कृष्ण सखी / भाग 25 - 28 / प्रतिभा सक्सेना

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25.

जुए में हारने के बाद पांडवों ने काम्यक-वन के लिये प्रस्थान किया..

भविष्य का आभास सबको होने लगा था. कौरवों की शक्ति बहुत बढ़ गई थी.अब अपनी सामर्थ्य बढ़ाये बिना निस्तार नहीं.अर्जुन अपनी यात्रा पर निकल गये! अवसर का उपयोग कर रहे थे - इन्द्रकील पर्वत पर तप में रत थे- दिव्यास्त्रों की प्राप्ति हेतु.

समय कब रुका है किसी के लिये!

जीवन बीत रहा है.पांचाली का सब मान करते हैं, सुख-सुविधाओं का यथाशक्ति ध्यान भी रखते हैं - अपने-अपने ढंग से. सबसे मधुर संबंध हैं. पर द्रौपदी के मन के साझीदार नहीं हो सके वे कोई. मन की एक शून्यता किसी प्रकार भरती नहीं. मंथन थमता नहीं.

अर्जुन के साथ आती थी वैसी तृप्त निद्रा तब से नहीं आई. दुश्चिंता में निद्रा भंग हो जाती है. पता नहीं उद्विग्न मन लिये कहाँ - कहाँ भटक रहे होंगे!

दैनिक जीवन के अनुबंध निभाते दिवस बीतता है. वनवास के प्रारंभिक दिनों में, सब कुछ अव्यवस्थित था, जीवन बड़ा असुविधा भरा था.धीरे-धीरे गृहस्थी जमने लगी.

गृहस्थी कहेंगे उसे?

आदत नहीं थी. पर आवश्यकता सब करा लेती है.

सब का भोजन बनाने में पांचाली अति श्रमित हो जाती थी.आवश्यक सुविधाओँ का अभाव और भीम जैसे भोजन-भट्ट!

सहायक सब थे, जितना जिसका वश था.

एक दिन भीम बोले, 'आज मेरे लिये उतना भोजन मत धरना पांचाली, मैं नहीं खा पाऊँगा.'

'क्यों? विस्मय से पूछा ' भीम और भोजन के लिये मना कर दें.

'हिडिंबा ने शूकर माँस स्वादिष्ट बनाया था. सब ने आग्रह से खिलाया मैं अधिक खा गया अब एक समय निराहार रहूँगा.. '

सब हँस पड़े, ' इतने योजन चलने में सब पच गया होगा भीम, तुम निडर हो कर भोजन करो.'

'मैं जानती हूँ, मेरा श्रम देख कर कह रहे हो तुम.पर तुम यथेष्ट आहार न लोगे तो मुझे कैसे संतोष मिलेगा?ना, फिर मैं भी उपासी रहूँगी.'

आग्रह पूर्वक जिमाती है. कोई थोड़ा भी भूखा रह जाय, सहन नहीं कर पाती वह.

प्रायः ही भीम-पुत्र आ जाता है.

कितना सरल स्वभावी है घटोत्कच ! किशोरावस्था पार कर चुका है -भीम जैसा ऊँचा-पूरा.बल्कि उनसे भी बढ़ कर -स्वस्थ, परिश्रमी.

पांचाली ने ध्यान से देखा था -हिडिंबा-सुत में भीम की कितनी झलक है!

वही नेत्र, वही स्नेहमय दृष्टि.किसी को सुख देने हेतु कुछ भी करने को तत्पर, और मुख की भंगिमा बार-बार भीम की झलक मारती हुई.

देखती रह गई थी वह.

उसने बढ़ कर पांचाली से पूछा था, 'तुम मेरी भी माँ हो न?'

मन कसक उठा - आज को मेरे पुत्र भी मेरे पास होते...यदि.....!

तुरंत आगे बढ़ अंक में समेटती द्रौपदी बोली थी, 'पुत्र, यह भी कोई पूछने की बात है.'

फिर हँसते हुये, 'देखो न, मेरा यह पुत्र अब गोद में नहीं समाता.'

और उसने झट आगे बढ़ पांचाली को गोद में उठा लिया, 'इससे क्या.अब मैं तुम्हें उठा सकता हूँ.'

बिलकुल भीम की तरह- द्रौपदी को लगा.

उसने पूछा था ' कमल-सरोवर में स्नान कर आई हो माँ? नील-कमल की सुगंध छाई है जब से आया हूँ..'

सब चुप, भीम चकित - कोई कैसे बताये यौवन-प्राप्त पुत्र को पत्नी के देह-परिमल की बात!

नटखट बने-से सहदेव बोल उठे, 'ये जहाँ रहती हैं योजन भर तक अपनी उपस्थिति ऐसे ही जता देती हैं.'

सब मुस्करा रहे हैं.

'कितनी सुन्दर है माँ.' शब्द जैसे अनायास. मुख से निकल पड़े हों, फिर कुछ सोच कर 'मेरे और भाई कहाँ हैं ?'

'वत्स, तुम्हारे पाँचो भाई अपने मामा और मातामह के पास रह कर उचित शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं?'

घटोत्कच के आवागमन से वन-जीवन में विविधता का संचार होने लगा.

इस क्षेत्र में उसके अनुभव बहुत व्यापक हैं. अपने प्रयासों से सब कुछ कितना सहज कर देता है. द्रौपदी की अनेक कठिनाइयाँ चुटकी बजाते हल हो जाती हैं.

पहली बार अपने लोग मिले हैं भीम के पुत्र को.

दोनों छोटे पितृव्यों के साथ खूब पटरी बैठ गई है. अब तक सबसे छोटे रहे उन दोनों को भ्रातृ-पुत्र अब मिला है. अपनी विद्याओँ का प्रशिक्षण देने से पीछे क्यों हटें भला!

पुत्र के हाथों हिडिंबा भेंटे भेजती रहती है. 'पहिल-बियाही' है वह, छोटी भगिनी- समान समझती है पांचाली को!

26.

एक व्यक्ति चला गया है सबके हित के लिये - शक्ति और साधन-संधान हेतु.

शेष सब हैं. हाँ, शेष चार!

एक बड़ा धीर-गंभीर, शान्त मौन रहकर अपनी-सी ही करने वाला. सदा नीति और धर्म का पल्ला थामे. वह स्वयं क्या सोचता है कभी समझ नहीं पाती पांचाली.

भीम संवेदनशील हैं, सहानुभति है पांचाली से.सदा प्रयत्न करते हैं उसे प्रसन्न करने का. पर उनका स्वभाव -अलग है, स्थिर हो कर बैठनेवाले वे नहीं. चंचल मन, और फिर आँख ओट तो पहाड़ ओट.दिन में घर पर टिकते ही कितना हैं. पर्वतों-घाटियों को लाँघते घूमते-भटकते हैं वनों में.और हिडिंबा भी तो है न.वहाँ जाना-आना लगा रहता है.

मानसिक स्तर सबका भिन्न है.

पाँच भाई, पर परस्पर कितने भिन्न. बस दोनों छोटेवालों में कुछ साम्य लगता है.

जन्म के विषय में कथायें सुनी हैं - उत्सुकता जागती है मन में.पर पूछ नहीं सकती.किसी से ऐसी बात करे - प्रश्न ही नहीं उठता.

जो किसी से नहीं पूछ सकती सखा से पूछ लेती है. और वह बहुत सहजता से सारी उलझन दूर कर देता है.

'तुम्हारी तो बुआ लगती हैं मेरी सासु-माँ. सब जानते होगे तुम. एक बात मेरी समझ में आज तक नहीं आई. बहुत-कुछ सुनती रहती हूँ पर अनबूझा रह जाता है.'

'ऐसा क्या है?

'सुनती आई हूँ दोनों सासुओं के पुत्र देवावाहन से प्राप्त हैं. समझ नहीं पाती- कैसे.पतियों से कैसे पूछूँ उनके जन्म के विषय में? और इस प्रकार की बातें परिजनों -परिचारिकाओं से करना शोभनीय नहीं.बस एक तुम से निश्शंक हो कर पूछ सकती हूँ.'

कृष्ण ने बताई सारी बात -

एक बार शिकार खेलते समय झाड़ियों के अंतराल से दिखाई देते हरिण पर महाराज पाण्डु ने शर-संधान कर दिया.

शराघात होते ही मानव-चीत्कार गूँज गया.

हरिणेों का एक जोड़ा मानव रूप में परिणत होता देख राजा चकित!

लक्ष्य पशु को बनाया था बन गया मनुष्य!

वे किंदम ऋषि थे जो अनायास उभर आई वासना की तृप्ति कर रहे थे - दिन होने के कारण पत्नी सहित पशु रूप धारण कर.

विस्मित सुन रही थी पांचाली अनेक प्रश्न मन में कौंधने लगे थे.

कृष्ण बता रहे थे -

बहुत विनती की पांडु ने यह भी कहा कि जोड़ा बनाये पशुओं पर वे कभी शर-संधान नहीं करते. वृक्षों के अंतराल से कुछ स्पष्ट समझ नहीं पाया इसलिये.अपराध हुआ.

पर मृत्यु से पूर्व उन्होंने शाप दे दिया - वासनापूर्ति के क्रम में, तुम्हारी भी, तृप्ति - क्षण से पूर्व ही, मृत्यु हो जायेगी! '

चकित-विस्मित सुन रही है.मन में शंकायें जाग उठीं असंतोष मुखर हो उठा.

'ये ऋषि-मुनि तपस्वी होते हैं, सांसारिकता से दूर, फिर इतना अहं क्यों होता है इन में? दूसरे का दोष देखे बिना शाप दे देते हैं.यह तो अपनी सामर्थ्य का दुरुपयोग हुआ.शकुन्तला, नल-दमयंती...और भी जाने कितने निरपराध दुख पाते हैं- अकारण ही, अपनी मानवीय संवेदनाओँ कारण ही.'

'जीवन है यह...चलता है ऐसे ही..हाँ तो..अपने दुर्भाग्य से दुखी महाराज पाण्डु ने वन में रहने का निश्चय किया. कुन्ती-माद्री दोनों पत्नियाँ भी साथ चली आईं.

उसके बाद पांडु को जब विदित हुआ कि निपूता होने के कारण उन्हें सद्गति नहीं प्राप्त हो सकती.तो चिन्तित रहने लगे.

बहुत विचार करने के बाद उन्होंने पत्नियों से कहा कि नियोग से ही वे पुत्र उत्पन्न करें.

'यहाँ बन में कौन? ये वन के असंस्कृत वासी? नहीं, नहीं. सोच कर ही वितृष्णा होती है,' कुन्ती बुआ चुप न रह सकीं.

'तो तुम्हीं कोई उपाय करो.'

कुन्ती बुआ ने उचित अवसर जान कर दुर्वासा के वरदान की बात बता दी - ऋषि के दिये मंत्र से 'जिस देवता का आवाहन करोगी, मनोकामना पूरी करेंगे.'

'इससे अच्छा और क्या हो सकता है. कुन्ती, मुझे पुत्र चाहिये.'

'दोनों की सहमति बनी - धर्म का पुत्र चाहिये.

माद्री को पांडु के साथ छोड़ कुन्ती देव-आवाहन करने चली गई '.

द्रौपदी के मन में प्रश्न उठते रहे - आवाहित देवता मनोकामना पूर्ण करेंगे, और धर्म-राज की संतान पाने का निश्चय कर लिया? कैसे?

वह उलझन में पड़ गई

वे वर देंगे, या स्वयं ही.. ? मंत्र का प्रयोग किये बिना यह कैसे जाना कि वे स्वयं..स्वयं ही.. गर्भाधान हेतु उपस्थित होंगे,.. .कि संतान उन्हीं से ग्रहण करना है. पर माधव के सामने शंका प्रकट करना द्रौपदी को शालीनता के अनुकूल नहीं लगा. वह चुप सुनती रही.

‘कुछ समय पश्चात् वे लौटीं.

माद्री ने देखा परम तृप्ति के संतोष से दीप्त उनका आनन! जीवन की स्वाभाविक इच्छाओं के दमन से उत्पन्न रुक्षता नहीं, वन के कठोर जीवन की तिक्षता भी नहीं - नारीत्व की सार्थकता से परितृप्त वह प्रफुल्ल मुख! जैसे विरस होती वल्लरी सरस फुहार पाकर लहलहा उठे,

वे सफला हुईँ. अनोखी आभा से जगमग. जैसे ताल के थिर हो गये जल में तरंगें झलमलाने लगें. जड़ीभूत हुए जीवन में नये चैतन्य की ऊर्जा संचरित होने लगे!.

कुन्ती परिपूर्ण हो कर आई थी.

माद्री चकित देखती रह गई.

♦♦ • ♦♦

पांडु ने अनुभव कर लिया कुन्ती तुष्ट है, प्रफुल्लित है. नारीत्व की सफलता पा ली है उसने.

जो वे न दे पाये, पत्नी ने वह किसी और से पा लिया है.

लाचार थे वे, पुत्र चाहिये ही था.

युधिष्ठिर जन्मे.

'एक पुत्र पर्याप्त नहीं ' उन्हें लगा था.

दूसरी बार भीम भैया.

फिर कुन्ती ने कहा था, 'जिठानी जी को सौ पुत्रों का वरदान है.'

सुप्त कामना जाग कर लहरें ले उठी थी, उस चाव भरे मुख-मंडल को देखते रह गये असमर्थ पाण्डु.

कैसे मना कर सकते थे वे.

'हाँ, हाँ, संतान प्राप्ति से क्या किसी का जी भरता है!'

और फिर इन्द्र के आवाहन से अर्जुन की प्राप्ति.

माद्री ने हर बार तृप्ति और संतोष से परिपूर्ण, नारीत्व की सफलता से दीपित सपत्नी को देखा था, वह अधिक कुंठित होने लगी थी.

सहानुभूतिवश कुन्ती बुआ ने उन्हें भी मंत्र -प्रदान किया, और संतान पाकर वे भी पुत्रवती हुईँ - दो पुत्र, नकुल और सहदेव..दोनों अश्विनीकुमारों से. '

'और श्वसुर जी, वे..वे कैसे..?

'दोनों पत्नियाँ मातृत्व की दीप्ति से. दैदीप्यमान, अपने पुत्रों के साथ प्रसन्न -मगन!

छोटे भाई धृतराष्ट्र के गृह में सौ पुत्रों और एक कन्या का जन्म हो चुका था.

घोर मनस्ताप में डूबे पाण्डु, ऊपर से संतोष प्रदर्शित करते रहे. पर मन कहीं शान्त बैठता है!

विचार उठते रहे, इस प्रकार निष्क्रिय पौरुष ले कर जीने से क्या लाभ!अपना बीज वपन कर दूँ किसी प्रकार, मृत्यु अवश्यंभावी है, हो जाये तो क्या! संभव है अपना अंश छोड़ जाऊँ.

कुन्ती बुद्धिमती थी, माद्री अपेक्षाकृत भोली, वय में भी कम.एक दिन कुछ निश्चय कर वे माद्री के साथ वन-भ्रमण के लिये गये.

किंदम ऋषि का शाप फल गया. अकेली माद्री विलाप करती लौट आई.

घोर अपराध -बोध से ग्रस्त थी वह. दोनों पुत्र कुन्ती को सौंप पति के साथ चिता पर चढ़ गई.

सब कुछ जान लिया. पर पांचाली के मन में कुछ अनुत्तरित प्रश्न रह गये!

27.

श्री पंचमी - वसंतागम का संदेश!

माघ बीता जा रहा है सूर्य उत्तरायण हो गये. दिवस का विस्तार देख रात्रियाँ सिमटने लगीं. दिवाओं में नई ओप झलकने लगी, दिशायें कोहरे का का झीना आवरण उठा अपनी मुस्कान छलका देती हैं.

मौसम ने हलकी-सी करवट ली है - वनस्पतियाँ नव-रस संचार से रोमांचित, शाखाओं पर नन्हीं अरुणाभ कोंपलों की पुलक. पर ठंडी हवाओँ का स्वभाव अभी बदला नहीं. बिदा होती शीत अपने रंग दिखा रही है, हेमंती झोंके पुराने पात झकझोरते निकलते चले जाते हैं.

पांचाली की श्यामल देह पीली चूनर से आवेष्टित देख भीम ने पूछा , 'वसंत पंचमी भी कहलाता है आज का दिन. पर अभी सरसों नहीं फूली, वनों में पलाश की दहक नहीं छाई. न आम बौराये न कोयल कूकी.कहाँ है वसंत. कहीं दिखाई तो नहीं देता ?.'

अपनी विद्वत्ता का परिचय देते नकुल बोल उठे, 'राजा के आने से पहले उसकी धमक छा जाती है, देखो न भीम भैया, वसंत ऋतुराज है, प्रजाओं से कर वसूलता है, सब से एक-एक सप्ताह - तभी न आगमन की घोषणाएँ मास भर पहले से गूँजने लगती हैं. '

'क्यों षड्ऋतुएँ होती हैं, चलों एक वसंत को छोड़ दें तो शेष बचीं पाँच. फिर सवा मास पहले क्यों नहीं.. '

'अरे भैया, राजा है तो रानी भी है, रानी से कर लेगा क्या राजा?वर्षा तो मन मानी है, राजा की रानी है.जब जितना मन हो घेर लेती है- कभी लंबी कभी छोटी. तुम भीम भैया, हिडिंबा भाभी से कर वसूलोगे?'

सब खिलखिला कर हँस पड़े.

युठिष्ठिर गंभीर थे.

क्या हुआ बड़े भैया, आप इतने चुप-चुप क्यों हैं? अब तो आज-कल में अर्जुन भैया भी आ जायेंगे, '

'ठीक है कि हमारे भाई ने बहुत सामर्थ्य बढ़ा ली है. हमारे साधन बढ गये हैं.अनेक शस्त्रास्त्र प्राप्त कर लिये हैं. पर..'

'पर क्या? अब अपने राज्य-प्रवेश की तैयारियाँ करें.'

'सबके मन का संशय अनायास सहदेव के शब्दों में मुखर हो उठा है.

'मुँह धो रखो. मुझे नहीं लगता इतनी आसानी से हमें अपना इतने दिनों का छूटा राज-पाट मिल जायेगा!'

पांचाली एकदम मौन.

♦♦ • ♦♦

कैसी विचित्र स्थितियों में पूरा युग बीता. मन अधीर हो उठता है.

मन में घुमड़ता रहता है कुछ. द्रौपदी को लगता है कैसी विचित्र है जीवन की पद्धति! धर्म इतना रूढ़ क्यों हो जाता है. यह करना है यह नहीं करना. सब बँधी-बँधाया. जैसी स्थिति हो उसके अनुकूल क्यों नहीं कर सकते हम? एक सहज-स्वाभाविक आचरण को इतना उलझा क्यों देते हैं लोग? इतना रूढ़ कि स्वस्थ मानसिकता संभव न रह जाय.एक निर्धारण हर व्यक्ति, हर काल हर, स्थान पर, हर परिस्थिति में कैसे उचित हो सकता है? हर जगह एक औचित्य संभव ही नहीं.

और इसकी आड़ में जब अनैतिकतायें धर्म-सम्मत कहलायें तो पाप क्या कहा जायेगा?

पर किससे कहे पांचाली! बस, वासुदेव के सामने मन के द्वंद्व खोल पाती है.

उस दिन अनायास कह उठी थी -

'क्यों मीत, कोई अपनी वस्तु दाँव पर लगा कर हार जाय तो उसका अधिकार तो उस पर से गया.अब दूसरा उसे रखे, चाहे छोड़े. फिर से उसकी तो होने से रही.'

खिलखिला कर हँस पड़े जनार्दन,' पहेली बुझा रही हो या सचमुच गंभीर हो?.'

'दोनों रूपों में बात वही है. '

'उस समय मुक्त होने का तुम्हें पूरा अवसर था, उस जीवन से बाहर निकल सकती थीं.'

'बहका रहे हो तुम भी. एक बार विवाह के बाद नारी के लिये कहीं ठौर बचता है क्या? और एक के कारण दूसरे चारों को दंडित करना अन्याय होता. सोचो तो मीत, मेरे पाँच पुत्र कैसा जीवन जीते - त्यक्त, अपमानित!जीवन भर तिरस्कार झेलते हुये. मात्र मेरे कारण? नहीं, नहीं कर सकती.'

कृष्ण को याद आया मथुरा में कंस के राजदरबार में जाते समय देखा था. कुछ लोग एक बछड़े को अपने शकट पर ले जा रहे थे और गाय उसके पीछे रँभाती-भागती चली आ रही थी. ऊँचे-नीचे पत्थरों से टकराती, व्याकुल कहीं साथ न छूट जाय. बिना प्रयास उसे ले जाने के लिये उपाय ढूँढ निकाला था लोगों ने.

मातृत्व? नारी का सबसे बड़ा वरदान और सबसे बड़ी विवशता भी.

एक गहरी साँस छोड़ी जनार्दन ने.

जानते हैं, दैन्य प्रदर्शन पांचाली के स्वभाव में नहीं.

'सखी, पत्नी पति की हर दुर्बलता को जानते हुये भी कभी कहती नहीं उससे?'

'हाँ, नहीं कहती. पति है वह. रहना उसी के साथ है. जो संबंध है वह कुंठित हो जाय तो गृहस्थी की गाड़ी खिचखिच करती चलेगी.'

'और पत्नी के लिये?.'

'उसके मन की जानने की क्या आवश्यकता? उसकी निष्ठा पर पति का अधिकार है और सारी क्षमतायें भी उस के निमित्त..उससे कैसा भय?'

'पांचाली. शान्त हो कर विचार करना.बड़े भैया का अपना स्वभाव है, किसी भी स्थिति में विचलित नहीं होते वे. वन के अभाव और भवन की सुख-सुविधा में समभाव रहता है उनका.'.

पांचाली के मन में उठा - देहसुख तो उन्हें भी चाहिये, उससे कब विरत रहे वे?

पता नहीं मधुसूदन समझे या जान कर चुप लगा गये!

जानते हैं अपनी बांधवी को- कभी नहीं कहेगी 'मुझसे नहीं होगा यह'.

सब चुपचाप करती चली जायेगी!

28.

बीत गई अज्ञातवास की भी अवधि.

कैसी-कैसी विषम स्थितियाँ! पूरे बरस एक महारानी, परिचारिका बनी वे सब व्यवहार सहन करती रही.

सुदेष्णा के केश-प्रसाधन का दायित्व रहा सैरंध्री नामधारिणी पांचाली का. और यों तो परिचारिका थी अन्य प्रकार से भी सहायक की भूमिका भी अनायास - आवश्यकता आ पड़ने पर.

नीलोत्पल की सुवास से गंधित एक आभा-मंडल पांचाली के साथ चलता है, आश्रयदात्री के कौतूहल को शान्त कर दिया था यह कह कर कि पाँच गंधर्व उसके पति हैं. उन्हीं से कमल-गंध का उपहार पाया है. मेरे हित की चिन्ता उन्हें सदा रहती है. अनजाने ही कुछ अपराध हो गया सो शापित जीवन व्यतीत कर रही हूँ. एक अवधि के पश्चात मेरे पति मुझे साथ ले जायेंगे.

विश्वास कर लिया सुदेष्णा ने- व्यक्तित्व ही ऐसा जो अनायास प्रभावित कर ले. उसकी बुद्धि और कौशल पर मुग्ध, प्रखरता से चमत्कृत, मन ही मन थोड़ा भय खाती है. पर सुदेष्णा का व्यवहार संतुलित रहता है -लगभग सखीवत्. किसी विपरीत परिस्थिति में, उसके गंधर्व पति सहायक सिद्ध होंगे इसलिये उससे बनाये रखना चाहती है.

सैरंध्री की निजी दिन-चर्या पर कोई आपत्ति नहीं उसे.

कीचक के प्रसंग में भीम के अतिरिक्त किसी को कानों-कान सूचना नहीं होने दी. जानती थी, बड़े पांडव शान्त रहने को कहेंगे.और कहीं दासी-धर्म निभाने को उचित ठहराने लगे तो?..नहीं..नहीं.उन के निर्णय पर आश्रित नहीं रहना है. भीम पर विश्वास था, किसी भी मूल्य पर वह अपनी पत्नी को सुदेष्णा के भाई द्वारा घर्षित नहीं होने देगा. और कामांध कीचक का वध संभव हो सका.

युधिष्ठिर और कुछ करते-न-करते पर भीम को कीचक-वध नहीं करने देते.

उनका का मन अगम है. क्या निर्णय लेंगे कोई नहीं जानता.

अज्ञातवास की दीर्घ अवधि इसी ऊहापोह में बीतती रही -किसी को आभास नहीं कि इस घटना-क्रम पर इन्हें कैसा लगा. हर समय शान्त-गंभीर - दुर्गम से. जिनके साथ हैं उन्हें समझना-समझाना इस सब से ऊपर रहे वे. उचित-अनुचित की उनकी नीति-धर्म सम्मत मान्यता पर किसी का विरोध सामने नहीं आता.

जयद्रथ को छुड़वा दिया ठीक था, संबंधी था वह, दुःशला का पति.नहीं चाहती थी वह कि परिवार की अकेली बहिन विधवा हो रहे, केवल उसके कारण. दंड दे दिया गया. पर्याप्त हुआ..

वृहन्नला बने अर्जुन राजकुमारी के नृत्य-शिक्षक बन गये थे.इस रूप में उन्हें देखना द्रौपदी के लिये विचित्र अनुभव था. इस विषम काल में उर्वशी का शाप वरदान बन गया था.

कीचक-कांड पूरा हो जाने के बाद सबको पता लगा, किसी ने टीका-टिप्पणी नहीं की.

अज्ञात-वास का वर्ष पूरा हो चला था.

इसी समय कुछ बड़ी घटनायें घटीं जो पांडु-पुत्रों की वास्तविकता उद्घाटित कर गईं.और अर्जुन की शिष्या उत्तरा उनकी पुत्र-वधू बन गई.

अपने आश्रयदाता के उपकार का पूरा मूल्य इन लोगों ने चुका दिया. पांचाली का मस्तक गर्व से ऊँचा हो गया था.

अब समस्या थी, अपने राज्य की पुनर्प्राप्ति किस विधि संभव हो?

कृष्ण का मत था कि वे सीधे हस्तिनापुर न जायँ कि लो, हम आ गये, शर्तें पूरी हुईं अब लाओ हमारा राज्य.

नीति यही कहती है कि पहले थाह ले लेनी चाहिये कि उनके मनों में क्या चल रहा है.हम सीधे पहुँच जायँ बिना उनकी मानसिकता जाने.पता नहीं कैसा व्यवहार हो उनका,

यमुना में बहुत जल बह चुका इस बीच, उनके विचार किस प्रवाह में हैं पहले इसकी थाह ले लेनी चाहिये.

तेरह वर्ष का लंबा समय, इस बीच भी कौरव बंधु अपने हथकंडों से चूके नहीं थे.कभी जयद्रथ, कभी दुर्वासा, जाने कितने उपाय कर डाले निष्कंटक हो जाने के लिये,

अब उनके मन में क्या हो कौन जाने.

युधिष्ठिर ने कहा था, 'जनार्दन यह कार्य तुम्हारे अतिरिक्त और कौन कर सकता है!'

'ठीक है भइया, आपका संदेश ले कर जाऊँगा.'

♦♦ • ♦♦

स्वागत-सत्कार के पश्चात् वयोवृद्धों की उपस्थिति में कृष्ण ने नीतिपूर्वक अपनी बात रखी.

सभा में सन्नाटा छा गया.सब एक दूसरे का मुख देख रहे थे.

उत्तर दुर्योधन ने दिया, बोला.' वासुदेव, गायें चराते-चराते अब हमें भी चराने लगे...'

शकुनि मुस्करा रहे हैं.

'युवराज, नीति की बात कह रहा हूँ. जो शर्तें निश्चित हुई थीं उन्हीं की बात कर रहा हूँ.'

राज्य के अधिकारी वे कैसे? हम राजपुत्र हैं. सब सौ, बहिन दुःशला सहित एक सौ एक, एक ही पिता की औरस संतान हैं. वे राजा के अंश नहीं, चाचा पांडु ने पहले ही राज्य त्याग दिया था.अभिशप्त जीवन पा कर वनवास ले लिया था.संतानहीन थे वे. और वन में ही मर-खप गये. जिन पाँच पुत्रों को ले कर कुंती चाची आईँ उन सब के अलग-अलग जनक किसी एक की तो हैं नहीं- कितनों की संततियाँ हैं.

इन पांचों में कोई उनकी संतान नहीं.फिर कैसे अधिकारी हुये राज्य के?'

कृष्ण बोले, 'कुरुराज महाराज धृतराष्ट्र ने स्वयं उन्हे जो भूमि सौंपी थी उस पर इन्द्रप्रस्थ का निर्माण किया था उन्होंने, कितना समृद्ध संपन्न राज्य रहा था, अपनी सामर्थ्य से राजसूय यज्ञ कर सबका सम्मान और कीर्ति अर्जित की थी.'

'हाँ, की थी तब की थी. समय के साथ सब कुछ बदल गया.'

'सारी शर्तें पूरी कर ली हैं उंन्होने. अब क्या बाधा है?'

दुर्योधन का स्वर तीव्र हो उठा, 'बाधा? जो पाया था उसे निभा सके वे?अपने को उसके योग्य सिद्ध कर सके वे? क्यों नहीं राज कर सके? इतने दुर्बल कि राज द्यूत के पाँसों के अधीन कर दिया. विवाहिता सहधर्मिणी को मोहरा बना कर खेलनेवाले कब क्या कर बैठें. कौन दायित्व लेगा उनका? अब बारह बरस जंगलों में रह कर और वनवासी हो गये , राज को सँभालने का कौशल बचा है उनमें? अक्षम सिद्ध कर दिया अपने को?अज्ञात-वास में रह कर सब की आँखों से ओझल रहे, किसीने याद किया उन्हें? कौन जानता है अब उन्हें, कौन राजा मानता है? हम चला रहे हैं शासन.सुव्यवस्था बनाये हैं. अब उनका कुछ नहीं यहाँ.'

धारा-प्रवाह बोलते-बोलते कुछ रुका दुर्योधन. सभा पर दृष्टि डाली.

सर्वत्र मौन. सब विचारमग्न!

'सुयोधन, वे तुम्हारे भाई हैं. पाँच गाँव ही दे दो. उसी से संतोष कर लेंगे वे.'

'भाई? किस नाते से? अरे, उनका बस चले तो हमें भी अपनी बाज़ी पर दाँव लगा दें वे. राज्य का शासन चलाना कोई खेल नहीं है. द्यूत की क्रीड़ा नहीं है कि बैठे-बैठे दाँव लगाते चले गये.

भिक्षा माँग रहे हैं पाँच गाँवों की. सामर्थ्यवान ही धरा का भोक्ता होता है. साहस है तो ले लें लड़ कर. इतने वर्षों में सबसे दूर रह कर सारे सहायक खो चुके हैं. अब कौन उनके साथ खड़ा होगा? न धन. न लोक-समर्थन, न सेना.क्या कर सकते हैं वे. जहाँ इतने दिन रहे, वहीं वनों में शान्ति से रहते रहें.'

सब चुप हैं. दुर्योधन के आगे कोई तर्क नहीं चल रहा. कोई सद्भावना काम नहीं कर रही.

'व्यर्थ में युद्ध क्यों चाहते हो सुयोधन. लड़ कर लेने की बात क्यों?'

वह हँसा, 'हाँ, आयें, हमसे लड़कर ले लें. जो जीत जाये सब कुछ उसका. नहीं तो सुई की नोक बराबर भूमि भी उनकी नहीं.'

अति गंभीर कृष्ण के मुख से निकला,

'किसी प्रकार कौरव-पांडवों का संघर्ष टाला नहीं जा सकता?'

महाराज धृतराष्ट्र की ओर देखा, पितामह भीष्म पर दृष्टि डाली.

सब मौन!

गहन वाणी में कृष्ण बोले, 'तो युद्ध अवश्यंभावी है.'