किस्सा लोकतंत्र / अध्याय 7 / विभूति नारायण राय

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पूरी रात पी.पी. ने आधा सोने आधा जागने में काटी थी। रात शांतिप्रसाद कब उठकर चला गया था, उसे याद नहीं। प्रेस कांफ्रेंस में पैदा हुए तनाव को कम करने के लिए वह बेतहाशा पीता रहा। तनाव उसे नशे में बेसुध होने से भी रोकता रहा। वह एक बड़ा पेग लेता और थोड़ी देर के लिए सोफे पर होशोहवास खो देता लेकिन फिर जल्दी ही अचकचाकर उठ बैठता। न जाने कब तक वह पीता रहा।

बीच में दो-तीन बार उसके नौकरों ने उसे उठाकर अंदर कमरे में ले जाने की कोशिश की, लेकिन पूरी तरह से बोलने में समर्थ न होने पर भी उसने अस्फुट स्वरों और लहराते हाथों से उन्हें भगा दिया था। उसके बीवी-बच्चे इस समय देहरादून गये हुए थे इसलिए उसने यह आयोजन अपनी कोठी में रखा था। इधर उसके मन में अपने बीवी-बच्चों को, खास तौर से दोनों बड़े बेटों को अपने अतीत से दूर रखने की इच्छा इतनी बलवती हो गयी थी कि उनकी उपस्थिति में कभी भी वह ऐसे कार्यक्रम अपने घर में नहीं रखता था। यदि वे शहर में होते तो किसी अच्छे होटल में या किसी और के घर में इस तरह के कार्यक्रम वह करता था।

नींद की अनुपस्थिति और पत्रकारों के साथ हुई बदमजगी रात भर फ्लैश बैक की तरह उसका अतीत उसके सामने उघाड़ते रहे। बीच-बीच में उसके अंदर अजीब तरह की खीज और बेचारगी का एहसास भर जाता। क्या विधायक होकर समाज में सम्मान हासिल करने का उसका प्रयास हमेशा-हमेशा के लिए दफन हो जायेगा? अगर कहीं पत्रकारों ने रात के उसके व्यवहार को अपने-अपने अखबार में बढ़ा-चढ़ाकर छापा तो शरीफ आदमी का मुखौटा पहने टिकट की लाइन में लगे पी.पी. को अवसर की तलाश में खड़े उसके शत्रु एक बार फिर ढकेलकर परे नहीं कर देंगे? वे चिल्ला-चिल्लाकर पार्टी हाई कमान के समक्ष नहीं कहेंगे कि यह आदमी शराफत का सिर्फ ढोंग रच रहा है, वास्तव में यह अभी भी गुंडा है और इसे अपने असली स्वरूप में आने में देर नहीं लगती। अगर इस बार उसे टिकट नहीं मिला तो फिर जीवन में कभी नहीं मिलेगा। कितनी मेहनत से उसने और शांतिप्रसाद ने गोटियां बिछायी थीं। पार्टी हाई कमान के ऐसे कई सदस्यों को उन्होंने हमवार कर लिया था जो पार्टी के उस नेता के करीब थे जिसका फैसला टिकट बांटने में अंतिम होना था। कुछ को उन्होंने पैसा दिया, कुछ को उनके क्षेत्रों के असरदार माफिया सरदारों से कहलवाया और कुछ को आने वाले चुनाव में बाहुबल की मदद का आश्वासन दिया। ऐसा मौका फिर नहीं आने वाला था।

कुछ-कुछ ऐसा ही शांतिप्रसाद सोच रहा था। कल रात घर लौटने के बाद वह भी नहीं सोया था। सारे रास्ते कार में पिछली सीट पर आंखें बंद किये वह पी.पी. को और उसे समर्थन देने के अपने फैसले को कोसता रहा। पर घर पहुंचते-पहुंचते वह काफी हद तक प्रकृतिस्थ हो चुका था। इतनी जल्दी हार मान जाता तो वह शांतिप्रसाद किस बात का था? पी.पी. के साथ उसका भविष्य भी दांव पर लगा था। घर पहुंचते ही वह टेलीफोन लेकर जुट गया -

'देखिए शर्मा जी, जो हुआ उसकी माफी हमने मांग ली। अब इसे छापने से क्या फायदा... हां-हां, यादवजी ने भी माफी मांग ली थी। आपके संवाददाता को याद नहीं है। दरअसल उन्होंने पी ज्यादा ली थी... । नहीं-नहीं, पीने पर हमें क्या आपत्ति हो सकती है। सभी ने पी थी, हमने भी...। मैं तो यह कहना चाहता हूं कि इसमें फायदा किसी को नहीं है। हर साल हम आपको कितना विज्ञापन देते हैं। फिर आप दूसरे हुकुम भी तो करते रहते हैं। आपके बहनोई वाला मकान किसने खाली कराया था... जी हां, मैं यही तो कह रहा हूं कि आदमी ही आदमी के काम आता है जी... अगर एक-दूसरे की मदद नहीं करेंगे तो कैसे चलेगा शर्मा जी!'

इसी तरह के कई टेलीफोन उसने कई अखबारों के वर्मा जी, शांडिल्य साहब, खान चाचा वगैरह-वगैरह को किये। दरअसल उसका दलाली का धंधा ही ऐसा था कि अखबारों के दफतरों में उसे आत्मीय संबोधनों वाले संबंध रखने पड़ते थे।

सारे स्थानीय अखबारों को खटखटकार शांतिप्रसाद सोया जरूर, लेकिन उसके अंदर बेचैनी बनी रही। पहली बार ऐसा हो रहा था कि अखबार वालों से निपटने में उसे दिक्कत हो रही थी। जिस तरह पत्रकारों का अपमान हुआ था, उससे इस बात का पूरा खतरा था कि पी.पी. के आतंक और शांतिप्रसाद के एहसानात के बावजूद अखबार कल उनके खिलाफ रंगे हों। राजधानी के अखबारों से निटपने के लिए तो अभी समय था। उनके डिस्पैच कल रात नहीं जा सके होंगे। सब कुछ स्थानीय अखबारों के रुख पर निर्भर करता था। रात की घटना की रिपोर्टिंग वे किस तरह करेंगे, इसी उधेड़बुन में वह आधा सोता आधा जागता रहा।

अभी पूरी तरह भोर नहीं हुई थी पर शांतिप्रसाद बिस्तर से उठा और पैरों में चप्पलें डालकर बाहर निकल आया। बाहर एक पहाड़ी नौकर बरामदे में झाड़ू-पोंछा लगा रहा था।

'अखबार आया, बहादुर? '

'नहीं, शाब।

'बाहर देखो, गेट पर तो नहीं फेंक कर चला गया।'

बहादुर ने आश्चर्य से सिर उठाया।

'अखबार तो अंदर बरामदे में फेंकता है, शाब!'

'बाहर देखकर आओ! जितना कहा जाता है, उतना ही सुना करो।'

शांतिप्रसाद के मुंह में कड़वाहट भरी थी।

बहादुर ने पोंछा रख दिया और गेट तक गया। गेट खोलकर उसने बाहर झांककर देखा और लौट आया।

'नहीं आया, शाब।'

शांतिप्रसाद को अपने उतावलेपन पर कुछ खीज-सी हुई।

'ठीक है, तुम अंदर सफाई करो, बाहर बाद में कर लेना।' उसने बहादुर को अंदर भेज दिया और स्वयं एक कुर्सी पर बैठकर ऊंघने लगा।

लगता था कि शांतिप्रसाद कुर्सी पर लगभग सो गया था क्योंकि जब कई अखबार एक साथ बरामदे में गिरे तो वह चौंककर उठ गया। झपटकर उसने सारे अखबार उठा लिये और सबसे पहले स्थानीय अखबारों को उलटना-पलटना शुरू कर दिया। जल्द ही उसके शरीर में संतुष्टि और सुख की धारा प्रवाहित होने लगी। किसी अखबार में कुछ नहीं छपा था।

'स्साले! जनखों की औलाद! हरामजादों ने बेकार रात भर नींद खराब की।' उसने अखबार वालों को कोसा और अंदर पी.पी. को फोन मिलाने चला गया।

राजधानी के अखबार वालों को भी दिन भर में ठीक कर लिया गया। शांतिप्रसाद और पी.पी. के आदमियों ने बीच-बीच में रिपोर्ट दी कि बागी जरूर सुबह से शाम तक सक्रिय रहा और अखबार वालों को संगठित करने की कोशिश करता रहा लेकिन उसे बहुत सफलता मिली नहीं। उसके साथ सिर्फ गुप्ता और भारद्वाज नामक पत्रकार थे जिनको रात में पी.पी. ने अपमानित किया था। इनमें से भी शाम तक गुप्ता अपने बच्चे की बीमारी का बहाना बनाकर खिसक लिया। बचा केवल भारद्वाज जिसे लेकर बागी एक-एक अखबार के दफ्तर तक दौड़ता रहा, फिर थककर भारद्वाज के घर शराब पीने बैठ गया।

भारद्वाज दिन भर तो बागी के साथ दौड़ता रहा था इसलिए अभी तक अपने अखबार के लिए भी डिस्पैच नहीं बना सका था। उसके अखबार ने उसे एक लड़का दे रखा था जो शाम को सात बजे की ट्रेन से उसके कागज लेकर अखबार के दफ्तर जाता था और फिर दस बजे तक लौट आता था। आज भी जब वे घर पहुंचे तो लड़का उनका इंतजार कर रहा था। समय बहुत कम रह गया था और लिखना काफी था, इसलिए वह हड़बड़ी से भर गया।

'छोड़ो पार्टनर! अब कितनी भी जल्दी करो, सात बजे वाली ट्रेन तो मिलेगी नहीं। टेलीफोन से खबर नोट करा दो।'

'ठीक है, तू जा। मैं टेलीफोन कर दूंगा।' भारद्वाज को लगा, बागी सही कह रहा है।

लड़के के चले जाने के बाद वे बोतल खोलकर बैठ गये। दिन भर की भागदौड़ ने थकान से ज्यादा अवसाद उनके मन में भर दिया था। वह अवसाद दिन में मिली असफलता की उपज था। अपने साथियों के प्रति खीज और कड़वाहट ने उन्हें खिन्न कर दिया था।

दिन भर वे अखबारों के दफ्तरों और मित्र पत्रकारों के घरों तक दौड़ते रहे। हर जगह रात की घटना मिर्च-मसाले के साथ पहुंच चुकी थी। लोग भोले बनकर पूछते, 'क्या हुआ यार, रात पी.पी. ने तुम्हारे साथ बदतमीजी कर दी?'

बागी उन्हें पूरी घटना समझाने की कोशिश करता लेकिन सामने बैठे लोगों की आंखें जिस शरारत से एक-दूसरे को इशारे करतीं या जिस तरह वे बात करते-करते मुस्कराते, यह स्पष्ट हो जाता कि वे सब कुछ जानते हैं।

शीघ्र ही उन्हें एहसास हो गया कि वे बेकार सिर पटक रहे हैं। बागी ने जिंदगी में इतना धैर्य कभी नहीं प्रदर्शित किया था पर धीरे-धीरे उसका धैर्य भी चुकने लगा था। वह उतावला होने लगा और विनम्रता का लबादा उतारकर उसने लोगों को तुर्की-बतुर्की जवाब देना शुरू कर दिया। अंत में शाम होते-होते वह फट पड़ा। एक अखबार के दफ्तर में उन्हें पांच-छह पत्रकारों ने घेर लिया।

'आप तो बागी जी बुजुर्ग हैं। आपने कैसे प्रेस का इतना अपमान बर्दाश्त कर लिया? भई, शराब तो कहीं भी पी जा सकती है।'

बागी ने भवें सिकोड़कर बोलने वाले को देखा। उसकी आंखों में छिपी शरारत ऐसी थी जिसे कोई भी पकड़ सकता था।

'हां भैये, प्रेस की इज्जत का ठेकेदार तो मैं ही हूं। तुम लोग बैठकर यहां अपनी मां... । एक बार अपने संपादक से पूछ लेते कि रात की घटना की रिपोर्ट तो पहुंच गयी थी फिर आज सुबह एक लाइन तक क्यों नहीं छपी तुम्हारे अखबार में? तुम्हारे अखबार का करेसपाण्डेंट भी तो था वहां।'

एक क्षण के लिए सन्नाटा छा गया। भारद्वाज समझ गया कि अब बात और बिगड़ेगी, इसलिए वह बागी का हाथ पकड़कर बाहर खींच ले गया।

शराब पीते-पीते भारद्वाज ने कागज पर खास चीजें लिखना शुरू किया ताकि अपने अखबार में टेलीफोन पर खबर नोट कराते समय कुछ छूट न जाए।

'बागीजी, पत्रकारों द्वारा निंदा का प्रस्ताव पास करने वाली बात लिखूं या छोड़ दूं?'

'लिख दो, बाद में साले इसे तो मना नहीं कर पायेंगे कि उन्होंने पी.पी. के खिलाफ प्रस्ताव पास किया।'

'कोई भरोसा नहीं। लेकिन चलिए, बाद में मना करेंगे तो देखा जायेगा।'

भारद्वाज ने लिखना बंद कर फोन उठाया। फोन पूरी तरह डेड था।

'अरे फोन तो डेड है बागीजी! दोपहर को तो मैंने घर फोन किया था, तब ठीक था।'

'उसी के बाद से डेड पड़ा है।' अंदर से भारद्वाज की पत्नी की आवाज आयी।

'इसमें भी पी.पी. का हाथ तो नहीं?' भारद्वाज ने मजाक किया।

लेकिन बागी गंभीर हो गया। उसने कुछ सोचते हुए उत्तर दिया, 'हो सकता है। इसमें आश्चर्य की क्या बात है। पी.पी. का असर सिर्फ अखबार वालों पर नहीं है। थाना, कचहरी, टेलीफोन - सभी जगह उसके आदमी हैं। आपका टेलीफोन किस खेत की मूली है, चुटकियों में खराब हो सकता है।'

'फिर?'

'फिर क्या भैये! अभी तो शुरुआत है। बड़े आदमी से लड़ोगे तो लड़ाई भी बड़ी होगी। जल्दी से खबर लिख डालो। दारू खत्म करके हम लोग दिल्ली चलेंगे। बारह बजे रात तक भी पहुंचे तो खबर लग जायेगी।'

लेकिन उनके दिल्ली जाने की नौबत नहीं आयी। भारद्वाज की पत्नी बड़े ध्यान से उनकी बात अंदर बैठी सुन रही थी। कल की घटना के बारे में भारद्वाज ने उसे कुछ नहीं बताया था लेकिन कुछ तो उड़ती-पड़ती वह दिन में सुन चुकी थी और बाकी इन दोनों की बातचीत से वह समझ गयी। जैसे ही बागी ने दिल्ली जाने की बात कही, वह झपटते हुए बाहर आ गयी।

'इस रात में कहीं जाने की जरूरत नहीं। जो आदमी टेलीफोन कटवा सकता है, वह और भी कुछ कटवा सकता है। अब घर से निकलने की जरूरत नहीं।' उसकी आवाज रुंध गयी थी।

भारद्वाज को लगा कि वह रंगे हाथ पकड़ा गया है। अपनी पत्नी के सामने कायर साबित हो जाने के खतरे ने उसे स्वयं को साहसी दिखाने के लिए मजबूर कर दिया।

'तो क्या चूड़ी पहनकर घर में बैठ जाऊं?'

'बैठ जाओ। कुछ करना था तो रात में करते, अब बहादुर बनने से क्या फायदा।'

भारद्वाज का चेहरा तमतमा उठा। रात का अपमान याद करते ही उसके तन-बदन में आग लग जाती थी लेकिन वह यह भी जानता था कि पत्नी जो कह रही है, वह भी सच है। यह एक असमान लड़ाई थी जिसमें बार-बार उसकी हिम्मत जवाब दे जा रही थी। अगर कहीं बागी बीच में न कूदता तो शायद वह इसमें पड़ता भी नहीं। सुबह से बागी साथ था इसलिए उसने कुछ और नहीं सोचा, पर बीवी जो कह रही थी, उसमें भी सच्चाई थी। बागी ने बात संभाली :

'ठीक है भाभी, नहीं जायेंगे। क्या नाम है उस छोकरे का, उसी को बुलाओ। हाथ-पैर जोड़कर उसी को भेजेंगे। पर खबर जायेगी जरूर।'

भारद्वाज ने अपने बेटे को दफ्तर के लड़के को बुला लाने को भेजा। वह पास ही रहता था। जल्दी आ गया। इस बीच बागी और भारद्वाज ने खबर बना डाली। लड़का एक बार वापस जाकर फिर आने में नानुकुर कर रहा था। आ गया तो दिल्ली जाने के लिए तैयार नहीं हो रहा था। बागी ने बड़ी मुश्किल से बहला-फुसलाकर उसे तैयार कर दिया। एक दस का नोट चाय-पानी के लिए अलग से देना पड़ा।

लड़के के जाने के बाद वे काफी देर तक रणनीति बनाते रहे। इसके तहत समर्थकों और मददगारों की सूची बनती-बिगड़ती रही। हर बार बात इस पर आकर अटक जाती कि गुप्ता को छोड़कर कोई और पत्रकार खुलकर उनके साथ आयेगा भी या नहीं। दिन में पत्रकारों के संगठनों की आपात बैठक बुलाने का प्रयास उन्होंने किया लेकिन असफल रहे। यहाँ तक कि एक बयान पर दस्तखत करने के नाम पर भी कोई उत्साह नहीं दिखाई दिया। गुप्ता का भी क्या भरोसा! बीच में ही लड़के की बीमारी का बहाना बनाकर खिसक गया।

'बीमारी की बात सही भी हो सकती है।' बागी ने समझाया।

'सही हो सकती है पर अब तो कई घंटे हो गये, अब तक लौट आना चाहिए था।' भारद्वाज ने झुंझलाकर कहा। उसे लग रहा था कि बागी ने उसे फंसा दिया है। कल जितना अपमान पी.पी. के घर पर नहीं हुआ उससे ज्यादा अपमान तो अब गले में तख्ती बांधकर घूमने में हो रहा है कि मुझे पीटा गया है, मुझे जलील किया गया है - ऐ लोगो, आओ मेरी मदद करो। दिन में जितनी बार उसे रात की घटना बयान करने को कहा गया, उसे लगता था कि उसे दोहराने से बेहतर है कि धरती फट जाय और वह उसमें समा जाय। पर अब तो बागी ने इतनी दूर तक पहुंचा दिया है कि वापस लौटने का जरिया भी नहीं बचा। उसने क्षोभ से बागी को देखा।

बागी मजे से बैठा शराब पी रहा था। उसकी आंखें बंद थीं और चेहरे को देखकर अनुमान नहीं लगाया जा सकता था कि उसके मन में क्या भाव आ-जा रहे थे। कम-से-कम किसी तरह के भय या घबराहट का भाव तो नहीं ही दिखाई पड़ रहा था।

बागी इस पूरे प्रकरण से निर्लिप्त एक दूसरी तरह का सुख भोग रहा था। इस तरह सम्मान के साथ बैठकर उसे किसी पत्रकार के घर शराब पीने को नहीं मिलती थी। दरअसल शराब उसकी बहुत बड़ी कमजोरी थी और पीने के बाद वह जिस तरह के हंगामे करता था, उसे किसी भी घर में एक या दो बार से ज्यादा खुशी से शराब नहीं पिलायी जाती थी। महिलाएं खास तौर से उससे चिढ़ती थीं। उन्हें हमेशा यही लगता था कि उनके पतियों को बागी बिगाड़ देगा। मजे की बात तो यह थी कि बागी के हमउम्र धुआंधार पियक्कड़ों की बीवियों की भी यही राय थी। बागी का जिक्र महिलाओं के बीच उपहास और विद्रूप से किया जाता। मुफ्त की शराब पीने के चक्कर में वह शाम को तरह-तरह के अवांछनीय तत्वों, लंपटों, लफंगों, चोर-बाजारियों, ठेकेदारों, अफसरों, नेताओं को फंसाने के लिए घूमता था। इसमें उसका पत्रकार होना उसके काम आता। उसका अखबार बहुत कम छपता था। कभी-कभी वह किसी ऐसे अखबार में काम पा जाता जो जरा नियमित छपता होता। ऐसे समय थाने से उसके लिए रोज का पव्वा बंध जाता। जब उसका नियमित अखबार बंद हो जाता या अखबार वाले उसे निकाल देते तो थाने वाले भी उसकी शराब बंद कर देते।

वे काफी देर तक शराब पीते रहे। गुप्ता नहीं आया। वे बीच-बीच में उसे कोसते और फिर खामोश हो जाते। शुरू-शुरू में तो वे बोलते-बतियाते रहे फिर धीरे-धीरे शांत हो गये। दोनों के चुप हो जाने के कारण अलग-अलग थे। अलग होने के पहले का ज्यादा समय बिना बोले शराब पीने में ही उन्होंने बिताया।

'चलें बिरादर, सुबह देखते हैं तुम्हारे अखबार में क्या छपता है!' बागी ने लड़खड़ाते स्वर में जो कहा, उसका मतलब कुछ यही था।

सुबह अखबार देखकर उन्हें निराशा हुई होगी। भारद्वाज के साथ घटी घटना का जिक्र तीसरे पृष्ठ पर सिर्फ चार-पांच पंक्तियों में था और उनमें भी पी.पी. के नाम की जगह शराब का एक व्यापारी छपा था।

इस निराशा के अतिरिक्त बागी के लिए तिलमिलाने वाली एक दूसरी खबर अखबार के मुख-पृष्ठ पर थी। पी.पी. को चुनाव में टिकट मिल गया था। फर्क सिर्फ इतना था कि जिस पार्टी से उसने प्रेस कांफ्रेंस की रात दावा किया था उससे नहीं, लेकिन दूसरी पार्टी का वह उम्मीदवार घोषित हुआ था। बागी का माथा चकरा गया। इसका मतलब वह एक साथ कई पार्टियों में कोशिश कर रहा था। किसी न किसी से तो टिकट मिलता ही। कल रात तक किसी को भनक भी नहीं थी कि वह किसी और पार्टी से भी कोशिश कर रहा है।

'है साला तेज खोपड़ी का।' बागी ने मन-ही-मन सोचा। इससे लड़ने में मजा आयेगा।

बागी के अंदर एक बार फिर से पुराना बागी अंगड़ाइयाँ ले रहा था।

औसत लंबाई, लंबोतरा चेहरा जिसमें उभरे हड्डियों वाला गाल प्रमुखता से दीखता था, सांवला रंग और खिचड़ी सफेद बालों वाले बागी को जो लोग इस शहर में पहले से जानते हैं, वे अकसर इस बासठ साल की उम्र वाले इंसान के जीवन में घटित परिवर्तनों को बड़े आश्चर्य से देखते रहे हैं। जिसने निकट से इन परिवर्तनों को देखा नहीं है वह कैसे विश्वास करेगा कि यही बागी चालीस साल पहले जब इस शहर में आया तो आदर्श से बलबलाता हुआ एक जुझारू नौजवान था। इस शहर की, जो उस समय पड़ोसी जिले की तहसील मात्र था, अनगिनत लड़ाइयों का नेतृत्व बागी ने किया था। चाहे पुलिस की ज्यादतियाँ रही हों या मालिकों के शोषण के खिलाफ मजदूरों का संघर्ष - बागी हर जगह आगे ही आगे दिखाई देता था। अगर कपड़े उतरवा कर देखे जायें तो उसके शरीर पर बेंत के पुराने निशान सर्टिफिकेट की तरह अलग-अलग हिस्सों पर अब भी साफ दिखाई देंगे।

फिर कैसे हुआ कि एक संघर्षशील जुझारू नौजवान एक पतित और गलीज इंसानी ढांचे में परिवर्तित होकर रह गया ?'

अगर कभी कोई बागी से पूछे तो हमेशा उसका अनिच्छा से भरा एक ही उत्तर होगा, 'छोड़ो बिरादर!'

शहर में विश्वनाथ शास्त्री नाम का एक व्यक्ति अभी भी मौजूद है जो बिना किसी नफरत के बागी के पतन को तार्किक ढंग से व्याख्यायित कर सकता है। पुराने लोगों में वही एक व्यक्ति ऐसा है जिससे अभी भी बागी मिलता है और हफ्ते-दस दिन में घंटे-दो घंटे उसके साथ बैठकर बहस करता है। बाकी सारे पुराने साथियों से बागी आंखें चुराता है और आत्मनिर्वासन की एक ऐसी स्थिति में रहता है जहां कोई भी पुरानी पहचान घबराहट और शर्म उत्पन्न करती है।

बागी और विश्वनाथ शास्त्री लगभग एक ही साथ इस शहर में आए थे। दोनों लगभग एक साथ ही पार्टी के होल टाइमर बने थे। शास्त्री पार्टी का साहित्य बेचता था और एक छोटी-सी दुकान चलाता था। उसकी दुकान पार्टी का दफ्तर भी थी और बहस-मुबाहिसों के लिए नौजवान वहां इकट्ठे भी होते थे। बागी ट्रेड यूनियन फ्रंट पर काम करता था। जब तक पार्टी का दफ्तर स्वतंत्र रूप से दूसरी जगह पर नहीं बना, दोनों रोज घंटों दुकान पर साथ बैठते। देश नया-नया आजाद हुआ था लेकिन पार्टी और उसके समर्थकों का मानना था कि यह आजादी झूठी है। विदेशी शोषकों के हाथों से देशी पूंजीपतियों के हाथों सत्ता का हस्तांतरण हुआ है। ऐसे में वास्तविक आजादी का संघर्ष अभी बाकी है।

अजीब सनसनी और उत्साह के दिन थे। बागी और शास्त्री जैसे हजारों नौजवान सुख-सुविधा से भरा सुरक्षित पारिवारिक माहौल छोड़कर समाज-परिवर्तन के लक्ष्य को लेकर संघर्ष में कूद पड़े थे। उस समय शास्त्री ने देखा था बागी की बहादुरी और निष्ठा को। उसका एक पैर जेल में होता और दूसरा सड़कों पर। फरारी, पिटाई, फाकाकशी, जेल, कचहरी सब ऐसे लगते जैसे बागी के लिए जीवन के सबसे सहज शब्द वही हों। शास्त्री स्वयं तो साहित्य का काम करने के कारण इन सबसे दूर था लेकिन बागी को हम-उम्र होने के बावजूद अजीब-सी श्रद्धा और ईर्ष्या से देखा करता था।

बागी के पतन को भी शास्त्री ने उसी सूक्ष्मता से देखा और विश्लेषित किया है। पार्टी के दूसरे नेता बागी का नाम सुनते ही नाक-भौं सिकोड़ते हैं और उससे मिलने से इन्कार करते हैं लेकिन शास्त्री अब भी उससे मिलता है और अगर बागी जल्दी में न हो तो घंटों उससे बतियाना चाहता है। इसके पीछे शायद यही कारण था कि उसके पतन के मानवीय पक्षों को उसने कभी भी नजरअंदाज नहीं किया और हमेशा उसके पतन को इंसानी कसौटियों पर कसा है।

विश्वनाथ शास्त्री जानता है कि बागी अपने पतन के लिए जितना जिम्मेदार खुद है उतनी ही बाहरी परिस्थितियाँ भी हैं। पार्टी ने आजादी के कुछ ही वर्षों के अंदर संषर्घ की अपनी नीतियाँ बदल दी थीं। संघर्ष के साथ-साथ सत्ता से सहयोग का दौर शुरू हुआ। पार्टी संसदीय लोकतंत्र में भाग लेने लगी और उसके साथ-साथ पार्टी में ऐसी बहुत-सी कमजोरियाँ उभरकर सामने आ गयीं जो संघर्ष के दौर में दबी थीं। चुनाव लड़ने वाली पार्टियों की तरह पार्टी में पदों और टिकटों की होड़ शुरू हुई और उसी के साथ अंदरूनी गुटबंदी और आपसी राजनीति का दौर शुरू हुआ। बागी भी इसी दौड़ में शरीक हो गया। विश्वनाथ शास्त्री ने बड़ी पीड़ा और दिलचस्पी से देखा था उसके पतन का खेल। उसकी इतनी मजबूत जुझारू नेता की साख थी कि पार्टी में उसके सभी प्रतिद्वंद्वी उसके सामने बौने लगते थे। शायद इसीलिए उसकी कीमत भी खूब लगी। शहर के उद्योगपति, कालाबाजारिये, नौकरशाह सभी उस पर दांव लगाने के लिए तैयार बैठे थे। लड़ाई में जरूरत का बहाना बनाकर बागी अपने को छलता रहा और वे सभी उसके ऊपर पैसा बहाते रहे। विश्वनाथ ने कई बार बागी को इस खतरनाक खेल से रोकने की कोशिश की लेकिन फिसलन में जब आदमी को आनंद आने लगता है तो उसे कोई नहीं रोक सकता।

जैसे-जैस बागी पतित होता गया वैसे-वैसे उसका आत्मनिर्वासन भी बढ़ता गया। विश्वनाथ शास्त्री को छोड़कर उसने पुराने साथियों से मिलना बंद कर दिया। पुराने संघर्षों का कोई कामरेड अगर दिख जाता तो मुंह चुराकर वह निकल भागता। अब पत्रकारिता के नाम पर वह शुद्ध दलाली कर रहा था जिसका एकमात्र लक्ष्य था दिन में दो जून खाना और रात में शराब। शादी उसने की नहीं थी इसलिए कोई घर-बार की चिंता नहीं थी।

सबेरे-सबेरे बागी को देखकर विश्वनाथ शास्त्री कुछ चौंका। अमूमन वह तीसरे पहर आता था क्योंकि तब तक विश्वनाथ दुकान बढ़ाकर खाने के लिए लौटता था और बागी को उसकी यह दिनचर्या पता थी। आज सुबह उसे देखकर विश्वनाथ को आश्चर्य हुआ।

'कहो कामरेड़, आज सुबह इधर कैसे निकल आये?'

'बिरादर, बड़ी भारी समस्या है। तुमसे राय-मशविरा करना जरूरी था।'

सर्दियों में धूप अच्छी लग रही थी इसलिए वे बाहर कुर्सी निकालकर बैठ गये। शास्त्री ने दोनों के लिए चाय मंगा ली और ध्यान से बागी को सुनने लगा।

बागी बोलता रहा, बोलता रहा और शास्त्री सिर्फ सुनता रहा। सालों बाद उसने देखा कि बोलते समय उत्तेजना बढ़ जाने पर बागी के नथुने अब भी फड़कने लगते थे और उसकी आंखों में एक खास किस्म की चमक दिखाई देने लगती थी। उसे अच्छा लगा। इसलिए उसने टोका नहीं और सिर्फ बोलने दिया। शायद यह बागी की वापसी हो, इसलिए उसने इसके कथन में बार-बार आ रहे अनावश्यक विस्तार को भी रोका नहीं और चुपचाप सुनता रहा।

'सोच लो, बागी। पहले वाला वक्त नहीं है। अब ये लोग ज्यादा क्रूर हो गये हैं, तुम्हारे साथ कुछ भी हादसा कर सकते हैं।'

'करने दो बिरादर! साठ पार कर चुका हूं। किसी दिन शराब पीकर नाली में मरा दिखाई पड़ता, इससे अच्छा है इन्हीं के हाथों मारा जाऊँ। मरते समय तो अफसोस नहीं रहेगा।' बागी हंसता है। उसकी इस बेफिक्र हंसी को शास्त्री पहचानता था। फर्क सिर्फ इतना था कि सालों बाद वह इसे देख रहा था।

'तुम्हारे शोर मचाने से क्या होगा! गुप्ता का साथ कौन देगा? पुलिस और प्रशासन छोड़ दो, पत्रकारों का समर्थन तो तुम लोग जुटा नहीं सके।'

'मैं जानता हूं। मैं यह भी जानता हूं कि चुनाव भी पी.पी. जीत जायेगा। जनता का एक तबका तो उसे नेता मानकर धन्य महसूस करेगा। दूसरों के वोट वह जबर्दस्ती अपने पक्ष में डलवा लेगा। जीतेगा वही, पर इस बार उसे एहसास कराना चाहता हूं कि जनता उसकी भेड़-बकरी नहीं है जिसे हर बार लाठी से वह जहां चाहे हांक दे। जनता को भी शिक्षित करना पड़ेगा। उसे भी बताना पड़ेगा कि इन गुंडों के आगे हमेशा समर्पण करने का ही नतीजा है कि दूसरे नेताओं के लिए बूथ कब्जा करते-करते अब ये गुंडे खुद ही एम.पी., एम.एल.ए. बनने लगे हैं। इनका मुकाबला करने का वक्त आ गया है।' बोलते-बोलते बागी हांफने लगा।

'ठीक है, लड़ो कामरेड, जमकर लड़ो। पिछली लड़ाइयों में भी मैं सिर्फ शुभकामनाओं के साथ ही तुम्हारे साथ रहता था, तुम मेरा मजाक उड़ाते थे लेकिन मैं किताबें बेचता रहता और दुकान पर बैठा-बैठा ही तुम्हारी लड़ाइयों का हालचाल लेता रहा था। इस बार भी यही करूंगा, लेकिन इस बार खुशी पहले से ज्यादा हो रही है।'

विश्वनाथ शास्त्री ने बागी का हाथ पकड़ लिया और काफी देर तक पकड़े रहा। उसके बूढ़े हाथों की ऊष्मा बागी को पुरानी स्मृतियों में ले गयी। वह भावुक हो उठा।

'बस बिरादर, इतना काफी है। चलूं। बड़ी लड़ाई है, तैयारी भी उसी तरह होना चाहिए।'

बागी जब वहां से उठा और वापस चला तो उत्साह से मगन होकर वह गुनगुना रहा था।

पी.पी. ने जिस दिन परचा दाखिल किया, ऐसा लगा जैसे पूरे शहर में कोई भूकंप आ गया हो। कई सौ कारों, जीपों, ट्रैक्टर ट्रॉलियों और मोटर साइकिलों पर सवार उसके जुलूस ने सड़कों और बाजारों में आतंक की लहर पैदा कर दी। एक साथ इतनी राइफलों का प्रदर्शन शहर ने पहली बार देखा था। बीच-बीच में उसके आदमी हवा में फायर करते जा रहे थे। शांतिप्रसाद ने, जो जुलूस के आगे-पीछे व्यस्त-सा दौड़ रहा था, फायरिंग रुकवाने के लिए कई बार उन्हें डांटा-डपटा, लेकिन पी.पी. के उत्साही समर्थकों पर कोई असर नहीं पड़ा। अंत में हारकर वह जुलूस के आगे चल रही खुली जीप पर चढ़ गया जिस पर पी.पी. खड़ा था।

खुली जीप पर खड़े पी.पी. के गले में तमाम मालाएं पड़ी हुई थीं। वह विनम्र मुस्कान के साथ शुभ्र खादी के कुर्ते-पाजामे में हाथ जोड़े खड़ा था। सड़कों पर चलते राहगीर ठिठककर खड़े हो जा रहे थे। औरतें घरों के छज्जों पर खिड़कियों से सटी चिपकी थीं। दुकानदार अपने ग्राहकों से ध्यान हटाकर इस विचित्र जुलूस को देख रहे थे।

'देश का नेता कैसा हो?'

'पी.पी. यादव जैसा हो।'

बीच-बीच में दूसरे नारों के साथ लहर की तरह यह नारा भी उठता। जैसे-जैसे कचहरी करीब आती गयी, यह नारा सबसे महत्वपूर्ण बन गया। बाद में तो जोश में उछल-उछलकर अपनी राइफलों को हवा में उछाल-उछालकर उसके समर्थकों ने सिर्फ यही नारा थाम लिया।

खबर मिल चुकी थी कि पी.पी. का मुख्य प्रतिद्वंद्वी कचहरी में अपने जुलूस के साथ मौजूद है, इसलिए जैसे-जैसे कचहरी करीब आ रही थी, पी.पी. के समर्थकों का उत्साह भी बढ़ रहा था। विजय के विश्वास से भरे सेनापति की तरह पी.पी. बीच-बीच में मुड़-मुड़कर अपनी सेना को देख ले रहा था। उसके पीछे मुड़कर देखते ही समर्थकों का उत्साह और बढ़ जाता और वे और जोर-जोर से उछल-उछलकर झूम‌-झूमकर नारे लगाते -

'देश का नेता कैसा हो?'

'पी.पी. यादव जैसा हो।'

जुलूस कचहरी से थोड़ी ही दूर रह गया था कि शांतिप्रसाद की निगाह कचहरी गेट पर खड़े बागी पर पड़ी। वह गेट पर मौजूद छोटी-मोटी भीड़ के बीच में खड़ा था। यह भीड़ वकीलों, मुवक्किलों और कचहरी में घूमने वाले निठल्लों की थी जो आज पर्चा दाखिले का तमाशा देखने इकट्ठे हुए थे। बागी एक ऊंची-सी जगह पर खड़ा होकर उन्हें संबोधित कर रहा था।

शांतिप्रसाद का चेहरा गंभीर हो गया। उसने पी.पी. के कान से अपना मुंह सटाकर कुछ कहा। पी.पी. की मुखमुद्रा भी सख्त हो गयी। उसने बागी की दिशा में देखा। निश्चित रूप से बागी उसी के खिलाफ मीटिंग कर रहा था।

उसके समर्थकों की इस भीड़ के सामने बागी की हैसियत पिद्दी के शोरबे जैसे भी नहीं थी। उसका एक इशारा पाते ही उसके समर्थक बागी को कुचल डालेंगे। उसने शांतिप्रसाद से कुछ कहा। शांतिप्रसाद के चेहरे पर घबराहट तैर गयी। ऐसा लगा जैसे उसने बड़ी आजिजी से पी.पी. को कुछ समझाया है और उसे रोका है।

पिछले कई दिनों से पी.पी. सुन रहा था कि बागी शहर में जगह-जगह उसके खिलाफ मीटिंग कर रहा है लेकिन आज तो उसने हद ही कर दी थी। उसे जरूर पता होगा कि पी.पी. का जुलूस इसी रास्ते से गुजरेगा। इसके बावजूद वह रास्ते में खड़ा होकर भाषण दे रहा था, यह तो खुली चुनौती थी। ऊपर से ओढ़ी सारी विनम्रता के बावजूद पी.पी. अंदर ही अंदर सुलगने लगा।

शांतिप्रसाद ने पी.पी. के चेहरे पर आये परिवर्तनों को ध्यान से देखा और उसे घबराहट होने लगी। इस कम्बख्त बागी को भी आज ही यहां मरना था! पी.पी. के साथ जो शंकर जी की बारात चल रही थी, उसे रोकना किस कदर मुश्किल था, यह वह जानता था। रास्ते में कई बार दुकानदारों से उनका झगड़ा होते-होते बचा था। वे बीच-बीच में किसी खोमचे वाले को लूट लेते या महिलाओं पर फब्तियाँ कस देते थे। अगर कोई बीच में विरोध कर देता तो मार-पीट की नौबत आ जाती। कई बार शांतिप्रसाद को दौड़कर जाना पड़ा और जुलूस में शामिल लोगों को ढकेलकर या गालियाँ देकर वापस जुलूस में शरीक करना पड़ा। वह बाजार वालों से माफी मांगते-मांगते थक गया था। हवाई फायरिंग तो वह अंत तक नहीं रोक पाया इसलिए थककर उसने यह कोशिश छोड़ ही दी। बागी को अगर इनमें से किसी ने भी देख लिया और वे उसकी तरफ झपट पड़े तो शांतिप्रसाद जानता था कि उसके लिए उन्हें रोक पाना संभव नहीं हो सकेगा।

पता नहीं क्या हो गया है बागी को ? ऐसा दुस्साहस तो पागलपन में ही किया जा सकता है! शांतिप्रसाद ने सोचा।

पिछले कई दिनों से शांतिप्रसाद ने पी.पी. को रोके हुआ था। प्रेस कांफ्रेंस वाली रात की घटना के बाद से ही बागी सक्रिय हुआ था। उन्हें लगातार खबर मिल रही थी कि वह अखबार वालों को संगठित कर उनसे पी.पी. के खिलाफ बयान दिलवाने की कोशिश कर रहा था। शुरू में तो वह असफल हुआ, बाद में उसे कुछ आंशिक सफलता मिलने लगी। पी.पी. के खिलाफ लड़ रहे उम्मीदवारों ने भी उसकी मदद की। कुछ अखबार वालों ने पी.पी. के खिलाफ बयान छापे। कुछ राष्ट्रीय अखबारों ने भी पी.पी. के खिलाफ खबरें छापीं। विरोधी नेताओं के भाषण आये। एक हल्का-फुल्का माहौल बनने लगा।

इस बीच सबसे महत्वूपर्ण बात यह हुई कि बागी शहर में जगह-जगह पी.पी. के खिलाफ भाषण देने लगा। पी.पी. के उत्थान के गड़े मुर्दे उखाड़े जाने लगे। ऐसा पहली बार हुआ था। पी.पी. को लग रहा था कि उसके आतंक का तिलिस्म टूट जायेगा। एक बार अगर आतंक खत्म हो गया तो फिर इस शहर पर राज करना असंभव हो जायेगा। पिछले कई वर्षों से उसने अपने हाथ से कोई खून-खराबा नहीं किया था। लेकिन पिछला आतंक ही उसे जिंदा रखने के लिए काफी था। बागी उसके इसी आधार पर आघात पहुंचा रहा था।

अगर शांतिप्रसाद न होता तो बागी अब तक अपने दुस्साहस की सजा पा चुका होता। यह शांतिप्रसाद था जो पी.पी. को रोके हुआ था। वह जानता था कि चुनाव के दौरान बागी की हत्या का क्या असर पड़ेगा। पूरे देश में एक पत्रकार की हत्या पर कोहराम मच जाता। पी.पी. और शांतिप्रसाद के लिए इसे झेलना मुश्किल हो जाता। विरोधी ऐसा तूफान खड़ा कर देते कि प्रशासन को भी पी.पी. के खिलाफ कार्यवाही करनी पड़ती।

पहली बार इस शहर में ऐसा हुआ कि छोटी ही सही, लोगों की भीड़ पी.पी. के खिलाफ भाषण सुनने एकत्र होने लगी थी। जिस आदमी के बारे में सार्वजनिक स्थलों की तो बात क्या, घरों में भी फुसफुसाकर चर्चा की जाती थी, उसके खिलाफ इस तरह खुले आम कोई भाषण दे सकता है, यह शहर के निवासियों के लिए अविश्वास और रोमांच से भरा एक ऐसा नाटक था जो उन्हें उत्तेजना के उस कगार तक ले जा रहा था जहां से भय से मुक्ति की हदें शुरू होती थीं। शुरू-शुरू में तो कम लोग इकट्ठे होते थे, फिर धीरे-धीरे बागी की सभाओं में सुनने वालों की तादाद भी बढ़ने लगी। पी.पी. और उसके गुर्गों के सताये तमाम लोग उसमें आने लगे। विरोधी उम्मीदवारों ने भी अपने आदमी भेजने शुरू कर दिये। बागी के अलावा भी कुछ और वक्ता बोलने के लिए तैयार हो गये।

पी.पी. और उसके साथी बेचैनी से घटनाक्रम के इस विकास को देख रहे थे। यह चुनाव का मायाजाल था जिसने पी.पी. को शांतिप्रसाद की सलाह मानने पर विवश कर रखा था, अन्यथा बागी तो अब तक कब का गायब हो चुका होता। उन्होंने तय कर रखा था कि चुनाव खत्म होने के बाद बागी से निपटेंगे। पर उन्हें पता था कि बागी तब तक उनकी छवि को खासा नुकसान पहुंचा देगा। आतंक का तिलिस्म एक बार टूट जाय तो उसे फिर से बनाना काफी मुश्किल होगा। पर अब वे कर भी क्या सकते थे?

जुलूस जैसे-जैसे कचहरी के गेट के पास आता गया, शांतिप्रसाद की घबराहट और दिल की धड़कन बढ़ती गयी। अगर बागी ने बोलना बंद नहीं किया और जुलूस में शरीक लोगों ने पी.पी. के खिलाफ कुछ सुन लिया तो उन्हें रोकना मुश्किल हो जायेगा। लाठी, डंडों, राइफलों से लैस वह जुलूस बागी पर टूट पड़ा तो उसके बूढ़े शरीर के टुकड़ों का भी पता नहीं चलेगा।

पता नहीं अपने अंदर के भय पर काबू पाने की कोशिश थी या जुलूस को देखकर पैदा हुई उत्तेजना, बागी ने अपनी आवाज को गला फाड़ने के स्तर तक उठा दिया। ऐसा लगा जैसे जुलूस के शोर और उसके भाषण के बीच कोई प्रतियोगिता हो रही है। उसके इर्द-गिर्द खड़े लोगों ने धीरे-धीरे वहां से खिसकना शुरू कर दिया। पूरे माहौल में सनसनी और खौफ छा गया। कचहरी के अंदर से भी काफी लोग बाहर निकल आये और इमारतों की छतें और बरामदे ठसाठस भर गये। कचहरी की चहारदीवारी पर लोग खड़े हो गये। आसपास की चाय और पान की दुकानों पर समय जैसे ठहर गया।

लोग नाटक के अंतिम दृश्य की बाट जोह रहे थे। दृश्य जो चल रहा था, वह किसी रोमन राजा के दरबार का-सा लगता था जिसमें एक निहत्थे आदमी को शेर के पिंजड़े में डाल दिया गया हो। दर्शक दम साधे शेर के हमले का इंतजार कर रहे थे। उनकी सहानुभूति निहत्थे आदमी के साथ थी, लेकिन उस निहत्थे आदमी के ललकारने के बावजूद अभी वे नाटक में भाग लेने के लिए तैयार नहीं हो पा रहे थे। नाटक में फर्क सिर्फ इतना आया था कि निहत्था आदमी शेर के भय से दुबकने के लिए कोई स्थान नहीं तलाश रहा था, बल्कि वह शेर की आंखों में आंखें डालकर उसे चिढ़ाने का दुस्साहस कर रहा था।

'हमारा नेता कैसा हो?'

'पी.पी. यादव जैसा हो।'

नारे एकदम सिर पर आ गये। बागी ने अपनी आवाज और तेज कर दी। उसके गले में खराश आ गयी थी और बार-बार उसे खांसना पड़ रहा था। बार-बार उसकी इच्छा हो रही थी कि वह किसी से एक गिलास पानी मंगा ले। पर अब तो आसपास कोई नहीं बचा था और इतना वक्त भी नहीं था कि दूर खड़े किसी आदमी से पानी लाने का इशारा करता। उसने पूरी ताकत से, फटी जा रही आवाज से जुलूस में शामिल आवाजों का मुकाबला करना जारी रखा।

शांतिप्रसाद का चेहरा और जर्द पड़ गया। बागी की आवाज जुलूस के शोर से छनती हुई अब उसे साफ सुनाई देने लगी थी। वह नाम लेकर पी.पी. के पुराने कारनामों का जिक्र कर रहा था।

नाटक अपने चरम उत्कर्ष पर पहुंच चुका था। शेर के साथ-साथ उसका शिकार निहत्था आदमी भी दहाड़ रहा था। रोमन सम्राट द्वारा प्रायोजित नाटकों में अकसर शिकार एक कोने में दुबक जाता था। भूखे शेर का उतावलेपन से उसकी ओर लपकना और उसे चीर-फाड़ डालना भीड़ को हिंस्र आनंद से भर देता। उसकी छटपटाहट या शरीर से बहता खून दर्शकों के अंदर और अधिक उत्तेजना पैदा करता था और वे और अधिक तुमुलनाद से अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते थे।

इस नाटक में दृश्य बदल गया था। दर्शक खामोश थे। पहली बार उन्हें लग रहा था कि यह असमान मुकाबला उन्हीं के लिए हो रहा है। ऐसा दृश्य कई शताब्दियों पहले भी कभी-कभी आता था। जब कभी साम्राज्य का कोई बागी शेर के सम्मुख होता तो दर्शक उसका मनोबल बढ़ाने के लिए भी शोर मचाते। कोई सैनिक उसके हाथ में ढाल और भाला थमा देता, यह जानते हुए कि यह तब भी मारा जायेगा। लोग चीख-चीखकर उसकी हिम्मत बढ़ाते पर इससे फर्क इतना ही आता कि जनता के द्वारा की जा रही हौसला आफजाई के कारण वह कुछ ज्यादा देर लड़ता। पर यहां तो दर्शक खामोश थे और भिंचे हुए चेहरों से सब कुछ देख रहे थे। निहत्थे आदमी ने कई बार हाथ उठाकर उनकी गैरत को ललकारने की कोशिश की लेकिन अलावा एक बेचैन छटपटाहट के उन्होंने कोई हरकत नहीं की। पर उनकी आंखों से जो भाव तैरते हुए बागी की आंख तक पहुंच रहे थे, वे स्पष्ट थे। दर्शक बागी की जीत चाहते थे।

बागी जनता की लड़ाइयों का पुराना योद्धा था। यद्यपि पिछले कई सालों से वह संघर्ष के मैदान में नही उतरा था पर लड़ाई के मनोविज्ञान को नहीं भूला था। लोगों की निष्क्रियता से उसके मन में जो क्षोभ और तकलीफ पैदा हुई थी, वह उनके मूक समर्थन से धीरे-धीरे दूर होने लगी। उसे लगा, उसने आधी लड़ाई जीत ली है।

जुलूस का अगला सिरा बागी के सामने पहुंच गया। अगले सिरे में खुली जीप पर सवार था पी.पी. और उसके बगल में शांतिप्रसाद खड़ा था। उनके पीछे आठ-दस कार्यकर्ता बुरी तरह जीप में ठुंसे थे। पी.पी. के गले में मालाएं पड़ी थीं और वह कचहरी के गेट पर चारों तरफ खड़े तमाशाइयों को हाथ जोड़े अभिवादन कर रहा था। बीच-बीच में बागी की आवाज उसके चहरे का संतुलन खत्म कर देती और उसका चेहरा विकृत हो जाता। कई बार उसके मन में यह इच्छा उठी कि वह अपनी शराफत का लबादा उतार फेंके और एक बार फिर अपनी पुरानी तेजी से झपट पड़े और बागी के टुकड़े-टुकड़े कर दे। ऐसी ही इच्छा उसके तमाम अनुयायियों के मन में भी उत्पन्न हो रही थी। पर पी.पी. ने अपना नियंत्रण नहीं खोया और उसके अनुयायी भी बागी की आवाज को अपने नारों के समुद्र में डुबोने की कोशिश करते रहे।

जुलूस का अगला सिरा कचहरी के गेट के अंदर मुड़ा। बागी पी.पी. के पीठ पीछे हो गया लेकिन अब उसकी आवाज पत्थर के नुकीले टुकड़ों की तरह उसकी पीठ से टकराने लगी। पी.पी. को चिंता अकेले बागी के बोलने की नहीं थी। बड़ी चिंता इस बात की थी कि सामने चारों तरफ खड़े सैकड़ों लोग उसके हाथ हिलाने या अभिवादन का माकूल उत्तर नहीं दे रहे थे। बागी कहीं उसके आतंक का तिलिस्म तोड़ तो नहीं देगा?

अचानक शांतिप्रसाद ने जीप रुकवा दी। वह जीप के गेट के अंदर घुसने के बावजूद पीछे मुड़-मुड़कर अपने समर्थकों की प्रतिक्रिया देखता जा रहा था। उसकी समझ में आ गया कि उनके आंख से ओझल होते ही जुलूस के मध्य या पीछे के भाग का कोई हिस्सा बागी के ऊपर हमला कर सकता है। बागी के व्यंग्य बाणों को पी.पी. तो झेल सकता है लेकिन उसके समर्थक भी झेल लेंगे, इसकी कोई गांरटी नहीं थी। उसने पी.पी. के कान में कुछ कहा। पी.पी. की समझ में भी आ गया। इस समय बागी को साधारण-सी चोट भी लगी तो यह चुनाव में उनके खिलाफ जा सकती थी। जनता के सामने अपने को शरीफ दिखाने का भी अच्छा मौका था। वे दोनों जीप से उतर पड़े।

पी.पी. और शांतिप्रसाद पैदल चलकर बागी के पास खड़े हो गये। उनके उतरकर बागी के पास तक जाने से आसपास खड़ी जनता और उनके समर्थकों के बीच हलचल-सी मची और फिर शांत हो गयी। पी.पी. के समर्थकों का जो जत्था बागी के पास से गुजरता वह बागी की तरफ उछल-उछलकर नारे लगाता और अकसर उनकी मुट्ठियां या हथियार बागी के चेहरे को छूने लगते। पी.पी. और शांतिप्रसाद हाथ जोड़कर उन्हें रोकते और कभी-कभी अतिरिक्त उत्साह में बागी के पास खड़ा होकर उनका कोई समर्थक चिल्लाने लगता तो उसे ढकेलकर या गर्दनिया कर कचहरी के गेट के अंदर कर देते। बागी इस घटनाक्रम से इतना ही प्रभावित हुआ कि वह और चीख-चीखकर भाषण देने लगा।

दर्शक जो किसी हादसे की प्रतीक्षा कर रहे थे, ऊबने लगे। उनमें से कुछ कचहरी के अंदर भी जाने लगे।

जुलूस का पिछला हिस्सा कुछ अधिक देर तक बागी के पास खड़ा रहा। पी.पी. और शांतिप्रसाद भी कुछ-कुछ थके-से बेमन से उन्हें अंदर जाने को कहते रहे पर वे उछल-उछल कर बागी को चिढ़ाने के लिए ऊटपटांग नारे लगाते रहे। बागी भी अपनी बची-खुची शक्ति से चिल्ला-चिल्लाकर उन्हें ललकारने लगा। थोड़ी देर में स्थिति यह हुई कि बागी, पी.पी. के समर्थकों और दर्शकों - तीनों को मजा आने लगा। जो लोग पी.पी. के आतंक और बागी पर आसन्न संकट को सोचकर खामोश थे, उन्होंने तालियां बजा-बजाकर और अपने गलों से किस्म-किस्म की आवाजें निकालकर बागी का हौसला बढ़ाना शुरू किया।

'हमारा नेता कैसा हो?' - जुलूस का नारा होता।

'चोर-उचक्कों जैसा हो।' - बागी तुर्की-बतुर्की जवाब देता।

लोग हंसते और ललकारते, 'जियो बेटा, ललकारे रहो।'

पी.पी. को लग रहा था कि सारी गंभीरता नष्ट हो जायेगी और सब कुछ विद्रूप में बदल जायेगा। इसमें उसी का नुकसान था। उसने और शांतिप्रसाद ने जुलूस के पीछे रह गये लोगों को बागी के सामने से ढकेल-ढकेलकर गेट के अंदर करना शुरू किया। थोड़ी देर के लिए जुलूस में शामिल लोगों में जोश आ गया। वे उलट-पुलटकर बागी के मुंह तक हाथ ले जाकर नारे लगाते और फिर गेट के अंदर चले जाते। दो-एक गेट के अंदर ढकेले जाने के बाद वापस आकर बागी की तरफ झपटते और फिर शांतिप्रसाद या पी.पी. की गाली खाकर कचहरी के गेट में घुस जाते। फर्क इतना जरूर आ गया था कि अब तमाशबीन खामोश नहीं रह गये थे। पी.पी. के आतंक की बर्फ उनके मजे ले-लेकर उछलने-कूदने और बागी के ऊटपटांग नारों के साथ स्वर मिलाने से पिघलने लगी। बागी किसी आशुकवि की तरह जल्दी-जल्दी ऐसे नारे गढ़ने लगा था जिनसे वातावरण की सारी गंभीरता समाप्त हो गयी थी और मजाक में ही सही, लोगों का समर्थन उसके साथ प्रकट होने लगा था। पी.पी. और शांतिप्रसाद इस स्थिति को समझ रहे थे इसलिए वे निरंतर प्रयासरत थे कि जुलूस पूरा-का-पूरा कचहरी में दाखिल हो जाय।

उन दोनों के न चाहते हुए भी जुलूस के आखिरी हिस्से और बागी में अंताक्षरी शुरू हो गयी। वे नारा उठाते, 'देश का नेता कैसा हो ?'

बागी जवाब देता, 'चोर-उचक्कों जैसा हो।'

वे ताली बजा-बजाकर कहते, 'पी.पी. का टेम्पो... '

बागी अगली पंक्ति लपक लेता, 'डाउन है भई डाउन है।'

इस अंताक्षरी में दर्शक भी शरीक हो गये। जुलूस में अब कम लोग थे इसलिए उनकी आवाज दबने लगी। वे खिसियाने लगे। उन्होंने कई बार अपने नारे बदले, पर हर बार बागी झपटकर समस्यापूर्ति की तरह उनके नारे को अपने ढंग से पूरा कर देता और भीड़ ठहाका मारकर हंस पड़ती। फिर कोरस की तरह भीड़ ही उस नारे को उठा लेती। पी.पी. और शांतिप्रसाद को लगा कि बाजी उनके हाथ से फिसली जा रही है। उन्होंने बचे-खुचे समर्थकों को कचहरी के अंदर धकियाना शुरू कर दिया।

इसी अफरा-तफरी में जुलूस में शामिल एक व्यक्ति ने अपनी राइफल बागी के सीने से अड़ाकर उसे दो-चार गालियां दीं और शांतिप्रसाद का धौल खाकर गेट के अंदर चला गया।

बागी को लगा, मुकाबले का आखिरी दांव जीतने का अच्छा मौका है। उसने अचानक झपटकर अपनी कमीज के बटन तोड़ दिये और सीना खोलते हुए चिल्लाया -

'मारो... मार डालो मुझे। भाग क्यों रहे हो, मारो मुझे...।'

बागी की सफेद रोयेंदार छाती खुली थी और वह आवेश में कांप रहा था।

'मारो मुझे... अगर मां का दूध पिया हो, तो मारो मुझे... ।'

आसपास खड़ी जनता ने शोर मचाना शुरू कर दिया। उनकी आवाजें तरह-तरह की भावनाओं को व्यक्त कर रही थीं और अस्पष्ट नारों की शक्ल में इस नाटक के सभी पात्रों को डुबोती चली जा रही थीं।

'मारो मुझे!' हिस्टीरिया के रोगी की तरह बागी एक ही वाक्य दुहरा रहा था।

'बेटा, चुनाव न होता तो तेरी यह इच्छा भी पूरी कर देते।' यह वाक्य पी.पी. ने दांत पीसते हुए दबे स्वर से लेकिन इतनी ऊंची आवाज में कहा कि बागी सुन ले।

'खत्म होने दे इलेक्शन, तुझसे निपटेंगे।'

शांतिप्रसाद ने पी.पी. का हाथ पकड़ा और हल्का दबाव डालकर उसे कचहरी की तरफ खींचने की कोशिश की।

बागी ने अपना चेहरा विकृत बनाते हुए उनकी तरफ देखा और गला खंखारकर पिच्च से उनके पास की जमीन पर थूक दिया।

घबराकर शांतिप्रसाद ने पीछे हटते हुए पी.पी. को खींच लिया और कचहरी के गेट के अंदर बढ़ चला। उसका चेहरा स्याह हो गया था और कचहरी की तरफ मुड़ते हुए उसने देखा कि पी.पी. के चेहरे पर भी स्याही पुती हुई थी।

समाप्त