कितने पाकिस्तान / कमलेश्वर / पृष्ठ 3

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तीसरे संस्करण की भूमिका

मैं अपने हज़ारों-हज़ार पाठकों का हृदय से आभारी हूँ। सात महीनों में तीसरा संस्करण आना नितांत अकल्पनीय सच्चाई है। और वह भी तब जब कहा जाता है कि पाठकों का अकाल है। यह भी कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने पाठकों को पुस्तक से विरत कर दिया है। ऐसे दुष्काल में पाठकों ने मुझे अपने लेखन की सार्थकता का एहसास दिया है।

पुस्तक मेले के समय फरवरी 2000 में इसका पहला संस्करण आया था। चार महीने बाद जून 2000 में दूसरा संस्करण आया, और अब तीन महीने बाद यह तीसरा संस्करण ! तीसरे संस्करण की सूचना से पहले मुझे खबरें मिलीं कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय परिसर और जे. एन. यू. दिल्ली में ‘कितने पाकिस्तान’ की फोटोस्टेट कवर-रहित और कवर-सहित कापियाँ क्रमश: 80-100 और 120 रुपये में बिक रही हैं। कुछ विद्यार्थियों ने चंदा जमा करके इसकी कापी खरीदी और पढ़ी। यही मेरा सबसे बड़ा रचनात्मक प्राप्य है, मैं आने वाले समय को तो नहीं बदल सकता लेकिन जो उसे बदल सकते हैं, उन तक मैं पहुँच सका हूँ।

एक फोटोस्टेट पाइरेटिड प्रति मुझे देखने को मिली। वह मेरे लेखन की अस्मिता का अप्रतिम प्रमाण-पत्र बन गई ! इस उपन्यास पर सब जगहों से प्रतिक्रियाएँ आईं। भारतीय द्विभाषी लेखकों ने उन्मुक्त राय दी। अनुवाद की पेशकश की। अंग्रेज़ी सहित सात भारतीय भाषाओं में अनुवाद की शुरुआत हुई। अप्रत्याशित पत्र-पत्रिकाओं में चर्चा हुई, हो रही है। जाने-अनजाने, पाठकों, विद्वानों, मित्रों की बेलाग प्रतिक्रियाओं से मैं अभिभूत और आप्लावित हुआ।

इसी के साथ-साथ कुछ स्वयंसेवी साहित्यकारों के लिए यह उपन्यास, इसकी सार्वभौम चर्चा और स्वीकृति यंत्रणा का कारण बन गई।

मैंने यह उपन्यास उन्हें कष्ट पहुँचाने के लिए नहीं लिखा था। साहित्य में इधर एक दशक से घटिया बाज़ारवाद पनपा है। यशप्रार्थी और प्रशंसाप्रदाताओं के रचनास्खलित बौद्धिक बूचड़खानों का तेजी से विकास हुआ है। उन बूचड़खानों के दादाओं में आपसी लड़ाइयाँ भी होती रहती हैं। फिर उनके समझौते भी हो जाते हैं। कहीं ज्यादा गहरे स्वार्थ टकरा गए तो उनके बीच चरित्र-हनन की वारदातें भी हो जाती हैं। वैसे फिलहाल दादालोग कुछ पत्र-पत्रिकाओं के पन्नों पर अपने दुर्गंधित अधोवस्त्र धो रहे हैं। वे अनुभव और प्रश्नों की दुनिया से कट गए हैं।

लगता यही है कि आज शब्द का पारदर्शी पसीना सूख गया है। रौशनाई स्याही में बदल गई है। अपने इस दौर के ऐसे तमाम सिद्धांतवादियों, स्खलित रचनाकारों, खुद को साहित्य का नियंता समझने वाले कुंठित ईर्ष्यावादियों को गले लगाते हुए इतना ही कहना जरूरी समझता हूँ कि-

आ जा रक़ीब मेरे तुझ को गले लगा लूं मेरा इश्क कुछ नहीं था तेरी दुश्मनी से पहले

अंतत: तो साहित्य और रचना का यह इश्क ही तय करेगा कि कौन कितने आँसुओं के पानी में था और है। बहरहाल। अभी इस उपन्यास की पाँच प्रतियों की मुझे जरूरत पड़ी तो बताया गया कि एक या दो प्रतियाँ तो उपलब्ध हो सकती हैं पर पाँच नहीं। वे भूमिका मिलने और तीसरे संस्करण के छपने के बाद ही उपलब्ध हो सकेंगी। मेरा संतोष यही है कि तमाम पाठक और खास तौर से नौजवान पीढ़ी इसे सात्विक उत्साह से पढ़ रही है। यही पवित्र यश है। यही मेरा प्राप्य है। पचास-पचपन बरस पहले जो अमूर्त-सी शपथ कभी उठाई थी कि रचना में ही मुक्ति है, उस मुक्ति का किंचित एहसास अब हुआ है। ज़िन्दगी जीने, दायित्वों को सहने और रचना की इस बीहड़ यात्रा के दौरान जो कभी सोचा था, सोचता रहा था कि ‘वाम चिरंतन हैं’ उसकी गहरी प्रतीति भी मुझे इसके साथ मिली है।

और अंत में इस तीसरे संस्करण के साथ पिछले संस्करणों पर छपी लाइनों कि ‘इन बंद कमरों में मेरी साँस घुटी जाती है, खिड़कियाँ खोलता हूँ तो ज़हरीली हवा आती है’, के गुमनाम शायर को अपनी अकीदत पेश करते हुए अब मैं फिराक साहब की इन लाइनों पर अपनी बात को थोड़ा सा विराम देता हूँ:

इन कपस की तीलियों से छन रहा कुछ नूर-सा कुछ फज़ा कुछ हसरते परवाज़ की बातें करो....

साहित्य इसी ‘हसरते परवाज़’ का पर्याय है।


-कमलेश्वर