किराये की कोख में अजन्मे सवाल / जयप्रकाश चौकसे

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किराये की कोख में अजन्मे सवाल
प्रकाशन तिथि :27 अगस्त 2016


केंद्रीय मंत्रिमंडल ने किराये की कोख को लेकर नए नियम पर सहमति जताई है और यह अधिनियम संसद में बहस के लिए प्रस्तुत होगा। खबर यह है कि नए नियम के तहत केवल रक्त-संबंधी से किराये पर कोख ली जा सकती है अौर विवाह के पांच वर्ष तक स्वयं की संतान नहीं होने पर ही ऐसा किया जा सकता है। बताया जा रहा है कि यह व्यवसाय 900 करोड़ रुपए प्रतिवर्ष का हो चुका है। नए नियम बनने के बाद कोई विदेशी व्यक्ति भारत आकर किराये की कोख नहीं ले सकेगा। इसका अर्थ यह है कि 'शिशु निर्यात' प्रतिबंधित हो जाएगा परंतु किसी भारतीय महिला को विदेश में 9 माह रखकर यह किया जा सकेगा। हर कानून में सुराख बनाया जा सकता है और पतली गलियों को खोजने में वे सब लोग सफल होते हैं, जिन्हें वैध राजमार्ग का उपयोग नहीं करने दिया जाता।

कभी राज कपूर के प्रमुख सहायक निर्देशक रहे लेख टंडन ने 1983 में 'दूसरी दुल्हन' नामक फिल्म बनाई थी, जिसमें विक्टर बनर्जी और शर्मिला टैगोर विवाहित दंपत्ति थे और किसी रोग के कारण पत्नी गर्भधारण नहीं कर सकती थी। अत: वे वेश्या से यह अनुबंध करते हैं कि वह विक्टर के साथ सहवास करके बच्चे को जन्म देगी, जिसे शर्मिला पालेगी और वही बच्चा उनके वंश को आगे ले जाएगा तथा उनकी संपत्ति का मालिक होगा। शबाना आजमी ने उस वेश्या की भूमिका निभाई थी और कथा में जबर्दस्त मोड़ यह था कि अपनी कोख से जन्मे बच्चे से शबाना को स्नेह हो जाता है और वह बच्चा देने से इनकार कर देती है तथा इस काम के एवज में ली गई राशि भी लौटाना चाहती है। बहरहाल, अंत में शर्मिला की सूनी कोख के दर्द के कारण शबाना बच्चा उसे दे देती है और साथ ही कोख की एवज में लिया गया धन भी वापस कर देती है।

फिल्म में इस प्रकरण से जुड़े भावना पक्ष को उकेरा गया था कि मां केवल बच्चा देने वाली मशीन नहीं है। गर्भ में आए शिशु के साथ उसे गहरा लगाव हो जाता है और प्रबल मातृत्व की भावना के कारण वह पहले किए गए अनुबंध से मुकर जाना चाहती है गोयाकि 'किराये के मकान' की तरह 'किराये की कोख' नहीं होती। सच तो यह है कि लंबे समय तक मकान में रहने पर उससे भी भावनात्मक तादात्म्य हो जाता है। ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म 'मुसाफिर' का केंद्रीय पात्र एक मकान है, जिसमें बारी-बारी से तीन परिवार बतौर किरायेदार रहने के लिए आते हैं। इसी फिल्म में दिलीप कुमार ने एक गीत भी गाया है। वेदव्यास के महाकाव्य 'महाभारत' में पांडव दिव्य आशीर्वाद से प्राप्त संतानें हैं परंतु कौरव गांधारी की संतानें हैं। गांधारी को बहू बनाकर लाया ही इसलिए गया था कि उसके भाग्य में सौ संतानें बताई गई थीं। उसे एक कन्या भी जन्मी थी, जिसका नाम दुशाला था गोयाकि वह सौ भाइयों को राखी बांधती होगी। पांडवों का दिव्य संतान होना भी उसी धारणा से जन्मा है कि राजा धरती पर ईश्वर का स्वरूप है। मनुष्य, मनुष्य के सहज स्वाभाविक रूप में राज्य कर सके, इसकी गुंजाइश ही नहीं छोड़ी गई। संभवत: इसीलिए शासन में मानवीय पक्ष कमजोर हो जाता है।

दिव्यता या ईश्वरप्रदत्त प्रतिभा के सारे आकल्पन मनुष्य को गौण करने की विधिवत योजना लगती है। मनुष्य के उदात्त स्वरूप व अकल्पनीय योग्यताओं पर अंकुश रखने के प्रयास हमेशा होते रहते हैं, यहां तक कि वह ईश्वर की श्रेष्ठतम रचना है इस पर प्रश्न-चिह्न लगाया गया। इतने सारे अवरोधों के बावजूद भी मनुष्य ने अपनी क्षमताओं से प्रकृति के अनेक रहस्यों को उजागर किया है और यह काम सतत जारी है।

नि:संतान व्यक्ति को अभागा भी प्रचारित किया गया है। सारे अनुष्ठान मनुष्य के लिए चक्रव्यूह की तरह रचे गए हैं। यहां तक कि स्वतंत्रता का भी भ्रम रचा गया है। सच्ची प्रगति की सड़क को सदैव 'मरम्मत का काम जारी है' के नाम पर बाधाओं से भर दिया गया है। अगर संतान लोभ का मायाजाल नहीं रचा गया होता तो अनेक दु:खों का जन्म ही नहीं होता। किराये की कोख अवधारणा में इस बात को गौण किया गया है कि कोख में संतान के सोच-विचार की भी रचना होती है। कोख केवल मांस के लोथड़े के निर्माण का कारखाना नहीं है। वहां शरीर के साथ सोचने के माद्‌दे का भी उत्पादन होता है। मां की कोख के संपूर्ण कार्यकलाप की जानकारी आज भी नहीं है। विराट प्रकृति का छोटा रूप है, मां की कोख। वहां पर्वत भी है, नदियां भी हैं, रेगिस्तान भी हैं। इतने शक्तिशाली और रहस्यमयी अजूबे पर कोई कानून सचमुच लागू हो नहीं सकता।

स्मरण आता है राज कपूर की 'आवारा' का दृश्य, जिसमें जज महोदय वकील साहिबा से कहते है कि दिल की बात अदालत नहीं मानती, उसे ठोस साक्ष्य चाहिए। वकील साहिबा फरमाती हैं कि उनका दिल भी किसी अदालत के अधीन नहीं है। कोख की विलक्षण रसायनशाला भी अदालतों और तर्क के परे है। नए नियम में विदेशी को किराये की कोख लेेने का अधिकार नहीं होगा परंतु ज्ञातव्य है कि वर्तमान में 1.40 करोड़ भारतीय विदेशों में बसे हैं और वे इतने महत्वपूर्ण हो गए हैं कि देश की सरकार भी चुनते हैं और प्रधानमंत्री भी गढ़ते हैं।