कुँवर नारायण की कहानियाँ पढ़ते हुए / मनोज कुमार पाण्डेय

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कुँवर नारायण अपनी कहानियों की इकलौती किताब 'आकारों के आसपास' की भूमिका में लिखते हैं कि, 'कहानी कहते समय मैं पाठक को यह यकीन दिलाने की कोशिश नहीं करता कि कहानी नहीं कह रहा हूँ, बल्कि जगह-जगह पाठक को अपनी तरफ करके कहता चलता हूँ कि यह यह यथार्थ नहीं, सिर्फ कहानी है - कुछ इस तरह कि पाठक को मेरे कहने पर शक होने लगे और वह अपने आप से सवाल करे कि क्या सचमुच यह कहानी ही है या उससे भिन्न कुछ भी? यथार्थ के नाम पर कहानी नहीं, कहानी के नाम पर यथार्थ की बात करता हूँ - उस यथार्थ की बात जिसे केवल व्यावहारिक स्तर पर नहीं, मुख्यतः मानसिक स्तर पर जिया जाता है। अकसर इन कहानियों में पात्रों और घटनाओं को केवल गवाही की तरह लाकर मनुष्य की नियति का मुकदमा पेश किया गया है।' यह लंबा उद्धरण सिर्फ इसलिए यहाँ पेश किया जा रहा है कि हम उनकी कहानियों पर बात करने के पहले अपनी कहानियों के बारे में खुद लेखक के नजरिए को भी देखते चलें कि वह कौन से बिंदु हैं जिनकी तरफ कहानियाँ लिखते-रचते हुए लेखक जाना चाहता है। इस उद्धरण से दो बातें निकल कर आती हैं। पहली यह कि यह उस यथार्थ की बात करती हैं 'जो सिर्फ व्यावहारिक स्तर पर नहीं बल्कि मानसिक स्तर पर भी जिया जाता' है और दूसरी बात यह कि यह 'मनुष्य की नियति का मुकदमा' पेश करने वाली कहानियाँ हैं। पात्र और घटनाएँ सिर्फ गवाही के लिए हैं। सवाल यह है कि क्या कुँवर जी के पात्रों को अपनी यह नियति स्वीकार है?

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कुँवर जी की कहानियों से गुजरते हुए यह बात बार बार पता चलती रहती है कि यह एक बौद्धिक कवि की कहानियाँ हैं। यह कहानियाँ मुख्यतः तीन तरह की हैं। अपने आपसे संवाद की डायरी शैली, चिंतनपरक निबंध शैली और लोककथाओं की बहती हुई खिली हुई शैली। कथाकार के भीतर का कवि इन तीनों को आपस में जोड़ता हुआ दिखाई देता है। व्यंग्य की एक महीन लहर भी इन कहानियों में बहती तैरती दिखाई देती है और इनके प्रभाव को कई गुना बढ़ा देती है। इन्हें पढ़ते हुए यह भी पता चलता रहता है कि ये एक ऐसे रचनाकार की कहानियाँ हैं जो शब्दों को बेहद मितव्यिता से खर्च करता है। एक भी शब्द अतिरिक्त नहीं। एक एक वाक्य सधे हुए, जिनमें कोई फेरबदल मुमकिन नहीं। उनका कोई और रूप मुमकिन नहीं।

कहानियाँ लिखते समय एक कथाकार के सामने आखिर कौन सी चुनौतियाँ होती हैं। चुनौती शायद यही होती है कि यथार्थ रचनात्मक यथार्थ में मुकम्मल तरीके से रूपांतरित हो सके। वह सतही अखबारी यथार्थ बनकर न रह जाय। मुश्किल यह है कि यथार्थ सब तरफ बजबजा रहा है। यह बहुत ही नाटकीय है और शोर भी भयानक करता है। ऐसे में इस बहरा कर देने वाले बजबजाते हुए यथार्थ को पार कर भीतर बहने वाले यथार्थ तक कैसे पहुँचा जाय, मुश्किल काम यह है। एक अच्छे कथाकार की कोशिश यही रहती है कि इस शोर को वह थोड़ा कम कर दे ताकि इस शोर के नीचे दबी हुई दूसरी आवाजें भी सुनाई दे सकें जिनमें से ज्यादातर आवाजें तो इस शोर की मुखालफत में ही खड़ी होती हैं।

कहानी एक बेहद अनुशासित विधा है। यह अपने विषय से इधर उधर भटकने का अवकाश नहीं देती जैसा कि ललित निबंधों में आसानी से हो जाता है। यह उपन्यास की तरह बहुत अधिक विवरण या घटनाओं की बहुलता में भी जाने से बचती है। इसे किसी एक 'लघु पर ठोस' विषय के आसपास बुनना होता है। विषय क्या है... उसका समय, समाज और सत्ता से रिश्ता क्या बन रहा है? उसके अतीत के संदर्भ क्या हैं... उसको लेकर देखा जाने वाला भविष्य का स्वप्न क्या है और अंततः एक कथाकार के रूप में आपकी रचनात्मक शक्तियाँ उसके साथ किस तरह का संवाद मुमकिन करती है। यही वह बिंदु है जहाँ आप पाते हैं कि परंपरागत भाषा (शिल्प इत्यादि को इसी के भीतर समाहित समझा जाय।) में रचना संभव नहीं हो सकती है और आप का संघर्ष शुरू हो जाता है। यह सिर्फ भाषा का ही संघर्ष नहीं होता। यह कथ्य को देखने के आपके नजरिए का भी संघर्ष होता है। विषय और भाषा के बीच का द्वंद्व ही वह चीज है जहाँ भाषा के रचनात्मक औजार अपने आप बदल जाते हैं। यह ऐसी चीज है जो किसी लेखक की पूरी रचनात्मक प्रक्रिया को कई बार सिर के बल खड़ा कर सकती है।

कुँवर जी की कहानियाँ उपरोक्त धारणाओं पर कितनी खरी उतरती हैं कितना इन्हें तोड़ती हैं या इसका विस्तार करती हैं इसे देखने के लिए आइए कुँवर जी की कहानियों से ही संवाद करते हैं। उनका परिचय हासिल करते हैं। उनमें भीतर धँसते हैं।

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उनके एकमात्र संग्रह की शीर्षक कहानी 'आकारों के आसपास' खुद से संवाद करती हुई कहानी है जिसमें जैसे एक जादुई दुनिया विचरती है जो कविता या पेंटिंग की तरह महसूस करने की बात ज्यादा है। जहाँ एक बच्चे के लड़कपन को स्पेस न मिलने पर वह मर जाता है। मरने वाला वही बच्चा है जिसकी उन्मुक्तता का सम्मान नहीं किया गया या कोई और बच्चा, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तब भी 'बाहर हवा चीखती चिल्लाती रही जैसे उसका कोई मर गया हो।' और यह भी कि 'जो बाहर सिर पीट रही है, केवल हवा है : मेरी बात न समझेगी लेकिन मैं उसके नाते कुछ इस तरह जीवित हूँ कि मुझे उसकी बात समझनी पड़ेगी।' क्या यह अनायास है कि एकदम यही बातें उस बच्चे के लिए भी कही जा सकती हैं जो अपनी उन्मुक्तता का सम्मान न किए जाने की वजह से मर गया। 'आशंका' खुद से ही संवाद है जिसमें कथावाचक को लगता है कि उसे, उसके घर को और उसके शहर को चारों तरफ से घृणित और खतरनाक कीड़ों ने घेर रखा है। और जब भी वे चाहें कथावाचक का सफाया कर सकते हैं। 'आत्महत्या' भी एक मार्मिक कहानी है जो खुद से संवाद की शैली में लिखी गई है। कथावाचक आत्महत्या करना चाहता है और इसलिए वह दार्शनिक स्तर से लेकर दुनियावी स्तर तक अनेक तर्क जुटाता है पर जहर की नकली शीशी से हार जाता है और उसका सारा तर्क वितर्क किसी ईश्वर के खिलाफ एक झटके में ध्वस्त हो जाता है। यह कहानियाँ पढ़ते हुए भूमिका में कही गई वह बात अनायास ही मन में तैरने लगती है कि इन कहानियों में मनुष्य की नियति का मुकदमा पेश किया गया है।

इसी तरह तद्भव सात में छपी कहानी 'सीमारेखाएँ' में दो युद्धरत देशों के बीच की सीमा खो जाती है। लोककथाओं के शिल्प में कही गई यह कहानी बड़ी बारीकी से इस तथ्य की तरफ जाती है कि असल में सीमारेखाएँ कहीं हैं ही नहीं। यह नकली विभाजन है इसीलिए बेहद हिंसक और विवादास्पद भी। इसे बस युद्ध ही बचाकर रख सकता है। 'संदिग्ध चालें' और 'गुड़ियों का खेल' जैसी कहानियाँ जहाँ एक तरफ लोककथाओं की सहजता को छूती हैं तो दूसरी तरफ नितांत आधुनिक किस्म के तनाव भी रचती हैं। दोनों ही कहानियों के केंद्र में स्त्री चरित्र हैं। 'संदिग्ध चालें' की स्त्री चरित्र जहाँ पहले सत्ता का मोहक और मायावी रूप रचती है पर बाद में वह प्रकृति के नजदीक चली जाती है। उसी तरह मोहक और परिवर्तनशील। और एक हद तक असहाय। शायद यही एक स्त्री की पारंपरिक छवि है जहाँ तक कुँवर जी पहुँचे हैं। एक सवाल मन में सहज ही उठता है कि इस कहानी का यह अंत क्या इसके लोककथाओं वाले शिल्प की वजह से है? 'गुड़ियों का खेल' की स्त्री बेहद सहज है अपने होने के प्रति। दुनिया उसके लिए एक बाहरी चीज है। उसे दुनिया की बिल्कुल परवाह नहीं है हालाँकि वह दुनिया की सभी मुश्किलों को बखूबी समझती है और उन पर बहस भी कर सकती है। वह अपने व्यक्तित्व में बेहद मजबूत है। पर इन दोनों कहानियों की स्त्रियाँ अपने कथावाचकों, जो कि कहानी के चरित्र भी हैं की परनिर्भरता और ढुलमुलपन का शिकार होती हैं। एक जहाँ अपने कथावाचक पुरुष को बचाते हुए घायल होती है तो दूसरी अपने आपको इस दुनिया में गुम कर देती है। यह अलग है कि उसकी कला उसे गुम नहीं होने देती। सचमुच यह दोनों कहानियाँ बाहरी यथार्थ की बजाय मानसिक यथार्थ पर ही घटित होती हैं और एक तरह से इनमें मानवीय नियति का मुकदमा ही लड़ा जा रहा होता है।

हम अकसर दूसरों के बारे में कोई राय बना लेते हैं। ऐसा करते हुए हम अपने ही मनोभावों को उस पर थोप रहे होते हैं। जबकि अकसरहाँ तसवीर इससे बिलकुल अलग होती है। कहानी 'दूसरा चेहरा' में कथावाचक जिसे एक ऐसा क्रूर और घृणित हत्यारा समझ रहा होता है जिसे बच्चों की हत्या कर देने पर भी पछतावा न हो वही एक बच्चे को बचाते हुए अपनी जान दे बैठता है। 'अफसर' हमारी ही व्यवस्था की कहानी है जहाँ काम करने की बजाय काम करते हुए दिखना ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है तो 'बड़ा आदमी' सत्ता की उपस्थिति का एक छोटा सा दृश्य उपस्थित करती है। यह एक ऐसे चरित्र की कहानी है जिसकी ड्युटी रेलवे क्रासिंग पर लगी हुई है और उसका काम गाड़ी के आने पर फाटक बंद करना है। इस आदमी को इस काम में धीरे धीरे ताकत का बोध होने लगता है कि वह जब तक चाहे लोगों को रोके रख सकता है। उसके इस भ्रम को एक ऐसा व्यक्ति तोड़ता है जिसे कम दिखता है। यह आँखवालों पर एक महीन सा व्यंग्य है। 'मुआवजा' में कथावाचक एक बुशर्ट के बदले अपनी बुशर्ट देकर एक झगड़े से पीछा छुड़ाता है तो 'चाकू की धार' में बड़े मियाँ छोटे मियाँ को व्यापार का गुर समझाते हैं और आखिरकार काफी नाक रगड़ने के बाद छोटे मियाँ व्यापार के गुर सीख ही लेते हैं। 'जनमति' कहानी भीड़तंत्र के न्याय को बेहद रोचक तरीके से व्यक्त करती है। यह भी अपनी शैली और प्रभाव में लोककथाओं के बेहद नजदीक है। 'दो आदमियों की लड़ाई' में पंचतंत्र की कथा शैली को पलट दिया गया है। जहाँ जानवर मनुष्यों के मूर्खतापूर्ण व्यवहार से अपने सबक सीखते हैं। गहरे व्यंग्य और विडंबनाबोध से लिखी गई यह कहानी बेहद मारक है और यथार्थपरक भी।

'कमीज' वीरेश्वर बाबू की कहानी है जो दुनिया को छोड़कर चालीस साल की उम्र में ही संन्यासी हो जाते हैं। पर नियति का चक्र उन्हें फिर से इसी दुनिया में घसीट लाता है। उन पर हत्या का आरोप लगता है। वह आखिर में इस आरोप से बाहर निकल आते हैं पर यह संदेह उन पर इतना असर करता है कि वह अपना मानसिक संतुलन खो देते हैं। 'वह' कहानी स्त्री पुरुष संबंधों को एक नए परिप्रेक्ष्य में रखकर देखती है। यह प्रेम त्रिकोण को प्रेम, सौंदर्य और सेक्स तीनों को आज के समय के बरक्स रख देती है और उस जड़ता के बरक्स जहाँ उसका पति बिना प्रसंग बोला, 'वह खुली हुई किताब नहीं मेरी निजी डायरी है... उसी पढ़ना गलती होगी।' 'अचला और अचल' भी स्त्री पुरुष संबंधों संबंधों पर ही केंद्रित है ओर अपने रचाव में परसाई जी इसी विषय पर लिखी गई रचनाओं की याद दिलाती है। जहाँ संबंधों पर एक स्थूल किस्म का हिसाब किताब हावी हो जाता है। 'मुगल सल्तनत और भिश्ती' इतिहास में किंवदंतियों की मिलावट से अपनी रसद लेती है तो 'सवार और सवार' उस मध्यवर्गीय स्वार्थपरता का चित्रण करती है जो परिवर्तन की बहुत सारी संभावनाओं और मौकों को ऐसे ही नष्ट कर देती है।

इन सभी कहानियों में एक सहज बहाव है चाहे वह किसी भी तरह से क्यों न लिखी गई हों। यही तरलता इन्हें लोककथाओं की तरफ ले जाती है। और यह बात भी इन कहानियों को बेहद खास बनाती है। यह इनकी उपलब्धि भी और ताकत भी। यह कहानी के उस भूलते हुए लोकव्यापी वैभव की फिर से याद दिलाती हैं जिन्हें हम आधुनिकता के बोझ के चलते कब का खो चुके हैं। हालाँकि यह सभी कहानियाँ पूरी तरह से आधुनिक कहानियाँ हैं - अंतर्वस्तु, भाषा या शैली किसी भी स्तर पर। एक बार बार कही जाने वाली बात है कि किसी कवि असली कसौटी उसका गद्य होता है। यह कहानियाँ इस नजरिए से भी बार बार पढ़ी जाने योग्य हैं। इनका गद्य इतना चमकदार और अर्थभरा है कि इनका जादू पढ़कर ही समझा जा सकता है।


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इन कहानियों में ऐसे अनेक वाक्य या वाक्य समूह हैं जो बार बार अपने पास रोक लेते हैं। यह एक सम्मोहक स्पीड ब्रेकर की तरह हैं जो आपकी गति को कम करते हैं। और थोड़ा इधर उधर या कई बार पीछे की तरफ भी नजर भर देख लेने के लिए उकसाते हैं। वे सूक्ति का असर रखते हैं या कई बार हमारे समय की बेहद अर्थगर्भी सूक्तियाँ ही रचते हैं। यह कहानी ऐसी अनेक सूक्तियों से रची-बुनी हैं। यहाँ सिर्फ उदाहरण के लिए कुछ वाक्यांशों पर एक एक नजर डालना प्रासंगिक होगा।

१. वे भाग्यशाली हैं जो रूप की उपयोगिता जानते हैं। अभागा वह है जो सोचे कि इतने रूप का क्या हो। (वह)

२. वह कितनी वीरता से चरित्रहीन थी जो इनसान से लेकर जानवर तक को प्यार दे सकती थी - या प्यार का धोखा दे सकती थी। (संदिग्ध चालें)

३. सुंदरता के खरीददार कम हैं, सरकस के ज्यादा, और सुंदरता के सरकस के सबसे ज्यादा। (गुड़ियों का खेल)

४. मैं कितना सुरक्षित हूँ यह मुझ पर उतना ही निर्भर करता जितना दूसरों पर, खासकर दूसरों की समझ पर, और अगर कोई एक इनसान को इनसान की हैसियत से न समझना चाहे तो उस इनसान के दुर्भाग्य की कोई सीमा नहीं। (आशंका)

५. कर्म हमारी स्वेच्छा नहीं, विवशता भी है, और हम अपने ही नहीं दूसरों के कर्मों से भी बँधते हैं। सारे फैसले और नतीजे इस नियति के अंदर हैं। उसके बाहर हम सब निर्दोष हैं। (गुड़ियों का खेल)

६. कानूनन आपकी माँग जायज है, लेकिन मौजूदा सरकारी नीति की दृष्टि से नहीं। मैं साफ 'न' भी नहीं कर सकता, साथ ही 'हाँ' कहना भी मुश्किल है। (अफसर)

७. वास्तव में बड़ा आदमी वह, जिसे कम दिखाई दे, जो अँधेरे और उजाले में फर्क न कर सके। उसके लिए हर तरफ रास्ता ही रास्ता है - न कहीं बंद फाटक, न कहीं उससे बड़ा आदमी। (बड़ा आदमी)

८. प्यार या नफरत सिर्फ बच्चे करते हैं, बड़े होकर आदमी सिर्फ व्यापार करते हैं। (चाकू की धार)

९. आज तो जीतना ही था क्योंकि बड़े मियाँ बेईमानी ही नहीं, बुद्धि के मामले में भी अपने को बड़ा दिखाने की कोशिश कर रहे थे। बुराई के बल पर कोई भले ही जीत जाए, लेकिन प्रखरतर बुद्धि से भी जीत जाए, यह असह्य था। (चाकू की धार)

१०. भले आदमी की आत्मशक्ति को जो चीज सबसे आसानी से तोड़ देती है वह है उसकी सद्भावना पर आघात। वह कष्टों, अभावों और अकेलेपन में जी सकता है लेकिन इस विपर्यय में नहीं जी सकता कि दुनिया उसे धोखेबाज समझे - चाहे वह दुनिया की कितनी भी कम परवाह करे। वह ईमानदारी से जो है उसके लिए बड़ी से बड़ी सजा भुगत जाने में गौरव का अनुभव करेगा, लेकिन एक झूठ के लिए शहीद होना! इससे बड़ी ट्रेजेडी उसके लिए और क्या हो सकती है ? (कमीज)


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सवाल यह है कि यह कहानियाँ हमारे भीतर किस तरह का पाठकीय प्रभाव पैदा करती हैं। क्या इन कहानियों के द्वंद्व हमारे भीतर किसी तरह के द्वंद्व रचते हैं? क्या हमारे वर्तमान में किसी भी तरह की हलचल यह कहानियाँ पैदा करती हैं। इन सब सवालों के बरक्स इन कहानियों को देखा जाय तो यह बेहद प्रभावी कहानियाँ हैं। यह मानसिक स्तर पर हमारे भीतर बार बार घटनेवाली मुठभेड़ों का पता देती हैं। और यह भी कि नियति के स्तर पर कई बार हम कितने असहाय हो सकते हैं। कमीज इस लिहाज से बेहद प्रभावी कहानी है। पर यह कहानी कुँवरजी की सीमाओं याकि उनके चरित्रों की सीमाओं का भी पता देती है। ये चरित्र मानसिक स्तर पर ज्यादा जीते हैं इसलिए अपने आसपास के यथार्थ के प्रति मासूमियत की हद तक निष्क्रिय भी हैं। ऐसे में कमीज के वीरेश्वर बाबू को पागल ही होना है। अगर वह दुनियावी यथार्थ से परिचित होते तो उन्हें पता होता कि जो कुछ भी उनके साथ घट रहा है वह उनकी अकेले की समस्या नहीं है। वह देश-दुनिया के लाखों-करोड़ों की नियति है। तब इसे देखने का उनका तरीका शायद अलग होता और तब वह पागलपन की परिणति तक नहीं पहुँचते।

पर तब भी यह चीजें शायद किसी दूसरे तरीके से घटतीं। इसकी वजह यह है कि इन कहानियों पर लेखक का गजब का नियंत्रण है। यह नियंत्रण जहाँ उन्हें एक चमकदार व्यक्तित्व और कसाव देता है वहीं दूसरी ओर उनकी सीमा भी बन जाता है। जैसे आत्महत्या या दूसरा चेहरा में या कई दूसरी कहानियों में यह अंदाजा पहले ही लग जाता है कि यह कहानियाँ किस अंत पर जाकर रुकेंगी। यह स्थिति इन कहानियों के चरित्रों को एक खास नियति से बाँध देती है। इन कहानियों में बेहद सधे हुए नियंत्रित तनाव हैं। ऐसा शायद इसलिए भी हुआ हो कि कुँवर जी ने इन कहानियों को रचते हुए भी कवि ही रहे हैं। वह कविता के औजारों और तौर-तरीकों के साथ ही इन कहानियों के पास भी गए, इसलिए जहाँ एक तरफ यह कहानियाँ छोटी, बेहद सधी हुई, आकर्षक और बेहद चमकदार भाषा वाली बनीं वहीं दूसरी तरफ चरित्रों के आपसी तनाव या गद्य के स्वभावगत तनाव से उनका रिश्ता कम बना।

इन बातों के बावजूद यह कहानियाँ पाठ के समय अपने पास देर तक रोके रखने वाली कहानियाँ हैं। इन कहानियों की भाषा का वैभव बार बार अपनी तरफ खींचने वाला है। यह पाठक को भीतर की तरफ झाँकने के लिए उकसाने वाली कहानियाँ हैं। यह प्रतिक्रिया के लिए उकसाने वाली कहानियाँ हैं। यह नियति का मुकदमा लड़ने वाली कहानियाँ हैं इसलिए इस बात की पूरी गुंजाइश है कि इन कहानियों के अपने पाठ में कोई भी काबिल जज (पाठक) वकीलों की बहसों का रुख मोड़ दे और उन्हें उन पहलुओं की तरफ भी देखने का इशारा करे जिसे वह जान-बूझकर भूले हुए हैं।