कुँइयाँजान / नासिरा शर्मा / पृष्ठ 3

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लेख में आगे लिखा था-जोहानिसबर्ग शिखर सम्मेलन में इस मुद्दे पर हुई बातचीत में यह तय हुआ था कि सन्‌ २०१५ तक अधिक-से-अधिक लोगों तक स्वच्छ जल पहुँचाया जाए। उसी वर्श जापान में आयोजित विश्व जल मंच में यह सोचा गया कि इस पर आने वाला खर्च ८० अरब डॉलर से बढ़ाकर १८० अरब डॉलर कर देना चाहिए। मगर प्रश्न है कि इतना पैसा आएगा कहाँ से? क्या यह केवल फाइलों में बंद आंकड़े हैं जो केवल सम्मेलनों में चर्चा तक ही सीमित रहेंगे? इतना पढ़ने के बाद मास्टरजी का सिर दुखने लगा। उन्होंने चश्मा उतार उंगलियों से आँखें मलीं और कुछ देर खिड़की के बाहर हवा में झूमती टहनियों को देखने लगे। कुछ देर बार लेख आगे पढ़ने लगे : इराक युद्ध के लिए अमेरिकी कांग्रेस ने राष्टपति बुश को बिना देर किए ७५ अरब डॉलर देने की घोषणा कर दी; मगर ऐसी कोई तत्काल घोषणा उसने जल-समस्या पर नहीं की और ऐसा ही कुछ हाल हमारे अपने देश का है। यहाँ पर जन-मानस से जुड़ी प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति की जगह परमाणु बम निर्माण और परीक्षण पर धन खर्च करना उसे ज्यादा तर्कसंगत लगता है। सबसे खतरनाक मुद्दा जो आज हमारे सामने है, वह है समस्या के हल का निजी क्षेत्रमें देखा जाना, जिससे निजी क्षेत्र अपने मुनाफे की बात कर सके। उनका विचार है कि बिक्री योग्य वस्तु बना देने से पानी का संरक्षण सुचारु रूप से हो पाएगा। विश्व बैंक कह ही चुका है कि पानी की कीमत तय करो, बाजार में बिक्री के लिए उसे रखो और बाजार को उसका भविष्य तय करने दो। ध्यान रखे कि पानी एक मानवीय आवश्यकता' है, न कि मानवीय अधिकार भर है। इसी कथन को जब हम आगे देखते हैं तो यह षडयंत्र समझ में आता है कि विश्व बैंक और मुद्रा कोश के समर्थन से कई बहुराष्टीय निगमों ने कई देशों में जल की आपूर्ति एवं उसके हल का काम अपने माथे ले लिया है। इस तरह मनमाने ढंग से उन्होंने पानी की कीमत बढ़ा दी है। इन स्वच्छ जल देने के ढकोसलों का लक्ष्य वास्तव में मध्य वर्ग एवं उच्च वर्ग की मानसिकता से खेलकर धन उगाही है। बच्चों व जवानों में केवल ढक्कन-बंद बोतल ही नहीं बल्कि कोकाकोला, पेप्सी, नेस्ले व अन्य कई तरह के पेय बहुत लोकप्रिय हो चुके हैं। अमेरिकी पत्रिका फॉर्चून के अनुसार, पानी उद्योग से मिलने वाला मुनाफा तेल-क्षेत्र के मुनाफे की तुलना में ४० प्रतिशत हो गया है। इसलिए बहुराष्टीय निगम जलापूर्ति से मिलने वाले मुनाफे से प्रसन्न होकर बड़े पैमाने पर पाइप लाइन बना रहे हैं, जिसके द्वारा गरीब देशों का पानी अमीर देशों तक पहुँचाया जाएगा। विश्व बैंक तेल की तरह ही इसकी आयात-व्यवस्था पर जोर दे रहा है। यह जानकर आपको आश्चर्य होगा कि छत्तीसगढ़ में भिलाई के पास शिवनाथ नदी की २२ कि.मी. की पट्टी को एक निजी कंपनी के हाथ में देकर वहां के लोगों के नदी में प्रवेश पर रोक लगा दी गई है। इस तरह से हम देखते हैं कि नदियों के अस्तित्व पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं। वह दिन बहुत दूर नहीं जब हमें अपनी ही नदियां पराई लगने लगेंगी।

लेख खत्म कर मास्टरजी सन्नाटा खींच गए।

मैंने तो कभी इतने बड़े भावी खतरे पर सोचा ही न था। इसका मतलब है कि बाजार के लिए हमारी सरकारें कुछ भी समझौता आपस में कर लेती हैं! उन्होंने चश्मा उतारा और अखबार तह कर एक तरफ रख दिया।

उन्हें यों गुमसुम, उदास बैठा देखकर कमरे में आई उनकी श्रीमती बोलीं, ऐसे काहे बैठे हो, जी तो ठीक है? आज कहीं घूमने-टहलने भी नहीं निकले?

बस यों ही। वह कुछ बुझे स्वर में बोले।

एक चक्कर फत्तू की दुकान तक लगाए आओ, वरना बेकार में सोफा पर बैठे-बैठे पेट में गैस बनिहै....जी अलग बोल-बतिया के बहिल जाई...हम तनिक पड़ोस के घर होइके आइत है।' इतना कह श्रीमतीजी कमरे से बाहर निकलीं और जाते-जाते बोलीं, बहू, कपड़ा सूख गवा होई, प्रेस वाले को भेजै न भुलइयो।

दरवाजा खुला और जोर की आवाज के साथ बंद हुआ। मास्टरजी चौंक पड़े। थके-थके-से उठे और खिड़की के पास जाकर खड़े हो गए। नीचे गली में बच्चे ऊंच-नीच खेल रहे थे। उनकी निश्छल हँसी उन्हें एकाएक भयानक चीत्कार में बदलती महसूस होने लगी। भगवान का दिया प्रसाद जल अब संखिया बन उनकी धमनियों में फैलता नज+र आने लगा, जिससे वह फेंफड़े, लीवर और गुरदे की बीमारी से ग्रस्त हो एक-एक करके दम तोड़ रहे थे। उनके शव उठाए रोते माँ-बाप हर गली-कूचे से निकल रहे थे। घर बच्चों से खाली होते जा रहे थे और सड़क पर कोई जवान आता-जाता नहीं दिख रहा था। जाने कितने भाग्यहीन बुजुर्ग अपने जवान बेटों की अरथी कंधे पर उठाए शमशान की तरफ बढ़ रहे थे, जहाँ पूरा शमशान एक बड़ी चिता में सुलगता नजर आ रहा था। जिधर देखो उधर लपटें-ही-लपटें और एक दिन ऐसा आ गया जब बुजुर्ग का पिंडदान करने वाला कोई इस धरती पर नहीं बचा...कोई नहीं बचा।

बाबूजी, चाय-शरबत कुछ चाहिए? बहू ने आकर पूछा। मगर वह अपने विचारों में उड़ते रहे। जब बहू ने दोबारा पूछा तो उन्होंने मुड़कर देखा, मगर उन्हें जैसे विश्वास नहीं हुआ कि कोई उनके सामने खड़ा है। उनकी आँखों की पुतलियाँ थिरक रही थीं, जिनमें आश्चर्य था।

आपकी तबियत तो ठीक है, बाबूजी? बहू ने परेशान हो पूछा और तेजी से कमरे से निकल पति के पास पहुँची और बोली, जरा बाबूजी को जाकर देखो, मुझे ठीक नहीं लग रहे हैं।

अब उन्हें क्या हुआ? सुबह तो अच्छे-भले थे? लड़का लेटे-लेटे आलस से बोला।

मुझे नहीं पता, मगर उनकी आँखें मुझे बड़ी विचित्रा-सी लग रही थीं, जैसे वह मुझे पहचान नहीं रहे हों! चाय-शरबत को पूछा तो कुछ जवाब नहीं दिया। उठो, जाकर देखा तो! बहू चिंतित स्वर में बोली।

देखता हूँ। अब बुढ़ापा है। कुछ-न-कुछ तो होगा ही। कहता हुआ लड़का उठा और मास्टरजी के पास पहुँचा।

मास्टरजी तख्त पर आँख बंद किए लेटे थे। लड़का उनके पास जाकर उन्हें पहले गौर से देखता रहा, फिर माथे पर हाथ रख और धीरे से बोला, बाबूजी। मास्टरजी वैसे ही चित लेटे रहे। लड़का यह सोचकर कि वह सो रहे हैं, वापस लौटा और पत्नी से बोला, वह आराम से सो रहे हैं। अब तुम मेरे लिए कॉफी बनाओ।

लाती हूँ, पहले छत पर कपड़े उतार लाने दो। पत्नी ने कुछ चकराकर कहा।

बच्चों को भी आवाज दे लेना। बहुत खेल हो चुका, सूरज सर पर आ गया है। पत्नी से कह उसने पैर फैलाए। एक दिन छुट्टी का मिला है, वह इसमें पूरा आराम करना चाह रहा था।

जून का महीना शुरू हो गया था। कुछ दिनों बार मानसून आने का इंतजार शुरू हो जाएगा। मौसम विभाग का कहना है कि इस बार मानसून यू.पी. में देर से पहुँचेगा। वैसे भी इस बार गरमी मार्च से ही शुरू हो गई थी। लगता है, अब जाड़ा, बरसात केवल दो-दो माह के होंगे और बाकी आठ माह गरमी पडे+गी। लू के थपेड़े चलेंगे, वनस्पतियाँ सूखेंगी, नदियों में पानी कम हो जाएगा। लोग बीमार पडेगा। कुछ लू लगने से चल बसेंगे। शायद इस तरह जनसंख्या घटने लगेगी। आखिर प्रकृति भी तो अपनी तरह न्याय पर उतर आती है।

यह सब सोचते-विचारते मास्टरजी गहरी नींद में डूब गए थे। पढ़ा लेख सपने में एक नई रचना के रूप में उनके मस्तिश्क में उभर रहा था। नदियाँ एक-दूसरे से मिलाई जा रही थी। नहरें बनाने के लिए गाँव, बस्तियाँ, जंगल उजड़ रहे थे। पहाड़ काटे जा रहे थे। जंगल के कटने से दूर-दूर तक खाली मैदान फैल गए थे। उजड़ी बस्तियों के लोग परेशान इधर-उधर भटक रहे थे। कुछ स्थानों पर पानी ने दलदल बना दिया और लाखों लोग बरबाद हो गए। जल-स्तर नीचे हो जाने के कारण प्रान्तों के बीच पानी बराबर न पहुँचने से तनाव और नदियों का समुद्र में न जाकर मिलने से मीठे पानी की कमी से करोड़ों मछलियों एवं समुद्री जीवों को तड़प-तड़पकर मरना आरंभ हो गया। वह गंदगी, जो लवणों एवं विशैले पदार्थों के रूप में नदी घाटी से अपने साथ ले जाकर समुद्र में डालती थी, अब उसका जगह-जगह भराव और उससे बने बड़े-बडे टीले नजर आने लगे थे। सड़े-गले पदार्थों को समुद्री जीवों तक न पहुंचा सकने से उनका धरती पर रहने वालों के लिए ऑक्सीजन पैदा न कर सकने से दम घुट के मरने वालों की बढ़ती संख्या से प्रदूषण का संकट पैदा हो गया था। आसमान का रंग बदल गया। बादलों ने घुमड़ना-बरसना छोड़ दिया और यहाँ से वहाँ तक न कोई चिड़िया चहचहा रही थी, न कोई इंसान दिख रहा था....

सपने ने सारे शरीर में व्याकुलता-सी भर दी थी। मास्टरजी ने सोते में तेजी से बदन खुजाया और करवट बदली।

....ग्लेशियर सिकुड़ रहे थे। बर्फीली चोटियाँ बर्फ-रहित हो रही थीं। समुद्र का गर्भ मचलती मछलियों और तरह-तरह के जीवों से खाली हो चुका था। नदियों का जाल पानी से भरा वीरान मैदानों में फैलता जा रहा था। फिर एकाएक नदियों का फैलाव सिमटने लगा और वे लकीरों में बदल गईं, फिर वे बारी-लकीरें भी धरती पर से मिट गईं और मरुस्थल फैल गए। यहाँ से वहाँ तक बालू-ही-बालू, टीले-ही-टीले पानी की कमी और गरमी से उनके हलक में कांटे चुभने लगे और वे लू के थपेड़ों में बंजर धरती पर पानी...प्यास...पानी...पानी कहते घूम रहे थे। शरीर झुलस रहा है, पैर जल रहे हैं, धूप तेज है, मगर पानी की एक बूँद भी उन्हें कहीं नज+र नहीं आ रही है। कहीं किसी पेड़ की छांव नहीं, कहीं, किसी घर का साया नहीं। उन्हें लगता है कि उनका दम बस कुछ देर में निकलने वाला है और र्मूर्च्छित होने से पहले वह आँख खोलकर आखिरी बार कहते हैं-पानी! इसके बाद उनके प्राण-पखेरू उड़ गए। चारों ओर गिद्ध-ही-गिद्ध उड़ रहे हैं। उनके पंख टकराने से जो आवाज निकल रही है वह है सिर्फ पानी-पानी की...।

अब उठो न, पानी मांग रहे थे। लेके खड़े हैं इतनी देर से। आँखें खोलकर देखते हो फिर बंद कर लेते हो...उठो! श्रीमतीजी ने इतना कह उनका बाजू जोर से हिलाया।

मास्टरजी नींद से जागे और हड़बड़ाकर उठ बैठे। इधर-उधर उन्होंने परेशान नजरों से देखा, फिर पत्नी ने पानी का गिलास बढ़ाया, जिसे पकड़कर वह पल-भर उसमें भरे पानी को एकटक देखते रहे, फिर पूरा-का-पूरा गिलास अपने ऊपर पलट लिया।

श्रीमती ने पति को चकित हो देखा और बोली, सठिया गए हो क्या? पिए का पानी सिर पर उलीच लियो? मास्टरजी कुछ बोले नहीं। प्यास से उनका गला सूख रहा था, मगर गले से आवाज नहीं निकल रही थी कि पीने के लिए पानी मांगें। बत्ती जा चुकी थी। पत्नी ने वहीं बैठ हाथ का पंखा डुलाना शुरू कर दिया। आंचल से पति के चेहरे-गरदन पर से टपकता पानी पोंछा और मन-ही-मन सोच मुसकरा पड़ीं कि सच कहा है किसी ने कि बूढ़ा-बच्चा एक समान होत हैं।

मास्टर जी फिर लेट गए। सपने का खुमार अभी उतरा नहीं था।

माँ, थाली यहीं लगाएँ? बहू ने पूछा।

देखो, अपने बाबूजी को, फिर लेट गए। खाना खाबो कि नाहीं? उठो, जरा मुँह पर छींटे डालो। देखो घड़ी की ओर, दुइ बजत हैं।

इतना कह मास्टरनी खाली गिलास लेकर रसोई में गईं और पति के लिए थाली सजाने लगीं। दोनों बच्चे और बेटा खाना खाकर उठ गए थे। वे दोनों थालियाँ सजा वहीं बैठक में ले आईं। मास्टरजी बाथरूम से निकलकर चैतन्य हो गए थे। कढ़ी-चावल और तले आलुओं की सब्जी बनी थी। उनकी पसंद का खाना, सो बड़े चाव के साथ अचार-चटनी के साथ खाया और हाथ-धो मुँह में पान का बीड़ा दबाया। मन-तन हलका-हलका लग रहा था। जैसे बुखार उतरने के बाद मरीज महसूस करता है। वही हाल उनका था। परिदृश्य साफ था। सारी सच्चाईयाँ पारदर्शी हो उनके सामने आन खड़ी हुई थीं, जिनमें महत्त्वाकांक्षी योजनाओं का कोई जाला उनके दिमाग पर नहीं तना था। वह बड़ी आरामदेह मुद्रा में गाव-तकिये का सहारा ले पान चबाते हुए सोच रहे थे कि सिर पर घिर आए इस संकट से निकलने का क्या उपाय हो सकता है और उस विकल्प में उनका कितना योगदान होगा?

यह रचना गद्यकोश मे अभी अधूरी है।
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