाग लिया। शंकर ने उसे पुकारना चाहा मगर लाख कोशिश करने के बावजूद भी वह उसे नहीं बता पाया कि वह कोई भूत नहीं है बल्कि एक कालिखपुता है। शंकर हैरान था कि उसके मुँह से कोई आवाज क्यों नहीं निकल रही थी। शंकर घर लौट आया और नहा-धोकर कारखाने चला गया। मालिक ने बजाए उसे काम पर रखने के हवलदार से धक्के मरवाकर फैक्टरी से निकलवा दिया।

साथियों, नायक शंकर की कहानी यहीं खत्म होती है। नायक शंकर आजकल धूबत्तियाँ बेच रहा है। आजकल नायक शंकर सिर्फ़ सुन सकता है, बोल नहीं सकता क्योंकि बिजली का एक लम्बा झटका एक चीख के साथ उसकी आवाज हमेशा के लिए ले जा चुका है। मगर महानायक शंकर की महागाथा यहीं से शुरू होती है। सैकड़ों मजदूरों को अपनी ओर आते देख न डरने वाले, झंडा थामकर आगे-आगे चलने वाले महानायक शंकर को आप कहीं भी, कभी भी, किसी भी भूख और जुल्म के खिलाफ चलने वाले जुलूस में देख सकते हैं। 1997