कीड़े फतिंगे / जयनन्दन

Gadya Kosh से
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इलाके के इकलौते अस्पताल का इकलौता डॉक्टर कौतुक मरीज देखने वाले हॉल में अपनी कुर्सी पर बैठा था और उसके आगे की मेज के पार वाली कुर्सियों पर उसके तीन लंगोटिया दोस्त बैठ कर गपियाए जा रहे थे। जाहिर है तीनों धन धान्य और रौब दाब के मामले में असाधारण लोग थे। इसलिये डॉक्टर के मुंह लगे थे।

समय मरीज देखने का था, सो हॉल के बाहर कई कराहते - बिसूरते, हाल बेहाल लोग इंतजार में बैठे थे। पर डॉक्टर एण्ड पार्टी को इसकी कोई परवाह नहीं थी। परवाह करने वाला था भी तो वह इस अस्पताल का मेहतर छोटन था, जो अपनी सीमा में बहुत तुच्छ था। अत: इलाज सम्बन्धी कोई उपक्रम इसके अधीन नहीं था।

यारों की गप्पबाजी इस वक्त छोटन पर ही केन्द्रित थी। कुछ देर पहले उसने इन्हें टोक देने की हिमाकत की थी। बात तनिक बढक़र हुज्जत में बदल गई थी। उसका पडौसी बेंगा मांझी कई दिनों से बद से बदतर हालत में घिरता जा रहा था। उसके उल्टी दस्त बन्द होने का नाम ही नहीं ले रहे थे। उचित ध्यान के अभाव में सही दवा नहीं दिये जाने के कारण कई कष्ट उस पर आ टूटे थे। छाती में दर्द तेज बुखार भी शुरु हो गया था। आज उसका तडपना बिलखना चरम पर पहुंच गया था। हालत देखी न गई तो छोटन बेजब्त हो उठा, आप कैसा डॉक्टर हैं? रोगी तडप - कराह मर रहा है और आप यहाँ मजलिस जमा रहे हैं।

डॉक्टर कौतुक इस दु:स्साहस पर एक दम उफन पडा, लग तो ऐसा रहा है कि तुम्हीं मर जाओगे इसके बदले में। अगर वह तुम्हारा बाप लगता है तो उसे तुम शहर क्यों नहीं ले जाते? जाओ, ले जाओ यहाँ से अब हमसे कंट्रोल नहीं होगा। बेहूदा, अनपढ, ज़ाहिल! मुझ पर हुक्म चला रहा है, अपनी औकात भूल गया है।

छोटन के लिये उसकी ऐसी गैरजिम्मेदाराना और अमानवीय हरकत आये दिन की बात थी। उसने धिक्कारते हुए फिर पूछा, यही जवाब देना था तो क्या पहले फुर्सत नहीं निकाल सकते थे? छि: छि: आपसे अच्छा तो वह जुल्ली मियां कसाई है, जो दिन में भले ही गाय गोरू काटता है लेकिन शाम को गरीबों मजलूमों के लिये मुफ्त में हकीमी करता है।

डॉक्टर ने आंखें तरेरीं। छोटन बिना इसकी परवाह किये घृणा दिखा कर चल पडा। इस दृश्य पर त्रिमूर्ति मित्रों जाटो सिंह, गंगा सिंह और बच्चू सिंह के नथुने एक साथ फडक़ उठे। जाटो ने बत्तीसी रगडते हुए कहा, ससुरे इस डोम की यह मजाल। क्या डॉक्टर बहुत मन बढा दिये हो इसका! गाली सुनकर बरामदे में छोटन के पांव ठिठक गये। गंगा सिंह भी अपने भीतर का उबाल प्रकट कर बैठा, डॉक्टर यह हमारी तौहीन है कि वह तुम्हारे मुंह लग कर बात करेइसी वक्त उसका मुंह तोड देना चाहिये हमें। बच्चू सिंह भी अपना तैश प्रकट करने लगा, बोलो तो आज ही इस मरदूद की झोंपडी में आग लगा कर पूरे परिवार को जला कर स्वाहा कर दें।

तुम लोग इसे नहीं जानते यार। डॉक्टर ने छोटन की ढठिता और अपनी लाचारी की समीक्षा की - यह डोमवा टिका कैसे है यहाँ? इसकी जो संकर नस्ल की पांच पांच खूबसूरत बेटियां हैं, इनमें दो को तो जानते ही हो, पहले ही भाग गईं। अब तीन बची हैं, मुखिया जी इन तीनों पर फिदा हैंएक एक को इसलिये ये समझ लो कि जब तक मुखिया बना रहेगा, यह नछत्तर अस्पताल की छाती पर कुण्डली मार कर बैठा रहेगा। इसकी बोली मुखिया के दम पर ही निकलती है।

बरामदे में खडे छोटन के दिमाग में एक तीव्र सनसनी समा गई। मुखिया जी महज इसलिये बदनाम किये जा रहे हैं कि वे अन्य बबुआनों की तरह घृणा और भेदभाव नहीं करते थे और छोटन की तत्पर सेवा भावना से प्रसन्न प्रभावित होकर उसके साथ उदारता से पेश आते हैं। उसका जी चाह रहा था कि इस नृशंस, जलील और जल्लाद डॉक्टर की गर्दन दबा दे, मगर आपे से बाहर होना न उसका संस्कार था न अख्तियार। उसकी हैसियत और वजूद यही था कि वह बडी से बडी फ़जीहत सह सकता थाबद से बदतर जलालत झेल सकता था गंदी और सडी पची गाली पचा सकता था।

छोटन खून का घूंट पी कर बढना ही चाहता था कि जाटो की लिजलिजी हसरत ने फिर उसके पांव रोक लिये और उसके शब्द कानों में गर्म शीशे की तरह घुस गये, अरे डॉक्टर, तो हम लोग क्यों मुंह देख रहे हैं? इतनी माकूल जगह है यह अस्पताल उसकी बीमार लडक़ियों को पटाकर इलाज करो यारइस बीमारी के तो हम लोग भी डॉक्टर हैं। तनी हुई मुद्राओं का निहितार्थ एक दम करवट ले बैठा।

पानी तो मुंह में बहुत दिनों से आ रहा हैलेकिन यह छोटना बहुत बडा घाघ है। फिर भी चलो एक पुरजोर कोशिश करके देखते हैं। थोडी रिस्क ही सही। अगले इतवार को तय रहा विश्वास है इसकी एक न एक लडक़ी को जरूर पटा लूंगा। मुर्गे और व्हिस्की का इंतजाम तुम लोग करना। अगर उसकी कोई बेटी न फंसी तो? तो अपना लुक्खा सिंह है न! मुसहरी में डेरा डाल कर ताडी दारू का मुफ्त सदाब्रत बांटता है। यह जो बेंगा मांझी है न जो आज मरने वाला है, इसकी जोरू को लुक्खा ने पटा रखा है, उसके जरिये दो तीन चुनी हुई मुसहरनी आसानी से बहला फुसला कर लाई जा सकती हैं।

छोटन का दिल दहल गया था..अस्पताल की प्रकृतिजन्य दयालुता, कोमलता सहानुभूति और करुणा पर व्याभिचार एवं बेहयाई का इतना बडा ताण्डव। अब उसमें आगे कुछ भी सुनने का धैर्य नहीं रह गया था। बेंगा मांझी की क्षण क्षण बिगडती हालत का कोई निराकरण ढूंढना उसका प्राथमिक दायित्व था। यहां अब उसे रखने की कोई तुक नहीं थी।

मुसहरी के तीन लोगों की मदद से उसे लेकर नवादा चल पडा। कल ही उसकी घरवाली सूप और खचिये आदि बेच कर सौ रूपए लाई थी।

नवादा अनुमण्डल के सदर अस्पताल की भी यों कोई भरोसेमन्द साख नहीं थी। यहां के बहुतेरे लापरवाह कारनामे गांवों तक पहुंचते रहे थे। पर दूसरा विकल्प भी भला अब क्या था? छोटन ने गौर किया कि यहां जितने डॉक्टर थे, वे अस्पताल के अपने कक्ष में बैठकर आने वाले मरीजों से बेहतर इलाज के लिये अपने प्राईवेट क्लीनिक में आने की ताकीद कर रहे थे। यहां देखने के नाम पर महज खानापूर्ति की जा रही थी। वार्ड की स्थिति तो गौहाल से भी बदतर थी। गंदगी और दुर्गन्ध के अलावा यहां हर चीज नदारद थी। गरीबी रेखा नहीं बल्कि गरीबी बिन्दु से भी नीचे रहने वाले बेउपाय लोग अपनी बीमारी को लिये फर्श पर गेनरा - गुदडी या पुआल बिछा कर अपने किसी परिजन की निगरानी में बदहवास पसरे हुए थे। कौन कह सकता था कि यह अस्पताल है? इससे कई गुना बेहतर कब्रगाह या कत्लगाह होता है, जहां मृतकों या मारे जाने वाले लोगों के लिये भी इससे अच्छे इंतजाम होते हैं।

बहरहाल बेंगा मांझी के लिये इसी नर्क में कहीं न कहीं उचित इलाज की उम्मीद करनी थी इस तरह कि सौ रूपये में ही मामला सलट जाये। मगर छोटन को क्या पता कि जोंकों की इस नगरी में सौ रूपए तो सिर्फ सूंघने में ही निकल जाएंगे। खून जांच और एक्सरे में ही पिचहत्तर रूपए पार हो गये। डॉक्टर की फीस और दवा के लिये पच्चीस रूपए कुछ भी नहीं थे। इस सरकारी अस्पताल के चप्पे चप्पे में व्याप्त बेहयाई पर छोटन हैरान था। मगर बेंगा मांझी शायद इतना बडा बेहया नहीं था कि दवा खरीदने के नाम पर छोटन को नंगा कर परीक्षा लेता। बेचारा पहले ही चल बसा।

छोटन की आत्मा एकदम चीत्कार उठी थी कि बेंगा को न कैंसर था, न एड्स, न टी बी - महज दस्त और बुखार से पीडित था, फिर भी दो दो अस्पताल से गुजर कर भी वह इलाज नहीं पा सका। वह सिहर उठा था कि आज गरीबों के लिये इलाज किस कदर हास्यास्पद और मुश्किल हो गया है। कल इन्हें फोडे फ़ुन्सी, सर्दी खांसी और सरदर्द से भी मरना पड सकता है। मानो इनके लिये हर रोग ही कैंसर और एड्स बनने जा रहा है।

अस्पताल के गेट पर ही अर्थियां बिक रही थीं। जैसे वे पहले ही चीख चीख कर यह बता रही हों कि जब इस अस्पताल में भीतर जा ही रहे हो तो हममें से किसी एक को पसन्द करते जाओ। शायद इस अस्पताल में आने वाले साठ प्रतिशत गरीब ग्रामीणों का यही हश्र था। हर स्तर और सज धज की अर्थियां यहां उपलब्ध थीं। छोटन ने बचे हुए पच्चीस रूपये से अर्थी खरीद ली। क्या संयोग था कि वह अपने साथ तीन आदमी लेकर आया था। मानो कंधा देने की पूरी तैयारी कर आया हो, नहीं तो उसे भाडे पर कुछ कंधे लेने पड ज़ाते।

बेंगा की घरवाली जो इन दिनों लुक्खा सिंह द्वारा जबरन बनाई हुई रखैल थी, अब स्थायी तौर पर मुक्त हो गई। लुक्खा को उसके एवज में बेंगा का खर्च भी प्रायोजित नहीं करना पडेग़ा। रोज रोज अध्दा पौआ पिलाना पडता था...अंतिम में पता नहीं क्या मिला कर पिला दिया कि बेंगा को इसके बाद पीने की जरूरत ही नहीं पडी। उपेक्षा की निरतंरता पहले ही उसकी नियति थी, अस्पताल ने इसे चरम पर पहुंचा दिया। चलो अच्छा हुआ कि इसके मरने से कोई विधवा न हुई कोई अनाथ न हुआ।

चारों ने अर्थी पर बेंगा का शव डाल दिया और राम नाम सत्य है कहते हुए वे पैदल चल पडे। ज़बकि बेंगा ने जो जिन्दगी जी थी उससे राम नाम सत्य नहीं सर्वथा असत्य जान पडता था। रास्ते में अजीब अजीब ख्याल छोटन के भीतर बनते और मिटते रहे। इन्हीं में एक था अपने जैसे मजलूम चेहरों के लिये एक हमदर्द और रहमदिल डॉक्टर की तलाश। उसने यह भी सोचा कि क्यों नहीं वह अपने नन्हका को पढा लिखा कर डॉक्टर बना दे। अगर वह ऐसा कर सका तो सिर्फ अपना ही नहीं पूरे जवार का उध्दार हो सकेगा। अगले ही क्षण उसके होंठ खुद पर व्यंग्य से मुस्कुरा दिये। खाने की खर्ची नहीं और डयोढी पर नाच! जाति का डोम और बेटा डॉक्टर! जो भी सुनेगा हंसी से लोट पोट हो जायेगा। छोटन ने झेंप कर इस विचार को झटक दिया। कंधे पर अर्थी है और वह क्या अनाप शनाप सोचे जा रहा है। डॉक्टर कौतुक, उसके दोस्त, उनकी रची साजिश, बेंगा की घरवाली और लुक्खा सिंह उसे फिर याद आने लगे थे।

गांव में लाश पहुंची तो किसी को कोई अचरज नहीं हुआ....कहीं कोई सुगबुगी या हलचल नहीं हुई। जैसे किसी आदमी की नहीं कीडे - फ़तिंगे की मौत हुई थी, जिस पर गम, स्यापा, शोक, अफसोस करने की कोई परिपाटी नहीं। कितना अकेला था बेंगा कि आज उसकी मौत पर कोई रोने वाला नहीं। जो हल जोत रहे थे, जोतते रहे...जो कुंए पर लाठा चला रहे थे वे चलाते रहे जो खलिहान में दौनी कर रहे थे करते रहे। मतलब किसी ने अपने धंधे को स्थगित करने की जरूरत नहीं समझी।

आदमी आदमी में कितना फर्क होता है....चाहे वह राजतन्त्र हो या जनतन्त्र। एक वह भी आदमी होता है जिसके मरने से सारा देश बन्द करा दिया जाता है, उसका अंतिम संस्कार देखने के लिये पूरे मुल्क को फुर्सत बहाल करा दी जाती है।

छोटन अब समझ गया था कि सामाजिक न्याय के हंगामे में एक गरीब मामूली आदमी की जान का कोई मूल्य नहीं। वह तो मात्र एक कीट पतंगा है।