कृतघ्न राजकुमार / जगदीशचन्द्र जैन

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्राचीन काल में वाराणसी में राजा ब्रह्मदत्त राज्य करता था। उसके पुत्र का नाम था दुष्टकुमार। दुष्टकुमार स्वभाव से बहुत कठोर और सर्प के समान भयंकर था। बिना गाली-गलौज के और बिना मारे-पीटे वह किसी से बात न करता था। अपने दुष्ट स्वभाव के कारण वह लोगों को बहुत अप्रिय था। आँख की किरकिरी के समान वह सबको खटकता, और खाने के लिए मुँह-बाये पिशाच के समान भयानक मालूम होता था।

एक दिन की बात है, दुष्टकुमार अपने नौकर-चाकरों के साथ नदी के किनारे खेलने गया। इतने में बड़े जोर से बादल घिर आये और सब जगह अँधेरा छा गया।

दुष्टकुमार ने नौकरों से कहा, “भणे! चलो, मुझे नदी के बीच ले चलकर नहलाओ।”

नौकरों ने सोचा, क्यों न हम इस पापी को यहीं समाप्त कर दें? राजा हमारा क्या कर लेगा!

इस प्रकार आपस में सलाह कर उन्होंने उस मनहूस को नदी की बीच धार में डुबो दिया।

घर लौटने पर जब राजकुमार के बारे में पूछा गया तो नौकरों ने कह दिया कि हमें मालूम नहीं, वह कहाँ है।

यह समाचार राजा के पास पहुँचा। उसने मन्त्रियों से पूछा।

मन्त्रियों ने कहा, “महाराज! हमने समझा, कुमार नदी में नहाकर घर आ गये होंगे।”

राजा ने कुमार की खोज में चारों ओर आदमी दौड़ाये, किन्तु कहीं पता न चला।

उस दिन बहुत जोर की वर्षा हुई। दुष्टकुमार के हाथ में नदी में बहता हुआ एक लक्कड़ पड़ गया। उस पर बैठा, रोता-चिल्लाता हुआ वह नदी में बहने लगा।

वाराणसी का एक सेठ उसी नदी किनारे चालीस करोड़ धन गाड़कर मरा था और धन के लोभ से अब सर्प बनकर वहाँ पैदा हुआ था।

वर्षा के कारण सर्प के बिल में पानी भर गया और वह भी नदी की धार में बहने लगा।

नदी में बहते हुए उसने इस लक्कड़ को देखा और उसे पकड़कर वह उसके एक कोने में बैठ गया।

इसी नदी के किनारे एक चूहा रहता था। यह चूहा भी पूर्वजन्म में वाराणसी का बड़ा सेठ था। उसने नदी के किनारे तीस करोड़ धन गाड़कर रखा था और उसके लोभ से अब चूहा बनकर पैदा हुआ था।

वर्षा के कारण चूहे के बिल में पानी भर गया और वह भी नदी में बहने लगा।

यह चूहा भी उस बहते हुए लक्क्ड़ के किनारे जा बैठा।

नदी के किनारे सेमल का एक वृक्ष था। उस पर तोते का एक शावक रहता था।

बाढ़ में सेमल की जड़ें उखड़ गयीं और वृक्ष गिर पड़ा।

तोते का शावक वृक्ष पर से उड़कर न जा सका। वह भी नदी में बहने लगा। वह भी बहते हुए लक्कड़ के ऊपर जा बैठा।

उस समय एक भिक्षु नदी के मोड़ पर अपनी पर्णशाला बनाकर रह रहा था। आधी रात को वह इधर-उधर टहल रहा था। इतने में एकाएक किसी के रोने का शब्द सुनाई दिया। बाहर आकर देखा तो एक आदमी लक्कड़ पर बैठा नदी में बहा जा रहा है।

भिक्षु ने सोचा, मेरे रहते हुए इसे अपने प्राणों से हाथ धोना पड़े, यह ठीक नहीं। अतएव नदी से निकालकर इसकी रक्षा करनी चाहिए।

भिक्षु ने वहीं से चिल्लाकर कहा, “डरो मत, डरो मत।” और वह तेजी से पानी की धार को चीरता हुआ लक्कड़ के पास जा पहुँचा। लक्कड़ के सिरे को उसने जोर से पकड़ा और खींचकर नदी के किनारे ले आया।

भिक्षु ने देखा कि लक्कड़ के ऊपर राजकुमार के अतिरिक्त एक सर्प, एक चूहा और एक तोता भी बैठे हुए हैं।

उन्हें उठाकर वह अपनी कुटिया में ले आया। उसने आग जलायी और उनकी परिचर्या में लग गया। भोजन खिलाते समय भी भिक्षु ने सर्प आदि का ही अधिक ध्यान रखा।

भिक्षु का यह आचरण राजकुमार को बहुत बुरा लगा। उसने सोचा, देखो, इस पाखण्डी को! मुझ-जैसे राजकुमार का ध्यान न कर, यह पहले इन पशु-जीवों की सेवा करता है।

कुछ समय बाद चारों स्वस्थ हो गये तो उन्होंने अपने घर जाने की इच्छा प्रकट की।

सबसे पहले सर्प ने उठकर भिक्षु को नमस्कार कर कहा, “भन्ते! आपने मेरा महान उपकार किया है। मैं आपका बहुत कृतज्ञ हूँ। आप मुझे दरिद्र न समझें। नदी के किनारे मेरा चालीस करोड़ धन गड़ा हुआ है। आपको यदि कभी धन की आवश्यकता हो तो आप उस स्थान पर जाकर 'दीर्घ' कहकर पुकारें। मैं आपकी सेवा में उपस्थित हो जाऊँगा।”

इसके बाद चूहे ने उठकर कहा, “भन्ते! आप नदी के किनारे 'उन्दुर' कहकर आवाज लगाएँ, मैं शीघ्र ही आपकी सेवा में उपस्थित होऊँगा।”

तोते ने भी कृतज्ञता प्रज्ञापित करते हुए कहा, “तपस्विन्! मेरे पास धन नहीं तो क्या, मैं आपको जितने चाहिए रक्तशालि दे सकता हूँ। कृपया आप मेरे घोंसले के पास जाकर 'सुवा' कहकर मुझे आवाज दें। मैं शीघ्र ही अपनी बिरादरी के लोगों से कहकर गाड़ियों शालि मँगवाकर आपको दे सकूँगा।”

तत्पश्चात् राजकुमार की बारी आयी। राजकुमार ने मन-ही-मन सोचा, यह तपस्वी बड़ा पाखण्डी है। जब यह मेरे घर आएगा तो मैं इसे जीता न छोड़ूँगा।

उसने कहा, “भन्ते! मेरे राजा होने के बाद आप मेरे यहाँ अवश्य पधारें। आपका मैं बहुत सत्कार करूँगा।”

कुछ समय बाद भिक्षु ने सोचा, चलूँ, इन सबकी परीक्षा करूँ और देखूँ कौन-कौन क्या करता है?

सबसे पहले भिक्षु साँप के बिल के पास पहुँचा। आवाज सुनते ही साँप तुरन्त बिल से निकलकर आया और कहने लगा, “महाराज! मेरा सब धन स्वीकार कर कृतार्थ करें!”

भिक्षु यह कहकर चल पड़ा कि फिर कभी आऊँगा।

चूहे और तोते ने भी भिक्षु के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की। भिक्षु ने उन्हें भी वही उत्तर दिया।

कुछ समय बाद भिक्षा माँगते हुए उन्होंने वाराणसी में प्रवेश किया। उस समय राजा अपने हाथी पर बैठकर बहुत-से नौकर-चाकरों के साथ नगर की प्रदक्षिणा कर रहा था।

भिक्षु को दूर से आते हुए देखकर उसने सोचा, यह वही पाखण्डी है जो मेरे घर मुफ्त में रहने और खाने के लिए आ रहा है। अतएव इसके कुछ माँगने के पहले ही इसका सिर कटवा देना चाहिए।

राजा ने कर्मचारियों को संकेत करते हुए कहा, “देखो, यह पाखण्डी मुझसे कुछ माँगने आ रहा है। इस मनहूस को मेरे पास न आने दो। इसे पकड़कर इसके हाथ बाँध लो, और चौराहों पर पीटते हुए नगर के बाहर निकाल दो। इसके बाद सिर काटकर धड़ को सूली पर लटका दो।”

राजा की आज्ञा पाते ही कर्मचारियों ने भिक्षु को पकड़ लिया और मारने के लिए ले चले।

भिक्षु सोचता हुआ जा रहा था-कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनकी पानी से रक्षा करने की अपेक्षा लकड़ी के लट्ठे की रक्षा करना ही अच्छा है!