कुँवारी विधवा / सुधाकर राजेन्द्र

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परीक्षा का समय आते ही शरद जाने की तैयारियाँ करने लगा। चार महीने के लिए वह जा रहा था। बावली का मन टूटने-सा होने लगा। उदास स्वर में उसेन पूछा-”कब तक लौटेंगे?”

“परीक्षा खत्म होते ही।”

“लेकिन अभी तो कापफी देर है।”

कह कर बावली खामोश हो गयी। पलकें, पसीज उठी।

शरद ने उसकी आँखे पोछते हुए कहा-”तेरी यह गमगीन सूरत अच्छी नहीं लगती।”

बावली तब भी मौन थी।

कहो तो जाऊँ ही नहीं। भाड़ में जाये परीक्षा।

और इस बार बावली की डबडबाई आँखें मुस्कुराने लगी। शरद ने उसकी हथेलियों को अपनी आँखों पर रख लिय। फिर हौले से दबाकर सीढ़ियों से उतर गया। बावली रेलिंग पर जा खड़ी हुयी और तांगे को जाती हुई देखती रही। शरद हाथ हिला रहा था। उत्तर में बावली ने भी हाथ हिलाया और जब तांगा आँखों से ओझल हो गया तो उसकी आँखे फिर से नम हो गई ।

शाम को जब चाय लेकर मामा को देने गई तो बावली ने देखा कि आज मामा-मामी बड़े खुश नजर आ रहे है। “तभी मामी ने उसे पुकारा।”

“क्या है मामी?”

“पहले मुँह मीठा कर। भगवान का प्रसाद है।”

बावली ने प्रसाद लेकर मुँह के अंदर डाल दिया। फिर पूछा- “किस खुशी में यह प्रसाद दे रही हो मामी।”

पर मामी मुस्कुराए जा रही थी।

“बताओ न-?”

“अब तूही बता-कोई जवान लड़की कब तक घर में बैठी रहेगी। तेरी सगाई हो गई है।”

मैं समझी नहीं।

हाँ, बेटी। लड़का खानदानी और पढ़ा लिखा है। तू बड़े घर की बहू बनेगी। मामा बोले।

क्या? और बावली को लगा कि किसी ने ऊपर से अचानक धकेल दिया हो और चोट खाकर वह तड़पने लगी हो। मामा पर कर्ज था और कर्जदार के बेटे से उसकी सगाई पक्की कर दी गई। उसका सर चकराने लगा। एक ही क्षण में उसके चेहरे पर उदासी छा गई। मन में अनेक विचार आने जाने लगे। तो क्या वह शरद को भुला देगी। नहीं ऐसा नहीं हो सकता। उसकी आँखें डबडबा आई।

बावली ने अपने को संयत कर दृढ़ता से कहा-मामा ? मैं यह शादी नहीं कर सकती ।

क्यों?

मैं शादी करना नहीं चाहती।

तो क्या, कुवांरी ही रहेगी?

मैंने कह दिया न, मुझे शादी नहीं करनी है।

बस-बस, हर लड़की शादी से पहले यही कहा करती है। मामा बोलकर जा चुके थे। बावली के चेहरे पर क्रोध के सिकन थी मन रो रहा था।

बावली विरोध ही करती रह गई। उसकी भावनाएँ चोट खाकर तड़प उठी। व्यर्थ की व्याकुलता असम्भव को संभव बनाने का प्रयास करने लगी। और फिर बारात आई, और वह ससुराल गई।

ससुराल पहुँचते ही उसे पता चला कि उसका पति क्षय-रोगी है तो उसकी आँखों के आगे अंधेरा छाने लगा। सुहागरात के दिन ही उसके पति का रोग बढ़ गया और दूसरे ही दिन हवा-पानी बदलने और ईलाज कराने के लिए ले जाये गये। फिर कुछ दिन में पति की मृत्यु का तार मिला। घर में कुहराम मच गया। किसी ने झट उसकी मांग के सिन्दूर को पोछ दिया। चूड़ियाँ फोड़ दी गई। वह पति का मुँह देख भी नहीं पायी थी कि क्या हो गया। उजड़ा सुहाग लेकर वह अपने मामा के घर आ गई थी। वह किसी से बोलती नहीं, न खाने की चिन्ता न सोने की। कब रात हुई कब सबेरा, उसे कुछ पता नहीं।

तीन-चार माह हो गये। शरद कल आने वाला है। रेलिंग पर खड़ी वह धूप को देख रही थी। धूप भागती चली जा रही थी और एक मटमैली धुधली सांझ छोड़कर चली गई। अंधेरा बढ़ने लगा और रात गहरी होती गई। बावली ने एक दीर्घ सांस छोड़ी।

नियति की अवहेलनाओं ने उसे तोड़कर रख दिया था। सारा उत्साह सारी सहनशीलता उसके अंदर से इस तरह निकल गई थी जैसे बन्द मुट्टी से रेत निकल जाती है। इस तीन चार महीने के भीतर जिन्दगी भी मटमैली सांझ की तरह धुधली होकर अंधकार के गर्त में डूब गई जहाँ सवेरा होने की उम्मीद टूट चुकी थी। उस दिन बरसात की शाम को पहाड़ी घाटियों के निर्जन प्रदेश में उसने शरद के सीने पर सिर रख वचन दिया था- मैं तुम्हारी हूँ शरद, मैं तुम्हारे बगैर नहीं रह सकती। पर वचन का पालन कहां कर पाई है?

शरद जब सुनेगा कि मैं विधवा हूँ तो वह झट विश्वास कर लेगा? वह यह सब सुन सकेगा? तब उस पर क्या बीतेगा? वह पागल नहीं हो उठेगा। मुझे झकझोर कर पूछेगा नहीं........कि यह सच है....? तब वह क्या जबाब देगी? कैसे समझाएगी उसे? उसकी मजबूरियों को सुनकर वह माफ करेगा? अनजान और बेकसूर शरद के साथ यह कितना बड़ा छल है? अब उसमें इतना साहस भी कहां रह गया कि वह शरद के सामने जाकर बातें करें। शरद के आने के पहले ही वह मर क्यों नहीं गई ?

बचपन में ही उसपर से मां-बाप का साया उठ गया और तब वह मामा के यहाँ रहने लग गई थी। सोलह साल की उम्र तक किसी प्रकार उसने इण्टरमिडिएट तक कर लिया। फिर एक दिन शरद आया। मामा का परिचित था और ऊपर वाले एक कमरे में रहता था। अंग्रेजी में पी.एच.डी. करने के उद्देश्य से यहाँ स्टडी कर रहा था। उसमें कुछ ऐसा आकर्षण था कि इतनी हिलमिल गई जैसे बहुत पहले से वह परिचित हो। शरद के व्यक्तित्व से वह बड़ी प्रभावित थी और बातचीत का उसका ढ़ंग कुछ ऐसा होता कि सुनते रहने का जी करता। मामा ने शरद का परिचय कराया था और मामा के चले जाने के बाद भी वह हँसता -सा उसे देखता रहा था। शर्म से उसकी नजरें झुक गई थी और आंचल का छोर ऊँगलियां में लपेटते-लपेटते वहां से खिसक गई थी।

बावली सचमुच बावली हो गई थी। बावले नयन किसी को ढ़ूंढ़ते रहते। कल्पनाओं में डूब जाती, पलक ढँकने लग जाती और आप ही आप मुस्कुरा उठती। एक बार वह शरद की चिट्ठी लेकर देने गई थी। उस समय शरद सीने पर किताब रखे सोया था। बावली एक क्षण ठिठकी। फिर शरद की ऊँगलियों को झटके से हिला दिया पर वह नहीं जाग सका। बावली ने दुबारा उसकी ऊँगलियों को पकड़कर ज्योंही हिलाया, शरद ने आँखें खोल दी और उसकी तर्जनी के पोर को पकड़े रहा। वह शरद पर झुकी रही। आंचल कंधे से हटकर नीचे खिसक गया। उसने अपनी आँखें बन्द कर ली। फिर वह शरद के पास ही बैठ गई थी और कुछ ही क्षण बाद उसका सिर शरद की छाती पर था और शरद की ऊँगलियाँ उसके इर्द-गिर्द दौड़ रही थी।

तब एक दिन शाम को घूमने के इरादे से वह शरद के साथ पहाड़ी-घाटियों में गई थी। उस समय कहां मालूम था कि आज का यह दिन फिर कभी नहीं आयेगा। आज का दिन, खुशियों का आखिरी दिन है। अनेक कल्पनाएँ की थी उस दिन पर सब बालू की भिति की तरह ढहती चली गयी।

अतीत की स्मृतियां शूल की तरह चुभती रहती थी। वह फफक पड़ी और आँखें पोछने-पोछते रेलिंग पर जा खड़ी हुई। बरसात की तरह आज भी सुबह से पानी पड़ रहा था। शाम को आसमान सापफ हुआ था। हवा में अब भी ठंढक था वृक्षों के पत्ते हवा में हिलते और पत्तों पर जमा पानी झर-झर कर नीचे गिरता रहता। बिजली के तारों पर थमी वर्षा की बून्दे हल्की-हल्की धूप में मोती-सी चमक रही थी। जहाँ-जहाँ तारों पर बैठे पक्षी अपने पंख पर से पानी झाड़ रहे थे। कोई गोरैया आकर बैठता और कोई उड़ जाता।

और बावली शून्य में दृष्टि गड़ाए दार्शनिक की भाँति किन्हीं गुत्थियों में उलझी थी। जब वर्तमान में लौटी तो उसकी दृष्टि तारों पर थमी वर्षा की बूंदों पर आकर थम गई ।

हवा का एक झोंका आया और कुछ बूंदें नीचे टपक पड़ी। एकाएक बावली के हाथ अपनी आँखों पर चले गए।

उसके हाथ में कागज का एक बड़ा-सा टुकड़ा था। वह बार-बार उसे देखती और फिर उसके चेहरे पर भय और चिन्ता की रेखायें उभर पड़ती। रह-रहकर कांप उठती। चेहरे का रंग उड़ने-उड़ने -सा हो जाता। आँखें छलछला उठती फिर आंचल से उसे पोछ लेती। अंधेरा बढ़ने लगा था और आसमान में तारे छिटक आये थे। बावली ने पड़ोस की एक झोपड़ी में टिम-टिमाते हुए दीपक को देखा। उसकी लौ कांप रही थी जैसे सारे दुख-दर्द को बांट देने के लिए तड़प रही हो।

दूसरे दिन सबेरे नहा-धोकर उसने तुलसी में पानी दिया और हाथ जोड़े आँखें मूंदे रही। पूजन के बाद गीले कपड़ों की रस्सी पर सुखने के लिए डालने लगी। तभी उसकी नजर दरवाजे पर मुस्कुराते हुए शरद पर पड़ी। उसके चेहरे पर प्रसन्नता छा गई। ओठों पर हँसी फूट पड़ी किन्तु उसी क्षण उस पर गहरी उदासी छा गई। वह केवल साड़ी लपेटे थी, रस्सी से लटकती साड़ी की ओट में हो गई। शरद अन्दर आ चुका था और ऊपर जाने के लिए सीढ़ियों के पास रूक गया था।

...मामा-मामी कहां गये.... ।

मामी मैके यहाँ गई और मामा सबेरे ही जरूरी काम से बाहर निकल गये।

तीन-चार सीढ़ी चढ़ने के बाद शरद रूक गया और बावली से बोला-मैंने आज सुबह से एक भी चाय नहीं ली। अगर तुम.... ।

बावली सुनकर चुप रही। शरद ऊपर चला गया। और जब बावली चाय लेकर शरद के पास गई बाहर देखने लगी।

चाय पीता हुआ शरद एकटक बावली को देख रहा था। सफेद वस्त्रों में वह धुली-धुली-सी लगती थी। लम्बे बाल नितम्ब तक लटक रहे थे। उसने एक अंगड़ाई लेकर सिगरेट केस से सिगरेट निकाली और सुलगा कर पीने लगा।

बाबली को खामोश देखकर उसने पूछा।

बहुत नाराज दिखती हो।

बाबली मौन थी।

हर पहला प्रेम गहरा होता है और एक दूसरे से पलभर की दूरी असहनीय हो उठती है। पर जानती हो बावली ये चार महीने कैसे कटे हैं? हर वक्त लगता तुम मेरी नजरों के सामने खड़ी हो जाती है। मैं उस छाया को अपलक देखता रहा और उस पहाड़ी घाटियों के निर्जन प्रदेश में केवल हम और तुम थे। चारो ओर खामोशी थीं। तुम मेरे पास थी और ....... और यह सभी दृश्य आंखों के सामने तैरने लगते।

सिगरेट का आखिरी कश लेकर उसने शेष जली सिगरेट को ऐश ट्रे में डाल दिया फिर पीठ के पीछे तकिया रखकर बैठ गया। आँखें बन्द कर ली... उसके चेहरे पर गंभीरता छायी थी। कुछ क्षणों के बाद बोला..एक्जामिनेशन खत्म होते ही मुझे माँ ने कहा-तेरे लिए एक सुन्दर लड़की देखी है। तेरी जल्दी शादी कर दूँ ताकि बहू का मुँह देख सकूँ। मेरे पिताजी ने सब बात पक्की कर ली है। शब्द कहते-कहते रूक गया।

बावली थोड़ी सी हिली जैसे दीपक की लौ कांप गयी हो।

शरद ने फिर बताया-पर, बावली, मैंने शादी के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। घर में लोग बेहद नाराज हो उठे। माँ ने मनाने की कोशिश की। पिताजी का दिया हुआ वचन मेरी अस्वीकृति से टूट गया था और एक बाप ने गुस्से में आकर मेरा अपमान किया, घर से निकल जाने की धमकी दी। उस रात से हमेशा के लिए घर से निकल गया।

बावली ने इसबार बड़ी लम्बी सांस ली।

“बावली, मैंने केवल तुमसे प्यार किया है। यह मेरी सौभाग्य ही तो है जो तुम जैसी नारी मेरे निकट आई। फिर मैं अपने प्रेम को, अपने प्यार का कैसे कलंकित कर देता। हम दोनों ने एक दूसरे को समझा है और प्यार किया है। फिर मैं इतना हृदयहीन तो नहीं कि तुम्हारे साथ छल करूँ, तुम्हें धोखा दूँ। आरम्भ से अभाव और अपेक्षा की गोद में पले रहने से मेरा हृदय इतना संवेदनशील हो गया है कि थोड़ी आत्मीयता मिलते ही मैं उसे प्राप्त कर लेने के लिए उतावला हो उठता हूँ। तुमसे जो स्नेह मिला है उसे कैसे भूला देता। फिर सामने शादी के प्रस्ताव को ठुकराने के सिवा क्या रह गया था ?

शरद बिस्तरे से उतरकर बावली के पीछे आकर खड़ा हो गया। नितम्ब तक लटक रहे कुछ बालों को अपने हाथ में लेकर बोला-सच बावली, मैं तेरे बगैर नहीं रह सकता। और भावावेश में उसने बावली को घुमाकर अपने अंक में भर लिया, किन्तु यह चौंक पड़ा। बावली की आँखें आंसुओं से तर थी।

“तुम रो रही हो... मैं अब कहीं नहीं जाऊंगा बावली। तुम मेरी हो। तुम्हें मुझसे कोई नहीं अलग कर सकता।” शरद ने उसे और जोर से अपने में चिपका लिया। पर बावली अपने को छुड़ाकर अलग हो गई।

आँसुओं के बीच उसकी वाणी फूट पड़ी-”मुझसे अलग रहो शरद, अब मैं तुम्हारे योग्य नहीं रही। मैं विधवा हूँ।”

“तुम्हें आज क्या हो गया है।”

“मैंने तुम्हारे साथ छल किया है, तुम्हें धोखा दिया है। इतना बड़ा अपराध जो माफ नहीं किया जा सकता। मुझे भूल जाओ शरद और ... और किसी से ...तुम शादी कर लो... ।” बावली जोर से फफक पड़ी।

शरद चकित था। वह बावली की ओर बढ़ा पर बावली पीछे हट गई। “नहीं, नहीं शरद, एक विधवा के अन्दर सोयी हुई भावनाओं को मत उभारो। यह पाप है शरद।”

“बावली यह कैसा मजाक है।” शरद को थोड़ा आश्चर्य हुआ ।

“मुझे देखो शरद । क्या अब भी मैं तुम्हारी वही बावली दीखती हूं। मेरे वस्त्रा ये सूने हाथ ये क्या कोई युवती इस तरह रह सकती है।” और बावली ने फिर सब कुछ बता दिया।

‘बावली...।” शरद बड़े जोर से चीखा। वह कांपने लगा। कदम लड़खड़ाने लगे। आंखों में अंधेरा छाने लगा। आंखों से सोते फूट पड़े। बोलना चाहकर भी वह नहीं बोल पाया। फिर वह गिर गया।

बावली सिसकता रही। आंखों में आंसुओं की बाढ़ आ गई थी और इस बाढ़ में सब कुछ बहा जा रहा था। दरवाजे पर सिर रखे रोती-रोती बोली। माफ कर दो शरद। तुम्हारे जाते ही मैं लुट गई। मैं .. मैं विवश थी शरद। मैं सच।” बावली ने घूमकर देखा शरद की दसों ऊंगलियां उसके चेहरे पर कांप रही थी। एक ही क्षण में क्या से क्या हो गया था। वह सिसकती शरद को देखती रह गई।

इस बार शरद बावली को एकटक देखने लगा। उसके चेहरे पर उदासी और पीड़ा की घनीभूत छाया थी। बावली से नहीं देखा गया उसने अपनी हथेली में मुंह को छिपा लिया और तेजी से कमरे के बाहर हो गई ।

कुछ दिन बीत गये। पर दोनों में से कोई एक दूसरे से नहीं बोलते। दोनों की नजरें टकरा जाती पर आप ही झुक जाती। शरद का मर्माहत दिल फट पड़ता। बावली की आंखें शरद को देखते ही उमड़ पड़ती और दूसरी तरपफ आंखें पोछ लेती। हर वक्त खामोशी छायी रहती।

और एक रात भयानक आंधी आयी। मूसलाधर वर्षा होने लगी। बादल कड़क उठते। बिजली चमक उठती तब बादल इतने जोर से गरजते मानो प्रलय होने वाला है। बावली पड़ी-पड़ी स्मृतियों में खोई थी। तभी शरद के कमरे के दरवाजे खुलने की आवाज आयी। उसे लगा, यह भ्रम होगा। किन्तु मन नहीं माना। कुछ देर बाद वह उठी और शरद के कमरे में जाकर देखा, कमरा खाली था दरवाजा खुला पड़ा था। वह तेजी से नीचे भागी। घर का दरवाजा भी खुला था..बावली का दिल धक से रह गया। बावली इस आंधी-तूपफान में दौड़ने लगी और कुछ दूर जाने के बाद अचानक बिजली की चमक में उसने शरद को देखा।

“रूक जाओ शरद।” वह चिल्लाई।

एक क्षण के लिए छाया के पांव ठिठक गये फिर आगे बढ़ते चले गये। बावली दौड़ती रही छाया के पीछे पर छाया बढ़ती जा रही थी। बावली गिर पड़ी। वह चीख उठी रूक जाओ शरद..शरद..।”

पर प्रतिउत्तर आया, बावली तुम कुँवारी नही विधवा हो विधवा।