काली आँधी / कमलेश्वर / पृष्ठ 2

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‘‘लेकिन क्यों ? जग्गी बाबू चीखे थे।

-इसलिए कि मैं पब्लिक में यह नहीं सुनना चाहती कि हम लोगों ने होटल को बहाना बना रखा है। कि यह होटल हमारी काली आमदनी का जरिया है....कि यह गंदे कामों के लिए इस्तेमाल होता है....इससे मेरी पब्लिक इमेज पर धक्का लगता है।

--लेकिन मालती...जीने के लिए आमदनी का यह एक इज़्ज़तदार ज़रिया है।...

-और मेरी बदनामी का भी यही एक ज़रिया है।

--आखिर मैं कुछ करूंगा या नहीं ? मुझे जीने और काम करने का हक है या नहीं...तुम समझती क्यों नहीं...


-समझती तो हूं पर राजनीति की इस दुनिया में साफ चेहरे रखने के लिए बहुत नुकसान उठाने पड़ते हैं। और होटल का बंद होना कोई इतना बड़ा नुकसान नहीं है कि....आप मेरी खातिर इतना भी न कर सकें।

-फिर मैं करूंगा क्या ?

-क्यों, मेरे साथ मेरे काम में हाथ नहीं बंटा सकते ? इतने गैर लोग साथ रहकर काम करते हैं। कितनी चीजों को संभालना पड़ता है। आप दस कमेटियों के मेम्बर हो सकते हैं...गैर लोग मुझसे फायदा उठा सकते हैं पर आपके लिए मैं किसी लायक नहीं ?

-मैं तुम्हारा पति हूं....फायदा उठा सकने वाला गैर आदमी नहीं...मैं तुमसे फायदा उठाऊंगा ? सोचो, क्या बात कही है तुमने ?

-कोई गलत बात तो नहीं कही। अगर एक औरत इस लायक हो जाए तो इसमें पति-पत्नी का रिश्ता...

-क्या कह रही हो तुम ?


-रिश्ते कामों को आसान करने के लिए होते हैं...बेड़ियां डालने के लिए नहीं। सही बात यह है कि आप अभी तक मेरी इस सेवा और त्याग की ज़िन्दगी, पब्लिक सर्विस की ज़िन्दगी से अपने को जोड़ ही नहीं पाए हैं।

-सही बात कहूं मालती। अब तुम्हें रिश्तों की ज़रूरत ही नहीं रह गई है।...खामख्वाह इन्हें ढोते जाने से अब तुम्हें कुछ हासिल होनेवाला नहीं है।

मालती ने उन्हें गुस्से से भरी आंखों से देखा था। और इतना ही बोली थीं—खैर....यह सब डिस्कस करने का वक्त मेरे पास नहीं है। चीफ मिनिस्टर छतरपुर आनेवाले हैं और उनके आने से पहले मुझे तमाम काम पूरे करने हैं...सात-आठ दिन छतरपुर में रहकर मैं पन्ना चली जाऊंगी।

-मुझे ज़रूरत होगी तो तुम्हारे सेक्रेटरी से सब प्रोग्राम मालूम कर लूंगा।

और चलते-चलते मालती जी ने इतना ही कहा था—‘‘मैं होटल वाले की बीवी कहलाती रहूं...यह आपको गवारा है तो ठीक है !


-तो तुम किसकी बीवी कहलाना पसन्द करोगी ?

-कैसी बातें करते हैं आप...मेरा मतलब है कि आप अच्छी तरह समझ रहे हैं। मुझे उम्मीद है कि आप...

-कोशिश करूंगा।...पर जाने से पहले एक बात और कह देना चाहता हूं। मैं सोचता हूं लिली को किसी होस्टल में डाल दूं ताकि हमारी रोज़-रोज़ की चटखती और टूटती ज़िन्दगी की तकलीफ की छाया से वह अलग रह सके। -यह हर बार लिली का वास्ता देकर मुझे कमज़ोर बनाने का ज़रिया आपने खूब ढूंढ़ रखा है ? जब देखो तब लिली ! अपनी मर्ज़ी की बात मनवाने के लिए आप हर बार लिली को आगे कर देते हैं। आइन्दा से आप लिली को पासंग बनाना बंद कीजिए !

-मैं लिली को पासंग बनाता हूं ?

-और नहीं तो क्या ?


-मालती तुम समझती हो...मैं धमकी देता हूं ! मैं बेचारा हूं...पर मैं कहे देता हूं, मैं तो जाऊंगा ही, लिली को भी तुम्हारी ज़िन्दगी से कहीं बहुत दूर लेकर चला जाऊंगा....

-हूं, फिर वही दलील ! वही वास्ता देने की आदत !

-इस बारह मैं करके दिखा दूंगा...तुम समझती हो, मुझमें कुछ भी करने की शक्ति नहीं रह गई है !

‘काश ! वह दिन देखने को मिलता !

‘ठीक है ! ठीक है !...जग्गी बाबू गुस्से से उफन रहे थे—मैं लाचार नहीं हूं ! मेरी बच्ची लाचार नहीं है...

तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई थी। मालती जी समझ गई थीं कि उनका सेक्रेटरी जगतसिंह होगा। घड़ी पर नज़र डालकर उन्होंने इतना ही जग्गी बाबू से कहा था—अब ये नाटक बंद कीजिए...बहुत बार देख चुकी हूं...और एक दम प्रकृतिस्थ होकर उन्होंने जगतसिंह को आवाज़ दी थी—यस कम इन...और ऐसे हो गई थी जैसे कुछ हुआ ही न हो।

जगतसिंह कुछ ज़रूरी तार लेकर आया था। डायरी उसके हाथ में थी। मालती जी तारों को देखती रही थीं और जग्गी बाबू कमरे से बाहर निकल गए थे।


और इस दिन के बाद सब कुछ एकदम तहस नहस हो गया था हम छतरपुर पहुँचे थे। मालती जी का दो हफ्ते का दौरा था। उन्हें महिला सेवादल का गठन करना था। तारीफ करूंगा मालती जी की भी। पूरे दौरे में कभी पता नहीं लगा कि कि वे कितना बड़ा तूफान मन में दबाए हैं। आखिर अपनी बच्ची का खयाल तो उन्हें आता ही होगा।

उनके नौकर बिंदा ने छतरपुर आकर खबर दी थी कि जग्गी बाबू ने खजुराहो होटल में तीसरे दिन ही ताला डाल दिया था और लिली को लेकर कहीं चले गए थे। एक क्षण के लिए वे उदास हुई थीं। उन्होंने आंखें बंद करके अपने आंसू छुपाए थे और बच्चों के अनाथाश्रम की नई इमारत का उद्घाटन करने चली गई थीं।


अनाथाश्रम में तीस-चालीस बच्चे थे। खपरैल की छोटी-सी इमारत थी। अनाथ बच्चों का अपना बैण्ड था और वे बच्चे मालती जी के स्वागत में, उनके पहुंचते ही प्रार्थना करने लगे थे—

वह शक्ति हमें दो दयानिधे, कर्तव्य मार्ग पर डट जावें

परसेवा, पर उपकार में हम जगजीवन सफल बना जावें

हम दीन दुखी, निबलों,. विकलों के सेवक बन संताप हरें

जे हैं अटके, भूले-भटक, उनको तारे हम तर जावें...


मालती जी की आंखों में रह-रहकर आंसू आ रहे थे और वे छोटे-छोटे बच्चों को प्यार से रह-रहकर चिपका लेती थीं। एक फोटोग्राफर बार-बार फोटो ले रहा था....और वहां जमा हुए लोग मालती जी की ममता देख-देखकर द्रवित और प्रसन्न हो रहे थे। उनके चेरहों पर मालती जी की ममता के लिए प्रशंसा की चमक थी। पर मैं जान रहा था कि यह कौन-सी हलचल थी...और मालती जी की आँखें रह-रहकर क्यों नम हो जाती थीं ! पर तारीफ करूंगा उनकी...कि कितना उन्होंने अपने को संभाला था और अपने एकांतिक दुख को वे कैसे चुपचाप पी रही थीं।


मुझे दिखाई दे रही थी—एक ट्रेन ! उसमें बैठे हुए जग्गी बाबू और मासूम लिली ! यह तो पता नहीं, वह ट्रेन कहाँ जा रही थी, पर इतना मालूम था कि वह ट्रेन मालती जी से कहीं दूर, और दूर भागती जा रही थी। और शाम को ही महिला सेवादल का गठन होना था। दोपहर का अनाथाश्रम वाला वह क्षण गुजर चुका था। और मालती जी ने अपने को संभाल लिया था। मैं एक कुर्सी पर बैठा चुपचाप सब देख रहा था।


महिलाओं की मीटिंग में वे बोल रही थीं—आप बहने कहती हैं कि आपको वक्त नहीं मिलता ! मैं खुद कभी नहीं कहती कि आप अपने घर-परिवार और पति की खुशियों की कीमत पर राजनीति का काम करें। यह ज़रूरी है कि परिवार और पति की पूरी परवाह की जाए...समाज की खुशी का असली आधार यही है...अगर मैं अपना उदाहरण पेश करूं तो आप क्या कहिएगा ! कौन कह सकता है कि मेरा परिवार और पति सुखी नहीं हैं ! और मैं समाज के कामों के लिए भी पूरा वक्त निकालती हूं—तो बहनों, हमें एक महिला सेवादल बनाना है...मुख्यमंत्री महोदय कल नगर में आ रहे हैं और उन्हें दिखाना है कि हम महिलाएं भी अपना मोर्चा संभाले हुए हैं...आनेवाले चुनावों में हमें बहुत काम करना है...मैं चाहूंगी कि कम से कम तीस महिलाएं आगे आएं और दल का निर्माण करें...तो पहला नाम किसका लिखा जाए ?


कई हाथ एकाएक उठे थे मालती जी ने एक ही इशारा करके पूछा था—आपका नाम ? उत्तर मिल था—लक्ष्मी अग्रवाल !

और मैंने वहीं बैठे-बैठे जैसे देखा था—पंचमंडी पब्लिक स्कूल की प्रिंसिपल के सामने जग्गी बाबू और लिली बैठे थे ? प्रिंसिपल ने पूछा था—यस माई चाइल्ड, वाट्स योर नेम !

-लिली !...लिली ने तुतलाते हुए कहा था।

-वेरी स्वीट नेम ! लिली ! सो यू विल लिव विद अस हियर ?

-यस ! लिली बोली थी।

और वापसी का सफर। जग्गी बाबू लिली को स्कूल में दाखिल करा के लौट आए थे। उनकी आंखें नम थीं। वे बार-बार खिड़की के शीशे को साफ कर रहे थे ताकि बाहर देख सकें, पर पानी की परत खिड़की के शीशे पर नहीं उनकी आंखों पर छाई हुई थी। उन्होंने आस्तीन से आंखें सुखा ली थीं। लेकिन वह वापसी का सफर घर-वापसी का नहीं था। वे खजुराहो लौटकर नहीं आए थे। सीधे भोपाल चले गए थे।