कुमारन आशान: स्वतंत्रता का अनुगायन / गंगा प्रसाद विमल

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अपने सक्रिय सृजन के 15 वर्षों में कुमारन आशान ने जिन काव्य कृतियों की रचना की, वे इस एक तथ्य की साक्ष्य हैं कि एक कवि के रूप में वे गंभीरता से भारत की दुर्दशा के प्रति सजग मलयाली भाषा के कवि होते हुए भी, उन्होंने अपने सृजन से एक भारतीय कवि के रूप में काव्य रसिकों को अपनी ऐसी पहचान दी जो बीसवीं शताब्दी के शेष भारतीय कवियों के समानुरूप थी। बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में भारतीय भाषाओं की कविता में जो उन्मेष दिखाई देता है, उसमें एक साथ प्रेम और सौंदर्य के प्रति नया रोमानी रुझान, भारतीय राष्ट्र के प्रति नई सचेतनता, जिसमें देश-प्रेम एक अनिवार्य तत्व के रूप में आवेष्ठित है तथा भारत के अतीत के प्रति नए प्रकार की अभिरुचि भी शामिल है। यह आकस्मिक नहीं कि वर्षों तक श्री नारायण गुरु के सानिध्य में अध्यात्म के अंतरंग से परिचित होने के उपरांत, संस्कृत ज्ञान प्राप्त करने के बाद जिस बाहरी दुनिया से उनका परिचय हुआ उसने उनकी दृष्टि में आमूल-चूल परिवर्तन किया। संस्कृत ज्ञान ने जिस आदर्शवादिता से उन्हें पुष्ट किया था, उससे बाहर की दुनिया की वास्तविकताएँ सीधे-सीधे मनुष्य को छूती हैं - यह बोध होते ही कुमारन आशान ने अपने निकटस्थ अतीत को देखने की जरूरत महसूस की, तथा तात्कालिक समस्याओं को समझने की चेष्टा में वे भारत के उस वक्त के समकाल के सामने आए। उनके सामने विवेकानंद और रवींद्रनाथ ठाकुर ऐसे आदर्शों के रूप में आए। जिसने उन्हें भीतर अैर बाहर से प्रभावित किया। ये वे आदर्श थे जो भारत की वास्तविकताओं से जन्मे थे। इनमें भी भारत के प्रति अनन्य प्रेम था। भारत को नए ढंग से जानने की सजगता थी। उनके बारे में यह ठीक ही कहा गया है कि आध्यात्मिक और धर्म निरपेक्ष सज्ञानता ने उन्हें एक विशेष प्रकार का सृजेता निर्मित किया है। संभवतः यही वह आधारभूमि है जहाँ से एक महाकवि का जन्म होता है।

कुमारन आशान की प्रारंभिक कृतियाँ सौंदर्य लहरी, मेघ संदेशम् (अधूरा) तथा प्रबोध चंद्रोमयम् उनके अनुवाद कर्म के कुछ ऐसे प्रमाण हैं जिनसे अध्यात्म और काव्य के प्रति उनकी आबद्धता प्रकट होती है। इससे यह भी पता चलता है कि संस्कृत अध्ययन का उनके रचनात्मक कार्यों पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा है। उनका प्रारंभिक नाटक 'विचित्र विजयम्' प्रभाववादी किस्म की कृति है। 'मार्कण्डेय विजयम्' नामक एक अन्य अधूरी पांडुलिपि को भी परंपरागत सृजन स्वीकार किया गया है। हम केवल अनुमान लगा सकते हैं कि सृजन की, आत्माभिव्यक्ति की उत्कट इच्छा ने उनके मन-मस्तिष्क में ऐसी कृतियों की कल्पना को जन्म दिया होगा। इस संबंध में के.एम. जार्ज का कथन कि 'कुमारन आशान की तुलना शायद रेशम के कीड़े से की जा सकती... आशान के भीतर बंद रोमानी कवि ने भी प्रकट होने में अपना समय लिया।' क्लासिकी कृतियों की तर्ज पर एक दायित्वपूर्ण सृजन की उनकी मनोभिलाषा भी इससे व्यक्त होती है। उनका अनुवाद कर्म भी जैसे इसकी पुष्टि करता है।

अनुवाद के माध्यम से कुमारन आशान की कुछ रचनाओं से हमारे परिचय ने यह एक आधार तो प्रस्तुत किया ही है कि उनके मन में, चाहे वे काल्पनिक रचना 'विचित्र विजयम्' ही क्यों न हो, कहीं गहरे में उनके हृदय में दलित पिछड़े लोगों के प्रति ममत्व था। तभी 'विचित्र विजयम्' में कुम्हारों के गाँव का उल्लेख है। आधुनिक लेखकों ने जिसे तर्क और विमर्श से प्राप्त किया, वह कुमारन आशान के यहाँ नैसर्गिक रूप से विद्यमान था।

उनकी प्रथम महत्वपूर्ण कृति 'वीण पूवु' 'एक झरा हुआ फूल' है। झरे हुए फूल के प्रति आसक्ति का और चाहे जो कारण खोजा जाए साक्षात वह एक ऐसा त्रासद भाव हैं जो स्पष्ट करता है कि कुमारन आशान की पक्षधरता निर्बलों, असहायों के प्रति कृत्रिम रूप से उभर कर नहीं आती। रोमानी भावधारा के उत्कट आवेग में भीतर कहीं गहरे बसे उस अवसाद को वाणी मिलती है, उस अवसाद को, जो 'झरे हुए फूल' की त्रासदी में व्यक्त होता है। आलोचकों ने यह भी विचार व्यक्त किया है कि स्वामी नारायण गुरु की मरणासन्न स्थिति देखकर जब कुमारन आशान बहुत क्षुब्ध और मृत्यु भय से भयभीत थे तब उन्हें आसन्न क्षरण के भाव ने व्यथित किया होगा। इसमें संदेह नहीं कि अपने गुरु की असामान्य मृत्यु ने कवि को विचलित किया होगा किंतु यह मात्र गुरु की आसन्न मृत्यु का प्रभाव ही नहीं, इस समग्र सृष्टि की अंतिम परिणति से वे आक्रांत थे। जब हम किसी एक भाव विशेष के उदार स्वरूप की चर्चा करते हैं तब यह विचारणीय हो जाता है कि त्रासद का सातत्य सृजनशील मस्तिष्क में किस रूप में संरक्षित रहता है। स्पष्ट है वह प्रिय से प्रिय व्यक्ति के तिरोधान से उतना नहीं होता जितना समाज के बीच अन्याय और दमन की शक्तियों के कुचक्र से, प्रताड़ना की उपस्थिति से। अतः यह मानना ही पड़ेगा कि कवि के प्रारब्ध में वंचितों के प्रति ममत्व सृजन की मनोलौकिक निर्मिति है जो बड़े कवियों मे स्वाभाविक सी स्थिति है।

यह कम आश्चर्य का विषय नहीं कि वे निहायत धर्म सम्मत परिवार से बाहर आए थे, आरंभ में ही उन्हें एक मनुष्यधर्मी गुरु का आश्रम मिला था, पारंपरिक संस्कृति शिक्षा का भी उनके मन मस्तिष्क पर प्रभाव था, विवेकानंद और टैगोर के शीर्ष व्यक्तियों की भी एक विचारात्मक उपस्थिति उनके जीवन में थी किंतु इन सभी पक्षों की सकारात्मक भावभूमियां ही उन्होंने स्वीकार की थीं। उनके सृजन पर एक सकारात्मक, मानवीय, प्रगतिशील असर केवल बाहरी या ऊपरी नहीं था। वह विश्वास के एक नए विन्यास की तरह उनके सृजन में उभरता है। स्वतंत्रता के गीत में उनके सृजन का यह नया विन्यास 'समन्वय' के रूप में अभिव्यक्ति पाता है।

' तुमने शक्तिमान खड्ग के प्रकंपित प्रकाश को

हमारी आँखों पर पड़ने दो

उससे हमारी जंजीरों को कटने दो

इन हथकड़ियों को फिंकने दो , हे स्वामी।

हमें उठाई जिससे हम

अंधकार के प्राचीरों को ध्वस्त कर सकें

और हाथों में हाथ लिए

मुक्ति के सुखद सागर में हम खेलें '

जातिवाद, कुरीतियाँ, आडंबर वास्तव में अंधकार के वे प्राचीर हैं जो हमें बाहर नहीं देखने देते-कुमारन आशान स्वतंत्रता के गीत में सबको उस अंधकार से मुक्त देखना चाहते थे, और इसलिए वे अपनी रचना में मुक्ति को एक मूल्य के रूप में निबद्ध करते हैं। 'स्वतंत्रता' उनके लिए एक अधिक उदार, अधिक मानवीय अस्तित्व था। उसके प्रमुख स्तंभ आर्थिक स्वतंत्रता, समानता और मनुष्यता थे।

मुझे बताओ

क्या ब्राह्मण

किसी लता-शीर्ष से

या बादल से जन्मा है ?

या क्या वह

बिना किसी अन्य अग्नि से निकले या-अग्नि की तरह उपजा है ?

या जाति रुधिर में

या अस्थि में या मज्जा में पाई जाती है

क्या चाँडालिन का शरीर

ब्राह्मण के रेतस् के प्रति बंधा है ?

क्या यज्ञोपवीत या शिखा या मस्तिष्क पर तिलक मनुज के

साथ उपजे हैं ?

उनकी 'दुरावस्था' और 'चंडाल भिक्षुकी' जैसी कविताएँ हमारे जन समाज की ऐसी स्थितियों की कविताएँ हैं जो न केवल मौलिक हैं बल्कि यथार्थ की बेजोड़ छवियों को उकेरने वाली कविताएँ हैं। इन्हें पढ़कर कोई भी व्यक्ति भारतीय समाज की स्थितियों को बदलने के लिए कुछ भी करने के लिए प्रेरित हो सकता है। वह तमाम तरह की क्रांतिकारी, आंदोलनकारी वृत्तियों का समर्थक हो सकता है। शायद इन कविताओं की रचना के उपरांत उस मर्मांतक वेदना ने स्वयं आशान को किसी और विकल्प की ओर देखने के लिए विवश किया हो और वे ऐसे विश्वास की तलाश में रहे हों, जहाँ समता का दर्शन पूरी तरह से अपना वैभव प्रदर्शित करता हो।

आशान की कविता के कई स्तर हैं। उन्हें विषयों की दृष्टि से वर्गीकृत किया गया है, उनमें शैलीगत प्रकार भी उपलब्ध हैं। उनका 'नलिनी' काव्य ही अनेक ढंग की सृजन शैलियों की अनुगूंज देता है। इस काव्य का नायक दिवाकरन है। एक समीक्षक का कथन है कि 'दिवाकरन जाग्रत भारत का प्रतीक है।' अर्थात् कुमारन आशान ने अपने प्रबंध काव्यों में प्रतीकात्मक शैली का उपयोग किया है। तथापि कवि ने प्रबंध काव्यों के नायकों के काव्यगत चरित्रों में विलक्षण ढंग से उन समकालीन प्रभावों का मिश्रण किया है जो अन्यत्र दुर्लभ था। इस एक दृष्टि से कुमारन आशान भारत के अन्य कवियों से कदाचित आगे हैं। हिंदी, बांग्ला या मराठी के उनके समकालीनों की इस दृष्टि से तुलना भी की जा सकती है। हमारा आशय मात्र इतना है कि कुमारन आशान ने काव्य की परंपरागत शैलियों में नवीनता का पुट देने के लिए ही समकालीन प्रभावों का प्रयोग नहीं किया अपितु उन्होंने उन्हें प्राचीन कलेवर से मुक्त कर आधुनिक संगति प्रदान की है जो इसलिए भी सराहनीय है कि आधुनिक या समकालीन जटिलता के भीतर नए संसार की प्रतीति होती है।

सर्वमान्य मान्यता है कि कुमारन आशान के जीवन और उनके सृजन में गहरी अंतःसंबंद्धता है। वैसे भी सृजनात्मक मस्तिष्क किसी-न-किसी रूप में अपने जीवनी विवरणों को वस्तु के साथ तटस्थ भाव से पिरोता चलता है। कभी-कभी वह उन्हें बिलगाता भी है खासकर कविता में, क्योंकि कविता में आत्मकथात्मक विवरण एकदम निजी होने के कारण सार्वजनिक नहीं हो पाते। तथापि आशान का आरंभिक रुझान, जो उनके जीवन के सभी पक्षों में दिखाई देता है उनके परवर्ती विकास में भी जैसे साथ-साथ चलता और काव्य के विविध स्तरों पर अपना रूप उसी विकसन के साथ पाता है। कुमारन आशान श्री नारायण गुरु से प्रभावित और प्रेरित थे। उन्होंने अपने समय में बहुत सी रूढ़ियों के निदान के लिए भक्ति के एक ऐसे मार्ग की ओर संकेत किया था जो सर्वधर्म समभाव के रूप में बाद में व्याख्यायित किया गया है? धीरे-धीरे अपने वैचारिक आधारों को अधिक सुस्पष्ट करते हुए कुमारन आशान ने अपनी कविता में ही उस परिवर्तन को वाणी देना आरंभ किया जो उनके जीवन में घटित हो रहा था। वे बौद्धमत से आकृष्ट थे और अपने समय के सर्वाधिक सक्रिय कवि विश्वकवि रवींद्रनाथ की तरह ही वे बौद्ध अवधारणाओं की ओर आकर्षित हुए थे। कुमारन आशान के काव्य के सतत वैचारिक वृति में हम यह देखते हैं कि वे एक ऐसी वैचारिक दृष्टि के निर्माण में लगे थे जो लोकोत्तर की ओर संकेत तो करती है परंतु उसकी जड़ें भीतर ही भीतर सृष्टि में मजबूती से जमी हुई थी।

कुमारन आशान एक कवि के रूप में अपने अन्य समकालीनों से भिन्न हैं, शायद वे भारतीय भाषाओं में सृजनरत अन्य समकालीनों से भी अलग से हैं क्योंकि उनकी कविता में वस्तु और रूप के कुछ ऐसे परिवर्तन मिलते हैं जो अन्यत्र उपलब्ध नहीं हैं। इसका कारण यह भी हो सकता है कि उन पर जहाँ शास्त्र का गहरा असर पड़ा हुआ था वहीं उन पर अपने समय का प्रभाव भी परिलक्षित हो रहा था। जिस काल में वे सक्रिय रहे उस कालखंड में स्वाधीनता आंदोलन का प्रभाव जोरों पर था। इसलिए उनके काव्य में स्वतंत्रता की अवधारणा एक उन्मुक्त और स्वच्छन्य वृति की न होकर दायित्व और पूर्णता बोध से भरी हुई है। यही विकास हम ऐसे अन्य कवियों में पाते हैं जो उस काल में सृजनरत हैं किंतु सबमें कुछ दृश्य अंतर भी दिखाई देता है। हमारा लक्ष्य कवियों की तुलना नहीं है। उल्लेखनीय है कि बीसवीं शताब्दी के आरंभ के दशक भारतीय और पश्चिमी चिन्तकों की चिंतन शैलियों से लेकर आदर्शों की प्राप्ति के अभियानों से भी प्रभावित रहे हैं। इन दशकों के समूचे सृजन पर एक नजर डालें तो प्रभावों की सुनिश्चित दिशाएँ दिखाई देंगी। ऐसे बहुत सारे कवि हैं जिन पर क्रांतिकारी विचारधाराओं का सुस्पष्ट प्रभाव है। इन प्रभावों और प्रभावों के केंद्रस्थ व्यक्तियों के उपलब्ध जीवनी वृतांत एक पूर्ण परिचित रेखा की भाँति हरेक गतिविधि को छूते हुए से दिखाई देते हैं। अतः बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशकों को भारत की स्वाधीनता या कहें भारत की आजादी के संघर्ष से प्रभावित मुक्ति रस प्रेरित कालखंड के रूप में याद किया जाता है। कुमारन आशान उससे अप्रभावित नहीं थे। तथापि कहना पड़ेगा कि उन्होंने अपने पुराकथा मोह में उन्हीं आधारों का समर्थन किया जिनमें 'स्वतंत्रता' जैसे तत्व का समावेश था। इस दृष्टि से वे एक आधुनिक कवि नजर आते हैं जो अतीत के परिदृश्यों में वर्तमान और भविष्य का चित्र अंकित करते रहते हैं। एक समीक्षक ने ठीक ही कहा है कि वे निराशा के कवि नहीं हैं। आशावाद में वे भविष्य का एक परिदर्शन करते हैं जिसे सामान्य रूप से भी हम पुननिर्माण की आकांक्षा कह सकते हैं। पुननिर्माण इस अर्थ में जो कुछ अतीत में था वह खंडित दिखाई देता है तो उसे भविष्य में पुन-निर्मित होना ही है। वास्तव में कुमारन आशान अपने प्रबंध काव्यों में पुराकथाओं के कुछ नए सूत्र रचते हैं और वे सूत्र उनकी अन्य कविताओं में भी व्यज्जित हो जाते हैं। उनकी प्रसिद्ध कविता, एक झरा हुआ फूल इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। प्रकटतः एक झरा हुआ फूल दुःखांत को व्यक्त करता है किंतु यह दुःखांत उस शाश्वत सत्य का बोध है जो भारतीय साहित्य का प्राचीनकाल से आधारभूत चिंतन बिंदु है। तथापि प्राचीनकाल से जिस सत्य की प्रतीति के लिए काव्यत्व का यह मोह कविगण स्वीकार करते हैं उसे मात्र आकस्मिक मानना कठिन होगा क्योंकि दुःखांत का भाव दुःख के अंत से फिर एक नए स्वप्न का निर्माण करने लगता है। असल बोधात्मक, भावात्मक, आवेगात्मक शक्ति यहीं कहीं विद्यमान है।

कुमारन आशान मुख्यतः एक ऐसे कवि थे जिन्होंने अपने निजी सुख-दुःख की अपेक्षा समूचे समाज की त्रासद स्थितियों के प्रति एक दायित्वपूर्ण ढंग से कविता में अपना पक्ष रखा। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि उनके इस पक्ष पर विवेचकों ने कम अनुसंधान किया। जैसा कि सर्वविदित है कुमारन आशान ने चंडाल भिक्षुकी जैसी कविता में सामाजिक दुरवस्था को मुख्य आधार बनाया किंतु विवेचकों ने उनके कलापक्ष को ज्यादा महत्व प्रदान किया। अपने काव्य विवेक में आशान विराट स्तर पर सामाजिक एकत्व का स्वप्न देखते थे किंतु उनके विचारों और उनके प्रयत्नों का उतना सत्कार नहीं किया गया बल्कि मुसलमान लोग उनसे नाराज रहे क्योंकि उन्होंने दंगे की पृष्ठभूमि को अपना काव्य विषय बनाया था। इस सारी पृष्ठभूमि का महत्व आज समझ में आता है। एक ओर आशान मिथकीय दुनिया से बेजोड़ स्मृति लाते हैं तो दूसरी ओर वे समसामयिकता के अंतर्सबंधों के लिए भी उन्हीं का प्रयोजनपरक इस्तेमाल करते हैं। यह कविता की दुनिया की कोई पहेली नहीं है बल्कि कवि के शैल्पिक विकास का एक चरण है। जैसे जैसे लोग कवि के इस अनूठे विन्यास से परिचित होते हैं पाठकों को वह सब कुछ सामान्य प्रतीत होता है जो आरंभ में अत्यधिक विक्षुब्ध करता था। एक विद्वान ने ठीक ही कहा है कि चाहे 'नलिनी' हो या 'लीला' चाहे 'सीता' हो या 'करुणा', हमें उनके विलाप-काव्यात्मक भावनाओं के दर्शन होते हैं। हम देखते हैं कि सारी नायिकाओं पर जो आलोक है वह उनकी करुण दशा कारुणिक सघनता में करुणा के सारे विन्यासों के साथ रसज्ञ जनों के समक्ष प्रस्तुत किया गया है। आशान जब उनको हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हैं तो वे या तो इस भौतिक संसार को छोड़ने के त्याग भाव से प्रेरित हैं या कम-से-कम जीवन के भौतिक सुखों को त्याग करने वाले विवरणों को प्रस्तुत करते हैं तो वे विषय के प्रस्तुतीकरण की प्रणाली भी अपने शैल्पिक परिवेश में परिवर्तित कर देते हैं। आशान के काव्य की यह एक ऐसी विशेषता है जो उन्हें अन्य सृजेताओं से पृथक करती है। वे ख्यात चरित्रों के भीतरी भाव संसार को, उसकी समग्रता में प्रस्तुत कर भारतीय काव्य के उस तात्त्विक उत्कर्ष को ही चित्रित करते हैं जिसमें वह करुणा के उत्कृष्टतम संबोध का स्पर्श देते हैं। 'करुणा' की नायिका का भाव संसार उसके भौतिक रूप से विसर्जन के उपरांत अधिक अर्थमय ढंग से आशान द्वारा व्यक्त होता है।

' और वह कुछ नहीं है

करुणा की गहराईयों में परिशोधित

आबदार देदीप्यमान मोती के सिवा '

कुमारन आशान संक्रमण काल के कवि हैं। उन पर परंपराओं का पूर्ण प्रभाव है किंतु वे परंपराओं के उस ढंग के अनुगामी नहीं हैं जो परंपराओं को तर्कहीन रूप में स्वीकार किए जाते हैं। वे परंपरा के उत्कृष्ट की भरपूर सराहना करते हैं किंतु अर्थहीन प्रतिकृतियों की उपेक्षा करते चलते हैं। वे अपने समय के उन प्रभावों से भी एकदम अप्रभावित हैं जिन्हें हम अनुदारता का आवेश कहते हैं। इस दृश्टि से उन्होंने अपने समय के प्रभावों को भी स्वीकार नहीं किया। आधुनिकता के जितने पक्ष उनके जीवन काल में उद्घाटित हो रहे थे उनकी ओर मंत्रमुग्धता से देखने की कैशोर्य वृति से वे मुक्त थे किंतु उनकी भविष्य दृष्टि इतनी संपन्न थी कि आधुनिकता के सकारात्मक बिंदुओं को उन्होंने अनेक दृष्टियों से स्वीकृति दी है। अतः जब उन्हें संधिकाल का कवि कहा जाता है तो वह संधिकाल दो युगों की उत्कृष्टता के चयन से जुड़ा होने के कारण कवि के विवेक का भी निर्णायक आधार है। इसी के परिप्रेक्ष्य में हम उनकी विश्वदृष्टि का आकलन भी कर सकते हैं। परंतु उससे पूर्व कुमारन आशान के विचारदर्शन से पूरा परिचय पाना पड़ेगा तथापि यह स्वाभाविक ही है कि कुमारन आशान अपने समय के विलक्षण प्रतिभाशाली कवि होने के साथ भारतीय परंपरा में बसे एक ऐसे कवि थे जिन्होंने पौर्वात्य साहित्य के गहन अध्ययन से वह अनुबोध पा लिया था जिसे हम उनके विचार दर्शन का आदि सूत्र कह सकते हैं। यह आदि सूत्र था भारत के लोक में व्याप्त गहरी निष्ठा का भाव जो किसी भी व्यक्ति को द्विचित्त नहीं रहने देता था। वह भाव जो भारत नाम की संज्ञा को दूरित करता था और तत्त्व चिंतन की एक विकसित दृष्टि देता था।

प्रोफेसर रामचंद्र देव ने 'आशन काव्य में दर्शन' शीर्षक अपने निबंध में एक मार्के की बात यह कही है कि 'कुमारन आशान के काव्य में दर्शन अप्रकृत तत्त्व नहीं है', अर्थात् दर्शन की उपस्थिति बाहरी कारकों के कारण नहीं है वह तो अंतरान्वेषी आधार पर एक स्वाभाविक-सी विकास रेखा है। उन्होंने कुमारन आशान में विचारगत स्थितियों को भावांतरण की प्रक्रिया के रूप में ही देखा था। प्रो. देव स्पष्ट करते हैं कि 'तात्त्विक दृष्टि से देखने पर 'अहम्' और 'इदम' के पारस्परिक संबंध को लेकर ही मानव-मनीषा प्रथमतः उन्मिषित होती है। कलात्मक व्यापार उससे पृथक नहीं हो सकता। सहज व्यापारों में प्रवहमान मानव-चेतना उनकी उत्पत्ति और उपयुक्तता दोनों के संबंध में स्वयं निष्कर्ष निकालती रहेगी। कविता वाह्य जीवन के तरंग-संकुल सागर में 'अहम' की एकान्त यात्रा की नौका तो है ही और अतएव उसकी गहनता के उपकरण भी। कविता और दर्शन के पारस्परिक संबंध का रहस्य है।' स्पष्ट है कुमारन आशान की विचार दृष्टि का निर्माण एक नहीं अनेक अन्य तत्वों से निर्मित होता है। कुमारन आशान ने कालजयी भारतीय साहित्य का अपने अध्ययन के दौरान ही परिचय प्राप्त कर लिया था। भारतीय दर्शन का तो उनके अध्ययन को गहन अध्ययन ही कहना पड़ेगा क्योंकि एक सम्यक विवेक दृष्टि उसी अध्ययन के फलस्वरूप निर्मित हुई थी। अद्वैत और वेदांत का आधिकारिक ज्ञान तो उस संत श्री नारायण गुरु जी के सानिध्य में मिला था। अद्वैत की शंकर व्याख्या के गुरु-शिष्य दोनों अनुयायी थे। तथापि दर्शन की एक और परंपरा के प्रति कुमारन आशान की गहरी रुचि थी उसका संकेत भी विद्वान प्रो. रामचंद्र देव ने अपने निबंध में दिया है। तथापि उनके निष्कर्षों को तर्काश्रित होने पर भी स्वीकार किया जा सकता है। वे अद्वैत से तो पूर्णरूप से प्रभावित थे किंतु यह मानना पड़ेगा कि उनकी दृष्टि धर्म की संकीर्णता से मुक्त थी। उनका पश्चिमी धर्म दर्शन का ज्ञान भी विस्मित करने वाला था और यही कारण है कि वे तर्कहीन अंहवृति के शिकार नहीं हुए। विचित्र-सी बात है कि वे पूर्व और पश्चिम के नया ज्ञानोदय के काल में पैदा हुए किंतु वे पश्चिम के अंधभक्त नहीं थे। जैसा कि ज्ञानोदय के उस काल में हम अनेक ऐसे बुद्धिजीवियों की उपस्थिति भी पाते हैं। जो सर्वांग रूप से पश्चिमी रंग में लिप्त हो उठे। इसके उदाहरण कहीं बाहर से नहीं लेने पड़ेंगे अपितु भारतीय कवियों और समाज केंद्रित अध्ययन करने वाले विद्वानों में ऐसे बहुत से साक्ष्य दिखाई देंगे।

कुमारन आशान को मध्यमार्गी भी नहीं कहा जा सकता यद्यपि मध्यमार्ग के गुणधर्म उनमें हैं केवल उसी सीमा तक जिस सीमा तक भारत के स्वीकार के उनके अपने रास्ते हैं। वे एक पथानुगामी नहीं थे किंतु उन्हें बहुपथगामी सिद्ध करना भी दुष्कर है। वे अपनी काव्य दृष्टि में जितने भारतीय हैं उतने भारतीय वे अपनी दर्शन दृष्टि में नहीं हैं। उनकी काव्य दृष्टि और दर्शन दृष्टि का उल्लेख केवल इस कारण किया जा रहा है कि दर्शन दृष्टि में जो प्रभाव हैं वे काव्य दृष्टि में नहीं हैं। इस अर्थ में कि वे भारतीय दर्शन के कुछ आधारों का अतुलनीय भी मानते हैं। असल में यह प्रकरण केवल इसलिए उठाया जा रहा है कि इस द्वंद्व से हम उस तनाव का आभास पा सकें जिसका एक सृजेता के लिए विशेष अर्थ होता है अर्थात् वह कविता के अपने विवेक में नई दृष्टि का अहसास देने की सामर्थ्य से सिक्त होता है।

विचित्र यह भी है कि इसी सद्धर्म की पथ-वीथिका में कुमारन आशान सत्य और स्वतंत्रता के नए अनुभवों के बीच भी गुजरते हैं :

' सत्य की सांस लिए

समता को देखते हुए

सद्धर्म के मार्ग से

मानव चलता रहे। '

सत्य, सद्धर्म और समता एक ही परंपरा के सूत्र नहीं है परंतु आशान इससे निसृत वाले आलोक से वे जिन ये निष्कर्षों की ओर बढ़ते हैं वह -

' स्वातंत्र्य की अमृत है ,

स्वतंत्र्य ही जीवन है '

सत्य और समता के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए वे स्वातंत्र्य के अमृत को अनिवार्य मानते हैं। अपनी कविता 'स्वातंत्र्य गाथा' में कुमारन आशान स्वतंत्र्ता के गहरे अर्थों की ओर संकेत करते हैं। साथ-ही-साथ वे स्वतंत्रता के नए अर्थ संदर्भों से परिचित कराते हैं।

आशान पर भारतीय अध्यात्म के प्रभावों के संदर्भ में विचार करना जरूरी है। कहा भी गया है कि 'आशान के बहुमुखी व्यक्तित्व के रूपायन में मतिवर्य श्री नारायण गुरु का योगदान सबसे महत्वपूर्ण था। फिर उन्होंने संस्कृत का भी गंभीरता से अध्ययन किया था। अचरज नहीं हेाना चाहिए कि उनकी आरंभिक भक्तिपरक रचनाएँ इसी प्रभाव का प्रतिफल हों, तथापि भक्ति भाव को अनासक्त प्रेम काव्य कहने वाले भी मिल जाएँगे। सत्य साक्ष्यों के आधार पर उनका अनासक्त प्रेम काव्य वास्तव में काव्य के उच्चादर्शों से संपृक्त रहा है। वे एक तरह से अनुद्वेगकारी उच्चादर्श की प्राप्ति के लिए शृंगार से अनासक्ति की ओर मुड़े और उन्होंने इस क्रम में अपनी काव्य शृंखला में जो भी पुराकथा आधार स्वीकार किए उनके मूल में करुणामयता जैसे उन्हें सर्वाधिक प्रिय थी संभवतः यही एक सूत्र है जिसे बौद्ध प्रभाव के रूप में विवेचकों ने कालांतर में कवि कुमारन आशान की चिंतनधारा से जोड़ा। अब यदि अंतः साक्ष्य के रूप में नारायण गुरु, संस्कृत साहित्य अथवा वाङ्मय में दक्षता और करुणा को बौद्ध प्रभाव स्वीकार किया जाता है तो अंग्रेजी भाषा के प्रति उनके मोह, अंग्रेजी के बड़े कवियों कीट्स, ब्राउनिंग की सराहना, रवींद्रनाथ और शरतचंद्र के साहित्य के प्रति कृतज्ञता व बांग्लाभाषी अंग्रेजी लेखकों के प्रति अतिरिक्त रुझान को क्या गैर मलयाली प्रभाव के रूप में व्याख्यायित किया जा सकता है? स्पष्ट है इसे भी बौद्ध प्रभाव के रूप में ही अस्वीकार करना पड़ेगा और साफ-साफ मानना पड़ेगा कि कवि कुमारन आशान के कवि व्यक्तित्व की ये रेखाएं उनके विकास को द्योतित करती हैं न कि उन पर पड़े प्रभावों के रूप में उन्हें सीमित करती हैं। यहीं स्वतंत्र्ता संबंधी उनके चिंतन का सही अर्थ उद्घाटित होता है और उनके विशुद्ध भारतीयपन का प्रकरण अधिक सुस्पष्ट रूप से अर्थग्रहण करता है जो स्वतंत्रता के अमृत से जीवनी शक्ति प्राप्त करता है।

'स्वतंत्र गाथा' नामक गीत उनके काव्य सृजन की विस्मयकारी घटना ही कही जा सकती है। उससे पूर्व अपनी एक अन्य कविता 'ओरु उद्बोधनम्' अर्थात् एक उद्बोधन में उन्होंने सुप्त जन शक्ति को जगाने और एकजुटता द्वारा अपना लक्ष्य हासिल करने की प्रेरणा के रूप में लिखा था। उनका मत था कि स्वतंत्रता ही अमृत है, स्वतंत्रता ही जीवन है। आगे चलकर 'स्वतंत्र गाथा' में उन्होंने स्वतंत्रता के अन्य पक्षों की ओर भी संकेत किया। वे केवल राजनैतिक स्वतंत्रता के अन्य पक्षों की ओर भी संकेत किया। वे केवल राजनैतिक स्वतंत्रता के पक्षधर नहीं थे। सामाजिक-आर्थिक स्वतंत्रता के साथ-साथ वे सांस्कृतिक स्वतंत्रता के भाव को नई नैतिक निष्ठा के साथ उठाते हुए उसे मानव अस्तित्व के लिए अनिवार्य सिद्ध करते हैं।

' ओ स्वतंत्रता-साम्राज्य के महाधिपति

ओ स्वामी तुम जो स्वर्ण-सिंहासन को सुशोभित करते हो

ऐश्वर्य से आलोकित

राजसी हाथों में

देदीप्यमान किरणों का राजदंड लिए

तुम्हारे शासन की जय हो '

स्पष्ट है कवि शासन को सुशासन के रूप में ही देखता है। अगली पंक्तियों में समूची कविता अपने अर्थ संदर्भों के साथ-साथ एक रचनात्मक विकल्प बन आती है :

' वे पीढ़ियाँ जो पीड़ाओं से मुँह न फेरेगीं

उन्हें तुम्हारे नाम का घोष करने दो

और उसे इस धरती पर प्रतिध्वनित होने दो... '

कुमारन आशान दासता के ऐतिहासिक दबाव को भली-भाँति जानते थे। वे भारत के कृषक की दयनीय हालत के स्वयं गवाह भी थे। आने वाली पीढ़ियों उस सच्ची आजादी की प्राप्ति करें इस भावना को वे अपने मन में जीवित रखे हुए थे। देखा जाए तो जिस दीर्घ संघर्ष का प्रतिफलन 'स्वतंत्रता' थी उसके अमृत तत्व से वे शेष मानव समाज को भविष्य का एक ऐसा लोक स्वप्न की ओर प्रेरित कर रहे थे जहाँ स्वतंत्रता का जयघोष सदा गुंजारित रहे। यह आश्चर्य का विषय नहीं कि अपने संस्कृत अध्ययन के दौरान उन्होंने भारत के अतीत के उत्कर्ष का बोध किया हो और वे ऐसी ही मनुष्य जाति के विकास का सपना देख रहे हों क्योंकि उनके अंतःस्थल में यही एक विश्वास विद्यमान था कि मनुष्य जाति दीर्घ संघर्ष से उस स्वप्न लोक की प्राप्ति करेगी। भारतीय कवियों में उन्हें हम 'क्लासिकी' कवियों की परंपरा का सर्जक मानते हैं। इसकी पुष्टि के लिए प्रो. टी. एन. विश्वन का एक कथन लेते हैं - 'अपने काव्यों की भावभूमि में आशान के दो स्पष्ट चरण है उपनिषदीय दर्शन की निम्नोन्नतस्थली से गुजरकर आई राह पर प्रेम का संदेश और अन्यत्र जीवन के कटु यथार्थों से तप्त रेतीली राह पर क्रांति का आक्रोश। अपनी आरंभकालीन रचनाओं में स्थल काल सीमाओं से दूर उड़ने वाली कवि कल्पना का चमत्कार है।... उत्तरकालीन रचनाओं में जाति संबंधी विचारों की जंजीर में पड़ने के कारण स्वतंत्रता के पथ से दूर रहर कर संस्कृति के क्षेत्र की सीमा से कोसों दूर रहने वाले केरल के उन्नयन के इच्छुक के रूप में दिखाई पड़ते हैं। जाति की निरर्थकता का स्पष्टीकरण 'चंडाल भिक्षुकी' के द्वारा किया गया है और जाति भेद निरास का मार्ग 'दुरवस्था' के नायक-नायिका अछूत युवा और ब्राह्मण कन्या के विवाह के द्वारा दिखाया गया।' वस्तुतः प्रो. विश्वन आरंभिक और उत्तरकालीन विभाजन को कवि के रचनाकर्म के दो कालों के रूप में देख रहे हैं जबकि दोनों काल एक दूसरे से अविच्छिन्न रूप में जुड़े हैं। आरंभिक काल की कविताएँ एक प्रस्तावना के रूप में देखी जाएँ तो बेहतर क्योंकि उनमें आवेगात्मक उद्दामता है। प्रेम और अनुराग के उतने तीव्र उदाहरण अन्यत्र नहीं मिलेंगे साथ-ही-साथ अन्य भावावेगों की प्रखर धाराएँ भी हमें कुमारन आशान की शुरू की कविताओं में दिखाई देती हैं परंतु परवर्ती कविताओं में काव्य सृजन के उत्तरोत्तर विकसित होते पक्षों को आज हम यह कह कर खारिज नहीं कर सकते कि वे आरंभिक कविताओं के प्रस्तावों की ही आरंभिक प्रस्तावना जैसी हैं। उनकी परवर्ती कविताओं में क्षोभ, वासना, कटुता, शौर्य कम नहीं है किंतु परवर्ती काव्यों में विषयों की दृष्टि से भी एक विस्तार झलकता है। बहुधा आशान के काव्य को लेकर उन्हें संकीर्ण दृष्टि संपन्न सिद्ध करने का संकेत भी अनेक विवेचकों ने किया है। अतः उनकी 'यत परिवर्तन रसवादम' कृति का उल्लेख किया जाता है। इस कृति में उल्लिखित उनके विचारों पर खुलकर बहस होनी चाहिए। इसलिए भी कि ये हमारे समाज के ऐसे कुछ अनुन्तरित प्रश्न हैं जिनके उत्तर खोजने के लिए कुमारन आशान बेचैन थे। स्पष्ट है कि बीसवीं शताब्दी ने दूसरी संकीर्णताओं की तरह संकीर्ण मतवाद पर विचार करने का काम टाला है। निश्चित रूप से इस प्रवृत्ति ने यथार्थ के कडुवे रूप से सामना करने की वृति विकसित ही नहीं होने दी। आप आशान के विवेचन से असहमत हो सकते हैं किंतु आशान के साहस की दाद देनी पड़ेगी कि उन्होंने हमारे खुले समाज के उन नासूरों का विवरण दिया है जो उदार समाज की रचना की सबसे बड़ी बाधा है। भारतीय समाज में जातिवादी संकीर्णता उसी का एक प्रकरण है जिस पर रूढ़िग्रस्त समाज में रहते हुए विवेकपूर्ण और न्यायपूर्ण ढंग से कुमारन आशान ने लिखा है। वे चुनौतीपूर्ण ढंग से कहते हैं :

' तुम स्वयं नियम अपने बदलो

अपना वह नियम बदल डालेंगे तुमको '

इस खराब अनुवाद से झरते उस आशय से हम कुमारन आशान की अभीप्सा को आँक सकते हैं। भारतीय भाषाओं में स्वतंत्र, स्वायत्त, उदार अनुवाद की परंपरा या भाष्य का सहारा न लेकर शब्दानुवाद का जो पश्चिमी तौर तरीका है उसी का प्रतिफल है कि महाकवि आशान की कविताओं के अच्छे अनुवाद उपलब्ध नहीं हो सके। यह तो कुमारन आशान की कविता के अद्वितीय विषय हैं, उनकी आवेगात्मक भाषा है, उन विषयों की अवधारणात्मक सघनता है जो संकेत में ही सही उनके कथन के आस्वाद की झलक दे डालता है। इस अर्थ में उनकी लघु कविताएँ भी उनकी बड़ी कविताओं की तरह अपने ही ढंग से महत्वपूर्ण हैं। उनकी एक कविता 'सिंहनादम्' के. एम. जार्ज के अनुसार, 'बहुत ही शक्तिशाली पुकार है, जिसके द्वारा कवि अपने अनुयायियों को जाग्रत करता है : जागो जागो भाइयों, जल्दी करो, अपनी रणभेरी बजाते हुए जाओ और रोको जाति के राक्षस को, जहाँ भी जमाता हो वह पैर अपने।' वस्तुतः कुमारन आशान भारतीय जनमानस में रूढ़िग्रस्तता की दासता से भी मुक्ति चाहते थे और ऐसी मुक्ति राजनैतिक मुक्ति को ज्यादा अर्थवान बना डालती है। उनकी दृष्टि में भारतीय जन एक साथ बाहरी गुलामी की जंजीरों से बंधा होने के कारण अपने मनोलोक में भी अनेक अन्य दासताओं से ग्रस्त है। वे भारतीय जन को उस भीतरी दासता से मुक्त देखना चाहते थे और इसी कारण वे राष्ट्रीयता के प्रश्न पर अपने सांकेतिक विकल्पों को भी प्रस्तुत कर रहे थे।

कुमारन आशान पूरे भारत के लिए चिंतित थे। वे रचते तो मलयालम् में थे किंतु स्व भाषा के जरिए वे पूरे देश की जनाकाँक्षाओं को वाणी दे रहे थे।

' तुम्हारे शक्तिमान खड्ग के प्रंकपित प्रकाश को

हमारी आँखों पर पड़ने दो

उससे हमारी जंजीरों को कटने दो

इन हथकड़ियों की फिंकने दो - हे स्वामी!

हमें उठाओ जिससे हम

अंधकार के प्राचीरों को ध्वस्त कर सकें '

'स्वतंत्रगाथा' उनकी अतुलनीय कविता है जिसमें हम एक साथ कई प्रकरण खुलते देखते हैं। इसके पुनरुल्लेख की इस अवसर पर जरूरत आन पड़ी है कि स्वतंत्रगाथा अपनी परिपूर्णता में आसन्न स्वतंत्रता की पदचापें ध्वनित करती है - अतः देखना यह है कि भारतीय कविता में चिंतन के स्तर पर कविताएँ तो पूर्ण स्वराज्य का सपना ले रही हैं परंतु उस काल का राजनैतिक विवेक अभी तिलक की संपूर्ण स्वतंत्रता के लक्ष्य तक नहीं पहुँचा था। यह जानना काफी दिलचस्प होगा कि भारत के तथाकथित बुद्धिजीवी, वकील, डॉक्टर, राजनेता, शिक्षक और वाणिज्य आदि के क्षेत्रों में अंग्रेजों की बराबरी करने वाले लोग भी पूर्ण स्वतंत्रता एक हवाई चीज मानते रहे हैं। यदि कवियों की वाणी और तत्कालीन राजनैतिक चिंतन की तुलना की जाए तो राष्ट्रीय स्तर पर जनता के हृदय की आकांक्षा को अभिव्यक्ति देने का काम कवियों-कलाकारों ने ही किया है और इस प्रसंग में कुमारन आशान जिन्हें उनकी कुछ रचनाओं के लिए परंपरावादी, शास्त्रवादी कर पीछे धकेलने की कोशिश हुई है - एक नए, आधुनिक, अग्रणी कवि सिद्ध होते हैं और इसका प्रमाण उनकी स्वतंत्रगाथा कविता ही है।

भारत को उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में जानने वालों की सूची में कुमारन आशान का नाम अग्रणी इसलिए भी रहेगा कि भारतीय इतिहास के रुग्णतम काल में वे रचनारत हुए और उन्होंने खुले रूप में भारतीय दासता के उन अंतः सूत्रों को प्रदर्शित किया जो भीतर-ही-भीतर भारतीयता के मूल स्वरूप को कुतरने और खंडित करने में लगे हुए थे और वे ही प्रमुख कारण भी थे, जिनसे हम गुलाम बने हुए थे। भारतीय दासता पर मत एक वैज्ञानिक चिंतन था जो कुमारन आशान के रचनात्मक वैभव में संरक्षित है। कुमारन आशान, रवींद्रनाथ, अरविंद और गांधी के समकालीन थे। वे अरविंद और गांधी से प्रभावित थे इसके ठोस प्रमाण खोजने पड़ेंगे परंतु इतना निश्चित है कि भारतीय आजादी को अपने ढंग से प्रभावित करने वाले शीर्ष व्यक्तित्वों का कुमारन आशान को ज्ञान था। वे अपने कलकत्ता प्रवास में रवींद्रनाथ के संपर्क में भी आए थे इस पर अंग्रेजी के एक मलेशिया निवासी अध्यापक ने कार्य भी किया है। इससे यह तो सिद्ध होता है कि कुमारन आशान अपने समय के ऐसे क्रांति दृष्टा कवि थे जो पूरे भारत को उस काल खंड में अनेक मुद्दों पर संतप्त पाते हैं।

मलयालम् काव्य की दीर्घ परंपराओं को भारतीय भाषाओं की परंपराओं के संदर्भ में ही देखा जा सकता है। भारतीय भाषाओं पर पश्चिम के प्रभाव से उदित होने वाली आधुनिकता को भी इसी आशय से देखा जा सकता है। कुमारन आशान आधुनिकता के संवाहकों में अग्रणी हैं, उन्होंने अपनी काव्य परंपराओं के महत्व को रेखांकित कर वस्तु, शिल्प और विवेक के स्तर पर नवीनता का सूत्रपात किया। उन्हें हम 'महाकाव्यों' के युग के कवियों के समानांतर रूमानी भावधारा के अग्रणी कवि के रूप में पाते हैं।