कुछ छोड़ा, कुछ छूट गया/ देवेंद्र

Gadya Kosh से
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“ना जनता की बात है, ना जनता का साथ

फिर भी जनता की कथा लिखते काशीनाथ।”

श्रीकान्त काशी हिन्दू विश्वविद्यालय मंें मेरा प्रवेश द्वार था। राबर्ट्सगंज, जिला सोनभद्र काशीनाथ जी की ससुराल थी, वह वहीं का रहने वाला था। मुझसे एक वर्ष सीनियर। उस समय वह हिन्दी से एम.ए. फाइनल कर रहा था। राबर्ट्सगंज के ही डॉ. रामनारायण शुक्ल काशीनाथ जी के साथ विभाग में लेक्चरर थे। अरविन्द चतुर्वेद भी राबटर््सगंज के ही थे। कुल मिलाकर राबर्ट्सगंज की एक साहित्यिक मंडली ने वाया हिन्दी विभाग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के परिसर में नक्सलवाद का लाल परचम फहरा रखा था।

हर शनिवार की शाम रत्नाकर पार्क में एक तरफ कोने मंे बैठकर यह लोग स्टडी सर्किल का आयोजन करते थे। उन्हीं दिनों शाहजहांपुर से प्रकाशित होने वाली एक पुस्तकनुमा पत्रिका ’प्रतिमान’ में काशीनाथ सिंह का एक लेख छपा था-’जनवादी लेखन कितना जनवादी’। उस दिन स्टडी सर्किल में उसी लेख पर बहस थी। “गुरू, आज इन्हें बताना है कि जनवाद और जनवादी लेखन क्या होता है?” -चहकते हुए टुन्ना उर्फ जलेश्वर (महेश्वर का छोटा भाई) ने श्रीकान्त से कहा! जवाब में श्रीकान्त ने चौपाई की धुन में स्वरचित कुंडलियाँ सुनानी शुरू की-

“लिखते काशीनाथ कहीं का इधर-उधर,

लोग बिस्तरों पर हैं और सुबह का डर।”

पहली बार श्रीकान्त के साथ मैं वहाँ उस स्टडी सर्किल में गया था। काशीनाथ सिंह वहाँ नहीं थे। सिर्फ उनका लेख था। बहस मंे कोई बचाव-पक्ष नहीं था। सिर्फ हमलावर थे। मधुमक्खियों के छत्ते पर ढेला मारकर काशीनाथ सिंह मजे में अस्सी पर बैठे थे। उन्हें क्या मालूम कि जनवाद का क, ख, ग क्या होता है! कहानी की वर्णमाला लिख देने से कोई कहानीकार थोड़े हो जाता है! बहस में प्रयुक्त होने वाली शब्दावलियां मेरे लिए इतनी भारी-भरकम थीं कि मैं विस्मित हो चला। गोष्ठी के अन्तिम और निर्णायक वक्ता डॉ. राम नारायण शुक्ल (कहानीकार नहीं) ने टिप्पणी की- “बड़े खतरनाक लेाग हैं जी!”

उस स्टडी सर्किल में बहुत कुछ तों नहीं लेकिन जो चीज मेरे पल्ले पड़ी वह यह कि ‘‘सारिका” , ‘‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान” और ‘‘धर्मयुग” आदि के अलावा ‘‘प्रतिमान” , ‘‘पहल” , ‘‘आवेग” और ‘‘कलम” जैसी पत्रिकाओं की एक और दुनिया है। बल्कि यह कि आज का सार्थक साहित्य इन्हीं में लिखा जा रहा है। मेरे पूछने पर श्रीकान्त ने ही एक दिन बताया, “साप्ताहिक हिन्दुस्तान और धर्मयुग भी कोई पत्रिका हैं? व्यंजन बनाने और स्वेटर बुनने के नुस्खे छापने वाली ये पत्रिकाएं दलाल पूंजीपतियों का गू पोंछने के लिए छापी जाती हैं।”

उस दिन की स्टडी सर्किल का एक अन्य असर मेरे ऊपर यह हुआ कि हिन्दी विभाग में काशीनाथ सिंह एक ऐसे लेखक हैं जिनका लिखा हुआ छपता रहता है और जिनका लिखा हुआ छपा करता है, वे तो बहुत बड़े लोग हेाते हैं। मैंने ऐसे किसी आदमी को करीब से नहीं देखा था। ओम प्रकाश द्विवेदी उस समय विभाग मंे ही रिसर्च स्कालर थे, मैंने उनसे पूछा-” काशीनाथ सिंह आपको पहचानते हैं क्या?”

और तभी एक दिन पहली बार। हिन्दी विभाग के सामने वाले चौराहे पर पेड़ के नीचे जो पान की दुकान थी, वहीं काशीनाथ जी चौथीराम जी के साथ खड़े थे। द्विवेदी जी मुझे लेकर गये और उन्होंने काशीनाथ जी को नमस्ते किया। काशीनाथ जी ने उन्हें कोई तवज्जो नहीं दी। नमस्कार का जवाब भी नहीं दिया और दूसरी ओर जाकर खड़े हो गये। मेरा मन अरुचि से भर गया। बहुत बाद में पता चला कि काशीनाथ जी नफरत की हद तक ओम प्रकाश द्विवेदी से चिढ़ते हैं। एक दिन गोदौलिया से लौटते हुए अचानक मैंने देखा कि लोलार्क कुण्ड वाली गली में सामने सीताराम वाली बर्फी की दुकान पर श्रीकान्त, टुन्ना, चौथीराम यादव और काशीनाथ सिंह आपस में कोई बात करते हुए खूब हंस रहे हैं और सबके हाथ में बर्फी के दोने हैं। यह मेरे लिए विस्मयकारी घटना थी। जहाँ तक मैं जानता था टुन्ना और श्रीकान्त घोर नक्सलवादी क्रान्तिकारी थे और वह दोनों स्टडी सर्किल में थे। आपस की बातचीत में उन्हें संशोधनवादी, सुविधा परस्त, तिकड़मी और सोवियत संघ के एजेन्ट के रूप में बताया करते थे। एक सच्चे क्रान्तिकारी का फर्ज होता है कि ऐसे लोगों से दूर रहें, नफरत करे! और यह दोनों यहाँ इनके साथ इस तरह घुलमिल कर बातेें कर रहे हैं। साथ-साथ मिठाई खा रहे हैं। मैं भौंचक था।

हिन्दी विभाग मंे शुक्ल जी का जो ठीहा था उसमें ओम प्रकाश द्विवेदी, अरविन्द चतुर्वेद, श्रीकान्त और टुन्ना आदि-आदि के साथ मैं भी एक स्थायी सदस्य था। यह ठीहा काशीनाथ सिंह का विरोधी था और व्यवस्था-परिवर्तन के लिए नक्सलवादी क्रान्ति का समर्थक। मुझे बतौर रचनाकार काशीनाथ सिंह में दिलचस्पी थी। इस बीच मैंने उनकी ढेर सारी कहानियां और उपन्यास ’अपना मोर्चा’ पढ़ रखा था। मैं उनसे मिलना और परिचय करना चाहता था लेेकिन ठीहे की नजर में संदिग्ध न हो जाऊँ, इसका भय और अपरिचय की झिझक। ठीहे पर अक्सर उनकी चर्चा होती थी और इस तरह, इस रूप मंे कि नम्बर एक, वह नामवर सिंह के भाई हैं। नामवर सिंह ने जबरदस्ती उन्हें कथाकार बना रखा है। नम्बर दो, विभागीय राजनीति में माहिर और तिकड़मी आदमी हैं। नम्बर तीन, जातिवादी हैं। नम्बर चार, चौथीराम यादव उनके सलाहकार हैं। (विषयान्तर होकर एक बात बता दूं कि हिन्दी कथा-साहित्य में ज्ञानरंजन और काशीनाथ सिंह का नाम जिस तरह साथ-साथ लिया जाता है, उसी तरह बनारस में काशीनाथ सिंह का जिक्र आते ही लोग अपने आप चौथीराम जी का नाम लेने लगते हैं)। हर आफत-विपत में साथ-साथ, लेकिन शाम को सड़क पर टहलते हुए आगे-पीछे पचास गज की दूरी बनाये रखते हैं। यह सम्भव नहीं है इस सृष्टि में कि एक का दुश्मन दूसरे के करीब भी फटक सके। वैसे चौथीराम जी अजातशत्रु हैं। उनका अपना कुछ नहीं है। न दोस्त, न दुश्मन। यह सारा कुछ काशीनाथ जी ने उनके हत्थे मढ़ रखा है। काशीनाथ जी की जिन्दगी में सबका विकल्प है लेकिन चौथीराम जी का नहीं। जब कई दिन बीत जायंेगे और चौथीराम जी दिखायी नहीं देंगे तो काशीनाथ जी पता करते हैं। पता चलेगा कि मकान बन रहा है और चौथीराम जी उसी में व्यस्त हैं। अभी-अभी एक ट्राली सीमेन्ट और सरिया लिये जा रहे थे। काशीनाथ जी मिलने पर पूछेंगे-” आप मकान बनवा रहे हैं क्या?” चौथीराम जी कुछ याद करते हुए अनिश्चय की सी मुद्रा में जवाब देते हैं-” हां भाई, कुछ मिस्त्री-उस्त्री तो घर पर दिख रहे थे। अब मुझे बहुत पता नहीं है।”

“आपके कुल कितने बेटे हैं चौथीराम जी?” -काशीनाथ सिंह झल्लाकर पूछेंगे। चौथीराम जी उसी मुद्रा में-” एक बड़ा वाला है। एक उससे छोटा और एकाध और हैं। तीन या शायद चार हैं।”

ठीहे पर अक्सर यह चर्चा होती रहती कि इसी चौथीराम के साथ मिलकर काशीनाथ सिंह षड्यंत्र रचा करते हैं। लेकिन जिस तरह गंगा और शिव के बगैर बनारस की कल्पना नहीं की जा सकती, उसी तरह काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में काशीनाथ सिंह की चर्चा चौथीराम यादव के बगैर संभव नहीं है। उन दिनों मैं अक्सर शाम को अस्सी चौराहे पर जाया करता था। दीक्षित जी की पत्रिका वाली दुकान पर काशीनाथ जी के साथ चौथीराम जी और कुछ अन्य लोग खड़े बातें करते दिखायी देते, ज्यादा से ज्यादा मैं चौथीराम जी को नमस्ते करके लौट आता था। मुझे विश्वास नहीं था कि काशीनाथ जी मुझे पहचानते होंगे। उन दिनों नक्सलवादी विचारधारा का पहला खुला साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठन हिन्दी भाषी प्रदेश में ’राष्ट्रीय जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा’ नाम से गठित होने की प्रक्रिया में था। तैयारी जोर-शोर से चल रही थी। आन्ध्र प्रदेश से ज्वालामुखी, गोरखपुर से लाल बहादुर वर्मा, दिल्ली से शम्शुल इस्लाम, कलकत्ता से परशुराम और पंचदेव और इसी तरह देश के अलग-अलग शहरों से ढेर सारे नक्सलवादी विचारधारा के संस्कृति-कर्मी बनारस आया करते थे। कम्यूनिस्ट लीग ऑफ इंडिया (नक्सलवादियों का एक ग्रुप) इस संगठन की निर्माण प्रक्रिया में जुड़ा हुआ था। हम लोग उसकी मीटिंगों में जाया करते थे। बैठक खत्म होने के बाद अक्सर दूसरे शहरों से आये हुए लोग काशीनाथ सिंह के बारे में पूछते। ’सुधीर घोषाल’ और ’अपना मोर्चा’ का लेखक उनका अपना लेखक था। लेकिन शुक्ल जी का विभागीय विवाद और चिर-परिचित मुद्रा-” अरे भाई, बड़े खतरनाक लोग हैं।”

“आखिर कोई तो बात है, बाहर से लोग आते हैं तो काशीनाथ सिंह को ही पूछते है।” -एक दिन लंका से गुजरते हुए मैंने श्रीकान्त से पूछा। “आपको साहित्य की रत्ती भर भी समझ है, या नहीं” -श्रीकान्त ने मुझे घूरा-” काशीनाथ सिंह साठ के बाद के सबसे बड़े कहानीकार हैं हिन्दी में।”

श्रीकान्त दुनिया को अपनी नजर से और अपने ढंग से देखता था। आज किसी चीज को दुनिया में अद्भुत और दूसरे दिन उसी को कूड़ा भी कह सकता था। उस दिन वह काशीनाथ-महत्व पर धारा प्रवाह बोल रहा था।

और फिर एक दिन श्रीकान्त और टुन्ना के साथ मैं भी लोलार्क कुण्ड वाले घर पर गया। काशीनाथ सिंह उन दिनों वहीं रहते थे। गंगा के एकदम किनारे एक पुरानी दुछत्ती। बगल में पीपल का पेड़। ऊपर परिवार रहता था। नीचे एक दरवाजा। बगल में एक तरफ जीना और दूसरी तरफ बाथरूम था। उसके बाद एक कमरा और फिर उसके बाद दूसरा कमरा। जगह-जगह से दरकी दीवारों को अस्त-व्यस्त ढंग से लगी नयी-पुरानी किताबों ने टेक दे रखा था। जब हम लोग पहंुचे तो शाम हो रही थी। काशीनाथ सिंह कुछ लिख रहे थे। उन्होंने कागज-कलम एक ओर रख दिया। श्रीकान्त ने पूछा-” डाक्साब, कोई नयी कहानी लिख रहे हैं क्या?”

वह बात को टाल गये। “और टुन्ना, महेश्वर के क्या हालचाल हैं?” उन्होंने पूछा।

टुन्ना उनके लिए महेश्वर का छोटा भाई था। और महेश्वर काशीनाथ सिंह का सबसे प्रिय और मेधावी स्टूडेन्ट मित्र। वह टुन्ना से उसी तरह व्यवहार करते थे। श्रीकान्त अपने बाप से भी बराबरी के स्तर पर बातचीत करता था। उसके लिए यह सह्य ही नहीं था कि टुन्ना जैसी नाचीज से काशीनाथ सिंह बात करें और वह चुपचाप बैठा रहे। उसने ’जनवादी’ लेखन कितना जनवादी?’ लेख पर बात शुरू कर दी। “और तो सब ठीक है डॉक्टर साहब, इस शहर में और हिन्दी विभाग मंे एकमात्र आप ही हैं जिसे देश भर में जाना जाता है।” उसने काशीनाथ सिंह के सामने उनकी तारीफ शुरू की। जो भी श्रीकान्त को राई-रत्ती जानता होगा, वह समझ जायेगा कि उस समय वह दिल की गहराई से उनकी सिर्फ तारीफ कर रहा था, कोई चाटुकारिता नहीं। दरअसल, वह जिस समय जो कहता था, उस समय वह उसी बात को दिल से सच मानता था।

काशीनाथ सिंह थोड़ी देर तक श्रीकान्त और टुन्ना से बातें करते रहे। उनकी आदत है, घर आये लोगों की पूरी बात सुन लेने के बाद-” अच्छा तो चलिए। सड़क पर चलकर पान खाते हैं।” और फिर पान लगने तक यूं ही दो-चार बातें करने के बाद वहीं से लोगों को टरका देंगे।-” फिर कभी” -उन्होंने श्रीकान्त से कहा।

“डॉक्टर साहब, यह देवेन्द्र है। बहुत अच्छी कविताएं लिखता है” -श्रीकान्त ने पहली बार मेरा परिचय कराया-” आपसे मिलना चाहता था।”

“ठीक है।” -काशीनाथ सिंह ने पान वाले को कुछ सिक्के देते हुए मेरी ओर देखा और बिना किसी नोटिस के अपनी गली की ओर मुड़ गये।

-यह आदमी तो बहुत अहमी है-मैंने काशीनाथ सिंह के बारे में सोचा और श्रीकान्त से पूछा-” यह बहुत बड़े रचनाकार हैं क्या?”

श्रीकान्त बहुत विश्वास के साथ मुझे लेकर उनके घर गया था। उनका यह व्यवहार उसे भी खला। उसने टुन्ना की ओर देखा और गुनगुनाना शुरू किया-

“मुसईचा हैं स्वयं, स्वयं ही भोला बाबू

लाल किले का बाज हो गया है, बेकाबू।

ना जनता की बात है, ना जनता का साथ,

सिर्फ़ लफंगों की कथा लिखते काशीनाथ।”

इसी बीच धूमिल की चौवालीसवीं वर्षगांठ पर बच्चन सिंह के बड़े पुत्र सुरेन्द्र प्रताप सिंह ने बनारस के डायमंड होटल में गोष्ठी आयोजित की। मैंने उस गोष्ठी के अभिजात आयोजन पर एक आलोचनात्मक रपट ’दिनमान’ में भेजी। रपट छपने के बाद मैंने सोचा शायद काशीनाथ सिंह को यह रपट अच्छी न लगे। लेकिन विभाग के सामने पान की दुकान पर वह खड़े थे, उन्होंने मुझे बुलाया और रपट के लिए पीठ ठोकी। एक अनोखी आत्मीयता की धमक मेरी रीढ़ मंे कई दिनांे तक बजती रही। यही मेरा उनसे पहला परिचय था। अब मैं किसी ओम प्रकाश, श्रीकान्त या टुन्ना का मुहताज न रह गया। अब मैं उन्हें कहीं भी नमस्ते कर सकता था। अगर वह अकेले कहीं जा रहे हैं तो मैं भी साथ हो लेता था।

एक दिन मैंने उन्हें सूचना दी-” डॉक्टर साहब, हम लोगों ने विभाग में मुक्तिबोध पर एक गोष्ठी आयोजित की है। आप जरूर आइयेगा।”

हम लोग रामनारायण शुक्ल से जुड़े थे। काशीनाथ सिंह उनकी किसी गोष्ठी में नहीं आते थे। वह टाल गये-” आज बच्चन सिंह के यहाँ जाना है।” वह गोष्ठी एक तरह से नामवर सिंह के खिलाफ थी। जितने भी वक्ता एक-एक कर खड़े हुए बोलने के लिए, उन सबने नामवर सिंह की स्थापना-’अस्मिता की खोज’ की धज्जियां उड़ा दीं। बहुत बाद में जब मैंने ’कविता के नये प्रतिमान’ में ’अंधेरे में पुनश्च’ पढ़ा तो पाया कि वे स्थापनाएं तो उसमें कहीं हैं ही नहीं। किंवदन्तियों, दन्तकथाओं और श्रुत परम्पराओं के इस देश में जो वेदों का विरोध करते हैं वे भी, और जो समर्थन करते हैं वे भी, इस एक बात में जरूर समान होते हैं कि दोनों पढ़ते नहीं।

“कैसी रही गोष्ठी आप लोगों की” -काशीनाथ सिंह ने दूसरे दिन लंका की तरफ जाते हुए मुझसे पूछा। उन्हें पूरी सूचना पहले से थी, वह सिर्फ मुझसे जानना चाहते थे। मैंने पूछा-” डॉक्टर साहब, आपकी मुक्तिबोध के बारे में क्या राय है?”

काशीनाथ सिंह थोड़ी देर तक चुपचाप चलते रहे। फिर उन्होंने विषय को थोड़ा सा घुमा दिया-” मैं राजनादगाँव गया था। इंदिरा कला-संगीत विश्वविद्यालय के डॉक्टर रमाकान्त श्रीवास्तव भी साथ थे। उन्होंने उस कस्बे से दूर एकान्त में बनी बावड़ी, चक्करदार सीढ़ियां, वगैरह-वगैरह जो मुक्तिबोध की कविताओं में जगह-जगह मिलने वाले बिम्ब हैं, मुझे दिखाये। वहां एक खंडहरनुमा पुरानी और विशाल हवेली है। उसी हवेली की चक्करदार सीढ़ियों से गिर कर मुक्तिबोध को ’ब्रेन हैमरेज’ हुआ था और फिर उनकी मृत्यु हुई।” आप उनसे किसी कविता, कहानी पर बात करना चाहेंगे तो वह उस कवि या कथाकार के किसी जीवन-दृष्टान्त की चर्चा करने लगेंगे। और फिर चलते-चलते रास्ते में एक जगह उन्होंने मंूगफली खरीदी और मेरी ओर बढ़ाकर उन्होंने बताया-” एक बार होशंगाबाद से माखनलाल चतुर्वेदी राजनादगाँव गये हुए थे। वह मुक्तिबोध के यहां ठहरे थे। कविता की एक छोटी-मोटी गोष्ठी आयोजित की गयी थी। एक युवा कवि ने अपनी एक कविता उन्हें सुनाई। वह कविता चतुर्वेदी जी को बहुत अच्छी लगी। कविता मुक्तिबोध को भी अच्छी लगी थी। लेकिन-पार्टनर, आप की पालिटिक्स क्या है? मुक्तिबोध ने उस कवि से प्रश्न किया। चतुर्वेदी जी झल्ला उठे-भई गजानन, पालिटिक्स तो जो है सो है, लेकिन जरा तुम भी बताओ कि तुम्हारी कविताओं में जो चेहरे हैं, जो पात्र हैं, वे किस स्कूल में टीचर हैं? किस आफिस में बाबू हैं? उन सबके माँ-बाप क्या करते हैं? गांव के हैं या शहर के हैं? उनकी कितनी बहने हैं जिनकी शादियाँ नहीं हो रही हैं? उनके कितने भाई या बेटे बेरोजगार हैं? उनके घर मंे मेहमानों के लिए दोपहर का भोजन, चावल-चीनी, आटा-दाल या मुहल्ले में दुकान वगैरह है कि नहीं? ठीक है, व्यवस्था आतंककारी है। अंधेरी गलियों में लैंप पोस्ट की छाया में चारों तरफ जासूस खड़े टोह ले रहे हैं लेकिन इस सबसे ज्यादा लोग हंसते-बोलते और चुहलबाजी भी तो करते हैं। और यह सारे लोग तुम्हारी कविताओं में कहाँ हैं।” -काशीनाथ सिंह लंका से अस्सी की तरफ बढ़ते हुए बोल रहे थे और मैं सुन रहा था। उन्होंने बताया कि-” मैं नहीं जानता कि मुक्तिबोध और माखनलाल चतुर्वेदी कभी मिले थे या नहीं। कविता सुनाने वाली यह घटना कहीं घटी थी भी या नहीं, लेकिन यह बात अक्षरशः सत्य है।”

काशीनाथ सिंह मेरे अध्यापक और गुरु रहे हैं। वह कैसे अध्यापक थे, बता पाना मेरे लिए मुश्किल है। लेकिन मेरे गुरु ने मुझे इसी तरह पढ़ाया। एक ऐसी पढ़ाई जिसकी परीक्षा देनी शेष है। हाँ, हिन्दी विभाग में उनका सिर्फ फ्लैप पढ़ा जा सकता था। अगर पूरी किताब पलटनी है तो आपको उनके साथ अस्सी और लंका का खूब चक्कर मारना होगा। बीच-बीच में अपमान की हद तक उपेक्षा भी सहनी पड़ेगी। जाड़े की लम्बी रातों में जब सारा शहर कोहरे की सफेद चादर ओढ़े उकड़ू पड़कर सो जाता तब धूमिल के साथ वह सिनेमा देख कर लौटते हुए देर तक सड़क पर घूमा करते थे। धूमिल के बाद बनारस शहर में वह मित्र-विहीन और अकेले हो गये। महेश्वर और जी.डी. सिंह माओवादी विचारधारा के थे। उन लोगों के साथ वह रात-रात भर जाग कर दीवारों पर नारे लिखा करते थे और पोस्टर चिपकाया करते। वह मस्त और फक्कड़ स्वभाव के थे। उनके स्वभाव में एक रचनाकार की आवारगी कूट-कूट कर भरी थी लेकिन-” छोटा भाई होेने का सबसे बड़ा सुख यह होता है कि अपनी और घर की भी सारी जिम्मेदारियां बड़े भाइयों के भरोसे छोड़कर पैरों को मन से जोड़ दे और मन को आकाश की ऊँचाइयों और हवाओं में खुला छोड़ने का भरपूर अवसर मिल जाता है।” लेकिन उनकी जिम्मेदारियांें में इतना बड़ा परिवार कि जिसका जिक्र अब इसलिए भी उचित नहीं हेागा कि उस परिवार ने उनसे कुछ नहीं लिया। उनकी पत्नी एक प्राइवेट स्कूल में मामूली पैसे पाकर भी अपना खर्च उठाती रहीं और साथ ही उन्होंने पाँच छोटे-छोटे बेटे-बेटी को बखूबी पाला-पोसा। कुदरत का न्याय कि तीन बेटियों की शादी का सारा तनाव जोड़ दिया जाय तो प्लेटफॉर्म पर सही समय से आ रही किसी ट्रेन की प्रतीक्षा से ज्यादा नहीं।

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में लम्बे समय तक लेक्चरर, रीडर, प्रोफेसर और फिर विभागाध्यक्ष होने तक उनकी समूची उपलब्धियां नौकरी के प्रथम दशक में ’परिवेश’ का सम्पादन करते हुए सामने आयीं। महेश्वर महान, कुमार संभव, प्रभुनाथ झिंगरन आदि-आदि की पैदावार वहीं हुई थी। उस समय वह विश्वविद्यालय की युवा रचनाशीलता के केन्द्र में थे। उन्होंने चौथीराम यादव और बलराज पाण्डेय से जो कुछ भी संभव हो सका लिखवाया। हिन्दी विभाग में नियमित उपस्थिति और भक्ति-काव्य से लेकर छायावाद तक की कविताओं की सन्दर्भ सहित व्याख्या का काम चौथीराम यादव और कुमार पंकज के भरोसे छोड़कर काशीनाथ सिंह सुर्ती ठोकते हुए कुछ दूसरी बातें सोचा करते। किसी छात्र की एकदम निजी बात गौर से सुनते हुए बीच में अचानक उठ कर थूकने चले जाते और इतनी देर बाद लौटकर आते कि तब तक वह सीरियस बात दम तोड़ देती। घर की एकदम गम्भीर समस्याओं में भी उनकी यही शैली।

लोलार्क कुण्ड का अपना पुराना मकान छोड़कर जब वह विश्वविद्यालय परिसर में रहने चले आये तो मेरा अक्सर उनके घर आना-जाना शुरू हो गया। शाम को हम लोग साथ ही टहलने जाते थे। इसी बीच उन्होंने ’सदी का सबसे बड़ा आदमी’ संग्रह की कहानियाँ लिखनी शुरू की। मैं उन समूची कहानियों का न सिर्फ प्रथम श्रोता बल्कि उनकी रचना-प्रक्रिया का अक्षर-अक्षर गवाह बना। उनका रफ, फाइनल और प्रकाशित रूप देखा करता। वहीं मेरे भीतर कहानी लिखने की इच्छा पैदा हुई। ’पहल’ के लिए उन्होंने लिखी-’कहानी सराय मोहन की’। मैंने थोड़ा सा तुक बदल दिया शीर्षक का, और पहली कहानी लिखी-‘कविता शहर कोतवाल की’। यही शीर्षक बाद में इस तरह बना कि-‘शहर कोतवाल की कविता’। जिस समय काशीनाथ ंिसंह पर लिखने का मूड सवार होता है, वह महीनों लगातार लिखते चले जाते हैं। बल्कि कुछ इस तरह कि एक कहानी के पूरा होने से पहले दूसरी कहानी की रचना-प्रक्रिया शुरू हो जाती है। वह लगातार चार-पाँच कहानियाँ लिख जाते हैं। उस समय वह सबसे ज्यादा आत्मविश्वास से भरे किशोर प्रेमी की तरह उन्मुक्त, निश्छल और प्रफुल्लित होते हैं। अपने पुराने दिनों की खूब चर्चा करते हैं। धूमिल, नागानन्द, महेश्वर आदि-आदि की। वह कभी किसी के मामले मंे दखल नहीं देते। आप कैसे सोचते हैं, किसके साथ रहते और कैसे जीते हैं, यह सब आपका विषय है उनका नहीं। आप लेखन को लेकर कितने सीरियस हैं? आपसे उनका सम्बन्ध बहुत कुछ इसी बात पर निर्भर करता है। आप कोई कविता या कहानी उन्हें सुनायें, उनकी राय बहुत संक्षिप्त होगी। पहली बात तो यही कि यह रचना है भी या नहीं। मैंने अपनी कहानी सुनाई-‘तीसरा अपराध’। उन्होंने कहा-” असह्य है भाई! कहानी और भाषा की तो आपको रत्ती भर समझ नहीं। पाण्डेय जी, उन्होंने बलराज पाण्डेय से कहा-आप जरा इनकी भाषा सुधारें।” मैं कहानी समेट रहा था और वह उपेक्षा से उठकर चल दिये। भाषा के प्रति लापरवाही वह सहन नहीं कर पाते। उनसे जिन्दादिल भाषा उनकी पीढ़ी मंे किसी के पास नहीं है। भोजपुरी इलाके के किसानों जैसे ठेठ मुहावरों से रची-बसी भाषा। अश्लील चुटकुले, ननद-भौजाई की छेड़छाड़ और बारातियों की चुहलबाजी जैसे अनेकानेक रंग लिए हुए उनकी भाषा जब अपने मूड में होती है तो गुरुदेव बच्चन सिंह से लेकर मधुकर सिंह या मित्र कालिया तक चाहे जिसका स्मरण कर दें, सबके सब आह! कर उठते हैं। वह घोषित रूप से मार्क्सवादी हैं लेकिन मैंने उनके मुँह से कभी भी डांगे, हरिकिशन सिंह सुरजीत या ज्योति बसु की तारीफ नहीं सुनी। भाजपाइयों के लिए नफरत से भरे हुए वे लालू यादव, महेन्द्र सिंह टिकैत या देवीलाल की तारीफ करते हुए मिल जायेंगे।

अगर उनके घर के एक-एक सदस्य का ग्राफ लिया जाय तो शायद मेरा पलड़ा भारी पड़ जाय लेकिन उनका सबसे प्रिय महेश्वर था। वह अपने से जुड़े लोगों में जब भी महेश्वर का जिक्र करते, अत्यधिक आदर और आत्मीयता पूर्वक। महेश्वर की मृत्यु और कुमार संभव की आत्महत्या के बाद उन्होंने ’मुसाफिर खाना में चार दिन’ शीर्षक से संस्मरण लिखा। उस संस्मरण में उन्होंने महेश्वर की तुलना मंे कुमार संभव का व्यक्तित्व बड़ा बताया था। जितनी बार और जिन-जिन क्षणों मंे मैंने उनके द्वारा महेश्वर का जिक्र जिस रूप में सुना था, वह उस संस्मरण में नहीं था। अगर वह संस्मरण महेश्वर के मृत्यु-पूर्व साक्षात्कार की प्रतिक्रिया मंे न लिखा गया होता तो निश्चित ही वैसा नहीं होता। महेश्वर ने अपनी मृत्यु से पहले बनारस के दिनों की बाबत और काशीनाथ सिंह पर केन्द्रित एक लम्बा साक्षात्कार ’जनमत’ में दिया था। अगर यह मान लिया जाय कि वह वाकई महेश्वर का ही साक्षात्कार था, जबकि नक्सलवादियों के विनोद मिश्र ग्रुुप का इतिहास इस बात का गवाह है कि षड्यन्त्र रचने, व्यक्ति-निन्दा, चरित्र हनन आदि मंे यह आर.एस.एस. से होड़ लेता है; तो भी इन सारी बातों के बावजूद काशीनाथ सिंह महेश्वर से प्यार करते थे। शायद ही उन्होंने कभी महेश्वर से सहमति की उम्मीद की हो, ऐसी उम्मीद अपने सम्बन्धों में वह किसी से नहीं करते। लेकिन निश्चित ही उन्हें महेश्वर से अशिष्टता की उम्मीद नहीं थी। महेश्वर का वह साक्षात्कार अविवेकपूर्ण भाषा की धृष्टता और अनर्गल तथ्यों का मनगढ़न्त प्रलाप था। काशीनाथ सिंह दिल से आहत थे। वहीं से उन्होंने महेश्वर के समूचे व्यक्तित्व का आकलन किया।

बाद में कहानी लिखना स्थगित करके काशीनाथ सिंह ने संस्मरण लिखना शुरू कर दिया। इस समय वह विश्वविद्यालय परिसर में ही लेकिन दूसरी जगह रहने लगे थे। उनके घर से थोड़ी ही दूरी पर सर सुन्दर लाल अस्पताल का पोस्टमार्टम परिसर था। हजारी प्रसाद द्विवेदी और त्रिलोचन शास्त्री से लेकर बच्चन सिंह तक उन्होंने ढेर सारे लोगों की चीरफाड़ शुरू की। व्यक्ति तो व्यक्ति, चौराहे और गलियाँ भी इनकी कलम से अछूती न रहीं। संस्मरण जैसी बेजान और निर्जीव विधा इनकी भाषा के स्पर्श से सुबह की टटकी धूप सी खिलखिला उठी। हर अन्तरिम रपट के बाद कुहराम मच जाता। कुछ लोग न्यायालयों की ओर भागे और कुछ अस्पतालों की ओर।

बच्चन सिंह ने उन्हें बार-बार कोंच कर अपने ऊपर संस्मरण लिखवाया था। जब ’हंस’ में ’गुरुदेव को अंग’ आया तो पूरी तरह क्षत-विक्षत। बोलचाल बंद। किसी ने बच्चन सिंह को गुमनाम फोन किया-” अरे बुढ़वा मंगल। हंस तुमने पढ़ा कि नहीं? नहीं पढ़े तो पढ़ लो। इसी लायक हो।” बच्चन सिंह कराह रहे थे। क्या जवाब देते? जाहिर है अगर शैलेन्द्र फोन की बात प्रचारित नहीं करता तो बच्चन सिंह अपने बारे मंे दूसरे से क्यों कहते? बच्चन सिंह से काशीनाथ सिंह के घरेलू सम्बन्ध हैं। माँ जी को जब मालूम हुआ कि इनकी वजह से बच्चन सिंह नाराज हैं तो सवेरे-सवेरे काशीनाथ सिंह अंकुरित मूँग और चना चबा रहे थे-बोलीं-” इतने बूढ़े आदमी हैं। आपको यह सब लिखने की क्या जरूरत थी?”

बच्चन सिंह की नाराजगी से काशीनाथ सिंह भी दुःखी थे लेकिन कुछ दूसरी बातें सोच रहे थे। मैंने कहा-” आप भी डॉक्टर साहब पर एक संस्मरण लिख दीजिए।”

“मैं लिख दूंगी तो इनकी सब पोल पट्टी खुल जायेगी।”

डॉक्टर साहब उठकर दूसरी तरफ चल दिये। वह बोलीं-” अपनी बार भागने लगते हैं।”

शिकायतों की नोंक-झोंक के बीच प्रेम, उल्लास और आत्मीयता से भरा यह परिवार मेरा घर बन गया है। बेरोजगारी के दिनों में जब सारे आत्मीय और रक्त सम्बन्ध तिल-तिल कर टूट रहे थे, तभी से मैं यहाँ बस गया। भाई-बहन सबके बीच। यहीं से पैसे लेकर मैं इंटरव्यू देने जाया करता। हमारे इन सम्बन्धों में डॉक्टर साहब कहीं नहीं होते हैं। हम लोग कभी-कभी आपस में बैठकर उनकी शिकायतें भी बतिया लेते। व्यावहारिक जीवन की समस्याएं, विभागीय विरोध या ऐसी ही छोटी-छोटी बातें उन्हंे विचलित कर देतीं। ऐसे मामलों में दुविधाग्रस्त और कमजोर पड़ जाते। हास्यास्पद अनिर्णय की स्थितियां घेर लेती हैं।

पतन के इस चतुर्दिक माहौल में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय और उसमें भी हिन्दी विभाग जैसा पतन शायद ही कहीं देखने को मिले। हजारी प्रसाद द्विवेदी और नामवर सिंह के प्रति किये गये अपराधों की पाप छाया ने पूरे विभाग को आज पाखंड, आडम्बर और परनिन्दा-रस का महाशाप दे दिया है। एक कोढ़ी ब्राह्मण का दुर्भिक्ष अहंकार बना यह विभाग कामातुर ययाति का सुख भोगने में आकंठ मग्न है। काशीनाथ सिंह बार-बार प्रतिज्ञा करते कि विभाग की इस गन्दी राजनीति से थोड़ा दूर रहकर कुछ लिखने-पढ़ने का सार्थक काम करूँगा लेकिन एक हफ्ते बाद ही यह समीकरण, वह गणित, कल के दुश्मन आज के दोस्त, वहाँ क्या बात हो रही थी? पाठ्यक्रम समिति की बैठक में किसने किस राजनीति के तहत क्या कहा, आदि-आदि में घिर जाते और ऊबने लगते। उनके घर की अन्तर्संरचना में उनके इन समीकरणों की भर्त्सना होती थी। प्रलय में भी बचा रहा खैरा पीपल की तरह एकमात्र चौथीराम उनके साथी और शुभचिन्तक बने रहते हैं।

हिन्दी या अन्य दूसरी भाषाओं का आलोचना शास्त्र भले ही एक समय विशेष में किसी एक विचारधारा से प्रभावित होकर लिखा जाता रहा हो, रचना-साहित्य और पाठकीय अभिरुचियां इस दबाव से हमेशा मुक्त रहती हैं। नामवर सिंह की स्वीकारोक्ति के अभाव में भी शिव प्रसाद सिंह की कहानियों का विशाल पाठक वर्ग था। हम लोग भी बनारस में रहते हुए अक्सर ही उनसे मिलने जाया करते। उनकी बातचीत का प्रसंग हजारी प्रसाद द्विवेदी से शुरू होकर बेवजह ही नामवर सिंह की ओर मुड़ जाता, और वह नामवर भर्त्सना शुरू कर देते। रवीन्द्रपुरी कालोनी की सड़क पर एक शाम उन्होंने मुझसे कहा कि मैं भी प्रगतिशील हो जाता, लेकिन वहाँ नामवर थे। एक कुंठा हमेशा ही उन्हें घेरे रहती थी। मरते समय तक शायद वह इस बात से मुक्त नहीं हो सके जबकि बनारस में शिव प्रसाद जी को बहुत बड़े साहित्यकार का सम्मान प्राप्त था। काशीनाथ सिंह के भीतर भी उन्हें लेकर कुछ वैसी ही बे-वजह की गाँठ थी। संस्मरणों में विषयान्तर हो-होकर वह बार-बार उन्हें खींच लाती।

एक बार काशीनाथ सिंह के ड्राइंग रूम में ढेर सारे लोग नीचे जमीन पर बैठे हुए थे। नामवर जी तख्त पर घुटनों के बल बैठ कर दाँत खोदते हुए सबको सुन रहे थे। प्रसंग शिव प्रसाद सिंह को यू.जी.सी. द्वारा सौंपी गयी पाठ्यक्रम समिति के आर्थिक घोटालों का चल रहा था। अचानक नामवर जी उठ खड़े हुए। भीतर आँगन की ओर जाते हुए उन्होंने कहा-” भाई, आप लोग हैं। काशीनाथ जी भी हैं। यहाँ क्या हो रहा है, आप सब लोग बेहतर और विधिवत् जानते होंगे। जहाँ तक मेरा अनुमान है शिव प्रसाद जी बौड़मपना कर सकते हैं, किसी तरह का आर्थिक भ्रष्टाचार नहीं।” वह भीतर चले गये। बात रुक गई।

हिन्दी विभाग के इस परिवेश ने ही दो समान धर्माओं को एक-दूसरे से दूर रखा। काशीनाथ सिंह का रचना-संसार अस्सी चौराहे से ज्यादा जीवनी शक्ति अर्जित करता है। वकील साहब उनकी कहानियों के प्रथम श्रोता होते हैं। विभाग में बावजूद चौथीराम यादव के उनका कोई मित्र नहीं। मैं कभी-कभी सोचता हूूँ कि आदमी की सबसे बड़ी ट्रेजेडी क्या है? यह कि उसका कोई मित्र न हो? या यह कि सिर्फ मित्र ही मित्र हों? मैंने कभी किसी को काशीनाथ सिंह की प्रशंसा करते नहीं सुना। उन्होंने अस्सी पर संस्मरण लिखे। जिसका जिक्र किया वह उन्हंे बाँस लेकर खोजता और जिसका उल्लेख नहीं किया, वह उनकी रचना को दो कौड़ी का बताते हुए थूः थूः कर रहा था। उन्होंने ’किस्सा साढ़े चार यार’ लिखा। और यारों ने आरोप लगाये कि इसमें उनकी छवि लफंगों जैसी की गई है। और जैसा कि बीस साल पहले श्रीकान्त ने शुक्ल जी के ठीहे पर मुझे बताया था-” सिर्फ लफंगों की कथा लिखते काशीनाथ।”

शुक्ल जी नक्सलवादी क्रान्तिकारी थे। वह लोग कहानियों में अपनी ही तरह का क्रान्तिकारी चरित्र चाहते थे। मुझे लगता है कि अगर अपने आसपास के क्रान्तिकारी चरित्रों पर काशीनाथ सिंह ने कहानियाँ नहीं लिखीं तो कम से कम आने वाली पीढ़ी के मोह-भंग को उन्होंने थोड़ी देर के लिए ही सही, लेकिन रोका। वरना एक ’लाल किले के बाज’ का हश्र तो सामने आ ही चुका था। दूसरा जो नहीं आया वह यह कि उसी शुक्ल जी ने ब्राह्मणवाद का सहारा लेकर विश्वविद्यालय अध्यापक संघ की राजनीति में प्रवेश किया। रीडर बने। ओजपूर्ण राष्ट्र-गीतों के गायक दिनकर आज गंगा के किनारे बैठ कर कामाध्यात्म की उर्वशी रच रहे हैं। श्रीकान्त जो हमेशा लाल सूरज का गीत गाता था, एक दिन हिरोइन की काली और अंधी गलियों में भटक-भटक कर मर गया। इन सबकी तुलना में काशीनाथ सिंह ने ऐसे लोगों को अपनी कहानियों और संस्मरणों के लिए चुना जो लोग अभिजात और कुलीन वर्ग में लफंगे माने जाते हैं। जो लोग परिवार के सुख-दुःख को भूलकर देश और दुनिया के बारे में सोचते और चर्चा करते हैं। उपभोक्तावादी समाज में जब लोग राई-राई, रत्ती-रत्ती टूट-बिखर रहे हैं तब ये लफंगे सारी दुनिया को ठेंगे पर रख कर मस्ती में गाये और जीये जा रहे हैं। काशीनाथ सिंह का मन ऐसे ही लोगों के बीच लगता है। जब वह ज्ञानरंजन, रवीन्द्र कालिया, दूधनाथ या कि त्रिलोचन के बारे मंे लिखते हैं तो कतई जरूरी नहीं कि वह सब सच हो। हां वह उनका अपना सच जरूर होता है। एक ऐसा सच जो उनकी परम आकांक्षा है, जो कभी बहुत पहले उनसे छूट गया था। वह जिन्दगी और चरित्रों की चर्चा मन से करते हैं, किताबों की कम। कविताओं में उनकी रुचि धूमिल या चन्द्रकान्त देवताले या कुछ अन्य समकालीन कवियों के अलावा नहीं है। वह निराला की तारीफ करते हैं लेकिन मैंने उन्हें ’राम की शक्ति पूजा’ या ’सरोज स्मृति’ पर बात करते नहीं सुना। वह प्रसाद जी के प्रशंसक हैं लेकिन ’कामायनी’ की चर्चा बचा जाते हैं। वह मैथिली शरण गुप्त को कवि नहीं, सूक्तिकार मानते हैं-” नर हो, न निराश करो मन को।” उनके लिए साहित्य की पहली शर्त है कि वह साहित्य हो। विचारधारा का अनुवाद नहीं साहित्य। वह साहित्य में ह्यूमर और विट का समर्थन करते हैं। जो बात उन्हंे पसन्द नहीं, उसका तार्किक प्रतिकार नहीं करते, सिर्फ कुछ संस्मरण, कुछ किंवदन्तियाँ सुनाकर उसका मजाक उड़ा देंगे। चेखव और तोलस्तोय उनके प्रिय रचनाकार हैं। गोर्की की भाषा को नापसन्द करते हैं। पचमढ़ी में आयोजित किसी वर्कशाप में उनके व्याख्यान का जिक्र करते हुए महेश कटारे ने बताया कि जब सारे लोग कमला प्रसाद जी के लम्बे, ऊबाऊ और दार्शनिक भाषण से क्षत-विक्षत हो गये थे तो काशीनाथ जी मंच पर आये। उन्होंने नये लिखने वालों को सावधान किया-” दर्शन सूखे होते हैं और जिन्दगी हरी।” फिर तो सारे नये लेखकों के सिर पर चढ़कर काशीनाथ सिंह का जादू बोलने लगा। देश के कोने-कोने में उनके पाठकों और प्रशंसकों की लम्बी सूची है। लोग बनारस आते हैं तो उनसे मिलने उनके घर जाते हैं। उन्हीं के घर पर मेरी पहली मुलाकात महेश कटारे से हुई थी। हरि भटनागर बनारस जाकर उनके घर पर ही ठहरा था। वह बाहर जितनी आत्मीयता दिखाते, घर पर वैसा व्यवहार नहीं कर पाते। हरि ने मुझसे पूछा-” क्या उनकी पत्नी रूखे स्वभाव की है? या वह पत्नी से डरते हैं?” मैं लोगों के बीच बैठकर काशीनाथ सिंह की शिकायतें सुना भी हूँ और बतियाया भी हूँ। लेकिन-” नहीं।” मैंने झट से कहा-” अगर उस घर में सबसे नेक दिल कोई है तो उनकी पत्नी। और अगर बुरा कहना ही मुनासिब हो तो मैं कहूंगा काशीनाथ सिंह।” लेकिन मैं देवेन्द्र, यह भी कैसे कह सकता। कोई भी बात कहने के लिए कोई तुक, कोई तर्क भी तो होना चाहिए।