किसान और खेत मजदूर / कांग्रेस-तब और अब / सहजानन्द सरस्वती

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इसीलिए यह सवाल होता ही नहीं कि किसान यदि जमींदारी को मिटाते हैं तो खेत-मजदूर किसानों को भी मिटाएँगे उनकी जमीनें छीनकर। छीनने का प्रश्न होता ही नहीं। जमींदारी तो सिर्फ इसीलिए हटाई जा रही है कि खेती में बाधक है , रोड़ा है , उसके चलते जमीन के साथ किसान का अपनापन हो नहीं पाता। मगर किसान क्यों मिटेगा ? हम तो जमींदार को भी नहीं मिटाते , किंतु उसे भी सुखी बनाना चाहते हैं , पूरे आराम से रखना चाहते हैं। हम सिर्फ जमींदारी मिटाते हैं। तो क्या किसानी मिटाई जाएगी। किसानी तो खेती में साधक है न ? जमींदारी की तरह बाधक नहीं , कि मिटाई जाए। साथ ही किसान तो खुद मजदूर है , खेतों की उपज के लिए दिन-रात काम करता है , फिक्र करता है , चिंता करता है। खेती में कोई हल चलाता , कोई कुदाल ; कोई बैलों को खिलाता ; कोई खेत-खलिहान की रक्षा करता ; कोई खाद-गोबर डालता , कोई दौनी-ओसौनी करता है। इसी तरह सैकड़ों काम हैं। फिर किसान क्यों मिटेगा ? केवल हल चलाने से या किसी एकाध काम से ही तो खेती होती नहीं। और किसान की जमीन छिनेगी कैसे ? वह जाएगी कहाँ ? जो छीनेगा उसका पेट भी बिना उपज बढ़ाए कैसे भरेगा ? जनसंख्या दिनोंदिन बढ़ती जो जा रही है। फलत: सबों को मिलकर सरकार की पूरी मदद से उपज बनाना जरूरी है। इसीलिए किसान और खेत-मजदूर का झगड़ा भी बेकार है। उसकी गुंजाइश है ही कहाँ ? हम तो उन सबों को खेत के मजदूर ही मानते हैं जो खेती से जीते हैं ─ जिनकी जीविका का प्रधान साधन खेती है। वह तो पक्का किसान है जिसके पास किसी प्रकार कामचलाऊ या नाममात्र को ही जमीन है या न भी है , मगर खेती ही जिसकी जीविका का साधन है। हम ऐसों ही को सारी जमीन सौंपना और उन्हीं को समस्त सुविधाएँ देना चाहते हैं। नहीं तो वर्तमान जनसंख्या के होते ही जब फी आदमी कमबेश एक ही एकड़ जमीन खेती लायक है या हो सकती है तो आगे चलकर दिनोंदिन कम ही होती जाएगी। फिर भोजन कैसे मिलेगा ?