कुछ भी तो रूमानी नहीं /मनीषा कुलश्रेष्ठ

Gadya Kosh से
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डायरी पलटती हूँ तो कुछ दिन और कुछ स्मृतियां उसमें दबी पड़ी हैं - “कैसे दिन हैं ये। चेतना पर ज़ोर डालूं तो शायद महसूस कर सकूं कि इन दिनों की तासीर कैसी है ठण्डी या गर्म! टहनियों से उखड़े दिन... सूखे भूरे पत्ते रास्तों पर बिछे रहते हैं...मौसम अलग होती दिशाओं के मुहाने पर खड़े अमलताश की कविताएं लिख रहे हैं। बढ़ती उमस से, असमंजस से, पतझड़ी पत्तों और अमलताश के पेड़ों से शहर पीला पड़ा हुआ है। कोई तो महक बच जायेगी इन दिनों की, स्मृतियों में?”

याद है वह दिन, जब तुम्हें आये हुए एक सप्ताह ही हुआ था... मुझे तुम्हारी उस समाधिस्थ मुद्रा पर प्यार आ रहा था। तुम नीचे बिछे गद्दे पर पैर मोड़ कर आंखें मूंदे बैठे थे। पेन खुला था, खूब सारे सफेद कागज़ बिखरे थे। चश्मा जेब में था। मुझे चुपचाप नाश्ते की प्लेट और कॉफी का मग रख कर, बिना व्यवधान डाले, नीचे को घूम कर जाती सीढ़ियों में उतर जाना था। मुझे पता था कोई नयी कहानी जन्म ले रही है। बहुत उत्सुकता हो रही थी कि पूछ लूं... किस विषय पर होगी यह कहानी? बहुत दिनों से प्रेम पर तुमने कुछ नहीं लिखा था। उसी पर तो नहीं? बहुत पहले जब तुम यहां नहीं आये थे, और अच्चन ने तुम्हारी कहानियां पढ़ने को दी थीं। उनके शब्दों में वे ` भीषण रूमानी कहानियां' थीं। मैं हैरान होती थी तुम्हारे लिखे गये प्रेम और देह के दर्शन पर... रूमानियत की दुखती - दुखाती भीषणता पर... तुम्हारी किताब के फ्लैप पर तुम्हारा एक श्वेतश्याम चित्र था... अनोखी अभारतीय गढ़न वाला चेहरा... खड़े - खड़े बाल...और तुम्हारी आंखों का हल्का रंग, उस श्वेत - श्याम चित्र में भी पकड़ आ रहा था। एक सहज उत्सुकता जगा दी थी पिता की बातों ने...

“ रचनात्मक संवेदना की पराकाष्ठा को देखना है तो इन्हें पढ़ो,भाषा की अर्थमय दुस्र्हता कथानक की दुरूहता को एक तरफ चुनौती देती प्रतीत होती है, वहीं दोनों एक दूसरे की पूरक भी हैं।”

अच्चन की बात का अर्थ कुछ मैं समझी भी और कुछ नहीं भी...पर वे कहानियां मुझे चकित करती थीं। अजीबो - गरीब मानवीय संबंधों की कहानियां, स्त्री - पुस्र्ष के बीच के तरल मनोविज्ञान को एकदम नयी तरह से व्यक्त करती हुई। सामाजिक तौर पर वे रिश्ते जो सरासर ` अनैतिक ' करार कर दिये जाते उनकी निष्ठामय पराकाष्ठाओं की कहानियां। हर कहानी में तो लिख रहे थे तुम “ प्रेम में नैतिक - अनैतिक कुछ नहीं होता। प्रेम एक नितान्त नैतिक अनुभव है।”

वही तुम, मलय! आज यहां मेरे सामने किसी कहानी को जन्म दे रहे हो।जानलेवा उत्सुकता हो रही थी, पर जानती थी कि पूछना व्यर्थ होगा कि `क्या होगी यह कहानी?' नहीं पूछूंगी। फिर तय किया, नहीं छुऊंगी चिड़िया का अण्डा... छोड़ देती है चिड़िया अपने अजन्मे अण्डे को, गिरा देती है घोंसले से नीचे, अगर कोई दुष्ट बच्चा छू ले तो! बचपन में मां ने यही तो बताया था, मेरी गुस्ताख़ दोपहरों के उन रोमाचंक पलों में, जब मैं दबे पांव उनके पास से उठकर, मेज़ और उस पर कुर्सी चढ़ा कर रोशनदान में रखे घोंसले में झांक कर गौरेय्या के अण्डे देखा करती थी। मैं उन चितकबरे अण्डों को हाथ में उठा लेती। देर तक उलटती - पुलटती, उन्हें हिला कर कान के पास ले जाकर सुनती कि कोई आवाज़ आए... कितनी ही बार ऐसा हुआ था कि अगले दिन अण्डों के टूटे खोल नीचे पड़े मिले और उसका पीला - सफेद तरल बिखरा हुआ मिला। मन बहुत खराब हो जाता था, फिर - फिर कसम खाती थी कि अब कभी नहीं छुऊंगी। अगली बार न जाने किस सम्मोहन में वह कसम टूट जाती।

उस वक्त तुम वही लग रहे थे। अण्डा सेती चिड़िया... आंखें मूंदे...अपने आस पास के वातावरण से निरपेक्ष, निस्पृह... एक नई सृष्टि के जन्म में एकाग्रचित्त... दृढ़, तेजोमय... जन्म देने की लज्ज़त भरी पीड़ा से बोझिल भी... और मेरी उत्सुकता मुझे धीमे धीमे जलाती रही।

शब्द ...शब्द... शब्द...( जिन्हें तुम लिख कर यूं ही भूल जाते हो!! और मेरे जैसे तुम्हारे पशंसक -पाठक, एक अरसे तक उन शब्दों से निर्मित अर्थों की गहन गुहाआें में यूं ही भटकते रहते हैं।) शब्दों ही के सुनहरे तारों के गुंथे पुल... और क्या... निश्चित ही और इन शब्दों के सिवा कुछ नहीं जोड़ता था, मुझे तुमसे। शब्द पिघलते थे मेरे पढ़ने से... और मुझ पर गिरते थे टप - टप। मैं इन शब्दों को साफ - ठण्डी ज़मीन पर फैलाती थी...वे पारे की बूंदों की तरह फैल जाते थे... फिर उन्हें बटोरना क्या आसान होता था ?

अजीब नाम होते हैं तुम्हारे पात्रों के! किस जंगल से बटोर लाते हो? ये सेमल -महुआ, कस्तूरी - केवड़ा, किंशुक, पलाश? जंगलों, पुराने किलों की यायावरी से चुन कर लाये सूखे तनों, अजीब अजीब आकार की टेढ़ी - मेढ़ी जड़ों की तरह के कथानक, जिन्हें तराश कर तुम अनोखी आकृतियों में ढालते रहे हो...

मैं ने सीढ़ियों की तरफ मुड़ते हुए, आंगन से सीढ़ियों तक बढ़ आये कटहल के गाछ की टहनियों के बीच से देखा था... तुम्हारे कमरे की खिड़की का सफेद जालीदार परदा हौले - हौले हिल रहा था... पीछे से तुम्हारी आकृति दिखाई दे रही थी ... चौड़े कन्धों पर किसी अजानी पीड़ा का दबाव था... अपने अंगूठे और तर्जनी के बीच तुमने अपने होंठों को दबा रखा था... आंखें अर्धोन्मीलित...उनमें एक

निर्वात् तैर रहा था...उनका रंग तब नहीं दिख रहा था...पर वह रंग वहीं से विस्तार पाकर आसमान को रंग रहा था...मैं कितनी भाग्यशाली थी, देख पा रही थी देश के बहुत लोकप्रिय कथाकार को उसकी किसी अद्भुत कहानी को जन्मने की प्रसव पीड़ा में आकुल!! एक ठण्डी सांस निकल गयी थी मेरी और तुमने पलक उठा कर देखा था ... वहां कुछ नहीं था बस वही निर्वात था ... मुझे खींचता सा, अंतरिक्ष के ब्लैकहोल की तरह, हज़ारों रहस्य छिपाए। मैं तेज़ी से नीचे उतर आई थी। कुछ हॉन्ट करता सा देखा था मैं ने, तुम्हारी आंखों में। मेरी हिलती - डुलती आकृति तुम्हारी पुतलियों में प्रतिबिम्बित होकर स्थिर हो गयी थी। तुम्हारी आंखों के प्यूपिल ( पुतलियां ) डायलेटेड( फैले हुए) थे। बहुत पी ली थी क्या पिछली रात?

उन सृजन के दिनों में तुम बहुत अजीब लगते थे। अस्थिर, चिड़चिढ़े, उत्तेजित... चीजें रख कर भूल जाया करते थे और झल्लाते थे रघु पर। खाने के स्वाद को लेकर तुम्हारी जीभ इन दिनों लगभग निस्पंद हो जाती थी... कुछ भी खा लेते थे, बिना मीन - मेख निकाल। ठूंस कर खाया करते एक प्रसवातुर स्त्री की तरह। `दक्षिण भारतीय गरिष्ठ कचरा' (जैसा कि तुम हमारे खाने को आम दिनों में कहते आये हो।) भी।

मेरी हिलती डुलती देह तुम्हें तब भी नहीं दिख रही थी। तुम मुझे देख कर भी नहीं देख रहे थे। मैं हैरान थी - `नाश्ता भी नहीं किया आज तो।' सोच रही थी, न टोकना ही बेहतर होगा। फिर कॉलेज को देर भी तो हो रही थी।

रिक्शे पर बैठ कर भी तुम्हारे बारे ही में सोचती रही थी रास्ते भर। इन दिनों तुम इतने अजीब क्यों हो जाते हो? अप्पा भी लिखते हैं कहानी... पर वे तो सहज रहते हैं...कहानी के बीच उठ कर किरायेदार का हिसाब करते हैं। अम्मा की झिकझिक का करारा व्यंग्यात्मक जवाब देने से नहीं चूकते। बीच - बीच में उठ कर, बाहर खड़े चिल्लाते हुए सब्जी वाले से मोल भाव कर सब्जी भी ले आते हैं। और तुम... तुम इस दौरान, दिन में तो कमरे से बहुत ही कम निकलते हो। हां, देर रात लेखक महाशय, आपकी चोरी पकड़ी जाती है, जब आप पिछवाड़े बनी लकड़ी की सीढ़ियों से चुपचाप उतर कर, नारियल के झुण्ड की तरफ से शहर को जाते छोटे लोहे के विकेट गेट की तरफ निकलते हैं, देर रात, लकड़ी की सीढ़ियों की आवाज़ से तो मैं रंजन मामा के ज़माने से परिचित हूँ। मैं ने कितनी बार ऊपर जाकर देखा है, तुम अपना पायजामा दो वृत्तों के आकार में फर्श पर उतार जाते हो। दो जुड़वां घोसलों सा। रघु को अप्रत्यक्ष हिदायत रहती है कि ` इसे उठाया न जाये'... ताकि जब तुम इस शहर की तंग उदास गलियों में, कब्रिस्तानों में या किसी सस्ते बार या पब से भटक कर लौटो तो बिना समय व्यर्थ किये कपड़े बदल कर, इस जुड़वां वृत्त में फिर से पैर घुसा कर ...ऊपर खींच कर...नाड़ा बांध कर एक कटे तने की तरह बिस्तर पर पड़ जाओ।

मैं कॉलेज से लौट आई तुम नहीं दिखे, रात खाने की मेज़ पर भी नहीं... थक - हार कर किन्ना ने ऊपर ही खाना भिजवा दिया था। मुझे याद है, उस दिन भी तुम रात ग्यारह बजे अपने कमरे से निकले थे...मैं तुम्हारे कमरे के ठीक नीचे वाले अपने कमरे में तुम्हारी गतिविधियों का अनुमान लगाती रही थी। पता नहीं प्रसव पूर्ण हुआ कि नहीं? जिसने जन्म लिया होगा वह कहानी कैसी होगी, कितने वज़न की, कितनी सुन्दर, कितनी स्वस्थ? मोह लेगी क्या वह एक नज़र में सबको?

कमरे में निस्पंद शांति थी। तब तक भी नहीं लौटे थे तुम। मैं प्रतीक्षा में तुम्हारी ही किताब पढ़ रही थी... पुरानी उन्नीस सौ चौरासी में छपी हुई... रूमानियत स्पंदित थी। जब भी मेरी ढेर सारी उलझनें, ढेर से प्रश्न इकट्ठे हो जाते थे तो मैं तुम्हारे शब्दों की शरण लेती थी। जैसे तुलसी की `रामचरित मानस' के आरंभिक पृष्ठों में वह प्रश्नावली है न! जिसमें कहीं भी उंगली रखो, जो अक्षर निकले उससे आठ खाने आगे जाओ गिनकर... फिर वह अक्षर पहले अक्षर से जोड़ लो। ऐसे अक्षर जोड़ते हुए जो शब्द बने ... उससे बनने वाले दोहे में आपके प्रश्न का समाधान छिपा होता है। ठीक वैसे ही... ` तुम इतने उदासीन क्यों हो मेरे प्रति?' के प्रश्न के लिये मैं ने आंख बन्द कर उंगली रखी थी, तुम्हारी किताब के बीच वाले पृष्ठ पर छपे ठण्डे - ठण्डे घोर उदासीन निर्लिप्त से शब्दों पर और समाधान भी मिला था - “मैं मानता हूँ, कुछ लोग जितना अधिक प्रेम करते हैं उतना ही अधिक चुप और निस्पृही दिखते हैं।”

या फिर कभी - “ मैं प्रेम में उम्र का फर्क नहीं मानता ...”

लकड़ी की सीढियां फिर हल्के से चूं....चर्र करती हुई बज रही थीं। तुम लौट आए थे।

मेरा मन किया था तुम्हें रोक कर पूछूं तुम लेखकों की बहुत पुरानी पीढ़ी का छूट गया अंश हो या कोई बीच की विलुप्त कड़ी! अद्भुत लिखते हो तुम, अनूठा। आजकल कहां होते हैं ऐसे फाक़ाक़श और आवारा लेखक!! अकेले, बरबाद, मुफ्त की शराब पीते, उधार के पैसों पर यायावरी करते।

तभी तुम्हारा एक जूता धप्प से गिरा था...उसके बाद दुगुनी आवाज़ से दूसरा...

बड़े जंगली हो! तुम्हारे कमरे के नीचे भी कोई रहता है। लेखक महाशय।

अचानक ही आ गये थे तुम हमारे शहर में, एकदम अप्रत्याशित - से उस रोज़। किसी अजनबी देश से भटक कर, हमारे प्रदेश की पुरानी ऐतिहासिक झील पर उतर आये एकाकी मुर्गाबी से। बिना फोन, बिना तार यहां तक कि पोस्टकार्ड पर दो पंक्तियां लिख कर डाक में डाल देने की जहमत तक नहीं उठाई गयी थी तुमसे। अम्मा कितना भुनभुनाई थीं। मैं अपना पावड़ा(लहंगानुमा वस्त्र) झाड़ते हुए द्वार पर रंगोली डाल कर फर्श से उठी ही थी, कि एक ऑटो स्र्का था...तुम ऑटो वाले से हिन्दी में फिर अंग्रेजी में, दोनों में झगड़ चुके थे...तब मैं ने बीच में व्यवधान डाला था...।

“ मुझे नायर महाशय से मिलना है।” तुम एक्सेन्ट फ्री अंग्रेजी में बोले थे। तुम्हारी नमकीन आवाज़ कोच्चि की नम हवा धीरे - धीरे सोख रही थी।

“ जी, मैं उनकी बेटी हूँ।” चौंके थे तुम मुझे हिन्दी बोलते देख, वह भी `मल्लू'

( मलियाली) एक्सेन्ट से मुक्त !!

“ मैं मुझे महेश जी ने दिल्ली से यह पत्र देकर भेजा है।” तुम हाथ डाल - डाल कर लगभग पांच मिनट तक तो जेब में पत्र ही ढूंढते रहे थे, मगर एक चाभी का गुच्छा, लगभग खाली वॉलेट नीचे निकल कर ज़रूर सड़क पर जा गिरा, मगर पत्र नहीं मिला।

कई उत्सुक चेहरे आस - पड़ोस के खिड़की - दरवाज़ों से झांकने लगे थे।

“ वो आप अच्चन को ही दिखाइयेगा। पहले आप अन्दर तो आयें।” मुझे तुमने अपना संक्षिप्त सा सामान एक छोटा सूटकेस और हैण्डबैग उठाने नहीं दिया था। तब तक अच्चन बाहर आ गये थे।

“ओह! आप ही हैं ना मलय! सौभाग्य है मेरा कि आप यहां आये। कल रात ही महेश जी का फोन आया था।”

तुमने मेरी तरफ अजीब तरह की राहत से देखा था, देखा,...पत्र नहीं मिला तो क्या...फोन तो आ गया न।

मेरा दिल धक्क से रह गया था ...यही हैं मलय... वो कहानीकार! वही जिनकी कहानियों के अंश चिन्हित कर सहेलियों को पढ़वाए हैं।

“यू ब्लडी सैडिस्ट ...” जब भी तुम्हारी कहानियां पढ़ती मैं, उसके बाद फ्लैप पर छपी तुम्हारी तस्वीर देख कर यही फुसफुसाया करती थी। तस्वीर में तुम अलग दिखते थे, मुस्कुराते हुए, पर अभी साक्षात देख कर मुझे आश्चर्य हो रहा था... यह ठण्डा सा, क्रूर सा दिखने वाला व्यक्ति ऐसी भी कहानियां लिख सकता है? “ यू... सैडिस्ट।”

“ मैं महज आया ही नहीं हूँ, एक लम्बे अरसे तक ठहरूंगा। ... पहले आप इस ऑटो वाले को चलता करें।” ऑटो के पैसे भी अच्चन को ही चुकाने थे! क्योंकि तुमने पता ठीक से मालूम न होने के चक्कर में पूरा कोच्चि घूम डाला था ऑटो में और जो बिल था वह तुम कैसे चुकाते? तुम्हारे पास पैसे चुक गये थे और तुम्हें अगले पूरे सप्ताह अपने नये उपन्यास की रॉयल्टी की प्रतीक्षा करनी थी।

“आप पत्र डाल देते तो यहां के गेस्टरूम में आपका इंतजाम करके रखता।” अच्चन ने ऑटोवाले को पैसे चुकाते हुए कहा था।

“वह समयाभाव के कारण संभव न हुआ। दरअसल कुछ और ही कार्यक्रम था और कुछ और ही बन गया।... महेश जी बंगलोर तक तो साथ ही थे। फिर ... मेरी लापरवाही रही। क्षमा करें असुविधा हुई हो तो।दरअसल केरल से गुज़रते हुए मुझे महसूस हुआ कि मुझे यहां स्र्कना चाहिये और यहां के बारे में भीतर तक जानना चाहिये। और उसके लिये मुझे किसी गेस्टहाउस की नहीं एक केरलीय परिवार के सान्निध्य में रहने की आवश्यकता महसूस हुई। तो महेश जी ने...”

“ अच्छा - अच्छा। यह बहुत ठीक किया आपने... हमें प्रसन्नता होगी आपकी मेहमाननवाज़ी में। अंदर बैठक में चल कर बात करें।... मालि, अम्मे डेढत चाय, कोरचि पलहारन कोंडुवराम परियु( मालि, अम्मा को बोल कि कुछ नाश्ता और चाय भेजें)... दरवाज़े पर ही परदे से खेलती हुई मैं तुम्हें हैरत से देख रही थी...कि अच्चन ने फिर टोका... “और सुनो मालि रघु की सहायता से ऊपर रंजन मामा वाला कमरा ठीक करवा दो।”

“ रंजन अम्मावण्डे मुरी एन्दन कोड्कुनु? (रंजन मामा का कमरा क्यों...)”

“ न्यान एन्दपरन्यु अदु चैय्यु! (जो कहा है वही करो...)”

“ जी अप्पा...”

तुम बड़े बेमन से उपमा खा रहे थे। मुझे मन ही मन हंसी आ रही थी।

“पेट्टु पोई एस्र्तुकारन ( बुरे फंसे लेखक महाशय!)”

रंजन मामा का कमरा! अतिविशिष्ट कमरा है वह। उस कमरे में दोनों ओर खिड़कियां हैं... एक तरफ रबर, कॉफी और नारियल के पेड़ों का विशाल अहाता है। दूसरी तरफ बैक वाटर्स का नज़ारा देखने को मिलता है। नीले मखमली परदे, टीक वुड का पुराना फर्नीचर। उनकी जीती हुई ट्रॉफियां, मढ़े हुए प्रशंसा पत्र। दुर्लभ कलाकृतियां, कुल - मिला कर एक जादुई संसार, जो मुझेबचपन से आकर्षित करता था। मेरी स्मृति में हैं वे पल, जब पीला - लाल पावड़ा, कभी साटन की हरी फ्रॉक पहने हुए, रिबन वाली दो चोटी किये हुए, गाल पर काजल का दिठौना लगाकर मैं मामा को छुप - छुप कर देखा करती थी... उनका एक - एक क्रियाकलाप। उनका सिगरेट पीते हुए रॉकिंग चेयर पर कुछ सोचते रहना। किताबें पढ़ना। सच्ची! रंजन मामा शाही आदमी थे। अब लन्दन में रहते हैं। लेकिन जब भी लौटते हैं वे अपने कमरे में ही ठहरते हैं। इसी कमरे में बन्द हो अम्मा के साथ घण्टों बातें करते हैं।

मेरे मन में उछाह जगा था कि आज मैं फिर मामा का कमरा खोलूंगी और कुछ अंग्रेजी रूमानी कविताओं की किताबें निकाल लाऊंगी। जो आज दिल्ली की बेहतरीन किताबों की दुकानों में भी दुर्लभतम हैं।

तुम्हें पता नहीं, पता हो के न हो। हम मलियाली नायरों में मातृसत्तात्मक परिवार होता है। ये जो टीक की मूल्यवान लकड़ी के दरवाज़ों और खंभों तथा फर्श का एक वृत्त में बना विशाल घर है, वह मेरी मां का है, जो विरासत में मुझे मिलेगा। पर कौन रहना चाहता है यहाँ? मैं बाहर निकलना चाहती हूँ, अच्चन की तरह। आपकी तरह। घुमक्कड़ी करना चाहती हूँ। मेरी मां ने कभी यह कस्बा नहीं छोड़ा और पिता बहुत कम यहां रहे। उनका एक पैर दिल्ली तो एक पैर कोचीन में रहता था। अच्चन मलियाली - हिन्दी दोनों भाषाआें के बड़े विद्वान हैं। केन्द्रीय साहित्य संस्थान में कार्यरत रहे हैं। उनका हिन्दी प्रेम मुझे विरासत में मिला है।

अम्मां सच में तुम्हारे आगमन से खुश नहीं थीं। न पहले न बाद में।

बाद में अच्चन अम्मां को समझाते रहे थे।

“ तुम तो समझती नहीं हो। अरे बड़े विद्वान हैं, बहुत बड़े लेखक। देस - परदेस घूमना और लिखना ही इनका काम है। ... कम उमर में इतना बड़ा लेखक कोई यूं ही नहीं बन जाता। और फिर जिन महेश जी का ये पत्र लेकर आये हैं। दिल्ली में उनके खाली फ्लैट में मैं बिना किराया दिये पूरे दो साल रहा हूँ।”

“ मट्टु ओरू एर्तुकारन, ओरू अनम पोराचिटू मट्टू ओरणम कूडीम... ( एक ही लेखक क्या कम था... सो ये दूसरा और) हं... लेखक! ये तो पूरी की पूरी प्रजाति ही बेकार...” अम्मा बड़बड़ाती हुई संकरे गलियारे में से अपनी साड़ी का आंचल पिता से बचाते हुए आंगन की ओर निकल गयी थी। पिता ने बुरा सा मुंह बना कर उन्हें घूरा। और हिन्दी में बोले - “ मैं अछूत हूँ ना। छू जायेगी, मालि तेरी मां मुझसे तो ...तो वो भी अछूत हो जायेगी।” मुझे हंसी आती थी अपने अच्चन - अम्मां के इस अनूठे रिश्ते पर।

मैं चौंक ही गयी थी, उस शाम जब घनघोर बरसात हुई थी और तुम कमरे के पीछे वाली बालकॉनी में रॉकिंग चेयर निकाल कर बैठे थे। बिलकुल रंजन मामा की तरह सिगरेट पी रहे थे। और स्वनिर्मित धुंए के धुंधलके में कुछ सोच रहे थे। मुझे भ्रम हुआ था रंजन मा%मा! फर्क था तो बस नीले खादी के कुर्ते और सफेद पायजामे में... रंजन मामा पूरे विलायती थे। मन में हूक उठी थी। रंजन मामा के आकर्षण में मेरी पूरी किशोरावस्था स्वाह हुई थी। न जाने किसने...शायद अम्मुमा (नानी) ने मेरे मन में बात डाल दी थी कि तेरी शादी तो रंजन से होगी। बाहर की दुनिया में चाहे जितने विरोधाभास हों... मेरे अन्दर की दुनिया में हमेशा से रंजन मामा मेरा पहला प्रेम थे और रहेंगे। अब इस भरी - पूरी युवावस्था की बरबादी के बाइस क्या तुम बनना चाहोगे? इडियट, उम्र का तो फर्क कभी देख लिया कर। पहले रंजन मामा अब...

रंजन मामा की आकृति में और तुम्हारी आकृति में तो कोई मेल नहीं था। तुम लम्बे और गोरे हो... हल्की सलेटी आंखों वाले। वे सांवले और मध्यम कद के सुन्दर काली आंखों वाले पुस्र्ष हैं। कभी वो भी बहुत रूमानी थे। कोच्चि के कॉलेज की लड़कियां उन पर फिदा थीं। उनमें से एक सुन्दर क्रिश्चन लड़की घर भी आती थी। पर रंजन मामा ने सबका दिल तोड़ा, यहां तक चौदह साल की अपनी इस भांजी का भी और लंदन में ही एक विदेशी स्त्री से शादी कर ली।

रंजन मामा का कमरा देखते ही तुम कुछ परेशान हुए थे।

“नायर साहब, इतनी भव्यता की आदत नहीं है मुझे। कोई छोटा, खाली, कोने का कमरा ही चल जाता।”

“ मलय जी, इस कमरे में अंग्रेजी के एक बड़े लेखक - फिलॉसॉफर का जन्म होते - होते रह गया। इस कमरे की दीवारों में विश्वसाहित्य बसा है। यह मेरे साले रंजन का कमरा है, जो कि यू. के. में बिज़नेस टायकून है।इस कमरे में जितनी आलमारियां आप देख रहे हैं न, विश्वप्रसिद्ध, दुर्लभतम पुस्तकों से अंटी पड़ी हैं। यहीं रहें,आपको कुछ दिन में अच्छा लगने लगेगा।”

तुमने अपेक्षाकृत कम सामान वाला खाली कोना अपने लेखन के लिये चुना था। उस कमरे की विशाल टीक की स्टडी टेबल तुम्हें बहुत पसन्द आई थी। वहीं पास ही नीचे एक गद्दा बिछवा कर तुमने सैटी बना ली थी। जब टेबल पर लटके हुए पैर थक जाते थे तो तुम नीचे डेस्क लगाकर लिखा करते थे।सिवाय उन बरसाती रातों के, खिड़कियों में से बौछारें आकर जब गद्दा भिगो जाती थीं।

आरंभ के दिनों में तुम नीचे बिलकुल नहीं उतरे। नाश्ता, खाना, अन्य चीज़े स्वत: ही अच्चन रघु से कहकर ऊपर पहुंचवा देते थे। पता नहीं कौनसी कहानी लिख रहे थे। `भीषण' शब्द तुम्हारी ही देन है... यकीन मानो मुझे भीषण उत्सुकता हो रही थी।

थोड़े दिनों बाद तुम्हारी देखभाल का जिम्मा मेरे ही सर आ पड़ा था। अम्मा तुमसे चिढ़ती थीं। नानी बूढ़ी हो चली थीं। रघु को सुबह के समय हमारे कॉफी, रबर और नारियल के बाग में मजदूरों को भी देखना होता था। बस किन्ना थी, जो रसोई बनाती थी।

“किन्ना हमारी नौकरानी नहीं है। वह हमारे दूर की अनाथ रिश्तेदार है, बचपन से ही मेरे साथ रही है। इसकी भी...शादी पक्की हो गई है।” एक बार तुम्हें बताया था मैं ने।

“इसकी भी... से क्या मतलब? तो तुम्हारी भी...”

“हट्...।”

एक दिन सुबह सुबह मैं ने देखा तुम किन्ना को आलू परांठा बनाना सिखा रहे थे। अम्मां के शुद्धतावादी आचरण को ताक पर रख। मैं ने हड़बड़ा कर पूछा था।

“ मलय जी, आपकी जाति क्या है?”

“मैं कहूँ मुसलमान तो?”

“अइयय्यो!” किन्ना डर गई थी।

“हट् ! नाम तो हिन्दु है।”

“पर क्यों?”

“अम्मां की रसोई में बस सवर्ण घुस सकते हैं। शुद्ध शाकाहारी और वह भी स्नान - ध्यान के बाद।”

तुम मुस्कुराये थे। फिर किन्ना भी। और मैं भी।

पहले एक सप्ताह तोे तुमने अनमने मन से केरलीय व्यंजन खाये थे। फिर किन्ना की बदौलत आलू का परांठा और दही मिलने लगा था तुम्हें। दोपहर के खाने में तुम्हें चावल, सांभर - रसम जो बनता था खाना ही होता था क्योंकि दोपहर का खाना अम्मा...पूरी तरह अम्मा के नियंत्रण में होता था। सुबह का नाश्ता किन्ना और मेरी ज़िम्मेदारी थी। तब अम्मा पूजा - पाठ, शहर के मंदिरों के दर्शन में व्यस्त रहती थीं। वही वक्त था, जब मैं तुम्हारे साथ होती थी। यही वक्त होता था, जब तुम लिख नहीं रहे होते थे। यही वक्त था, जब हम बातें करते।

“क्या लिख रहे हैं?”

“एक लम्बी कहानी।”

“प्रेम पर!”

“ न्ना।”

“आपकी पुरानी कहानियां पढ़ी हैं मैं ने। `रोमान्स' शब्द से चिढ़ने वाले अच्चन ने मुझे आपकी किताबें पढ़ने को दी थीं। पर वो रूमानियत कैसी थी। सचमुच भीषण, बीहड़, सघन, कठोर। झरती हुई... मरती सी...दुखाती हुई।”

“ अब नहीं लिखता वह सब।”

“ क्यों?”

“चुक गया वह सब। प्रेम शब्द ही अब वह थ्रिल पैदा नहीं करता।”

“यह शब्द तो व्यापक अर्थों वाला है, केवल थ्रिल और उत्तेजना के अतिरिक्त बहुत कुछ होता है इस शब्द में।”

“ शब्द का जो भी शाश्वत अर्थ हो, पर इसकी परिभाषाएं सबकी सब खोखली हैं। अब इस पर लिखा जाना महज दोहराव भर है।”

“ बहुत प्रेम कर लिया क्या?”

“ हां, हरेक करता है, प्रेम करने की उम्र में...”

“प्रेम करने की भी कोई खास उम्र होती है क्या?”

“नहीं होती क्या? तुम हो न उस उम्र में!”

तुम्हारे उस अप्रत्याशित उत्तर से अचकचा गई थी मैं। पर यह वार्तालाप अपने आप में एक थ्रिल था। एक शुस्र्आत और एक उत्प्र्रेरक का काम कर सकती थी, यह मुसलसल बातचीत।

“हो सकता है, पर पात्र भी तो हो न!”

“हैं तो! तुम्हारे मंगेतर, डॉ. साहब।”

“ तो अच्चन ने बता ही दिया आपको।... लेकिन ऐसे क्या प्रेम हो जाता है? आप तो गूढ़ मनोविज्ञान की कहानियां लिखते हैं। इतना सरल मनोविज्ञान नहीं पता!”

“ पता है वनजा...”

“ अय्यो, वनजा नहीं.....वनमाला।”

“ वनमाला...कहां हो तुम... वनजा हो इस जंगल से उपजी...” तुमने बैक वाटर्स की तरफ फैले पेड़ों की कतारों की तरफ इशारा किया।

“ तो तुमने मेरी सारी कहानियां पढ़ी हैं... वह नहीं पढ़ी ` एकालाप ' जिसमें असफल प्रेम की व्याख्या की गई है।”

“ पढ़ी है...”

“फिर ...”

“ फिर क्या...आपका मन एक कब्रिस्तान मालूम होता है।”

“अच्छा! कैसे?” तुम हंसे थे खुलकर,अपनी रुंधी हुई सी हंसी के खोल से बाहर आकर।

“हर कहानी एक कब्र एक प्रेम की!” फिर ... कुछ ही पलों में हंसी में से नमी बिखर गयी थी...हवा में। एक खारी हंसी बची रही...समुद्र से होकर आने वाली हवाओं की तरह।

आने वाले दिनों में एक दिन वह भी तो था... जब शाम ढलने के साथ ही ... हम छोटे टैरेस पर थे जहां से समुद्र में बियर के झाग से रंग की लहरें उठती दिख रही थीं। तुमने मेरे ताज़ा धुले बालों को सूंघ कर पूछा था, “ किससे धोए हैं? बहुत अलग तरह की महक है!”

मुझे तुम्हारे उपन्यास की एक पंक्ति याद आ गयी। “महीने के खास दिनों में लड़कियां अलग तरह से महकती हैं।” मैं हतप्रभ थी, मेरी पारदर्शी आंखों से हैरानगी के भाव बटोरते हुए तुमने कुरेदा तो मैं ने एक हिचक तोड़ कर बता ही दिया था। तुम बहुत देर चुप रहे...फिर मुस्कुरा कर बोले थे।

“मैं तो लिख लिखा कर भूल जाता हूँ, मुझे याद नहीं। लिखा होगा...”

“तो उस सब का कोई अर्थ नहीं?”

“ अरे...लिखते वक्त जो मन में आता है लिखते चले जाते हैं। एक सहज बहाव के तहत।”

“प्रेम प्रसंग भी...”

“हां और क्या?

मेरा मन टूटा था...जिन शब्दों पर उंगलियां फिरा कर मैं जीवन के अर्थ खोजती हूँ, उन्हें ये लिख - लिखा कर भूल - भाल जाते हैं! मैं उदास हो गयी थी। तुम मेरी उदासी को पहले गौर से देखते रहे थे। फिर मेरे बाल मुट्ठी में भींच कर बारहा सूंघते रहे।

मैं ने तुमसे पूछा था, “ मैं जाऊं?”

“ नहीं... बात करो न...”

“क्या?”

“वही कब्रगाह... मेरा मन! तुम ठीक ही कहती हो शायद मेरा मन एक कब्रिस्तान है... जिसे यादें आकर कभी - कभी बुहार जाती हैं।...बहुत सी बातें हैं ...बहुत से पश्चाताप...

“ बहुत जटिल हैं आप... असाधारण...।”

“ हां ... असाधारण परिस्थितियों में असाधारण माता - पिता से जन्मे बच्चे का जीवन साधारण कैसे होता?”

“...? “ तुमने मुझे अपने बहुत करीब बिठा लिया था, और मानो स्वगत बोल रहे थे। रॉकिंग चेयर पर हिलते हुए...

“जानना चाहोगी?... तो सुनो... मेरे पिता एक गांधीवादी स्वतन्त्रता सेनानी थे। सम्पन्न, सभ्रान्त...। मेरी मां, मेरे पिता की दूसरी गैरकानूनी पत्नी थीं ... वे एक नेपाली महिला थीं। उन्होंने मेरे पंद्रह वर्ष के होने के बाद पिता से अलग हो ... बौद्ध धर्म अपनाने का निर्णय ले लिया था। मैं पिता से अधिक मां से निकटता महसूस करता था...उनके इस निर्णय ने मुझे बुरी तरह सहमा दिया था। आज चालीस की उम्र में मैं उनकी विरक्ति को शायद समझ सकता हूँ, पर तब पन्द्रह वर्ष की उम्र में... मैं उनसे यही पूछता कि - अभी इतनी जल्दी क्यों? मेरी समझ में भिक्षुणी बनने के लिये वह बहुत अधिक सुन्दर और युवा थी... उनका उत्तर दार्शनिकता भरा होता था... एक पका सेब जब धरती पर गिरने को होता है, तो कहां निश्चित होता है कि वह कब गिरेगा!

मेरे माता - पिता का प्रेम भी उनकी तरह ही असाधारण और असीम था...बिना कैफियतों वाला, अपेक्षारहित...पर मैं!”

“फिर?”

“फिर क्या ...मां के चले जाने के बाद मैं थोड़े दिन पिता के सयुंक्त परिवार की भीड़ का हिस्सा बना रहा। फिर मेरी चुप्पी और उदासी देख पिता ने जल्दी ही बोर्डिंग में डाल दिया। फिर मैं कभी पिता के पास नहीं लौटा। मुम्बई चला गया।”

“शादी क्यों नहीं की?”

“उससे क्या फर्क पड़ता?”

“बंधे रहते। खुश रहते।”

“बंधकर कौन खुश हुआ है?”

“प्रेम भी नहीं किया हो ऐसा नहीं हो सकता! हर कहानी में तो असफल - अनैतिक प्रेम ...”

“ अरे तुम तो एक साइकियाट्रिस्ट की तरह बात कर रही हो, न तुम साइकियाटिस़्ट हो, न मैं कोई साइकियाट्रिस्ट के सामने आंखें मूंदे बैठा एकालाप करता मरीज़... कि वर्तमान की उलझनों को लेकर अतीत के उलझे ढेर में हम कोई सिरा ढूंढे?” तुम हंस कर उठ गये थे रॉकिंगचेयर से। छत की रेलिंग के पास जा खड़े हुए...सिगरेट सुलगाते हुए।

“ तुम्हारी एक बात सच है... दूसरी अर्धसत्य... सच कहूं तो ...मेरे बहुत सी स्त्रियों से सम्बन्ध बने और टूटे हैं। पर सम्बंधों में अकुशलता की वजह मैं अपने परिवारहीन अतीत को नहीं देता। मेरे माता - पिता अपनी अपनी स्वतन्त्र प्रज्ञा के साथ एक दूसरे को प्रेम करते थे। मेरी दृष्टि में उनका एक सफल प्रेम विवाह था। पिता स्वतन्त्रता सेनानी बन जेल चले गये...मां तिब्बत चली गयी। यही एक महान प्रेमकथा का अंत था। उस कथा में से छिटक कर गिरा एक असफल पल जो था... वह मैं था।

मैं ने भी जितने प्रेम किये वे असाधारण थे... हर स्त्री जिससे जुड़ा असाधारण थी... दूसरी से भिन्न। हर रिश्ते की गति दूसरे से भिन्न... बल्कि उनकी टूटन भी अलग - अलग किस्म की थी।

“ फिर क्या मिला हर बार...”

“ एक आह... सच पूछो तो मेरा कोई भी रिश्ता एक रात का रिश्ता नहीं रहा... सबके सब गंभीर - गहन रिश्ते थे। ...”

मैं उन तथाकथित `असाधारण मोहब्बतों' के किस्सों को नहीं सुनना चाहती थी, जिनमें से कब्र के ऊपर जलते लोबान की - सी महक आती हो, नहीं खोलना चाहती थी, तुम्हारे प्रेम की कब्रें। मैं बात बदलना चाहती थी।

“ आपका खर्च कैसे चलता होगा? घर...? नौकरी भी नहीं करते...?”

तुमने भी एक ठण्डी सांस लेकर उन कबों को न खोलना ही बेहतर समझा।

“ मेरा काम तो चल ही जाता है। किताबों की रॉयल्टी... कहानियों - अनुवाद का पैसा। दोस्तों की मेहरबानी। वैसे पिता ने बैंक में मेरे नाम पैसा रख छोड़ा है... एक फ्लैट भी...पर मैं उस पैसे को छूता तक नहीं...अब तक तो ज़रूरत भी नहीं पड़ी। फ्लैट में तिब्बती गरीब लड़के रहते हैं, मां के भेजे हुए। मैं बरसों के उसी किराये के कमरे में रहता हूँ...जिसकी मुझे आदत है, मेरा तिकोना कमरा।...वह कमरा याद आ रहा है,वनजा...अब मैं जल्द ही चला जाऊंगा।”

उसके कुछ दिन बाद मेरा नया स्कूटर आया था और सीखते में मैं ने स्वयं को घायल कर लिया था। कोहनी में चायनीज़ ड्रेगन के आकार की गहरी - लम्बी चोट लगी थी और कन्धा ज़मीन से टकराने की वजह से वहां की मांसपेशियों पर आघात पड़ा था और मैं सीधा हाथ उठाने में असमर्थ थी। तुम अब उस कहानी पर गंभीरता से काम कर रहे थे। अपने कमरे में बन्द। प्रसवपीड़ा से जूझते। किन्तु रघु से यह सुनते ही तुम एक बार नीचे उतरे थे। मेरा कमरा पहली बार देखा था तुमने, गौर से देख रहे थे। रंजन मामा के कमरे जितना ही बड़ा और उसी गोल आकृति का, पारंपरिक केरलीय ढंग का बना, लकड़ी का फर्श, छत लकड़ी की,। तुम अब एक दीवार पर पुराने खानदानी श्वेत - श्याम चित्रों के समूह को देख रहे थे ... ये चित्र इस कदर बेतरतीबी से लगे थे कि वह बेतरतीबी भी मुझे कलात्मक लगने लगी थी, तुम्हारे कमरे में आने से। अब तुम पलंग के पीछे तंजौर की बड़ी विशाल और पुरानी पेन्टिंग देख रहे थे। खिड़कियां इस वक्त बन्द थीं सो कमरे में हल्की रोशनी थी। लकड़ी की छत पर पीतल के कुन्दों पर एक घुड़सवार के आकार वाले दो दीपदान लटके थे। टीक का बड़ा पलंग, जिस पर नीली मच्छरदानी तनी थी, उसके बीचों बीच लेटी थी मैं... कमरे के हल्के उजास में तुम्हें मैं नहीं दिख रही थी...पर मैं तुम्हें साफ - साफ देख पा रही थी।

अच्चन ने पुकारा था, “ वनमाला”

मैं चौंकने का नाटक कर उठ बैठी थी। अच्चन ने मच्छरदानी हटा दी। मेरा मलिन चेहरा तुम्हें देख कर `उन्हें देखे से जो आजाती है चेहरे पे रौनक' की तर्ज पर उद्भासित हो गया था।

“ फ्रैक्चर तो नहीं हुआ न?”

मैं ने सर हिला दिया था। मैं ध्यान से तुम्हें देख रही थी। सप्ताह के एकांतवास और आराम ने तुम्हारी उम्र कम कर दी थी क्या?

“नहीं पर मोच ठीक होने में चार - पांच दिन लग जायेंगे।” अच्चन ने उत्तर दिया

“ कभी - कभी बीमार होना अच्छा होता है। अवकाश मिल जाता है जीवन के बारे में सोचने का। दूसरों का लिखा हुआ पढ़ने का। मैं तो कभी - कभी चाहता हूं लम्बा बीमार पड़ना। इन्हें पढ़ डालो।” कह कर तुम मेरी आंखों में झांक कर हल्का सा मुस्कुराये थे। तुम्हारे हाथ में कुछ मोटी - मोटी किताबें थीं। मैं हैरान थी ये कैसी मिजाज़पुर्सी है?

एक ओर मैं तेज़ टीस भरे दर्द और दवाओं के असर से हल्के पड़ते दर्द की बीच की स्थिति में झूल रही थी। चोटिल, हरारत में डूबी। दूसरी ओर हल्की नीली छांह सी दैहिक उत्तेजना, जलते बुखार और दर्द की पटपटा कर जलती पीली लौ के बीच उभर रही थी। ऐसे में तुम्हारे सद्यप्रकाशित क्रान्तिकारी उपन्यास के बीचों - बीच नक्सली नायक और पत्रकार नायिका का प्रेम प्रसंग ...मुझमें शब्द दर शब्द वह दृश्य जाग रहा था। मुझे तुम्हारी एकदम ठण्डी, अस्पन्दित हथेलियों की चाह जागी थी, मेरे बुखार को थामती, दर्द को सहलाती, खुमार को पीती हथेलियों के स्पर्श की चाह!

पहली बार बीमार होना बड़ा स्र्मानी लगा था। करारे दर्द और तेज़ बुखार में सारी भावनात्मक हलचल थम गई थी, एक दर्शन उपजा था, देह का दर्शन। मैं ने तुम्हारी सारी किताबें निकाल लीं थीं और ढूंढ ढूंढ कर तुम्हारी किताबों में से तप्त प्रेम प्रसंग बार - बार पढ़े थे।

छि: कितने निर्लज्ज हो उठे थे तुम कई जगह! उफ! मेरी उत्तेजना का पारावार न था।

उसके बाद मुझे नहीं पता मैं कैसे तीव्र ज्वर की अवस्था में ही तुम्हारे कमरे के बाहर थी...तुम जाग रहे थे। सिगरेट की तीखी गंध...खिड़की से छन कर आ रही थी।

शायद खिड़की के पास बैठे थे तुम और तुमने मेरी परछांई को दीवार पर कांपता हुआ देख लिया था। तुम हड़बड़ा कर बाहर आ गये थे।

“यहां क्यों? इस वक्त?”

“मुझे नहीं पता।”

“अरे!”

“मुझे वह कहानी दिखा दो...”

“कौनसी...”

“वही जो तुम मुझ पर लिख रहे हो।”

“अभी तो नहीं लिख रहा पर...हां लिखूंगा... तुम पर भी ...कभी, एक थी वनजा...बड़ी काली आंखों वाली...एक था...सुरेश...” तुम बहला रहे थे मुझे, मेरी बुखार और उत्तेजना से उपजी ज़िद को।

“...... नहीं जो लिख रहे हो तुम...।”

“उसमें तुम नहीं हो।”

“मुझे पता है उसमें हूं मैं, रोमान्स है। नहीं तो तुमने उस रात मेरे बाल क्यों सूंघे थे?”

तांबई रंग का चांद निकल आया था । समुद्र के झागों की उस झालर में पिघले तांबे की तरह चांद से चांदनी टप - टप गिर रही थी।

“तुम जाओ नीचे...”

“नहीं।” मैं ने ढीठ की तरह अन्दर आकर डेस्क पर पड़ा कहानी का कटा - फटा अधूरा ड्राफ्ट उठा लिया था। तुमने बुरी तरह से मेरे हाथ से कागज़ छीन कर मुझे धकिया कर पलंग पर गिरा दिया था। “इसमें कहीं तुम नहीं हो, और कुछ भी तो रूमानी नहीं। बेवकूफ!”

दैहिक उत्तेजना ने मुझे आत्मविस्मृत कर डाला था। रंजन मामा बुरी तरह याद आ रहे थे। इसी पलंग पर अपनी प्रेमिका को घनी उत्तेजना से चूमते हुए। चैत के उस माह में मेरी देह में गेहूं का सुनहरा खेत पक रहा था, तुम उससे होकर गुज़रते। मैं चाहती थी ...मेरी थर थर कांपती देह की बिखरी हुई सुनहरी रेत को तुम समेटते...

तुम ने ऐसा कुछ नहीं किया। गुस्से में उस रॉकिंग चेयर पर बैठे सिगरेट फूंकते रहे। मैं सन्निपात के मरीज़ की तरह कुछ बड़बड़ा रही थी... तुम्हें कोई सहानुभूति नहीं हो रही थी मुझसे ... न जाने कब अच्चन आकर खड़े हो गये... घनघोर आश्चर्य और क्रोध में उनकी फैली आंखें... मैं डर गयी थी... तुम नहीं डरे थे। वैसे ही सिगरेट पीते रहे। तुमने कोई सफाई देने की कोशिश भी नहीं की।

वे मुझे ढकेलते हुए ले गये थे। मेरी कोहनी का घाव दरवाजे के एक कोने से टकरा कर फिर खुल गया था... खून टपकता रहा था...।

तूफान तो उठा था...पर एक प्रतिष्ठित परिवार की मर्यादाओ की परतों में...दबा - ढंका। तुम तक जो पहुंचा वह महज एक क्रूर आग्रह था। मेरी तमाम सफाइयों, तुम्हारे पक्ष में दी गयी मेरी सारी दलीलों के बावज़ूद।

“ मलय जी, वनमाला के विवाह की तारीख तय हो गयी है। जल्द ही घर मेहमानों से भर जायेगा।आपको असुविधा न हो इसलिये आपकी व्यवस्था मैं कहीं और करा दूं? या आपका सृजन पूरा हो गया हो तो दिल्ली का रिज़र्वेशन...।”

अपमान से तुम्हारा चेहरा पहले लाल फिर बैंगनी और फिर काला पड़ गया था। फिर भी सफाई में एक शब्द तुमने नहीं कहा।

“ लौटना ही बेहतर होगा...नायर साहब।”

आज फिर तुम समाधिस्थ हो। तुम्हारी इस समाधि में सृजन नहीं आत्मपीड़न है। मेरा मन डूब रहा है। किन्ना चुपचाप मेरी छटपटाहट देख रही है और फिर तुम्हें। मैं मोहग्रस्त हूँ, तुम्हारे लिखे शब्दों का मोह है मुझे। आवाज़ का मोह। तुम्हारे उस पूरे खारे - खारे व्यक्ति के भीतर की नर्म मधुरता का मोह भी। तुम उम्र के गुज़रते प्रवाह के किनारे उदास एकाकी बैठे हो ...मैं तुम्हारे जीवन की तरफ पलट आने की प्रतीक्षा में हूँ।

तुम कल चले जाओगे...तुम्हारा बंधा हुआ संक्षिप्त सामान बता रहा है। तुमने सब समेट लिया है, अपने अटपटेपन का विस्तार, अपने बिखरे हुए स्व को भी... बागान के पीछे को खुलती खिड़की के नीचे मुझे तीन टूथपिक मिले, मैं ने सहेज लिये हैं। थोड़ा आगे बढ़ी तो ढेर सारे फटे पन्ने... उफ यह तो वही कहानी है, जिसे तुमने मेरे सामने शुस्र् किया था...

रात तुम फिर कमरे से निकले हो, सुबह आठ बजे तुम्हारी ट्रेन है फिर भी। वहीं कुख्यात वेलु के गन्दे सस्ते बार में! गलियों के गुंजलकों में भटकते हुए... लौटोगे बीच रात...

धप्प से एक जूता गिरा है पलंग से... लौट आये हो तुम। एक बजा है। मैं सुबह पांच बजे तक जागती हूँ, शायद तुमने शिष्टता की याद आने पर संकोचवश दूसरा जूता चुपचाप नीचे रख दिया होगा।

“वीनडुम पेट्टु पोई, एस्र्तुकारन”( फिर, बुरे फंसे लेखक महाशय!) कह कर मैं हिचकियों के साथ रो पड़ी हूँ।

सुबह पांच बजे, थक हार कर सो गयी चेतना को जगाती है एक खुमार में डूबी हुई आवाज़... जो ज़्यादा अभिव्यक्त नहीं करती। बहुत कम शब्दों वाली बेहद आकर्षक आवाज़। जैसे कम मनकों की माला... जैसे कम चट्टानों वाली प्रवाहमयी नदी। यह आवाज़ मेरे मोह को छलती रही है।

“ प्रेम - व्रेम नहीं होता अब हमें।” प्रेम का ज़िक्र चलने पर।

“और कोई नई ताजा खबर?” मेरे कॉलेज से लौट कर तुम्हारे कमरे में आने पर।

और आज भोर के मटमैले धुंधलके में धुंआ होती तुम्हारी छाया से फिर वही आवाज़ उठी है” चलता हूँ वनजा...”

इस पल ऐसा लग रहा है मानो इस जगत की विराट् सत्ता में सब शून्य हो जायेगा अगर यह आवाज़ न रही तो, जैसे आसमान से धरती के बीच यह नमकीन आवाज़ सेतु बांधती रही हो। मेरा मन चीख कर कहना चाहता है - हां, हां मैं ने छुई थी तुम्हारी कहानी। तो क्या हुआ? तुमने उसे तज क्यों दिया? तजा ही नहीं बल्कि ठीक चिड़िया की तरह घोंसले से नीचे लुढ़का भी दिया! मैं क्या अछूत हूँ?”

देखो वो कहानी के टूटे खोल मेरे पास अब भी हैं। उफ! किस कदर फाड़ा हैं कहानी के ड्राफ्ट को कि कोई अंश किसी से नहीं जुड़ता। मैं देर तक डायनिंग टेबल पर उस कहानी के टुकड़े लिये, जिगसॉ पज़ल की तरह उसे जोड़ने की कोशिश में लगी रही हूँ।

अपने आपको ढूंढ रही हूँ मैं। तुमने ठीक ही कहा था, इस कहानी में सच ही कुछ भी...कहीं भी... मैं तो सच ही में कहीं नहीं हूँ। एक बूढ़ा ज्योतिष है और उसका भविष्य की पर्चियों को चोंच से निकालने वाला, पालतू तोता है... उस बूढ़े की याद में एक खानाबदोश मादक... झरने जैसी औरत है। मैं कहां हूँ...! इसमें कुछ भी तो रूमानी नहीं है।