कुँवर नटुआ दयाल, खण्ड-5 / रंजन

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शयन-कक्ष की सुखद शय्या पर राजा विश्वम्भर मल्ल सारी रात जगे थे। युवराज को देखकर अपनी आँखों को तृप्त करने की आकुलता में वे करवटें बदलते रहे।

रानी गजमोती के प्रसूति-कक्ष तक समाचार सुनते ही राजा दौड़ पड़े थे। परन्तु कक्ष के अंदर उन्हें प्रवेश की अनुमति न मिली। इनकी राजाज्ञा वहाँ नहीं चली। प्रसूति-कक्ष का नियंत्रण प्रसव-निपुण धाई और नाइन के हवाले था। फलतः उनके आदेशानुसार राजा छह दिनों के पश्चात् ही कुँवर के दर्शन कर सकते थे।

मल्लाहराज ने उन्हें अनेक प्रलोभन दिए, परन्तु वे न मानीं। भीममल्ल, वैद्य, ज्योतिषी और राजरत्न मंगल, राजा की व्याकुलता का आनंद उठाते रहे और राजा विश्वम्भर मल्ल, रात्रि के तृतीय प्रहर तक, रानी गजमोती के प्रसूति-कक्ष के समक्ष पीठ पीछे दोनों हाथ बांधे आकुल हो चहल-कदमी करते रहे।

राजा को प्रसव-कक्ष के विधि-विधानों की कोई जानकारी न थी। रात्रि के चतुर्थ प्रहर में सबके अनुरोध पर राजा जी शयन-कक्ष में विश्राम हेतु गये तो अवश्य, परन्तु करवटें ही बदलते रहे।

कैसा होगा उनका राजकुँवर? ...

उसकी आँखें कैसी होंगी, भाल और गाल कैसे होंगे...कैसे होंगे नाक और अधर? उनके जैसा होगा या रानी जैसा? और इन्हीं विचारों में सूर्योदय हो गया।

राजा को रानी की चिन्ता हुई. कल से भूखी होगी वह। प्रसव में भला प्रसूति के भोजन की कौन चिन्ता करता है? व्याकुल होकर उन्होंने आदेशपाल को आदेश देकर पाकशाला-प्रमुख को बुलवाया। शीघ्र्रतापूर्वक पाकशाला में रानी के लिए छप्पन-भोग तैयार हुआ।

आगे-आगे राजा, पीछे-पीछे मखमली आवरण में छप्पन-भोगों से सुसज्जित थालियाँ सम्हाले पाकशाला के सेवक। जा पहुँचे प्रसूति-कक्ष के द्वार पर। अंदर से सोहर गाती स्त्रिायों के स्वर आ रहे थे।

द्वार पर ही राजा की राह रोक कर धाई ने हँसते हुए कहा-'यह क्या राजन्! परसौती रानी के लिए छप्पन-भोग?'

नाइन ने अपनी बात जोड़ी-'बड़े भोले हैं हमारे राजा जी! ये क्या जानें प्रसूता रानी क्या खाएँगी?'

राजा हतप्रभ! उनकी योजना थी कि पाकशाला से छप्पन-भोग बनवाकर वे स्वयं भी रानी के प्रसूति-कक्ष में प्रविष्ट हो जाएँगे और अपने कुँवर की एक झलक देख कर तृप्त हो जाएँगे, परन्तु यहाँ तो स्थिति ही विपरीत हो गई. वे सोचने लगे-छप्पन-भोग से उत्तम भला और क्या है? ये धाई और नाइन क्या कहना चाहती हैं, उनकी समझ में कुछ न आया।

वैद्य जी भी रात से ही कक्ष के द्वार पर उपस्थित थे और पल-पल की सूचना ले रहे थे। राजा जी की चिन्ता देख वे मुस्कुराए और राजा के समीप आकर कहने लगे-'राजा जी! प्रसूता रानी के भोजन की चिन्ता आप न करें। इस अवसर पर प्रसूति के लिए विशेष आहार का प्रावधान है।'

राजा चौंके-'विशेष आहार? ...भला छप्पन भोगों से विशिष्ट और कौन—सा आहार होता है, वैद्य जी?'

वैद्य जी को हँसी आ गई. हँसते हुए ही उन्होंने राजा से कहा-'प्रसूता रानी जी केवल अछमानी, छौंका और सठोरा ही ग्रहण करेंगी, भड़ोरा-नरेश!'

'अछमानी, छौंका और सढोरा? यह क्या होता है वैद्य जी?' उत्सुक होकर राजा ने प्रश्न किया।

'अछमानी, छौंका और सठोरा ही प्रसूतिकाएँ ग्रहण करती हैं। इसके तीन प्रकार हैं राजा जी! जीरा का हलवा, मंगरैला का हलवा और सोंठ के लड्डू। प्रसूतिका रानी जी यही खाएँगी, यही अंग की परंपरा है और वैद्यक-ज्ञान के अनुसार, मैं भी इसे सर्वथा उचित मानता हूँ।'

पकवानों की सुसज्जित थालियाँ लिये सारे सेवक सिर झुकाए लौट गए और पुत्र के दर्शनों की अतृप्त अभिलाषा लिए राजा जी भी विवशता में छोटे-छोटे पग उठाते, अपने कक्ष की ओर चले।

वैद्य जी के अधरों पर मुस्कान थी, धाई और नाइन के अधरों पर हँसी

'वैद्य जी अब आप जाओ-' दगरिन ने कहा-'सारी रात एक पैर पर बिताई है आपने। अब तो प्रसूति भी ठीक है और राजकुँवर भी। आपने जो जैतून का तेल दिया था, कुँवर जी को वही लगा है और प्रसूति रानी जी को सरसों का तेल-पानी भी हो चुका है। आप बिल्कुल निश्चिंत होकर जाएँ। दासियों ने अछमानी भी बना ही ली है...प्रसूतिका रानी जी अब खाएँगी, अब आप जाओ!'

वैद्य जी संतुष्ट थे। धाई और नाइन ने बड़ी कुशलता से प्रसव सम्पन्न करा दिया था ऊपर से सारी रात वे पल-पल की सूचना लेते रहे और आवश्यकतानुसार निर्देश भी देते रहे। अब सब कुशल-मंगल था। ईश्वर और कमला मैया को धन्यवाद देते हुए उन्होंने विश्राम के लिए प्रस्थान किया।

रानी गजमोती की प्रसव-रात्रि से ही भरोड़ा राज की दिनचर्या बदल गई. ज्योतिष, कुँवर जी की कुण्डली बनाने हेतु ग्रह-नक्षत्रों की सटीक गणना में व्यस्त हो गए और प्रजा की महिलाएँ सोहर गाने में। सारा दिन राज भरोड़ा के सभी आंगनों में महिलाएँ सामूहिक सोहर गातीं। राज के सभी आंगनों में गाए जाने वाले सोहर के सम्मिलित स्वर सम्पूर्ण भरोड़ा राज में पवन संग गूंजते रहते।

पूरे सवा महीने के उपरांत रानी गजमोती ने कमला मैया का घाट-पूजन किया। इस मध्य प्रसव के छठे दिवस पर षष्ठी पूजन सम्पन्न हुआ। ग्यारह दिवस के पश्चात् बारहवें दिवस पर 'बरही' पूजन सम्पन्न हुआ। अब कुँवर को सोहरी-कक्ष से बाहर आने की सीमित स्वतंत्रता थी। इसीलिए, धाई और नाइन ने राजा जी के कक्ष तक कुँवर जी को जाने की अनुमति नहीं दी। बीसवें दिवस 'बिस्तौरी' के पश्चात् ही

धाई और नाइन ने कुँवर जी के अशौच समाप्ति की घोषणा की। अब कुँवर जी राजप्रासाद में कहीं भी ले जाये जा सकते थे, परन्तु रानी गजमोती को अभी भी प्रसूति-कक्ष में ही रहना था।

सवा महीना के समापन पर रानी गजमोती ने अपने प्रसूति-कक्ष के बाहर कदम रखा और भरोड़ा घाट पर कमला मैया के पूजन के पश्चात् ही वे परिष्कृत हुईं।

भरोड़ा के गंगाघाट पर वणिकों की जितनी भी नौकाएँ थीं, राजा ने उन्हें चुंगी से मुक्त कर दिया और सभी को महाभोज में सम्मिलित होने का न्यौता भी दिया।

मध्याद्द भोजनोपरांत राजा राजप्रासाद के दरबार में विराजे. समस्त कुटुम्बियों के साथ राजरत्न, मंगल और वीरवर भीममल्ल भी अपने-अपने स्थान पर विराज चुके तो राजा जी ने धाई और नाइन को बुलवाया।

हँसती-खिलखिलाती वे आयीं तो राजा जी ने देखा-दोनों नयी-नयी साड़ियों में सजी-संवरी थीं।

धाई ने परिहास में कहा-'क्या देख रहे हैं राजा जी? ये नई साड़ियाँ रानी जी ने हमें दी हैं।'

'और ये आभूषण भी-' हँसते हुए नाईन ने अपनी बात जोड़ी-'लेकिन स्वामी! हम दोनों केवल साड़ी और आभूषण प्राप्त करने के लिए नहीं आयी हैं।'

राजा जी मुस्कुराए, फिर बोले-'अरे ये तो शगुनमात्र था। तुम दोनों को पुरस्कृत करने हेतु ही तो बुलवाया है...कहो...क्या चाहिए?'

दोनों ने मुस्कुराते हुए एक दूसरे को कनखियों से देखा और आँखों ही आँखों में मानो पूछा...क्या लेना है राजा जी से?

'अब संकोच न कर धाई!' राजा जी ने पुनः कहा, ' और तुम भी नाइन ...संकोच मत कर! बोल क्या दूँ? वस्त्रा चाहिए, आभूषण-धन चाहिए या चाहो तो भूमि दान ही ले ले। ...माँग...निःसंकोच माँग! '

राजा ने देखा-दोनों की आँखें सजल हो गयीं, परन्तु अधरों पर मुस्कान अभी भी तैर रही थी।

'अरी क्या हो गया तुम दोनों को?' राजा ने कहा-'इस शुभ घड़ी में आँसू क्यों बहा रही है?'

आँचल की कोर से आँखें पोंछती धाई ने कहा-'ये हर्ष के आँसू हैं राजा जी...क्या करूँ, जब भी हृदय में मोर नाचे है, ये निगोड़ी अँखियां यूं ही रोबत हैं राजा जी.'

'हाँ राजा जी' ! नाइन चहकी-' धाई बहिन ठीके कह रही है। हमारे हर्ष विषाद की साथिन है हमारी अंखियाँ... खैर छोड़िए राजन्! दुलरा कुँवर जी आ गए, हमें मानो तिरलोक का सुख-सम्पत मिल गया। हमें और कुछ ना चाही।

राजा सहित सारा दरबार संवेदित हो गया। राजा अपने आसन से उठ कर खड़े हो गए.

'ना...ना...राजा जी-' धाई ने कहा-'अब कुछ न बोलो आप। बहिन ने ठीक कह दिया, हम और कुछ नहीं लेंगी आपसे। आपका दिया ही खाती हैं और आपही का दिया पहनती हैं और क्या चाहिए हमें? जिसका अभाव था, हमरी कमला मैया ने दे ही दिया। कुँवर जी आ गए. अब हमरी हँसा तो तभी पूरी होगी, जब कुँवर जी की दुल्हन प्रसूति बनेंगी।'

राजा कुछ न कह सके और दोनों मुस्कुरा कर चली गयीं। किंकर्त्तव्यविमूढ़ राजा जी कुछ क्षण मौन खड़े रहे, फिर उन्होंने आँखों के संकेत से लेखपाल को पास बुलाया। उसके कान सुनते जा रहे थे और सहमति में उसका मस्तक हिलता जा रहा था। राजा जी का आदेश सुनकर तत्परता से उसने दरबार छोड़ दिया।

'राजा जी!'-ज्योतिषी जी ने खड़े होकर अपनी बात शुरू की-'आदेश हो तो दुलरा दयाल जी की कुण्डली पर चर्चा आरंभ करूँ?'

'अवश्य ज्योतिषी जी! हमें भी उत्सुकता है यह जानने की कि हमारे पुत्र का भविष्य क्या है? आपने तो उसकी जन्म-कुण्डली भी बना ली है। सब कुशल तो है न ज्योतिषी जी?'

'सब कुशल-मंगल है राजन्-' ज्योतिषी ने कहा-' हमारे कुँवर, दुलरा दयाल का जन्म पुनर्वसु नक्षत्र एवं कर्क लग्न में हुआ है राजा जी. जन्म के समय जो पाँच ग्रह अपने उच्च स्थान में विराजमान थे, वे हैं सूर्य, मंगल, शनि, गुरु और शुक्र तथा उस समय लग्न में चन्द्रमा के साथ वृहस्पति विराजमान था।

राजा अपने समस्त कुटुम्ब तथा वैद्य, वीरवर, राजरत्न आदि के साथ उत्सुक हो ज्योतिषी जी के कथन को ध्यान से सुन रहे थे।

ज्योतिषी जी ने कहा-'सौभाग्य की बात है राजा जी कि हमारे दुलारे कुँवर जी का जन्म अत्यंत शुभ घड़ी में हुआ और यदि ग्रह-नक्षत्रों की मेरी गणना त्रुटिहीन है तो मैं एक ही बात कहूँगा कि ग्रहों का ऐसा अपूर्व संयोग अवतारों के समय ही देखा गया है, राजन! मैंने तो क्या, मेरे पुरखों ने भी कभी ऐसा दैवी संयोग नहीं देखा। हमारे दुलारे कुँवर की ख्याति अंगमहाजनपद की सीमाएँ लांघ कर पूरे भरतखण्ड में फैलेगी।'

राजा जी की आकृति पर प्रसन्नता उभर आयी। उन्होंने प्रसन्न मुद्रा में कहा-'दुलरा दयाल के जन्म का श्रेय माता कमला को जाता है और हम कृपामयी माता के कृतज्ञ हैं। परन्तु मेरी पुत्र-प्राप्ति में राजरत्न मंगल और वैद्य जी का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है, इसे मैं भूल नहीं सकता। साथ ही धाई ने जिस प्रकार प्रसव-व्यवस्था सम्हाली, मैं उनदोनों का भी ऋणी हूँ। इन लोगों ने मेरे लिए जो कुछ किया है मैं किसी भी प्रकार इनका प्रत्युपकार नहीं कर सकता...फिर भी मेरी एक छोटी-सी इच्छा है और आशा है, मेरी इच्छा को स्वीकार कर आप चारों मुझे संतुष्ट करने की कृपा करेंगे।'

राजा अपनी बात कह कर मौन हो गए. दरबार में उपस्थित समस्त लोग उत्सुक होकर राजा को देखने लगे।

तभी राजा जी ने देखा-लेखपाल दरबार में प्रवेश कर रहे हैं। उनके हाथ में राज भरोड़ा के आदेश-पत्रों की पट्टिकाएँ थीं। राजा जी ने उन्हें अपने पास आने का संकेत दिया।

सारे उपस्थित लोगों ने देखा, राजा जी ने लेखपाल द्वारा लाए गए आदेश पत्रों को ध्यान से देखा फिर उसपर भरोड़ा राज की राजमुद्रा अंकित कर दी।

गंभीर राजा जी अब मुस्कुराए. उन्होंने उपस्थित व्यक्तियों को कुछ क्षण मुस्कुराते हुए देखा तत्पश्चात् अपनी बात शुरू की, 'आपके भरोड़ा राज का सेवक, मैं विश्वम्भर मल्ल, अपने राज्य के रत्नों तथा शुभैषियों को आज, राज भरोड़ा के ग्रामों का आघिपत्य समर्पित करता हूँ। राजरत्न मंगल! कृपया सर्वप्रथम आप आयें।'

संकोचपूर्ण पाँवों से चलते हुए राजरत्न मंगल ने राजा से, अपने गाँव का आधिपत्य पत्र प्राप्त किया। तत्पश्चात् वैद्य और ज्योतिषी ने राजा जी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए एक-एक गाँव का अािधपत्य-पत्र ग्रहण किया।

'दो आधिपत्य-पत्र शेष हैं-' राजा जी ने कहा-'एक धाई के लिए दूसरा नाइन के लिए. ये दोनों अधिकार-पत्र उन्हंू रानी जी के हाथों समर्पित किए जाएँगे। ... और अब राजरत्न मंगल की इच्छानुसार, हम इस प्रासाद के बाहर वट वृक्ष का रोपन करेंगे।'

राजा जी के साथ सभी बाहर आए. बाहर पूरे पच्चीस बीघे का उद्यान था। इस उद्यान में सब तरफ विभिन्न फलों के पेड़ लगे थे।

उद्यान के मध्य मिट्टी में एक गड्ढा खोदा गया था। सभी लोग राजा जी के साथ उस गढ़े के समीप एकत्र हो गए तो मंगल ने राजा जी से कहा-'इस अवसर पर रानी जी को भी कुँवर जी के साथ उपस्थित होना चाहिए राजन!'

राजा ने तुरंत प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। तुरंत रानी जी को संदेश भेजा गया। वैद्य जी और ज्योतिषी वहीं खुली मिट्टी पर पद्मासन लगा कर मंत्रोच्चार करने लगे।

नवजात कुँवर को गोद में उठाए दासियों के साथ रानी गजमोती भी आ गयीं। वैद्य और ज्योतिषी ने मंत्रोच्चार के मध्य राजा और रानी के हाथों वृक्षारोपण कराया। तत्पश्चात् सारे उपस्थित लोगों ने छोटे-छोटे जलपात्रों से पौधे को सिंचित किया।

मंगल ने कहा-'कुँवर जी के जन्मोत्सव पर लगाया गया यह पौधा हमारे कुँवर जी के साथ-साथ ही बढ़ेगा। इसमें शाखाएँ निकलेंगी, पत्ते आएँगे और हमारे कुँवर जी के युवा होते-होते यह नन्हा-सा पौधा विशालकाय वट-वृक्ष का स्वरूप धारण कर लेगा।'