कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना / जयप्रकाश चौकसे

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कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना
प्रकाशन तिथि : 11 जुलाई 2020


चरित्र अभिनेताओं की रोजी-रोटी टाइप कास्टिंग के कारण लंबे समय तक कायम रहती है। मसलन इफ्तेखार ने कई फिल्मों में पुलिस इंस्पेक्टर की भूमिका अभिनीत की। सिनेमा के साथ ही समाज में भी उनकी यह छवि बन गई। जब वे कार से कहीं जा रहे होते, तब ट्रैफिक पुलिस वाला उन्हें सेल्यूट देता था। नायक-नायिका उनकी भी लोकप्रिय छवियां बन जाती हैं। अधिकांश कलाकार अपनी छवि के गुलाम बन जाते हैं। राजनीति में भी छवि महत्वपूर्ण हो जाती है। नाना पलसीकर ने प्राय: उम्रदराज गरीब असहाय व्यक्ति की भूमिका अभिनीत की। एक फिल्म में उन्होंने धनाढ्य की भूमिका अदा की तो दर्शकों ने फिल्म अस्वीकार कर दी। मीना कुमारी ने ‘मिस मैरी’ फिल्म में हास्य भूमिका अभिनीत की, तो फिल्म असफल रही। वर्तमान में मात्र आमिर खान ही विविध भूमिकाएं करते हुए छवि दास नहीं हुए हैं। आयुष्मान खुराना, विकी कौशल व राजकुमार राव भी छवि दास नहीं है। मुंशी प्रेमचंद की कथा ‘बड़े भाई साहब’ का पात्र भी अनुशासित परिश्रमी व गंभीर रहने वाले छात्र की छवि प्रस्तुत करता है। वह अपने छोटे भाई के सामने एक आदर्श प्रस्तुत करना चाहता है। बड़ी जद्दोजहद के बाद भाई साहब भी अपना चोला उतारकर शरारत करते हैं व अन्य बच्चों जैसे कटी पतंग लूटने दौड़ते हैं। प्रेमचंद हमेशा सामयिक सिद्ध होते हैं। महान साहित्यकार की रचनाएं सभी जगह हर कालखंड में सराही जाती हैं।

एलिया कजान की रचना ‘द अरेंजमेंट’ का मुख्य पात्र एक कार दुर्घटना के बाद अस्पताल में इलाज करा रहा है। डॉक्टरों को आशंका है कि सिर पर लगी चोट से उसकी याददाश्त जा सकती है। वह आशंका का लाभ उठाकर स्मृति चले जाने का स्वांग करता है, तो उसकी तमाम धारणाएं धराशाई हो जाती हंै। उसके सुखी दांपत्य का खोखलापन उजागर हो जाता है। सारे रिश्ते-नाते ध्वस्त हो जाते हैं। उसकी कंपनी के सारे भागीदार एक-दूसरे के खिलाफ षड्यंत्र रच रहे हैं। दफ्तर में चापलूसी के लिए पैसे दिए जाते हैं। खंड-खंड विभाजित है, सारा कारोबार। ऐसे ही एक व्यक्ति परिवार के सदस्यों की आशाओं के अनुरूप आचरण करते हुए एक दिन महसूस करता है कि उसने अपने इर्द-गिर्द रेत के टीले खड़े कर लिए हैं। हवा के झोंके से टीले दरक जाते हैं और वह स्वयं को तन्हा पाता है। ऐसी तन्हाई में उसका व्यक्तित्व स्पात का बन जाता है।

बाबूराम इशारा की शबाना आजमी अभिनीत फिल्म ‘लोग क्या कहेंगे’ में एक स्त्री अपनी छवि को कायम रखने के लिए अपनों का कत्ल कर देती है। अपनी छवि बनाए रखने के लिए वह जुनूनी है। जीवन इस बात से नियंत्रित नहीं किया जाता है कि लोग क्या कहेंगे। इसी प्रक्रिया के चलते मनुष्य स्वयं से बहुत दूर चला जाता है और सबसे बड़े फासले बन जाते हैं। वर्तमान में वैचारिक संकीर्णता ने सर्वत्र मूर्खता रच दी है। मूर्खता को मौलिक अधिकार बना दिया है। इसलिए यह हर बात पर गर्व कर सकती है- अपनी अशिक्षा पर पराजयों से भरे इतिहास पर। भूख व दरिद्रता पर भी गर्व किया जाता है। स्वयं के शक्तिमान होने का भरम रचा जाता है। ड्रैगन के सामने आते ही गुब्बारे से हवा निकल जाती है। नट सम्राट हवा निकल जाने को भी अपनी अदा प्रचारित करने में जुट जाता है।

आखिर वे लोग कौन हैं, जो दूसरों के बंद दरवाजे के सुराख से झांकते हैं। बालकनी पर खड़े होकर दूसरों के अहाते पर नजर रखते हैं। इन लोगों की गिजा है, परनिंदा करना। कानाफूसी इनका शस्त्र है। अफवाह उड़ाना इनका काम है दरअसल ये लोग दयनीय हैं। हम अपने जीवन को किसी अन्य के विचारों के अनुरूप ढाल नहीं सकते। व्यक्ति को भीड़ का हिस्सा बनाने की चेष्टा की जाती है। हमारे शास्त्र कहते हैं कि ‘आत्मनं विद्धि’ स्वयं को जानने का प्रयास करो। मिर्जा गालिब ने राह दिखाई है,‘दूसरों से बहुत आसान है मिलना साकी, अपनी हस्ति से मुलाकात बहुत बड़ी मुश्किल है।’