कुर्ता / शेफ़ालिका कुमार

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(१)

उन दिनों की बात है, जब शाम में लोगों को फुर्सत होती थी, और बिन बुलाये मेहमानों कोआये देख चेहरा खिल उठता था. मेहमाननवाज़ी बिना सोचे, बिना मेहनत के, बस यूं ही हो जाया करती थी. इसे करने वाले और इसे पाने वाले दोनों को इसकी आदत थी. दोनों खुश हो जाते थे । यह शहर छोटा था और सोयी- सोयी सी लगती शाम आने वालों के कदमों की आहट से मनोरंजन के लोभ में जाग उठती थी। ऐसा ही समां बनाये बचपन के दो दोस्त बैठे थे. अदरक की चाय की मिठास इनकी दोस्ती के सामने फीकी थी. शायद इसलिए चाय ठन्डी हो रही थी और दोनों बातें करने में मशगूल थे.

" अरे, सुधाकर भैया, चाय तो लीजिये." मीरा भाभी ने कहा.

" गरम कर के लाओ न." उसके पति शेखर ने प्यार से कहा. मीरा ने आदरपूर्वक सर हिलाया और दो सुन्दर बोन चाईना के कपों को उठाकर रसोई की तरफ जाने लगी . मुस्कुराती हुई वह अन्दर तो गयी पर परदे की आड़ से इशारा करके शेखर को बुलाने लगी.

पैलवोव ( एक रूसी वैज्ञानिक) का एक डॉग एंड बेल एक्सपेरीमेंट था. पैलवोव ने कुत्ते को कुछ दिनों तक घंटी बजा कर खाना दिया. उसके बाद जब भी घंटी बजती, खाना हो न हो कुत्ते के मुँह में पानी आ जाता था. ऐसी ही बात औरतों के चुपचाप इशारा करने में है. शादी के बाद, जब भी मीरा इशारा करती, शेखर घबरा जाता. अब कौन- सी गलती हो गयी मुझसे मीरा के इशारा करने पर , शेखर यह सोचने लगता. सो इशारा पाते ही वह बहाना बना कर बैठक से निकला .

"हल्दी चढ़ा के चल दिए गप्प करने!"

मैडम मीरा का इशारा शेखर के नारंगी कुर्ते-पजामे की ओर था.

" ओह -हो ! सुधाकर ही तो है, उसके लिए क्या ख़ास कपडे पहनूं?"

" कुर्ता - पाजामा ही सही , क्या यही मिला था?" यह कहकर मीरा खिन्न होकर चाय गरम रने चली गयी .

जब भी मीरा शेखर को यह कुरता -पाजामा पहने देखती "बसंती रे! बसंती रे! हो …… बसंती रे …… " अपनी पतली कमर मटका-मटकाकर, छोटे, गोरे, मुलायम हाथ नचा-नचा कर शेखर को चिढ़ाया करती थी. यह गेरुआ पजामा -कुर्ता उसे बिलकुल पसंद न था. इस सूती पोशाक में एक ऐसी चमक थी जिसे सिर्फ देहाती ही पसंद कर सकते थे. और मीरा थी, बैरिस्टर की बेटी, जिसने अपना बचपन लखनऊ में बिताया था. पिछले दस सालों से उसका परिवार, दादाजी के गुज़र जाने पर इस शहर में आ बसा था. और उसकी सास कुसुमलता रानी , जिसने इस कुर्ते -पजामे को खरीदा था, वह थीं एक नामी वकील की पत्नी और एक ज़मींदार की बेटी जो पली - बढी तो रइसी में, पर इसी छोटे शहर में . इसलिए पसंद में वही गाँव की खुशबू बस गयी थी। खासकर रंगों के चुनाव में मेले -ठेले वाले रंग उन्हें विशेष लुभाते थे।

होली अभी बीती ही थी और हवा थोड़ी सूखी कि कुसुमलता रानी ने समझ लिया कि अब ग्रीष्म ऋतु दूर नहीं। वह ज्योति वस्त्रालय में पहुँच गयीं और परिवार के लिए गर्मी के कपड़े खरीदने लगी . वह सिर्फ हाई स्कूल पास थी पर मानो परिवार के हर व्यक्ति की पसंद और नापसंद पर पी -एच.डी . कर गयीं थीं .

कॉटन के इस कुर्ते -पजामे को अपनी दो उंगलियों के बीच दबा कर, कुछ क्षणों तक जल्दी-जल्दी मसल कर, उनहोंने अनुमान लगा लिया था कि प्रचंड गर्मी में, इस पजामे का कपड़ा कितना ठंडा रहेगा. माँ को पता था की शेखर को औरों से ज्यादा गर्मी लगती थी. घर में फ्रिज आ गया था जिसका ठंडा पानी सिर्फ शेखर ही पीता था. बाहर जाते वक़्त, उसके लिए एक थर्मस में यह पानी भर दिया जाता. गर्मी के दिनों में शाम होते ही घर की सारी खिड़कियाँ खुलवा देता. जैसे जैसे पारा ऊपर जाता वैसे वैसे शेकर का मिज़ाज बिगड़ता जाता. और दिल का भोला - भाला शेखर गुस्सा होने पर क्या कर दे , क्या बोल जाये , उसकी कोई गारंटी नहीं ! यह बात तो कुसुमलता जानती ही थी और अब तो उसका ख़याल रखने के लिए उसकी पत्नी भी आ रही थी . पर उसे शेखर की पसंद और नापसंद समझने में समय लगेगा , इसलिए अभी वह इन कामों से कुछ दिनों तक मुक्त नहीं हो पाएंगी . यह सोच माँ की आँखें गीली हो उठी .

और अभी माँ जी ने कुर्ते - पजामे को देख आधी मुस्कराहट ही दी थी की दुकानदार ने उसे जल्दी से खीच कर हटाने की कोशिश की. भला यह ऐसा कुर्ता - पाजामा खरीदेंगी! उसने सोचा. कपडा पतला है, सस्ता है.दुकानदार की व्यापारी बुद्धि उनसे कुछ महंगा खरीदवाना चाहती थी।इसीलिए उसने उस कपडे को परे हटा दिया। पर माँ जी ने उसे वापस खीचा और बाकी सब कपड़ों के साथ पैक करने को कहा. आखिर कुसुमलता शेखर की माँ थीं। उसकी पसंद कैसे न जानतीं? मीरा के लाख चिढ़ाने पर भी वह रोज़ इस मुलायम, कुर्ते -पजामे को कचहरी से आकर पहन लेता । रोज़ पहनता और धन्नुक उसे रोज़ धोता। इतना धोने के बाद भी हर शाम, अलगनी से उतरकर वह कुरता - पजामा अपने रंग की मजबूती बरकरार रख , फिर से आँगन की चौकी पर अपने पहनने वाले का इंतज़ार कर रहा होता। मीरा कभी -कभी शेखर को बोलती - गजब बात है भई ! आपकी तरह यह भी ढीठ है। न इसका रंग जाता है न यह फटता है!"

मीरा की बहन ने, दामाद जी के लिए, बढिया चेक के इम्पोर्टेड नाइट सूट मंगवाए थे. पौलियेस्टर कौटन के ये कपडे भला गर्मी में अपने देसी सूती कपड़ों को मात देंगे? मीरा के गाने और चिढ़ाने को अपनी हँसी से उड़ाता हुआ शेखर इम्पोर्टेड कपड़ो को तिरस्कृत कर, घंटों उस कुर्ते -पजामे में आँगन में चौकी पर लेटा रहता . गर्मी में दिन भर उसे इसी आराम का इंतज़ार रहता . बस शाम हो और कुंए के ठन्डे पानी को माथे पर लोटे से डाल कर नहाया जाये . फिर पूरा टैल्कम पाउडर गले और छाती पर छिड़क कर वह आरामदेह कुरता-पजामा पहनकर जब आँगन में लगी चौकी पर लेटता तो मीरा ने हमेशा गौर किया था कि अनायास ही रोज़ , उसके मुंह से एक हलकी - सी "आह !" निकल जाती . फिर माँ ठंढा पना भिजवाती . दोनों उसका मज़ा लेते और शेखर अपने आप को महुआ की महक और ठंडी-ठंडी हवा में खो देता और अक्सर रोमांटिक हो जाता . कुसुमलता रानी , थकान का बहाना बना कर अपने कमरे में चल देती थी बहू-बेटा को अकेला छोड़ते हुय्रे।

मीरा ने लाख जतन किये कि शेखर वह विदेशी नाइट सूट पहने। उसने अपनी मोटी, कजरारी आँखों को मटकाकर , थोडा रूठते हुए भी कहा था, "जाओ ! जीजाजी और दीदी ने कितने शौक से नेपाल से नाइट -सूट खरीदे थे , मत पहनो !"

शेखर मुस्कुराता रहा " अरे , इतनी उतावली क्यों हो रही हो ? गर्मी बीतने तो दो…. अच्छा एक बार वह आशा भोसले वाला नया गाना तो गाओ, पति थक कर कचेहरी से आया है , थोड़ा रिलैक्स किया जाये …."

धत् तेरे की …मीरा ने सोचा - कैसे पिंड छुडाऊँ इस वैरागी पोशाक से ?

इस शादी से मीरा और उसका घर बेहद खुश था . बीस साल की लड़की के कितने ख़्वाब होते हैं ! कभी-कभी तो ये हवा में उडते हैलोजेन के गुब्बारों जैसे सतरंगी ख़्वाब ससुराल की छोटी, तीखी सुईयों से फूटते रहते है . लेकिन मीरा के साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ था . सास का मिजाज़ अच्छा था , शेखर भले ही उसकी तरह गोरा नहीं पर अच्छी डील -डौल का था . शहर का नामी परिवार, बड़ा घर , संपत्ति , नौकर चाकर , घर में कोई झंझट नहीं , कोई समस्या नहीं , बस एक कमी थी …. ससुराल वाले बड़े ही सिंपल थे . साड़ियाँ जो ससुराल से आई थीं वे खूब महँगी थीं , पर ऐसी बेकार की मीरा का मन नहीं करता था उन्हे पहनने का . चटक- शोख रंग उनपर भी हावी था। सासु माँ की पसंद थी । सबके कपडे वही पसंद करती थी। इसीलिए तो शेखर अपने कपड़ों पर ध्यान नहीं देते , कोई टेस्ट ही नहीं है यहाँ लोगों का!

अपने खाली दिमाग में ऐसा ही कुछ मीरा सोच रही थी . सवेरे का समय था . सास उसके पास आयीं -

" तो मैं सत्संग के लिए जाऊं बहू ?"

उन्होने मीरा की खूब कढ़ाई की हुई साडी देखकर पूछा " तो मन बदल गया तुम्हारा ? तुम भी चलोगी …. " मीरा को भारी साडी पहने देखकर उन्हें लगा था कि वह जाने के लिए तैयार है।

" नहीं माँ जी ! घर का काम कौन देखेगा . आप मेरे लिए प्रसाद ले आइयेगा ."

कुसुमलता रानी ने थोडा घबरा कर फिर से उस साड़ी को देखा , और सोचा कि कैसे कोई इस गर्मी में इतनी कढ़ाई वाली साड़ी घर पर पहन सकता है? फिर अपनी सोच पर शर्म आई . नयी -नवेली बहू भला नहीं सजेगी तो कौन सजेगा . वह बोली ,' वहां मैने पुराने कपड़ों की गठरी रख दी है . बर्तन वाली आयेगी . चौदह कपड़े में एक किलो, इससे ज्यादा मत देना . देखो,अगर पतली वाली आये तो सावधान रहना , वह तो और चालाक है ! एक रोटी का डिब्बा , कटोरियाँ और बाकी जो मन करे ले लेना "

यह कह कर वह चली गयीं .

ट्रांसिस्टर पर मीरा गाना सुन रही थी, " बहू जी …बहू जी …" कहते हुए धन्नुक ने कमरे के बाहर से घोषणा की कि बर्तन वाली आ गयी है। वह कपड़े दे दे और इतना कहकर वह घर के पीछे वाले खेत में चला गया .

मीरा उठी और कपड़ों की गठरी लाने गयी . उसे लेकर वापस आ ही रही थी कि उसकी नज़र चौकी पर रखे उस कुर्ते-पजामे पर पड़ी . थोड़ी देर के लिए मीरा रुकी , सर हिला कर दरवाज़े की ओर चल दी, पर फिर कुछ सोचकर आधे रास्ते से ही लौट आई . उसने जल्दी से उस कुर्ते-पजामे को उठाया और गठरी खोल कर उसे पुराने कपड़ो के बीच में ठूंस दिया . १४ कपड़ों में एक किलो बर्तन , इसी भाव से कपड़े देकर उसने नए बर्तन ले लिए।

(२)

नल टूटा हुआ था और टेढ़ा मुहँ किये पूरी धृष्टता से पानी फ़ेंक रहा था . बस स्टैंड पर आने-जाने वाले यात्रिओं के लिए यह सुविधाजनक था . बिना नल खोले ही पानी पी लिया जाये , और क्या ! काम पतली गली पकड़ कर अगर झट से हो जाये तो भला हम सीधा, लम्बा रास्ता क्यों लें?शॉर्टकट्स की आदत जो हो गयी है लोगों को !

ड्राइवर सीट पर , बस के अन्दर बैठा हुआ था . ड्राइवर नहीं , कंडक्टर जो अक्सर बस की स्टीयरिंग हाथ में लेने के फेर में रहता। अभी वह पूरी मदहोशी में परिवहन निगम की बस को वह फर्राटे से उड़ा रहा था . उस सीट पर वह राज़ा बना बैठा था , और राजा भला पैदल चलने वाली चीटियों की फ़िक्र करेंगें ? पर उस बेचारे को ही क्यों दोष दे ? जिस देश में सामान्य जनता भूख और बेरोज़गारी के थपेड़े सहती हो और जहाँ छोटी-बड़ी हार की आदत सी हो गयी हो वहां क्षण- भर के लिये अगर बॉस बनने का मौका मिल जाये कोई नहीं छोड़ता। अभी कंडक्टर भी अपने को पूरा डाइवर ही समझ रहा था। उसे भी नशा हो गया था कि आज बस को उड़ा ही देना है। इसी बस और उसके हॉर्न से घबराकर शम्भू नलके के पास गिर पड़ा । सिर में चक्कर -सा आया। किसी -किसी तरह उठकर पानी पीने के लिए उसने किसी को धक्का दिया था । शायद वह कोई कुत्ता था। पानी पीकर उसकी जान में जान आई। फिर भी इतनी हिम्मत नहीं थी की वह अपने शरीर को पानी के टूटे चबूतरे से हिला भी सके , सो वह वहीँ बैठ गया। थोड़ी देर बाद उसे ऐसा लगा कि अब उसकी साँसे धीरे - धीरे उसके शरीर में वापस आ रही है .

" ए , हट ! " सुरमे से भरी भूरी आँखें उसे देख रहीं थीं . पर उन आँखों में शंभू नहीं था। एक भिखारी , एक पागल हो शiयद - वह औरत यह सोच रही थी । इस तिरस्कार से उसका कमज़ोर शरीर तुरंत हिला । कीचड़ से लतफथ कपड़ों में सने हुए उसने नज़रें उठाकर ऊपर देखा । औरत के जाते ही उसने अपने हाथ- पाँव धोये।

यह कहाँ आ गया था वह ? सरकारी बस स्टैंड। कैसे और कब आया- इसकी सुध नहीं थी। फिर वह वहां घूमने लगा जैसे वह मेले में आया हो। यह मेला ही तो था। बस और हॉर्न का शोर , टेम्पो की फट-फट , मूंगफली , खीर , भेल बेचते बच्चे , फलों की सजी हुई दुकान, पूरी- सब्जी खाने वालों की भीड़ और गुजरातिन के कपड़ों के लिए मोल-तोल करते ग्राहक।

शंभू की नज़र गुजरातिन की दूकान पर रुक गयी . उसने अपने मैले कपडे देखे , तभी ऐसा लगा कि गुजरातिन उसे हटा देगी . उसने अपनी पॉकेट से पैसे निकाल कर बिना गिने हुए ही हाथ उसके सामने कर दिए।

काले नाखूनों वाली निरीह आधी बंद मुट्ठी उस औरत के सामने हवा में टंगी थी . गुजरातिन ने देखा कि उसमे ज्यादा पैसे नहीं थे . पता नहीं क्यों , तरस कर या चतुराई में उसने एक गेरुआ - कुर्ता -पजामा निकाल कर शंभू को पकड़ा दिया .

उस कुर्ते -पजामे ने ऐसी चुस्ती से उसके शरीर को पकड़ा जैसे उसकी बेबसी से द्रवित होकर वह उसे बाँहों में भर रहा हो . शंभू चलने लगा , बिना कुछ सोचे या तय किये . कुछ दूर चलने के बाद एक भीड़ में अपने गाँव का नाम सुनकर उसके पैर थम गए और वह खलासी को देखने लगा

"जाना है ? जल्दी करो भाई , एक ही सीट खाली है टेम्पो में . बैठना है तो बैठो । "

पर शंभू ने सारे पैसे तो दे दिए थे पुराने कपड़ों की दूकान पर . यह जानते हुए भी उसने अपने खाली पॉकेट में हाथ डाला और निकाला ।

पान की पीक की पतली , लम्बी धार को कुशलता से दूर तक फेकते हुए खलासी ने मखौल उड़ाया -

" फ्री फण्ड में जाना चाहते हो …चलो आगे बढ़ो !"

उसी टेम्पो में बैठे हुए एक आदमी ने उसे देखा और बोला -

"क्या हुआ बोल बम ? साला व्रती आदमी से ऐसे बोलता है ! चुप!"

उस दो पैसे वाले नेता किस्म की कड़क से खलासी चुप हो गया . नेता जैसा दिख रहा था और रोब भी वही था . चारों तरफ से लोग इक्कट्ठा हो गए .

शंभू ज़मीन की तरफ़ देखने लगा .

" सामान कहाँ है आपका ? "

जब जवाब नहीं मिला तो उस महाशय ने कहा -

"राम … राम ! यह देखिये , बोल बम जाने वाले का भी सामान किसी बहुद्दे ने चुरा लिया . छी ! क्या ज़माना आ गया है !"

कौतूहल बढ़ गया . लोग अपनी-अपनी सलाह देने लगे और टिप्पणी करने लगे . अब लोगों को कहीं जाने की जल्दी नहीं थी . गप करने में कई लोग मशगूल हो गए. टेम्पो वाला भी बड़े चाव से बातें सुनने लगा .

" कुछ आईडिया है कि सामान अंतिम बार कहाँ देखा था?"

" अरे , एक हाथ मैं हमेशा सामान पर रखता हूँ , आपको पता नहीं है ऐसी जगह पर कितने चोर घुमती हैं …."

" बेचारा आदमी ."

" कोई बात नहीं , भगवान को जल चढ़ा कर आये हैं न, बस सोचिये कि आपका कोई भारी नुक्सान होना लिखा था , शम्भुनाथ इसी में काट दिए . कोई विपदा टल गयी ."

पुरान सफारी सूट पहने एक व्यक्ति ने कहा -

" अरे मैं तो हमेशा यहाँ आता रहता हूँ . भई , यहाँ तो चोर-पुलिस भाई-भाई हैं तो चोर क्या ख़ाक डरेंगे ! इसीलिए मैंने तो पॉकेट वाला अन्डरवियर खरीदा है . उसी में पैसे रखता हूँ . और इस ब्रीफकेस में… (अपनी आवाज़ को जोर करके वह व्यक्ति बोला ) कुछ नहीं है !"

लोग फिर शंभू की मदद करने के लिए उससे तरह-तरह के सवाल करने लगे

शंभू चुप रहा और एकटक ज़मीन की और देखता रहा.

क्या कहता ? उसके जीवन में इतना कुछ हो गया था कि वह अपने आप को बहुत छोटा महसूस कर रहा था . उसकी गणना इकाई में संभव नहीं थी ,इतना छोटा था वह . उसके गाँव में कई लोग थे जो उसकी तरह क़र्ज़ और गरीबी से लड़ रहे थे . लेकिन आज जो हुआ उसे याद करके उसे खुद विशवास नहीं हो रहा था . कैसे कोई मालिक इतनी बेदर्दी से काम करने वाले मजदूर को पीट सकता है?. पर उसे लग रहा था कि आज उसने ठीक किया . कितने दिनों तक चुप रहता . छह महीने पहले वह अपने परिवार को गाँव में छोड़ कर, मजदूरी करने शहर आया था . जोतने के लिए अब खेत बचे नहीं थे और न खाने के लिए अन्न . पर उसका मालिक कभी भी उसे पूरे पैसे नहीं देता था . आज जब उसने नौकरी छोड़ने की बात की और अपने बकाया पैसे मांगे तो उसका मालिक आपे से बहार हो उठा . पिछले छह महीनो में वह बहुत कम पैसे घर भेज पाया था . इससे अच्छा तो वह गाँव में ही था , उसने सोचा , यहाँ कितना अकेला पड़ गया था .

एक हाथ उसके सामने छीले हुए, नमक और चूरन लगाये खीरे लेकर खड़ा था . उसका ध्यान भंग हुआ .

" खाइए " खादीधारी ने कहा .

खीरे वाले ने पैसे की मांग की तो उसने कहा - " अंग्रेजी बोलता है . पैसे! हुंह ! कुछ तो शर्म करो, इनसे पैसे लोगे?"

और फिर मुड़ कर उसने टेम्पो वाले को निकलने का आदेश दिया .

पता नहीं कब वह टेम्पो में बैठ गया था और शहर पीछे छूट गया था . वह सुन्न-सा बैठा था . पर जब दूर, धूल के बादलों के बीच उसने ग्रामीण बालिका विद्यालय को देखा तो वह गभर गया . गाँव आ गया ! वह गाँव आ गया ! उसने अपनी पोशाक की और देखा . ज़रूर किसी भले मानस , साधु -महात्मा की उतारन होगी यह . कांपते हाथों से उसने अपने कुर्ते को छुआ . स्पर्श बहुत मुलायम था.