किसान-सभा में विरोध / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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जेल जीवन का संक्षिप्त विवरण खत्म करने से पूर्व किसान-सभा से संबध्द दो-एक महत्त्वपूर्ण घटनाओं पर प्रकाश डाल देना जरूरी है। सन 1940 ई. के अप्रैल में जेल जाने के बाद ही यह स्पष्ट हो गया था कि यद्यपिसोशलिस्ट लोग पलासा के प्रस्ताव में साथ थे , तथापि उस पर अमल करने के वे सख्तविरोधी थे।यों तो यह बात पहले ही झलकने लगी थी। फिर भी जेल जाने के बाद स्पष्ट हो गई। उनने सारी शक्ति इस बात में लगा दी कि पलासा के प्रस्ताव पर अमल न हो सके। यह इतनी प्रसिध्द बात है कि इस पर तर्क-दलीलें या प्रमाण पेश करना अनावश्यक है। फलत: किसान-सभा के शेष लोगों को जिनमें फारवर्ड ब्लॉक के भी लोग थे , यह बात बुरी तरह खटकी और इस प्रकार किसान-सभा के भीतरीविरोधने उग्र रूप धारण किया। इसकी खबरें मुझे जेल में बराबर ही मिलती रहती थीं और मैं दु:खी होता था। पर करता क्या ? विवश था। एक यह भी वजह थी जिससे ' जनता की पार्टी ' का प्रश्नजेल में उठने पर मैंने उसमें जाने से साफ इनकार किया। आगे फिर मिल-जुलकर काम करने का प्रश्न जब कुछ सोशलिस्ट साथियों ने गंभीरता के साथ उठाया तो मैंने उनसे जो ' नहीं ' कर दी उसका यह भी कारण था।

यहविरोधभीतर-ही-भीतर यहाँ तक बढ़ा कि सन 1941 ई. की फरवरी में डुमराँव में जो प्रांतीय किसान सम्मेलन पं. यमुना कार्यी कीअध्यक्षता में हुआ उसमें से सोशलिस्ट बाहर निकल आए। बात यों हुई कि भीतर-ही-भीतर उनकी कोशिश थी कि किसान-सभा में उन्हीं का बहुमत हो जाए। उनने इसके लिए सब कुछ किया। मगर जब उस कॉन्फ्रेंस में उन्हें पता चला कि वे विफल हुए और उनकी संख्या नगण्य सी है , तो कॉन्फ्रेंस से हट जाने के अलावे उनके लिए दूसरा चारा था ही नहीं। फलत: उसके शुरू में ही निकल खड़े हुए और उलटे पाँव लौट आए। संभव था वहाँ पहले के कामों और चालों पर टीका-टिप्पणी होती। इसलिए उनने पहले ही चल देना उचित समझा। अब किसान-सभा में खाँटी किसान सभावादियों के अलावे केवल कम्युनिस्ट और फारवर्डब्लाकिस्ट रह गए थे। फिर भी उसका काम निराबाध चलता रहा। उधरसोशलिस्टों ने एक अलग किसान-सभा बनाने की सारी भूमिका बाँधी। उसमें वे कहाँ तक सफल हुए यह तो सभी जानते हैं। इस बारे में मुझे यहाँ कहने की जरूरत नहीं है। मेरी रिहाई के पूर्व ब्लाकिस्टों की भी आवाज किसान-सभा के विरुध्द में उठ चुकी थी। उनके इस्तीफे भी कुछ दाखिल हुए थे। मगर उनके साथ हमारा और हमारे साथियों का नाता अभी टूटा न था। शायद कच्चे धागे से जुटा था। बिहार की किसान-सभा में तब तक कम्युनिस्टों की कोई गिनती थी नहीं। वे इने-गिने ही थे।