कुच्ची का कानून / शिवमूर्ति

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गाँव की औरतों ने दाँतों तले उँगली दबाई।

अचरज तो इस बात का है कि गाँव की उन बूढ़ियों, सयानियों को भी कानोंकान भनक नहीं लगी जो अपने को तीसमार खाँ समझती हैं, जो मानती हैं कि गाँव की किसी बहू-बेटी की सात पर्दे में छिपा कर की गई ‘हरक्कत’ भी उनकी नज़रों से बच नहीं सकती। वे अब भी अन्दाज़ा नहीं लगा पा रही हैं कि इस साण्डनी ने किस छैल-छबीले को भेंड़ा बनाया और भेंड़ा बनाया तो छिपाया कहाँ? झटके में हुई ‘राहचलन्तू’ कमाई तो यह हो नहीं सकती। चार-छह दिन का इत्मीनानी संग-साथ चाहिए।

सबसे पहले चतुरा अइया की नज़र पड़ी। नई पीढ़ी की उन कुछ बहू-बेटियों को छोड़ कर जिनके घर में पक्के सण्डास बन गए हैं, गाँव की औरतें अब भी दिशा मैदान के लिए सुबह-शाम बाबा के पोखरे वाले जंगल में जाती हैं। जिन घरों में सण्डास बन चुके हैं, उन घरों की बूढ़ियाँ और चिरानी-पुरानी हो चुकी बहुएँ भी जंगल जाना ज़्यादा पसन्द करती हैं। उनकी यह आदत मरने के साथ ही जाएगी। पानी-बून्दी के मौसम में मज़बूरन घर में जाना पड़ा तो नाक, मुँह पर कपड़ा लपेट कर अन्दर घुसती हैं।

जंगल जाना सिर्फ़ जंगल जाना नहीं होता। जो सुख झुण्ड में ‘बतकूचन’ से मिलता है वह घर में क़ैद रह जाने से कैसे मिलेगा? एक की बात ख़त्म नहीं होती कि दूसरी की शुरू हो जाती है। घर वापसी हो जाती है और बात ख़त्म नहीं होती है। तब चलते-चलते पूरा झुण्ड रुक जाता है।

उस दिन वापस लौटते-लौटते उजास फैल गई थी। पुरवा के झोंके से पल भर के लिए कुच्ची का आँचल उड़ा कि चतुरा अइया की नज़र उसके पेट पर पड़ी। इतना चिकनाया पेट। पाँच महीने का उभार। उनकी आँखों के कोए फैल गए। अभी तक सबकी आँखों में धूल झोंकती रही यह बछेड़ी। लेकिन एकदम मुँहामुँही कहें कैसे? पद में वे कुच्ची की अजिया सास यानी सास की भी सास लगती हैं। ...लेकिन इतनी बड़ी बात पेट में दबा कर रखें भी तो कब तक? अफ़ारा हो जाएगा।

वे सारे दिन बेचैन रहीं। बाई उभर आई। साँस उखड़ने लगी। किसी तरह राम-राम करके दिन काटा। शाम को मिलते ही उसे घेरा— बाय गोला का रोग कहाँ से ले आई रे बहुरिया?

अन्दर तक हिल गई कुच्ची। हाथ पैर के रोएँ परपरा कर खड़े हो गए। चतुरा अइया जैसी छछन्दी दूसरी कौन है गाँव में? बहुत कुछ सुन रखा है उसने। पाँच-छह बच्चों की महतारी होने तक जिधर से निकलती थीं, पानी में आग लगाती चलती थीं। जिसके मर्द से हँस कर बोल लेतीं उसकी ‘जनाना’ को जूड़ी चढ़ जाती थी। काँपती आवाज़ को काबू में करती हुई वह मिमियाई — बाय गोला का रोग सात दुश्मन को लगे अइया।

— फिर यह कोंछ में क्या छिपा रखा है? अइया ने उसकी नाभि में उँगली धँसाते हुए पूछा— मुझे तो पाँच-छह महीने का लगता है।

— तुहूँ गजब बाटू अइया। जब देने वाला ही चला गया तो ‘बायगोला’ क्या मैं ‘परुआ’ पा जाऊँगी?

बगल चलने वाली पड़ोसन ने टहोका मारा — ‘गोला’ देने वालों की कौन कमी है इस गाँव में। जरा सी नज़र फँसी नहीं कि ले ‘गोला’।

तब तक कुच्ची सम्भल चुकी थी। छिपाने से कितने दिन छिपेगा? जवाब तो देना ही पड़ेगा, लेकिन इतनी जल्दी देना पड़ेगा, यह नहीं सोचा था।

— जिसको आना है वह तो अब आकर रहेगा अइया। छिपाने से लौट थोड़े जाएगा।

— न आने के भी हजार रस्ते हैं बहू। तेरे आदमी को मरे दो साल से ज्यादा हो गए होंगे। आने वाला आ गया तो किसका नाम धरेगी?

— किसी का नाम धरना जरूरी है क्या अम्मा? अकेले मेरा नाम काफ़ी नहीं है?

चतुरा अइया कुच्ची के आगे आ खड़ी हुईं। उसकी दोनों बाँहों को पकड़ कर झिंझोड़ते हुए फुसफुसाईं — कैसे बोल रही है रे? किसी ने भूत प्रेत तो नहीं कर दिया? तेरे जेठ बनवरिया को खबर लगी तो पीस कर पी जाएगा।

— जेठ से क्या मतलब अइया? मैं उनकी कमाई खाती हूँ क्या? उनका चूल्हा अलग, मेरा अलग।

ऐसे करम और ऐसा जवाब। सब सन्न रह गईं।


ससुर तो पहले ही कम बोलते थे। इकलौते जवान बेटे की मौत ने उन्हें एकदम गूंगा कर दिया। श्राद्ध का सारा कर्मकांड उन्होंने सिर झुकाये झुकाये निपटाया। घुटा सिर, बिना दाढ़ी मूंछ वाला चेहरा। अंदर को धंसी आंखें। उनको लगता रहा होगा कि बेटा कमाने धमाने लगा। अब उन्हें गृहस्थी के झंझटों से मुक्ति मिल जायेगी। हाईस्कूल में दो बार फेल होने के बाद बजरंगी चचेरे भाई बनवारी के साथ बोरिंग के काम में लग गया था। इलाके में धरती का पानी तेजी से नीचे खिसक रहा था, जिससे पट्टा पुल्ली वाले पुराने ट्यूबवेल पानी छोड़ने लगे थे। हर साल एक दो ट्यूबवेल पानी छोड़ते थे। अब बिना डेढ़ दो सौ फीट गहरी बोरिंग किये, बिना सबमर्सिबल मोटर डाले पानी नहीं मिलने वाला था। दोनों भाइयों ने सही समय पर इस काम में हाथ सधाया। हजार पांच सौ रुपये रोज की कमाई करने लगे। मोटर और पाइप की खरीद पर डीलर से मिलने वाला कमीशन अलग। इस साल खुद अपने चक में बोरिंग कराने का इरादा किये था बजरंगी कि वज्रपात हो गया।

तेरही के दूसरे दिन जब सारे मेहमान चले गये तो कुच्ची के बाप ने उसे एक किनारे बुला कर मद्धिम आवाज में समझाया— तुम्हारा दाना पानी अब इस घर से रूठ गया बिटिया। अब यहां की मोह माया छोड़ो। कुछ खा पी लो और चलने की तैयारी करो। यहां की चीजें, गहना गीठी सास को सौंप कर चलना है।

पैर के नाखून से नम फर्श की मिट्टी कुरेदते सिर झुकाये उसने सुना, फिर अंदर जाकर अपनी कोठरी में घुस गयी। खड़े नहीं रहा गया। एक कोने में जमीन पर बैठ गयी।

यहां की चीजें। क्या हैं यहां की चीजें? अभी तक यहां और वहां की चीजों को अलगाने की जरूरत नहीं पड़ी थी। आज पड़ गयी। उसे परम्परा से पता था कि अब यह घर उसका नहीं रह जायेगा। जिस खूंटे से बांधने के लिए उसे लाया गया था, जब वही नहीं रह गया तो...। उसकी आंखें झरने लगीं। ससुराल से मिले गहने— पायल, बिछुआ, झुमका और अंगूठी तो उसने उतार लिया लेकिन नाक की कील उतारते हुए उसके हाथ कांपने लगे। कील के अंदर के पेंच ने घूमने से इंकार कर दिया। कल तक ये चीजें उसकी थीं। आज परायी हो गयीं।

दो चप्पलें थीं। एक गौने में मिली थी, एक अभी दो महीने पहले ‘वे’ लाये थे। क्या दोनों छोड़नी पड़ेगी? नंगे पांव जाना पड़ेगा?

सास कोठरी में घुसीं तो वह कील की पेंच खोलने में ही परेशान थी। उसने सास से मदद ली। सूनी नाक को उंगलियों से छूते हुए उसे अजीब लगा।

सास ने उसे अंकवार में भरते हुए कहा— चाहती तो हूं कि तुम्हें कभी न जाने दूं लेकिन किस अख्तियार से रोकूं? जाओ, तुम्हें इससे अच्छा घर वर मिले। हमसे अच्छे परानी मिलें। कोस दो कोस पर रहना तो कभी कभार हमारी खबर भी लेती रहना।

गले लग कर दोनों कुछ देर तक सिसकती रहीं।

अचानक उसे याद आया कि अभी जानवरों को पानी नहीं पिलाया। बिना पिलाये चली गयी तो कहो दिन भर प्यासे ही रह जायें। वह बाल्टी लेकर बाहर आयी और हैण्डपम्प से भर कर उन्हें पानी पिलाने लगी। कुएं से पानी भरने की मेहनत से बचाने के लिए बजरंगी ने पिछले साल यह हैण्डपम्प लगवा दिया था।

नीले वेलवेट की एक छोटी सी थैली में वह अपने गहने रखती थी। इसमें सोने के टाप्स और जंजीर थी। इनको ‘उन्होंने’ दो महीने पहले खरीद कर दिया था। अभी सास को इनकी जानकारी नहीं थी।

हर महीने दूसरे महीने मोटर साइकिल पर बैठा कर वे उसे पिक्चर दिखाने शहर ले जाते थे। पिक्चर दिखाने और गोलगप्पे खिलाने। उसे गोलगप्पे का खट्टा पानी बहुत पसंद था।

वह कराहते हुए कहती— पेट में बहुत दरद हो रहा है अम्मा।

सास घबरा जातीं। ‘उनसे’ कहती— ले जा, किसी डाक्टर को दिखा दे।

लौटने पर पूछतीं— क्या बताया डाक्टर ने? कुछ उम्मीद है?

वह मुस्करा कर इंकार में सिर हिला देती। कभी कभी ब्लाउज से निकाल कर कैल्सियम या क्रोसीन की गोलियों की स्ट्रिप दिखा देती। पेटदर्द महीने दो महीने के लिए बंद हो जाता।

टाप्स और जंजीर भी लौटा दे कि साथ लेती चले? वह कुछ देर तक दुविधा में रही फिर तय किया— क्या फायदा? जब देने वाला ही चला गया।... वह जब भी इन्हें पहनेगी, ‘वे’ आकर सामने खड़े हो जायेंगे।

सास के हाथ में पकड़ाने से पहले उसने थैली का मुंह खोल कर गिना दिया— आपके दिये पांचों थान, साथ में ये टाप और जंजीर। इन्हें वे दो महीना पहले लाये थे। सहेज लीजिए।

सास ने बिना देखे थैली का मुंह बंद करके कमर में खोंस लिया।

कुच्ची ने बक्से का ताला खोल कर लाल रुमाल में लिपटा एक छोटा पैकेट निकाला और सास के हाथों में पकड़ाते हुए बताया— इसमें सात हजार रुपये हैं। उन्होंने हमें रखने के लिए दिया था।

पैकेट लेकर सास ने फिर उसी बक्से में डाला और जमीन पर पड़ा ताला बक्से में लगा कर चाबी अपने आंचल की टोंक में बांध ली।

सास बाहर निकलीं तो वह फिर अपना सामान सहेजने लगी। अपना क्या था? सब तो यहीं का था। वह खुद भी यहीं की हो चुकी थी। आज फिर मायके की हो रही थी। बल्कि अब कहीं की नहीं रह गयी थी। किनारी वाला एक झोला और प्लास्टिक की डोलची ही उसके मायके की थी। दो साड़ी, दो ब्लाउज, पेटीकोट, एक छोटा शीशा, एक कंघी, सिन्दूर की छोटी डिब्बी, क्लिप का पैकेट और सूती शाल जो विदाई के समय उसकी मामी ने दिया था, उन्हें रखने के लिए डोलची और झोला पर्याप्त थे। फ्रेम में मढ़ा पति के साथ तीन महीने पहले खिंचाया हुआ एक फोटो भी आले से झांक रहा था। इसे वह अपनी चीज मान सकती थी कि नहीं? जो भी हो, उसे भी उसने संभाल कर झोले में डाल लिया।

विदाई की बात जान कर आसपास की औरतें भी आ गयीं। एक लड़की ने उसकी डोलची और झोला उठा लिया। जेठानी उसे अंकवार में लेकर बाहर निकलने में मदद करने लगी। दो साल पहले घूंघट निकाले, गर्दन झुकाये, चूड़ियां खनकाते धीमे कदमों से चलते हुए उसने इस ड्योढ़ी में प्रवेश किया था। तांबे के पुराने बड़े पैसे के बराबर बुंदा लगाये, पान खाये, महावर से एड़ी रंगे, चुनरी ओढ़े, हंसती हुई सास ने परिछन करने के बाद बड़े दुलार से उसे डोले से उतारा था। पलाश के ताजे नरम पत्तलों पर एक एक पैर रखवाते हुए अंकवार में समेट कर ड्योढ़ी के अंदर ‘परवेश’ कराया था। एक एक पत्तल बिछाने के एवज में नाउन ने नेग में एक एक रुपये लिये थे। ग्यारह कदम के ग्यारह रुपये।

कांपते कदमों से चलती हुई वह बाहर आयी। एक तरफ ससुर चारपायी पर बैठे थे। सिर का पल्लू थोड़ा आगे खींच कर उसने ससुर के पैर पकड़ लिए— खता कसूर माफ करना बाबू।

बूढ़ऊ फफक पड़े— बेटे को तो भगवान ले गये समधी। उन पर कोई जोर नहीं चला, बहू को आप लिये जा रहे हैं। अब हमारे दिन किसके सहारे कटेंगे?

— वापस ले जाने के लिए तो भेजे नहीं थे समधी, लेकिन.... कुच्ची के बाप का गला रुंध गया। वे अंगोछे से आंसू पोंछने लगे।

लड़की ने झोला और डोलची साइकिल के हैण्डिल में दोनों तरफ टांग दिया। जेठानी को भेंटने के बाद कुच्ची ने सास के पैर छुए फिर औरतों के समूह से गले मिलने, पैर छूने लगी।


लौटी तो बाप ने पूछा — दे दिया सब?

उसने घूँघट तनिक उठाते हुए स्वीकार में सिर हिलाया।

बाप ने ऊँची आवाज़ में बताया — आपका दिया हुआ गहना गीठी सास को सौप कर जा रही है मेरी बेटी। उसे इसी समय सहेज लीजिए समधी जी ताकि बाद में कोई तकरार न पैदा हो।

इतनी भीड़ देख कर बाहर बंधी भैंस खूंटे के चारों तरफ पगहे को पेरते हुए चोकरने लगी। यह भैंस भी गौने में उसके साथ मायके से आयी थी। उसके ‘आदमी’ को गवहीं खाने के नेग में दिया था उसके बप्पा ने। तो क्या उसके साथ भैंस को भी लौटना होगा?

वह धीमे कदमों से भैंस के पास गयी और उसके गले लग गयी। किसी की नजर उसके नंगे पैरों पर पड़ गयी। एक लड़की दौड़ कर अंदर गयी और चप्पल की जोड़ी लाकर उसे पहनाने लगी। सास को अचानक दांती लग गयी। औरतों ने उन्हें गिरने से बचाया और जमीन पर लिटा दिया। उनके मुंह में सीपी से पानी डालने की कोशिश होने लगी। मुंह पर छींटे मारे जाने लगे। औरतों के बीच फुसफुसाहट तेज हो गयी।

चतुरा अइया ने आगे बढ़ कर उसके बाप से कहा— अभी बूढ़े बूढ़ी बहुत सदमे में हैं समधी। खुद अपने खाने की सुध नहीं है और खूंटे से चार चार जानवर बंधे हैं। ये बिना चारा पानी के मर जायेंगे। जाना तो एक दिन है ही लेकिन आज का जाना ठीक नहीं लग रहा है। महीने खांड़ में जब ये दोनों परानी कुछ संभल जाते तब ले जाते तो न अखरता।

बाप ने बारी बारी सबके चेहरे देखे। फिर बेटी का मुंह जोहा। कुच्ची ने स्वीकृति में सिर हिलाया— ठीक है।

— हम एकाध महीने में आकर लिवा चलेंगे बिटिया। और साइकिल के हैण्डिल में टंगी डोलची झोला उतार कर बेटी के हाथ में पकड़ा दिया।

बजरंगी की लाश चिता पर रखने के साथ ही किसी चोर दरवाजे से बनवारी के मन में यह बात आयी थी कि अब बजरंगी की खेतीबारी, घरदुआर पर उसी का हक है। खून के रिश्ते में सबसे नजदीक वही ठहरता है। जगेसर, रमेसर दो सगे भाई। जगेसर से वह और रमेसर से बजरंगी। उसे आज से ही काका काकी का विश्वास हासिल करना होगा। पूरे चार बीघे की खेती है। चार बीघे का लालच कम नहीं होता। जमीन की कीमत पिछले पांच छः साल में किस तरह आसमान पर चढ़ी है इसे क्या किसी को बताने की जरूरत है। यह तो कहो कि अभी काकी जिन्दा हैं। न होतीं तो कौन रात के अंधेरे में अपनी औरत को काका का पैर दबाने के लिए भेज देता, कोई ठिकाना है। कौन कब बूढ़े को रातोंरात बोलेरो में बैठा कर ले उड़े। तहसील ले जाकर खुद को वारिस दर्ज करा ले या घरबार, खेतीबारी की रजिस्ट्री करा ले, कोई ठिकाना है। जालिया लोगों के गिरोह मोटर साइकिल पर इन दिनों गांव-गांव घूम रहे हैं। किसकी खतौनी लगा कर दस पांच लाख का लोन ले उड़ें कोई ठिकाना है। बूढ़े, अशक्त, नावल्द या विधवा, तो उनके लिए नरम चारा हैं। पकड़ में भी आ गये, मुकदमेबाजी भी हो गयी तो उन्हें चिन्ता नहीं। मुकदमे का फैसला होने के पहले वे बूढ़े, विधवाएं बैकुंठधाम चले जायेंगे। इसलिए न सिर्फ काका काकी के खाने पीने का बढ़िया इंतजाम करना है बल्कि उनकी चौकीदारी भी करनी है। कौन उनके घर आ जा रहा है, इस पर नजर रखनी होगी। उसने अपनी सुलछनी को अच्छी तरह समझा दिया है कि सुबह शाम जाकर हालचाल लेती रहे। क्रियाकर्म का खर्चवर्च भले काका ने किया लेकिन दौड़धूप का सारा काम उसी ने संभाला। यह औरत पता नहीं क्यों अब अपना रास्ता नहीं लेती, वरना वह काका काकी को अपने चौके में ही खिलाने लगता। बाप तो विदा कराने आया ही था। गांव की औरतें राह का रोड़ा बन गयीं। काकी को भी उसी समय दांती लगनी थी। बेटा मरा तो नहीं लगी दांती और पतोह जाने लगी तो दांती लग गयी। उसने सुलछनी को भी सहेज दिया है कि जितनी जल्दी हो सके इस औरत के लिए दूसरा घर वर खोजने में अपने भाइयों को लगा दे।

इस औरत के जाते ही वह सबसे पहले काका को तहसील ले जाकर खतौनी में अपनी वरासत दर्ज करायेगा। फिर दोनों को लेकर उधर से ही चारों धाम की यात्रा पर निकल जायेगा। इस साल बजरंगी दोनों लोगों को भेजने ही वाला था। कहूंगा बजरंगी नहीं है तो क्या? मैं कोई गैर हूं। मैं भी तो बेटा ही हूं। सिर्फ खर्चा नहीं दूंगा साथ-साथ चलूंगा भी। सगे बेटे से बढ़ कर सेवा करूंगा।

कहते हैं बदरीनाथ का रास्ता इतना बीहड़ है कि कब कौन किस खड्ड में समा गया कुछ पता नहीं चल सकता। सीधे पातालपुरी पहुंचता है गिरने वाला। पहले के जमाने में तो जाने वाला अपना अच्छत, चावल, छीट परोर जाता था, यानी घर परिवार से अंतिम विदा लेकर। लौट आये तो ठीक, नहीं तो जै सियाराम। रोते पीटते लौट कर दोनों का किरियाकरम कायदे से निपटा देना होगा बस।

सहसा एक ख्याल ने उसके बदन में झुरझुरी पैदा कर दी। कहीं इस औरत की कोख में बजरंगी का अंश न ठहर गया हो? तब? आखिर दो महीने हो गये, यह जाती क्यों नहीं? इसके बाप ने लौट कर खबर नहीं ली। बिना इसके गये तो कोई ‘इस्कीम’ आगे बढ़ नहीं सकती।

वह सोचता है कि इतनी गुप्त स्कीम बनाने के पहले गांव के एकाध पिचाली लोगों का मन मुंह भी ले ले। कहीं फंसने फंसाने का खतरा हो तो उसकी काट भी खोज ली जाये। तीन चार दिन पहले बलई बाबा बुलाने आये थे। सुलछनी बता रही थी कि उनकी ट्यूबवेल ने पानी पकड़ना बंद कर दिया है। वह टाल गया था। सोच रहा था कि एकाध चक्कर और लगा लें तब जाय।


बलई बाबा खा पीकर रात के अंधेरे में दुआर से थोड़ा हट कर पाकड़ के पेड़ के नीचे मूंज की चारपायी पर बिना कुछ बिछाये लेटे हैं। नंगे बदन। पसीने से लथपथ। धोती को ऊपर तक खींच कर लंगोट की शक्ल दे दिया है। बाध पर पीठ रगड़ रगड़ कर खुजला रहे हैं। हाथ का बना बेना डुला कर मच्छर भगा रहे हैं।

— बाबा पाय लागी।

बनवारी उनका पैर छूने के साथ साथ दबाने भी लगता है।

— कौन? बनवारी। खुश रहो बेटवा। इतनी रात में?

— आप गए थे न मुझे खोजते हुए घर तक?

— हाँ-हाँ, बेटवा। बोरिंग पानी छोड़ रही है। घण्टे भर भी चलना मुश्किल।

— कल आकर देख लेते हैं।

— लेकिन छोड़ काहे रही है?

— पाइप में लीकेज होगा या पानी का लेवल नीचे चला गया होगा। एक लेंथ पाइप लाकर डालना पड़ेगा।

— कितने की आयेगी एक लेंथ? पैसा अभी लेते जाना।

— पैसा कहीं भागा जा रहा है बाबा! पहले ठीक कर दें फिर ले लेंगे।

— बहुत अच्छा किया जो तुमने यह काम सीख लिया। घर का आदमी घर का ही होता है। नहीं तो किसके पास दौड़ कर जाते। और बताओ?

— और क्या बतायें बाबा। भगवान बड़ी विपत्ति में डाल गये। लछिमन जैसा भाई साथ छोड़ कर चला गया। सचमुच बजरंगबली की तरह आज्ञाकारी था। जहां लगा दो, जुट जाता था। उसी के बल पर मैंने बोरिंग का काम इतना फैला लिया था। समझिए दाहिना हाथ टूट गया। अब काका काकी का बोझा भी मेरी खोपड़ी पर आ गया।

— तुम्हारी खोपड़ी पर क्यों? अभी तो रमेसर दोनों प्राणी खुद टांठ हैं।

— रखवाली तो करनी होगी बाबा। पता नहीं कब कौन किधर को भरमाने लगे, बहलाने फुसलाने लगे। प्रापर्टी का मामला बहुत खतरनाक होता है, वारिस कमजोर दिखा तो जमीन फोड़ कर दस दावेदार पैदा हो जाते हैं। बुढ़ापे में बुद्धी भी बहुत आगे पीछे चलने लगती है।

— तो साफ-साफ क्यों नहीं कहते कि तुम्हारी नजर अभी से रमेसर की जगह जमीन पर लग गयी है। कहने को तो कह दिया लेकिन उन्हें तुरंत महसूस हुआ कि ज्यादा कड़ी बात कह दी। सबेरे उससे ट्यूबवेल बनवाना है। ऐसे में ऐसी कड़ी बात सर्वथा नीति विरुद्ध है।

— जगह जमीन का लालच मुझे नहीं है बाबा। काका जब तक जिन्दा हैं, जोतें बोयें। लेकिन

उसके बाद तो मेरा हक बनता ही है। मैं यह तो न होने दूंगा कि कोई गैर उसके नजदीक फटके। मेरे भी तीन-तीन बेटे हैं।

— तो गैर कहां से आ जायेगा? अभी तो बजरंगी की बेवा ही मौजूद है।

— वही तो! अब उसका यहां क्या काम? दो महीने से खूंटा गाड़ कर बैठी है। जवान, जहान बिना बाल-बच्चे वाली। उसे तो खुद ही अपना रास्ता पकड़ लेना चाहिए था। अब क्या मार कर निकाला जाये तब जायेगी?

— अरे भाई मार कर कैसे निकालोगे? ब्याह कर आयी है। कहने के साथ बलई बाबा ने अपनी जीभ काटी— यही आदत नहीं गयी उनकी। चाहे जितनी कड़वी हो, सही बात मुंह से निकल कर रहती है। जीभ यह भी नहीं सोचती कि किस आदमी से क्या गरज अटकी है। वे बहकी बात को संभालने की कोशिश करते हैं।

— अगर इतनी दूर की सोच रहे हो तो तुम्हीं क्यों नहीं रख लेते?

— मैं... बनवारी का मुंह आश्चर्य से खुला का खुला रह गया।

— और क्या। लम्बी चौड़ी है, कमासुत है, हंसलोल और जवान है।

— लेकिन वह तो मेरी भयहू लगेगी बाबा। भयहू को तो छू भी नहीं सकते। बजरंगी मुझसे दस साल छोटा था। गोसाई जी बहुत पहले मना कर गये हैं— अनुज बधू भगिनी सुत नारी...। पाप पड़ेगा।

— पाप तो तब पड़ेगा जब कुदृष्टि से बिलोकोगे। उसे राजी कर लो। उसका मन जीत लो। सौ बात की एक बात, पट जाये तो सब जायज है।

बनवारी का हाथ बाबा के पैरों पर तेज-तेज चलने लगता है। कुछ देर की चुप्पी के बाद फिर कहता है— मजाक तो नहीं कर रहे हैं बाबा? ऐसा हो सकता है?

— क्यों नहीं? उसे मर्द चाहिए, मर्द मिल जायेगा। तुम्हें परापर्टी चाहिए, परापर्टी मिल जायेगी। रमेसर दोनों परानी को रोटी चाहिए, उनकी रोटी पक्की हो जायेगी। सबका उखड़ा कूल्ह बैठ जायेगा। लेकिन...

— लेकिन क्या बाबा?

— कहते हैं दो औरतों के बीच पड़ा मर्द वैसे ही जलता है जैसे देशी भठ्ठे की ईंट। धुंआ निकलने का रास्ता भी नहीं मिलता। सुलछनी तुम्हारा जीना हराम कर देगी।

बनवारी कहीं खो जाता है। देर तक खोया रहता है। फिर उठते हुए कहता है— चलता हूं बाबा। ट्यूबेल कल शाम तक पानी देने लगेगी। परनाम।

नयी और मनमाफिक राह पाकर बनवारी का दिमाग और तेज चलने लगा है। इस इलाके में जमीन का रेट पाँच-छः हजार का विस्वा चल रहा है। चार बीघा माने पाँच-छः लाख। सुलछनी इतनी बुद्धू तो है नहीं जो हाथ आती परापर्टी को लात मारे। और मारेगी तो रहेगी कहां? अपनी जनाना का मुंह बंद करना कौन मुश्किल काम है। रोज सुबह-शाम चार डंडा पड़ेगा तो दस दिन में बोलती बंद हो जाएगी।

कुच्ची को उसने कभी भर नज़र नहीं देखा। ऐसे तो रोज़ ही काम पर निकलते समय बजरंगी को लेने उसके दरवाजे पर जाता था। मोटरसाइकिल की आवाज सुनते ही वह खाने के डिब्वे का झोला बजरंगी को पकड़ाने के लिए घूंघट काढ़े निकलती थी। उसकी जवान देह की महक हवा के झोंके के साथ उसकी सांसों में भी समाती थी। हवा के झोंके से कभी घूंघट हिलता तो लाल होंठों के बीच उजली हंसी की झलक भी मिल जाती थी। एकाध बार आंखों की मछलियां घूंघट के पीछे कौंधी भी थीं। ...और आवाज कितनी मीठी है। बोलती है तो लगता है गा रही है। वह कल्पना की आंखों से देखने लगा— कितनी मोटी-मोटी जंघायें। उसकी आंखों को सबसे ज्यादा पकड़ती हैं, उसकी भरी-भरी छातियां। उनका कदम-कदम पर हिलना, दलकना। बांध कर नहीं रखती। सुलछनी तो एकदम सीक सलाई है। उसका सब कुछ बहुत छोटा-छोटा है। उसके दाहिने पंजे में चुनचुनाहट होने लगी। साल भर पहले बाजार में एक गीत बजता था— गोरिया कै जोबना खजाना, गोरी दिलदार कब होए?

कैसे कोई दिलदार बनता है?

आड़े ओटे, अंधेरे उजाले में घात लगा कर ‘पटक’ तो कभी भी सकता है, लेकिन पटाना। पटकना जितना आसान, पटाना उतना ही मुश्किल। पटाने की विद्या वह आज तक नहीं सीख पाया... और आज देखो उसी विद्या की जरूरत पड़ गयी।

उस दिन दोपहर में पता चला कि कोऑपरेटिव के गोदाम पर यूरिया बंट रही है। यूरिया की इतनी किल्लत रहती है कि आते ही खरीददारों की लाइन लग जाती है। गोदाम खुलते ही ढाई-तीन घंटे में सारा स्टाक खतम। पिछड़ गये तो गये। रबी की फसल के लिए पंद्रह-बीस दिन बाद जरूरत पड़ने वाली थी। बुढ़ऊ यूरिया लेने चले गये तो जानवरों को चराने के लिए उसे जाना पड़ा। शाम को जानवरों को चरा कर लौट रही थी तो देखा, खोर के बगल वाले खेत में जेठ धान के आखिरी बोझ के पास खड़े हैं। अब तक तो जेठानी भी साथ-साथ ढो रही थी लेकिन लगता है आग-अदहन के लिए वह घर चली गयी। इंतजार कर रहे होंगे कि कोई उधर से गुजरे तो उसे बोझ उठाने के लिए आवाज दें। वह पास पहुंची तो उन्होंने हाथ के इशारे से बुलाया— जरा उठा दे रे छोटकी।

वह न हां कह सकी न नहीं। सारी दुनिया को पता है कि छोटे भाई की पत्नी को छूने का पद नहीं पहुंचता बड़े भाई का। बनवारी के दुबारा बुलाने पर वह खेत की मेड़ तक पहुंच कर बोली— हम कैसे उठा दें? छू नहीं जायेगा?

— छू कैसे जाएगा? बीच में तो बोझ रहेगा।

वह दुविधा में पड़ गई।

पीठ पर पति की छाया रहती तब भी एक बात थी। बेवा औरत को ज्यादा ही फूंक-फूंक कर कदम रखना होगा। पता नहीं किस बात का क्या मतलब निकाल लिया जाय।

बनवारी ने मजबूरी बताई— कोई और दिखाई पड़ता तो मैं खुद ही तुझे न बुलाता।...

बात तो सही है। अगर वह बिना उठाये चली जाए तब भी ठीक नहीं लगता। अंधेरा हो रहा है। अब इधर से कौन गुजरने वाला है? ये पता नहीं कब तक किसी के इन्तज़ार में यहीं खड़े रह जाएँ।

उसके गाय-बैल आगे बढ़े जा रहे थे। कहीं किसी की फ़सल न चौपट करने लगें। वह जल्दी-जल्दी पास पहुंची। बोझ उठा कर बनवारी के सिर पर रखवाया और जैसे ही मुड़ने को हुई कि बनवारी ने दाहिने पंजे से उसकी बायीं छाती दबोच ली।

उसने चिहुक कर उसके हाथ को झटकना चाहा लेकिन पकड़ इतनी सधी हुई थी कि मुक्त होने के लिए उसे जमीन पर बैठ जाना पड़ा। माख से उसकी आंखें भरभरा गयीं। इतना पाप पाले हुए हैं ये उसके लिए अपने मन में। संभली तो उठते हुए इतना ही बोल पायी— यह काम ठीक नहीं किया बड़कऊ।

— सब मन के मानने की चीज है, रे। बोझ को सिर पर साधते हुए मुड़ कर बोला बनवारी— एक-दूसरे के काम आने से जिन्दगी हलुक (हल्की) होकर कटती है।

रुलाई के आवेग में उसे कुछ सुनायी नहीं पड़ा। बड़ी बेरहमी से पकड़ा था। जान निकल गयी। वह कुछ देर वहीं खड़ी की खड़ी रह गयी।

बनवारी की इस घटियारी के बारे में सास को बताये या नहीं? अगर किसी ने देख लिया हो और बाद में सास को बताये तो वे यही समझेंगी कि जरूर यह दोनों का सधाबधा मामला होगा वरना बहू जेठ का बोझ उठाने क्यों जाती?

बड़ी देर तक सोचने-विचारने के बाद देर रात गये वह अपनी चारपायी से उठ कर सास की चारपायी पर आयी और उनके पैर दबाने लगी।

— इतनी सेवा मत करो बहू। तुम्हारे जाने के बाद बहुत रोना पड़ेगा।

बहू सिसकने लगी तो लगा कि वह कुछ कहना चाहती है। सास उठ कर बैठ गयीं। पूरी बात सुन कर वे बड़ी देर तक चुप रह गयीं फिर उसका सिर अपने सीने से लगाते हुए बोलीं— जमाना कितना खराब आ गया बिटिया। दिन गिरने पर अपनों की आंख का पानी भी मर जाता है। जब घर में ही डसने के लिए घात लगाने वाले पैदा हो गये तो न अब मेरा रोकना ठीक रहेगा न तुम्हारा रुकना। हमारी जैसी बीतनी होगी बीतेगी। हम तो पके आम हैं। पता नहीं कब चू पड़ें। अभी तुमने जिन्दगी में देखा ही क्या है। खेलने खाने की उमर में ही तो सब बिगड़ गया। मन को समझा लिया है कि हमारा तुम्हारा नाता बस इतने ही दिन का था। हम अपने रिस्ते के बंधन से तुम्हें उरिन (मुक्त) कर रहे हैं। मैं कल खुद ही तुम्हारे बप्पा को आने का संदेश भेजवाती हूं।

वह चुपचाप सिसकती रही। सास उसका सिर सहलाती रहीं। फिर बोलीं— बनवारी की ‘घटियारी’ को पानी की तरह पी जाना। बदनामी साथ लेकर जाना ठीक नहीं।

संदेश तो गया लेकिन इसके पहले कि उसके बप्पा आते, एक नयी विपत्ति आ गयी। मेंड़ से फिसल कर सास के जांघ की हड्डी टूट गयी। दूध देकर आ रही थीं। मेंड़ पसीजी हुई थी। फिसल गयीं। बनवारी की मदद से टेम्पो में लाद कर ससुर अस्पताल ले गये।

टेम्पो ने तो सबेरे आठ बजे ही जिला अस्पताल के गेट पर उतार दिया लेकिन दोपहर तक बूढ़ी की भर्ती ही न हो सकी। पर्ची कटवाने के बाद बनवारी इसके उसके पास दौड़ता रहा। कभी कहा गया कि बेड खाली नहीं है। कभी कहा गया कि पहले एक्सरे करा कर दिखाओ। फ्रैक्चर होगा तभी भर्ती ली जायेगी। बूढ़ी बरामदे के एक कोने में लेटी कराहती रही। चूहे जैसी मूंछ वाला नर्सिंग होम का एक दलाल अलग पीछे पड़ा था। वह रमेसर को समझाने में लगा था कि बिना टेंट ढीली किये कुछ नहीं होने वाला। अगर हड्डी टूटी होगी और आपरेशन करना पड़ेगा तो सरकारी डाक्टर भी बिना दस हजार एडवांस लिये हाथ नहीं लगायेगा। राड पड़ेगी तो उसके लिये भी चौदह-पंद्रह हजार गिनना पड़ेगा। तब हमारे नर्सिंग होम में अमरीकन डाक्टर से आपरेशन क्यों नहीं कराते? यहां तो अगर इनफेक्शन हो गया, मतलब जहर फैल गया तो सीधे पैर ही काट देंगे।

बुढ़ऊ सिर पर हाथ रख कर बैठ गए।

अचानक कुच्ची को धरमराज वकील की याद आई। गांव के पद से देवर लगता है। यहीं कचेहरी में होगा। बनवारी ने धरमराज को फोन किया। थोड़ी देर में धरमराज काला कोट पहने तीन साथी वकीलों के साथ दो मोटर साइकिल पर धड़धड़ाता हुआ आया। जो सामने पड़ गया उसी को घेर कर हड़काया— हमें पता है कि क्यों टरका रहे हो। सीधे-सीधे कटोरा ही क्यों नहीं थाम लेते? तनखाह किस बात की मिलती है?

दो-तीन जगह हड़कम्प मचाने के बाद बुढ़िया चार बजे बेड तक पहुंची। नीचे से ऊपर तक का सारा स्टाफ मन ही मन उन्हें कोस रहा था। अब तक तो पत्रकार ही नाक में दम किये हुए थे। अब काले कोट वाले भी पहुंचने लगे।

जाते-जाते धरमराज ड्यूटी के डाक्टर को हड़काता गया— पाकेट से खर्च करके दवा खरीदने वाले मरीज नहीं हैं हम। जो दवा स्टोर में न हो उसकी लोकल परचेज करके दीजिए। स्टोर में पहुंचने के पहले तो बिक जाती है। रहेगी कैसे?

एक्सरे हुआ तो पता चला कि फ्रैक्चर है। आपरेशन होगा। पंद्रह-बीस दिन अस्पताल में और दो-ढाई महीना घर में बिस्तर पर लेटे रहना पड़ेगा।

सही कहा था नर्सिंग होम के दलाल ने। पैसा न पाने के चलते डाक्टर तीन दिन तक आपरेशन टालता रहा। सबेरे कहता कि कल करेंगे। कल आता तो फिर कल पर टाल देता। देर होने से मवाद पड़ जाने का डर था। वार्डब्वाय और नर्स पहले दिन से ही डरा रहे थे कि जमराज से झगड़ा करके पार नहीं पाओगे तुम लोग, देहाती भुच्च। एक इंच भी पैर छोटा हो गया तो जिन्दगी भर भचकते हुए चलेगी बुढ़िया। उस वकील से कहो कि अपना रुआब कचेहरी में ही दिखाये। इस बार आ गया तो हाथ पैर तुड़ा कर इसी वार्ड में भर्ती होना पड़ेगा।

सारे मरीज पैसा दे रहे थे। तय हुआ कि देने में ही भलाई है। आपरेशन के पहले शाम को दस हजार गिनने पड़े। राड भी उसी दुकान से खरीदना पड़ा जहां से डाक्टर ने कहा था।

ससुर और पतोहू के बीच ड्यूटी का बंटवारा हो गया। दिन में तो नर्स हैं, दायी हैं, जरूरत पड़ी तो बुलाने पर आ जाती हैं लेकिन रात में दाइयां और नर्सें भी इधर-उधर झपकी लेने लगती हैं। बुलाने पर नहीं सुनतीं इसलिए औरत मरीज के पास औरत तीमारदार का रहना जरूरी हो जाता है। खासकर जब मरीज हिलडुल पाने की स्थिति में न हो। कपड़े बदलने के लिए या नीचे पैन लगाने के लिए।

वह जानवरों का चारा पानी करके, खाना बना कर, दूध दुह कर, अपना और सास का दोनों जून का खाना लेकर शाम को बाजार से टेम्पो पकड़ती है। आधे घंटे में शहर। फिर टेम्पो अड्डे से पैदल अस्पताल। तब ससुर घर लौटते हैं। सबेरे जानवरों को चारा देकर, शाम का बना खाना खाकर नौ दस बजे तक वापस अस्पताल पहुंचते हैं, तब वह लौटती है।

उसकी सास के बगल वाले बेड पर एक बारह तेरह साल का लड़का है, पेड़ से गिर कर एक बांह और एक पैर तुड़वा कर आया है। उसका बाप महीने भर का राशन रख कर चला गया। गया तो फिर लौट कर नहीं आया। लड़के की मां एक जून रोटी सेकती है, दो दिन खाती है। दाल, सब्जी कुछ नहीं। बस, चटनी रोटी। गजब की ‘बोलका’ है। सोते-जागते उठते बैठते या तो कुछ बताती रहती है या कुछ पूछती रहती है।

कुच्ची को नर्सों की सफेद वर्दी बहुत अच्छी लगती है। दूध की तरह सफेद। एक भी दाग धब्बा नहीं। कितना साबुन खर्च होता होगा इनको धुलने में। ये लड़कियां एक भी गहना नहीं पहनतीं, नाक की कील के अलावा। चू़ड़ी, बिन्दी कुछ नहीं। कान तक सूना।

कड़क नर्स बस एक ही है, बड़ी नर्स। ऊंट की तरह लम्बी और पिपिहिरी की तरह पतली आवाज वाली। डांटने डपटने का बहाना खोजती रहती है। सास उससे बहुत घबराती हैं। उसकी आवाज सुनते ही आंखें बंद करके सोने का नाटक करती हैं। लेकिन वह आते ही सीने पर थप-थप मार कर कहती है— पैर सीधा रखो। करवट नहीं लेने का। फिर सुर्ती खाया क्या? मुंह खोलो।

अपने सामने नीचे रखी बाल्टी में सुर्ती उगलवाती है फिर कुच्ची को डांटती है— मना किया था न। फिर क्यों दिया सुर्ती? डिस्चार्ज करके भगा देंगे। गंदी सब।

बिना सुर्ती खाये रह नहीं सकती बुढ़िया। पेट फूल जाता है। ‘कड़क’ के जाते ही कहती है— अब घर ले चल, आज ही ले चल। यहां एक दिन भी नहीं रहना। कितनी बदबू है चारों ओर। मेरी गृहस्थी बिगड़ी जा रही है।

गृहस्थी तो सचमुच बिगड़ी जा रही है। तीनों प्राणी अस्पताल से नत्थी हो गये हैं। जानवरों का चारा पानी मुश्किल से हो पाता है। लगता था खेत परती रह जायेंगे। कोई अधिया पर बोने के लिए तैयार नहीं हुआ। तेरह मूठी के जवान बैल खूंटे पर बंधे-बंधे खा रहे हैं। जोते कौन? आखिर एक दिन किराये का ट्रैक्टर मंगा कर किसी तरह बीज डाला गया। रोटोवेटर से दो घंटे की जुताई के दो हजार रुपये लग गये। फरुही करना, (क्यारी बनाना) अभी बाकी ही है।


धान तो कट गया था लेकिन उसकी मंड़ाई बाकी थी, तभी अस्पताल की दौड़ शुरू हुई। अब आये दिन आसमान में बादल के टुकड़े तैरते नजर आते हैं। पानी बरस गया तो खलिहान में ही सारा धान जम जायेगा। ऐसे में सास की चिन्ता गलत नहीं है। लेकिन डाक्टर जाने दें तब न।

अस्पताल आने पर तो लगता है सारी दुनिया ही बीमार है। हर जगह मरीजों का रेला। इमरजेंसी वार्ड का एक नम्बर बेड अंदर घुसते ही ठीक सामने पड़ता है। सबेरे की शिफ्ट वाली बूढ़ी मौसी इसे सबसे पहले ‘रेडी’ करती है। उस दिन एक लड़का आकर उस पर बैठ गया तो उसने फौरन उठाया— उठो-उठो। इसकी बुकिंग आने ही वाली है।

— आपको आने के पहले ही पता चल गया?

— हां बेटा, रोज आती है। बिना नागा। कोई ना कोई कहीं न कहीं से चल पड़ी होगी। उसके पास एक मिंट का समय नहीं होगा। शाम तक तो रवानगी भी हो जाती है, ‘डिस्चार्ज’।

तब तक सचमुच अठारह-बीस साल की एक लम्बी-तगड़ी सांवली लड़की को पकड़े तीन चार लोग लाते हैं। वह दर्द से छटपटा रही है और ओक-ओक करके ‘कै’ करने की कोशिश कर रही है। बेड पर लिटाने के साथ, हाथ पैर दबा कर उसकी उछलती देह को काबू में किया जाता है। वह बार-बार उठ कर भागने की कोशिश कर रही है। लगता है पेट में आग लगी है। मुंह से झाग निकल रहा है। डाक्टर, नर्स और दाइयों के झुंड ने बेड को घेर लिया है। नाक के रास्ते पेट में प्लास्टिक की नली डाली जा रही है। नाक पर टेप लगा कर सेट किया जा रहा है। हाथ में इंजेक्शन के लिए ‘वीगो’ लगाया जा रहा है। हाथ बांधो... पैर बांधो। छोटे पम्प से पेट की सफाई शुरू हो गयी। पेट में दवा पहुंचाई गयी। इंजेक्शन लग गया। हाथ से फिसलती जिन्दगी को बचाने के लिए युद्ध स्तर का प्रयास।

डाक्टर नर्स जा चुके हैं। लड़की अब रोने लगी है। ऊपर झुकी दाई के गले में हाथ डालने की कोशिश करते हुए अस्फुट स्वर में बुदबुदाती है— बचाई लेव अम्मा, हमार बिटिया क मुंह देखाइ देव...

— धीरज धरौ बिटिया, धीरज धरौ। माया मौसी उसके आंसू पोछती हैं फिर मुंह फेर कर बुदबुदाती हैं— घंटा, दुइ घंटा मा मुक्ती मिल जाये।

इस बेड का नाम ही है— ‘प्वाइजन बेड’। जहर खाकर आने वाली औरतों के लिए रिजर्व। रोज इसी समय कोई न कोई आती है, बिना नागा। सिर्फ औरतें। आदमी एक भी नहीं। सब बीस पचीस साल की उम्र वाली। ज्यादातर ‘सल्फास’ खाकर। गांव देहात के घरों में वही सहज उपलब्ध है।

शाम को या रात में झगड़ा होता होगा। मार पड़ती होगी। आधी रात में खाकर छटपटाने लगती होंगी। लेकिन इतनी रात में कहां सवारी खोजें? सबेरे लेकर चलते हैं। तब तक जहर असर कर चुका होता है।

लड़की धीरे-धीरे शिथिल पड़ रही है। उबलती हुई आंखें पथराने लगी हैं।

शाम होते-होते खेल खतम। चमकता हुआ शरीर मिट्टी हो गया। पलकें दबा कर अधखुली आंखें बंद की गयीं। मरने का रुक्का बना। सफेद चादर से ढकी, स्टेचर पर लद कर चीरघर की ओर चल पड़ी। सात आठ बजते बजते बेड खाली। चादर बदलो तकिया बदलो। अगले मेहमान के स्वागत की तैयारी।

कौन थी? क्यों खाया जहर?

हर दिन की अलग कहानी। अवैध गर्भ। पति द्वारा पिटाई। दहेज प्रताड़ना। तीसरी बेटी पैदा कर देना।

बेड नं. 7 बर्न बेड है। यह भी सवेरे-सवेरे अपना चादर तकिया बदल कर तैयार हो जाता है। इस पर आने वाली औरतों में ज्यादातर नवव्याहताएं होती हैं। किसी की गोद में साल भर की बच्ची, किसी की गोद में छः महीने की। वह बेड भी शायद ही कभी खाली रहता हो। जहर खाने वालियों की मुक्ति तो उसी दिन हो जाती है लेकिन जलने वालियां चार पांच दिन तक पिहकने के बाद मरती हैं। कभी कभी पूरा शरीर संक्रमित होने में हफ्ते दस दिन लग जाते हैं। कितनी बहू बेटियां हैं इस देश में कि रोज जलने और जहर खाने के बाद भी खत्म होने को नहीं आ रही हैं?

सवेरे घर वापसी से पहले अब कुच्ची इमरजेंसी के 1 नम्बर और 7 नम्बर बेड का एक चक्कर जरूर लगाती हैं। लौट कर सास को आंखों देखा हाल बताती है। फिर पूरे दिन उदास रहती है। दुनिया को जितना नजदीक से देखती है उतना ही दुखी होती है।

उस दिन वापस घर पहुंची तो देखा बैलों के खूंटे सूने पड़े थे। गाय और भैंस रह रह कर रंभा रही थीं। शायद पगहा तुड़ा कर आसपास चरने चले गये हों। वह अगवाड़े पिछवाड़े देख आयी। तब तक सुलछनी आती दिखी। किसी के न रहने पर वह इधर का एकाध चक्कर लगा जाती है। उससे पूछा।

— बिक गए।

— बिक गए?

— हाँ। पैकवार दो दिन से आ रहा था। आज सौदा पट गया। सबेरे ही तो हाँक कर ले गया।

वह चुप रह गई। बेचने के पहले ससुर ने कोई चर्चा तक नहीं की। हो सकता है सास से सलाह की हो। जाते हुए दोनों को देख भी न पायी। थके कदमों से चले गए होंगे। गाय और भैंस उन्हीं की याद में रंभा रही हैं।

पता चला कि सास को भी नहीं मालूम। उनसे भी कोई राय सलाह नहीं की। बेचने के बाद सारे दिन उनके पास बैठे रहे लेकिन तब भी नहीं बताया। अगले दिन सास ने पूछा तो बोले— अब कौन उन्हें खिलाता और कौन जोतता? मेरे वश का तो है नहीं। बेकार बांध कर खिलाने का क्या मतलब?

— कभी चर्चा भी नहीं किए। पूछे भी नहीं।

— किससे पूछते? तुमसे? जो लंगड़ी होकर यहां पड़ी हो। कि बहू से? जो आज गई कि कल।

— कितने में फेंके?

— सोलह हजार में।

— बीस हजार में तो दो साल पहले बेटा खरीद कर लाया था। तब चार दांत के थे। अब पचीस हजार से कम के न थे।

— मेरा दिमाग काम नहीं कर रहा है बजरंगी की अम्मा। अब न कुछ पूछो, न बताओ।

शाम को वह पहुंची तो बूढ़ी उसके गले में बांह डाल कर रोने लगी।

— सब बिगड़ गया बिटिया। उस एक के जाते ही सब बिगड़ गया। भगवान तेरे पेट में एक बिरवा रोप दिये होते तो हम जी जाते। तब मैं थोड़े तुझे कहीं जाने देती। उसी के सहारे हम सब जिन्दगी काट देते।

सास को खिलाने और दवा देने के बाद वह फर्श पर बिछे अपने बिस्तर पर लेटी तो फिर उसकी आंखों में बजरंगी का चेहरा नाचने लगा। गुलाबी मसूढ़ों वाला हंसता हुआ चेहरा। मुराही (शरारत) से चमकती आंखों वाला। वे दिन में उसे कुच्चो रानी और रात में कंचनजंघा कहते थे। कहीं से आते तो कोठरी के एकांत में पहले उसके स्तनों को दबोचते फिर पूछते— यह बायां वाला दाहिने से छोटा क्यों है? इसे भी महीने भर में दाहिने के बराबर कर देना है। कभी कहते— मां बाप ने मेरा नाम बजरंगी रखा है। मुझे बाल बरम्हचारी रहना था। तुमने आकर सब भरभंड कर दिया।

— मैं क्या तुम्हें बुलाने जाती हूं। कहीं से आते हो तो सीधे कोठरी में ही घुस आते हो। दिन में तो बरम्हचारी रहा करो।

वे भी इंतजार कर रहे थे उस विरवे के अंखुआने का। उन्होंने तो नाम भी सोच लिया था— बालकिसन। उसके पेट को सहलाते हुए पूछते— कब आयेगा रे मेरा बालकिसन? फिर पेट से कान सटा कर कहते— शायद आ गया। किलकारी की आवाज सुनायी पड़ रही है।

उमड़ते आंसुओं को आंचल से पोंछते हुए वह बुदबुदायी— हम तुम्हें तुम्हारा बालकिसन नहीं दे सके राजा।

कल से ही उनकी छवि मन में बसी है। कल शाम बितानू आया था। बजरंगी का हेल्पर। पता चला कि अम्मा अस्पताल में भर्ती हैं तो देखने चला आया। कह रहा था कि बड़े मिस्त्री (बनवारी) की खोपड़ी में पैसे की गर्मी घुस गयी है। अब वह उनको और तेल नहीं लगायेगा। खुद अपना काम शुरू करेगा। उसने बताया कि बड़े मिस्त्री के पास बोरिंग का जो सामान है उसकी खरीद में आधा पैसा बजरंगी भैया का लगा है। अगर बंटवारा करके आधा सामान उसे दिला दिया जाय तो उसका काम चल निकले। वह महीने महीने किराया देता रहेगा।

— यह बात तो सीधे बाबू से कहो बितानू। मैं तो चार दिन की मेहमान हूं।

— अच्छा भाभी, जमीन वाला कागज बड़े मिस्त्री ने भइया को दे दिया था कि नहीं?

— कौन सी जमीन?

— पिछले साल दोनों भाइयों ने बाजार में दुकान खोलने के लिए साझे में जमीन खरीदी थी। उसकी रजिस्ट्री का कागज बड़े मिस्त्री के पास था। मुझे इसलिए पता चला क्योंकि चार पांच महीना पहले उसी के लिए दोनों भाइयों में कुछ कहासुनी हुई थी।

कुच्ची ने बितानू का स्टूल अम्मा के सिरहाने रखवाते हुए कहा— जरा अम्मा को बता दो यह बात।

बूढ़ी ने भी ऐसी किसी जमीन या कागज की जानकारी से इंकार कर दिया। फिर कहा— बितानू बेटवा, तुम यह बात हमारे बुढ़ऊ के कान में जरूर डाल देना।

एक और शंका पैदा कर दी बितानू ने— जैसे पिचाली हैं बड़े मिस्त्री, हो सकता है रजिस्ट्री में बजरंगी भइया का नाम ही न डलवाये हों।

सास बहू उसका मुंह देखने लगीं।

— ऐसा न होता तो बड़े मिस्त्री कागज देने में आनाकानी क्यों करते?

— सही बात! दोनों के मुंह से एक साथ निकला।

— इसलिए काका से कहिए कि रजिस्ट्री आफिस जाकर पता लगायें। अगर लिखते समय ही धोखा हो गया है तब तो अब कुछ नहीं हो सकता लेकिन अगर कागज में दोनों भाइयों का नाम है तो अपना हिस्सा नपवा कर फौरन बाउंडरी करवा लें। अगर बड़े मिस्त्री ने मकान बनवा कर पूरी जमीन घेर ली तो ताजिन्दगी कब्जा नहीं मिलेगा।

दोनों औरतों के सिर एक साथ सहमति में हिले। फिर बूढ़ी बोली— इसका पता तुम्हीं लगा सकते हो बाबू। बुढ़ऊ के वश का नहीं है।

— एक बात मेरी समझ में नहीं आती काकी। बड़े मिस्त्री बजरंगी भइया को सीधे अस्पताल क्यों नहीं ले गये? घर क्यों ले आये। अगर वहीं से लेकर अस्पताल भागे होते तो हो सकता है भइया की जान बच जाती। वही जहरीली दारू दो लेबर भी पिये थे। उन्हें लोग सीधे मेडिकल कालेज ले गये और उनकी जान बच गयी।

— दारू तो वे कभी पीते नहीं थे।

— एक दो बार पिये थे।

— दारू कहां मिली?

— मधुबन के जंगली सिंह ने नयी बोरिंग करायी थी। उसी दिन बिजली का कनेक्सन मिला था। उसी का जश्न था। बड़े मिस्त्री एक खराब मोटर चेक करने चले गये थे। उनके लौटने में देर होने लगी तो ये लोग पीने लगे। जब तक बड़े मिस्त्री लौटे तब तक इन लोगों की हालत खराब होने लगी तो बड़े मिस्त्री पीने से बच गये।

तब से कुच्ची को लग रहा है कि जेठ ने जानबूझ कर खुद को जहरीली दारू पीने से बचा लिया और उनको अस्पताल पहुंचाने में देर कर दी। जमीन और दारू के बीच में कुछ ‘कनेकसन’ जरूर है।

सारी दुनिया के मर्द कहते हैं कि औरत के पेट में बात नहीं पचती। तुम भी हमें विश्वास लायक नहीं समझे राजा।