कृष्ण सखी / भाग 33 - 36 / प्रतिभा सक्सेना

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33.

साक्षात् काल- रूप धरे हैं भीष्म!

तुले हुये, जैसे ललकार रहे हों पार्थ को.कब तक संयत रहोगे? आज मुझसे निपटना ही पड़ेगा. पांचाल और मत्स्य सेना का भयंकर संहार.

दुर्योधन ने कहा था, ' पितामह, आप सेनापति हैं पर उनमें से एक का भी बाल बाँका नहीं हुआ अब तक.अगर आप के बस के बाहर हैं वे लोग, तो कर्ण को अनुमति दीजिये. कम पराक्रमी नहीं है वह, साथ आने पर एक-एक ग्यारह हो जायेंगे.'

पितामह की मुद्रा बदल गई.

अनायास तीव्र हो उठे वे, 'बस अधिक मत बोलो, सुयोधन.कोई आवश्यकता नहीं कर्ण की.या तो वे पाँचो नहीं बचेंगे आज या स्वयं कृष्ण को अपनी प्रतिज्ञा तोड़ने को विवश होना पड़ेगा.'

और वही कर दिखाया था पितामह ने. अद्भुत पराक्रम से भयानक संहार मचा दिया. पांडव सैन्य का अधिकांश नष्ट कर डाला.

रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं. जाने कहाँ की विद्युत्-गति समा गई है, जैसे आज ही सब कुछ निबटा देंगे.

कृष्ण विस्मित हैं!

अर्जुन को प्रबोधित किया. वह पूरीत्परता और समग्र एकाग्रता से नहीं डट सका.

विवश कृष्ण उत्तेजित हो उठे, 'ठीक है तुम नहीं तो मैं ही..' और सुदर्शन धारण कर प्रस्तुत हो गये.

अर्जुन को चेत आया, अभिमंत्रित पाँच शरों का ध्यान आया.

'नहीं, वासुदेव.विरत हो जाओ तुम रण से.मैं तत्पर हूँ. बस अब आगे नहीं, कोई सोच नहीं अब.... पितामह का वचन पूरा हो.'

उनके तीर से छूटा एक बाण पितामह के चरण परसता सर्र से निकल गया.

जाग गये जैसे, मुख से निकला 'ओह, तो आ गया पार्थ!'

सिर उठाकर देखा -

शिखंडी को आगे किये वो रहा अर्जुन!

शिखंडी सामने - उन्हें लगा अंबा खड़ी है.

कुछ स्वर कानों में गूँजने लगे -

'तुमने मेरे दो जन्म निष्फल कर दिये. मेरा नारीत्व दो कौड़ी भर भी नहीं तुम्हारे लिये. बड़ा अभिमान है अपने पौरुष का?'

विगत घटनाक्रम नयनों के आगे घूम गया.

उसने कहा था, 'नारी तुम्हारे इंगितों पर नाचनेवाली कठपुतली नहीं है. स्त्री-पुरुष का संबंध क्या है, तुम क्या जानो! विरक्ति ओढ़नेवाले, तुम क्या जानो प्रेम क्या होता है!'

हाँ, ठीक तो.कहाँ सफल होने दिया था स्वयंवर!

ऐसे ही तो अंधे धृतराष्ट्र के लिये सुदूर देश की विवशा गांधार-कुमारी खोज ली.

ये कन्यायें क्या चाहती हैं कभी जानने का प्रयत्न किया?

वे अध्याय सदा को अंकित हो गये, छप गये कथा की एक शृंखला बन कर.

पर अब जीवन से बीत चुका है वह सब.

अनायास हाथ उठकर हिल गया जैसे पट पर अंकित अंक मिटा रहे हों!

असार है यह संसार, माया के आवरणों से घिर कर कैसी परिणति हो गई,

-सूर्यपुत्र ग्रहण-ग्रस्त.अग्निसंभवा- धूम्राच्छदित.श्यामांगिनी!

स्वयं को कौन जान पाता है -प्रभास नामी वसु की देवव्रत में परिणति और आगे निरंतर बदलती भूमिकायें!

उन्होंने क्षण भर कृतज्ञ नेत्रों से देखा - तो कुन्ती-पुत्र, मुक्ति दिलाने आ गये तुम!

ईषत् हास्य झलका अधर-कोरों पर.

♦♦ • ♦♦

पार्थ और शिखंडी तत्पर हैं.

पितामह ने संधान हेतु कोई प्रयास नहीं किया.

'सावधान!'

स्वर कानों से टकराये, उन्हें कोई अंतर नहीं पड़ा. जस के तस.

किसी ने पूछा, 'क्यों तात?'

'एक स्त्री पर शस्त्र प्रयोग करे भीष्म ऐसी अनीति नहीं कर सकता. इतना.नीचे नहीं गिर सकता वह!'

शांत खड़े रहे पितामह.

फिर उन्होंने अस्त्र-शस्त्र रथ में डाल दिये.

पार्थ और शिखंडी घनघोर शर- वर्षा कर रहे हैं

शिखंडी आगे कवच बना-सा.

निरंतर आघातों से क्षत-विक्षत होता शरीर!

भीष्म खड़े हैं, प्रहारों के वेग से, हिल जाते हैं बार-बार.झुक जाते हैं कभी दायें कभी बायें.

बस, अब अपने कर्मों का दण्ड ग्रहण कर, शाप-मुक्त होने जा रहे हैं, तन के घोर कष्ट और मन की अशान्ति में भी एक अजाना-सा संतोष व्याप गया है.

रक्त-स्रवित व्रणों से श्लथ जीर्ण काया! रण-भूमि में गिरने लगे वे, किन्तु भू- लुंठित नहीं हुए , पार्थ के संधान से अविरल शरों के पृष्ठों पर सध गये, मानो अर्जुन के धनुष से छूटे निकले शरों ने धरती में गड़ कर उन्हें शैयावत् आधार दे दिया हो!

आठवें वसु का नर-रूप!

वे सातों मुक्ति पा गये, माँ-गंगा ने उन्हें तुरंत शाप-मुक्त कर दिया. पिता शान्तनु ने मोह-डोर में बाँध जिसे रोक लिया. वही अष्टम् वसु -देवव्रत!

दीर्घ काल तक भीष्म बने, पितामह कहाते कुल के सूत्र सँभाले रहे. आज उस अभिशप्त जीवन की अवधि पूरी होने जा रही है.

लगा नेत्रों में गंगा का जल लहरा आया.

निश्चेत-से भीष्म शरों की नोकों पर पर टिके हैं.

हा-हाकार मच गया.

सेनापति विहीन कौरव सेना हतोत्साह तितर-बितर होने लगी .

दुर्योधन को सूचना मिली.

जो कान सुनने को उत्कंठित थे कि पांडव मारे गये, उन्होंने सुना सेनापति पितामह घायल हत-चेत पड़े हैं. कैसी अनहोनी!

दुर्योधन स्तब्ध!

34.

युद्ध-क्षेत्र की संध्या -

पक्ष-विपक्ष के रथी-महारथी, उपस्थित हैं -

रक्त-क्षीण भीष्म शर-शैया पर टिके हुये बार-बार शीष उठाते हैं, कंठ उस भार से थकित बार-बार झुक जाता है. प्रयास पूर्वक साध लेते हैं वे.

'अब शीष साधे नहीं सध रहा. उसे भी अवलंब चाहिये.'

दुर्योधन ने आज्ञा दी उसके शिविर से तुरंत राजसी शिरोपधान लाया जाये.'

'नहीं! रण-क्षेत्र है यह.जैसी मेरी शैया है उसी के अनुरूप....'

अर्जुन की ओर दृष्टि डाली. ' मेरे शिर को भी साध दो, वत्स, '

तुरंत धरती की ओर तीन शर छोड़े पार्थ ने, और धरती में धँसे उन शरों के पृष्ठों पर भीष्म ने शीष टिका लिया.

'बस, अब कुछ नहीं चाहिये.'

सब धीमे स्वरों में अपनी-अपनी कह रहे हैं.

सुन रहे हैं वे, स्वयं भी जानते हैं सेनापति के बिना सैन्य -संचालन असंभव है. दुर्योधन की दृष्टि कर्ण पर गई.कर्ण ने कुछ कहा. उसने आचार्य द्रोण की ओर संकेत किया - कुछ वार्तालाप मंद स्वर में.

द्रोणाचार्य सेनापति बन उनके सम्मुख आये, हाथ उठा कर आश्वस्त, किया पितामह ने.

शिविर में नहीं जायेंगे पितामह, वैद्य की भी कोई आवश्यकता नहीं.

इच्छा-मृत्यु का वर पाया है, बस अब प्रतीक्षा -सूर्य के उत्तरायण होने की.

♦♦ • ♦♦

यहाँ आ कर किसे स्मरण रहता है कि वह क्या है! संसार के आवरण चारों ओर से लपेट लेते हैं और वह कर्तव्य समझ कर निर्वाह करने लगता है.

उन्हें कैसे ध्यान आयेगा पूर्व का वह घटना क्रम जब द्यौ, प्रत्यूष, प्रभास आदि आठों वसु भ्रमण करते करते, वशिष्ठ मुनि के आश्रम पहुँच गये थे.

वहाँ की मनोरम दृष्यावली ने मन मोह लिया.

'कितनी सुन्दर गौ, ' द्यौ की पत्नी अचानक कह उठी.

उस श्वेत सौम्य सुन्दर गौ को अपलक निहार रही थी वह.

'यही तो है, मुनि की नन्दिनी, जो भी माँगो प्रस्तुत कर देती है.मनोकामना पूर्ण करती है.'

'कैसी लुभा गई है, 'पत्नी को निर्निमेष उसे ही देखते पा द्यौ ने छेड़ा.

'हाँ लुभा गई हूँ! तुम, वसु कहलाते हो, ऐसी गौ मुझे नहीं दे सकते और वे मात्र मानव, उदासीन मुनि होकर भी उसके अधिकारी बन गये!'

प्रभास सहानुभूतिपूर्वक बोले, 'तुम्हें चाहिये?'

सातवें प्रत्यूष का साहस बढ़ा, 'वनवासी- उदासी मुनि को इससे क्या काम? चलो, हम लिये चलते हैं इसे.'

शेष पाँचो का हँसते हुये समर्थन - मुनि हैं, ऐसी ऐश्वर्यदायिनी, कामदा गौ का क्या करेंगे!

प्रभास ने आगे बढ़ नंदिनी की पीठ थपथपाई, कंठभाग पर हाथ फेरते, पुचकारते रहे.फिर उसे आगे हाँक ले चले.

शेष सब उनके साथ चल पड़े.

जब मुनि को नंदिनी के ले जाने का समाचार मिला, वे व्याकुल हो गये.

जानकारी मिली कि आठों वसु आये थे, हाँक ले गये. तब क्रोधित हो कर शाप दिया, ' जाओ, अब तुम सब जा कर मृत्युलोक में जन्म लो.'

वसुओं को शाप की बात पता लगी, घबरा गये.दौड़े मुनि के पास.

बहुत अनुनय-विनय, क्षमा-याचना करने पर उन्होंने समाधान दिया - 'यदि कोई नारी तुम्हें गर्भ में धारण कर जन्म लेने के बाद जल में बहायेगी तब तुम्हारी मुक्ति होगी. पर सबसे उत्पाती वसु प्रभास को मृत्यलोक में बहुत दिन रहना होगा.'

वही प्रभास.गंगा के आठवें पुत्र!

सात वसुओं को जन्म देकर वे प्रवाहित कर चुकी थीं. आठवीं बार, राजा शान्तनु सह न सके. अधीर हो मार्ग रोक कर खड़े हो गये,' नहीं. इसे नहीं. छोड़ दो इसे. पुत्र है मेरा, नहीं, जल-समाधि नहीं देने दूँगा.'

रुक गईं गंगा और वचन-भंग के परिताप के कारण पुत्र को ले उन्हें त्याग कर चली गईँ.

कुछ समय बीता, शान्त होने पर शान्तनु के बहुत अनुनय करने पर गंगा ने पुत्र उन्हें प्रदान कर दिया- यही देवव्रत!

देवव्रत, घोर प्रतिज्ञा-बद्ध भीष्म!

उन्हें कहाँ कुछ भान होगा कि वे अष्टम् वसु हैं, अभिशप्त जीवन व्यतीत करने धरातल पर आये हैं.

जिस आठवें वसु को गंगा-माँ ने देवव्रत अभिधान दिया था, संसार की रीति-नीति और आदर्शों से आवेष्टित होने लगा.पितृ-मोह ने उसे भीष्म बना दिया और अगली पीढ़ियों ने पितामह - तथाकथित कुरु-कुल के सिंहासन का संरक्षक!

वही आज शर- शैया पर पड़े हैं,

सबसे बोलते-बात करते हैं, लेकिन मन का एक भाग कहीं खोया रहता है.

कभी अचानक चौंक उठते हैं.

♦♦ • ♦♦

इस लोक में आकर देवव्रत को संबंधों का भान हुआ. सांसारिक कर्तव्यों का चेत जागने लगा, वंशानुक्रम और वातावरण के निरंतर लगते ढबकों से ढलने लगे वे. यहाँ तो व्यवस्था-व्यथा ही व्यक्ति की निर्धारक हो जाती है.सोच भी उसी अनुरूप बनने लगता है.

एक बार प्रारंभ हो जाये परिवर्तन का क्रम, तो रुकता कहाँ है.अपनी ही मान्यताओं में रमा, अपनी औचित्य-नीति से संचलित कार्य-व्यापार बढ़ता चला जाता है.

कोई बड़ा झटका अंतरात्मा को झकझोर दे तो चौंक कर चेतने लगता है प्राणी!

वही हुआ गंगापुत्र के साथ.

पांचाली के शब्द- उन्हें याद आ रहे हैं -

'कठिन व्रत पाला उन्होंने, लेकिन किसका हित संपादित हुआ? कौन से उच्च उद्देश्य की पूर्ति हुई? वृद्धावस्था में पिता की भोग-लिप्सा पूरी करना यही महत् उद्देश्य!उस तृप्ति के लिये कितने निरपराधों को वंचित किया....'

उसी ने कहा था -

'एक के महानता -अर्जन के लिये कितनों को अपनी स्वाभाविकताओं की आहुति देनी पड़ती हैं,.कितने पात्रों को रिक्त रह जाना पड़ता है. कितनों को बलि का बकरा बनना पड़ता है. “

और आज शर-शैया पर प्रायश्चित करते पितामह पड़े हैं - सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा में.

35.

सुभद्रा का पुत्र, कृष्ण का भागिनेय - अभिमन्यु!

रह-रह कर पार्थ का हृदय तड़प उठता है, उन सात महारथियों ने कैसे घेर कर मारा होगा अभिमन्यु को!

सोच-सोच कर विकल हैं अर्जुन. वह जघन्य कृत्य अंतर में शूल सा चुभा है. पीड़ा अधिक या क्रोध- विचलित हैं पार्थ!

दो-दो प्रतापी पुत्र युद्ध की भेंट चढ़ गये -पहले इरावान, उलूपी की एकमात्र संतान, और आज अभि!

शोक-मग्न चारों भाई धीर बँधाना चाहते हैं, पर जो मन को कुछ शान्त कर सकें वे शब्द कहाँ से लायें !

व्याकुल अर्जुन बार-बार स्मरण करते, बोलने लगते हैं -

'भीम भैया ने कहा था उस अंतिम द्वार को मैं अपनी गदा से तोड़ दूँगा पुत्र, तू निचिंत रह.आचार्य द्रोण ने उसके लिये पहले ही कह दिया था जब तक इस बालक के करों में धनुष-बाण हैं कोई उससे जीत नहीं सकता,..'

'उन सात महारथियों ने अनीति और अन्यायपूर्वक उसे अकेला पा कर घेर लिया. उनकी छलभरी चाल से जूझता रहा मेरा पराक्रमी पुत्र. उस धूर्त जयद्रथ ने किसी पांडव को टूटे व्यूह में घुसने नहीं दिया.अकेला पड़ गया था वह. और सारी रीति-नीति -औचित्य को भुला वे इकट्ठे उस बालक पर टूट पड़े. वह निहत्था हो गया, रथ से नीचे गिर गया तब भी वे वार करते रहे.मेरा वीर पुत्र रथ के टूटे पहिये से अंत तक लोहा लेता रहा पर....ओह...विद्या और पराक्रम में वह सबसे बढ़ कर था....अंतिम क्षण तक....'.अर्जुन का कंठावरोध हो आया.

आवेश में आ कर खड़े हो गये पार्थ, 'उस पापी जयद्रथ का वध कल सूर्यास्त तक नहीं कर दिया तो मैं स्वयं को चिताग्नि में भस्म कर डालूँगा!'

पांचाली अवाक्, चारों भाई हतप्रभ, 'अरे, यह क्या किया?'

'बस, अब कल यही होना है.'.भाइयों की सांत्वना काम नहीं कर रही, पितृ-हृदय की वेदना किसी प्रकार शान्त नहीं होती.

आर्द्र-नयन पांचाली पास आ बैठी.

वह सँभाल लेगी, चारों बंधु इधर-उधर हो गये.

बार-बार ध्यान आ रहा है -

वह चक्र-व्यूह के छः द्वार तोड़ चुका था. हाँ, सातवाँ द्वार तोड़ना उसे नहीं आता था, 'ओ, सुभद्रे तुम क्यों सो गईँ? वही नींद मेरे अभि का काल बन गई...'

'समझ रही हूँ मैं,.'याज्ञसेनी बोली,' हमारा पुत्र कोई साधारण बालक नहीं था.

कर्ण, दुर्योधन,शल्य, अश्वत्थामा, शकुनि दुर्योधन सब उससे परास्त हुये थे. प्रतिशोध की अंधी आग में जल रहे थे वे...'

'ओह, कैसा कारुणिक अंत..वधू उत्तरा गर्भवती और....' अर्जुन फफक पड़े.

पति का हाथ पकड़ लिया पांचाली ने. बार-बार भर आये अपने नयन पोंछ लेती है.

♦♦ • ♦♦

'अभि..की.- एक बात पार्थ, मैंने तुम्हें नहीं बताई थी...',

'हाँ, हाँ, क्या? कहो पांचाली, ' विह्वल से बोल उठे, 'क्या बात..?'

'वासुदेव का भागिनेय तुम्हारा अंश उसके जन्म की बात...मैं बता नहीं सकी थी..चाह कर भी अब तक नहीं कह सकी..'

'क्या? कहो तो...'

' सब देवों ने अपने पुत्रों के अवतार रूप में अभिमन्यु को धरती पर भेजा था.तब चन्द्रदेव ने कहा वे अपने पुत्र का वियोग अधिक सहन नहीं कर सकते.अतः वह मानव- योनि में सोलह वर्ष पर्यंत ही रह सकेगा.'

दोनों चुप!

'और उसके उतने जीवन का अधिकांश भी ननिहाल में बीता!'

'वही क्यों, हमारी सारी संतानें! केवल जन्म देने की दोषी है माँ तो, लालन-पालन किसने किया? सुभद्रा ने...अभि के साथ शिक्षा-दीक्षा वहीं ननिहाल में हुई. यहाँ वनवास में क्या होता. उनके पालनहार कृष्ण रहे. उधर इरावान और बभ्रु.अपने ननिहालों में..'

'ओह, अपनी संतानों को भी समुचित संरक्षण न दे सका, कैसा अभागा..'

'चुप.चुप. अभागे तुम नहीं, अपनी ही दुर्बलता से बनाई गई परिस्थितियाँ हैं ये...तुम्हारा किया नहीं...'

लंबी सांस खींची द्रौपदी ने.

'अपनी सपत्नियों की ऋणी हूँ.मेरे पति, और पुत्रों को भी उन्होंने अपना दायित्व बना लिया...'

अर्जुन ने स्वीकारा, 'हाँ उनके बिना क्या होता, हमारी अगली पीढ़ी का? उन सबकी तो योजना यही थी कि हम सब वनों में पड़े रहें.'

पति के मन का आवेग बाहर निकलवाना चाहती है वह, 'हां, पार्थ, अपनी सुभद्रा, हमारे पुत्रों को उसी ने तेरह वर्षों तक स्नेह संरक्षण दिया -बाल्यावस्था से युवा हो जाने तक.

सखा कृष्ण की भगिनी- उन्हीं के अनुरूप निस्स्वार्थ, स्नेहमयी, हम सुभद्रा के ही नहीं उस पूरे परिवार के ऋणी हो गये, जहाँ हमारी संतानों को ठौर मिला. समुचित शिक्षा-दीक्षा से संपन्न किया, भ्राता अभि ने उन्हे पग-पग पर संरक्षण दिया.

और आज हमारा दुर्भाग्य...मैं नौ पुत्रों की माता थी.वीर घटोत्कच ने बंधु-वध सुन कौरव सेना में प्रलय मचा दिया था. दो को खोने का महादुख है.,..पर गर्व भी...

सचमुच धनंजय, मेरी सपत्नियाँ मेरा सहारा रहीं. मेरी अकेली के बस का कहाँ था तुम्हें सँभाले रखना..'

'किसे सुखी रखा मैंने, क्या दे सका किसी को? उलूपी, चित्रा दोनों एकाकी जीवन बितातीं रहीं...और तुम्हें आजीवन विभाजित रहने का संताप!'

उसके नेत्र झुक गये,' शिकायत नहीं कर रही फिर भी. तुम्हारे लिये जितना चाहती हूँ नहीं कर सकती.'

'समझता हूँ. कह नहीं सकता प्रतिबंध है मेरे ऊपर. पांचाली, अपने ढंग से नहीं जी सकता मैं!

'कोई तो समझता है, यही बहुत है मेरे लिये.'

'तुम्हें पुत्र-वध का बदला चुकाना है, हताश हो कर मनोबल हत न होने दो.'

बातों-बातों में द्रौपदी ने अर्जुन के सम्मुख धीरे से पक्वान्न और पेय प्रस्तुत कर वार्तालाप के क्रम में ही उदरस्थ करा दिया.

'अपना प्रण पूरने के लिये, दुख सहन करने के लिये, शरीर की सामर्थ्य होना भी आवश्यक है! '

♦♦ • ♦♦

इरावान की मृत्यु पर भी व्याकुल हुये थे अर्जुन. पर आज उनकी पीड़ा सारे बाँध तोड़ बह निकली थी.

पाँच ही दिन तो हुये, राक्षस अलंबुश ने उलूपी-पुत्र का वध कर दिया था.

पुत्र-शोक के पहले अनुभव ने उन्हें झकझोर दिया था.

युधिष्ठिर धैर्य देने का प्रयत्न कर रहे थे, पार्थ के कान कुछ नहीं सुन रहे थे. भीम, नकुल-सहदेव क्या कहें, क्या करें. हत्बुद्ध हो अपने आपको दोष देने लगते थे.

पार्थ चुप हो गये थे बिलकुल!

36.

उस दिन भी भाइयों के जाने के बाद पांचाली ही सँभाले रही थी.

सबसे बड़ी चिन्ता थी' कैसा लग रहा होगा उलूपी को! सांत्वना देने भी नहीं जा सकता..'

पांचाली समझ रही है- उलूपी के प्रति अपराध-बोध जाग उठा है.

'इरावान, चंद्र-वंश और नागवंश का विलक्षण संयोग था उसमें. माँ हूँ मैं भी उसकी.'

शोक-ग्रस्त पत्नी का मुख कृतज्ञता से देख रहे हैं पार्थ!

अब तक कभी सपत्नियों के विषय में विस्तार से नहीं पूछा, पर आज वह सब कुछ कहलवा लेना चाहती है.चाहती है वे मन खोल कर अपनी बात कहें.

उलूपी के साथ बीते पलों की स्मृति ताज़ा कराना चाहती है. कुछ तो आवेग शान्त हो मन का!

'सदा उत्सुकता रही थी जानने की कि कैसे तुम्हारा नाग-कन्या से मिलन हुआ? वह तो ऐरावत वंश के कौरव्य नाग की अनुपम सुन्दरी पुत्री थी? तुम्हें कैसे हृदय समर्पित कर बैठी?'

विगत के पृष्ठ खुलने लगे -

'हाँ, उसका पिता कौरव्य, तक्षक नाग के अधीन था, वह कभी उलूपी को मुझ से विवाह की सहमति नहीं देता. उलूपी यह समझती थी.

पिता का विरोध जानते हुये भी उसने मुझे, पाताल लोक ले जा कर विवाह रचा लिया.....और उस मानिनी ने कभी साथ रहने का आग्रह नहीं किया.अनुमान था उसे पिता किसी प्रकार अनुमति नहीं देंगे. पांचाली, काश,अपने बाहु-बल से उसे ला सका होता.'

'स्वयं को दोष मत दो प्रिय, समय अनुकूल होता तब न! हम लोग स्वयं ही वनवासी, अज्ञातवासी रहे....सोच भी कैसे सकते थे, फिर तुरंत युद्ध की हलचल.. '

'सच में तो तुम गये ही थे शस्त्र और सहयोग की प्राप्ति हित. तुम्हारा यह बारह वर्ष का तप था.'

'फिर भी उसके साथ अन्याय हुआ, उसका पहला विवाह निष्फल रहा था. पति की गरुड़ों ने हत्या कर दी थी.युवावस्था में एकाकिनी. और फिर मेरे साथ भी... कहाँ रह सकी! '

'ओह, तो क्या कभी दाम्पत्य सुख न पा सकी उलूपी!' द्रौपदी करुणा से द्रवित.

आज सब कुछ पूछ लेगी! पार्थ के मन की गहराइयों में दबी स्मृतियों को

उभारे बिना आवेग शान्त नहीं होगा.

कैसे मिलन हुआ था उससे, तुम तो तीर्थाटन पर थे?'

'मैं तीर्थाटन करता हुआ गंगासागर पहुँचा था, विश्रान्त, अकेला, इतना थकित-विभ्रमित कि गंगासागर तक पहुँच कर कहाँ बैठ गया या निद्रालीन हो गया मुझे कुछ सुध नहीं.

उस अवसन्न स्थिति से उसने उबारा.

जब चेतना सजग हुई तो पाया किसी अद्भुत, विलक्षण सौंदर्य से युक्त, निराले सुख-सुविधापूर्ण कक्ष में पर्यंक पर.चारों ओर विलक्षण शान्ति, संगीत लहरियाँ, कैसे दृष्य और रंग जो कभी इस धरती पर नहीं देखे. चकित विस्मित मैं. तभी उसे देखा.वह सब कहने का विषय नहीं. नहीं, नहीं व्यक्त कर पाऊंगा, पांचाली...'

उसने कहा, 'मैं तुम्हें यहाँ लाई हूँ, वहाँ मगर-मच्छों, या वन्य-पशुओं के ग्रास बन जाते, या..किसी वनचरी, निशाचरी..को भा गये तो... '

पांचाली मुस्कराई , 'भा तो तुम उसे गये थे.'

'बहुत मादक सौंदर्य था उसका.इतने दिन तपोवनों-पर्वतों की धूल फाँकने बाद, विश्राम मिला था. मैं मुग्ध देखता ही रह गया.'

'बहुत स्वाभाविक है. कोई अपने आप को कितना बाँध कर रखेगा!'

मेरे प्रति प्रेम के कारण उसने सारे विरोध झेले, मेरे मार्ग की बाधा कभी नहीं बनी. अपने पिता के विरोध और तक्षक के कोप को जानते हुये भी मुझसे विवाह किया.जानती थी कहीं से समर्थन नहीं मिलेगा....कभी नहीं कहा कि वह क्या चाहती है.निस्स्वार्थ! अपने लिये कुछ नहीं चाहा..उसने कहा था,' यह मत समझना पार्थ, मैं तुमसे प्रेम का प्रतिदान मांगूँगी. कुछ नहीं चाहती तुमसे मैं, बस मेरा मान रखना...नागलोक के कितने वरदान सहज ही उपलब्ध कराये उलूपी ने. कभी भूल सकता हूँ?'

'मैं प्रसन्न हूँ, कोई तो है तुम्हारे प्रति पूर्ण समर्पित..'

'बस अपने से तुलना नहीं, परोक्ष रूप में भी नहीं. मेरे ही कारण..'

बीच में बोल बैठी, 'इतना संतुलन और संयम किसी पुरुष में दुर्लभ है ,

'भाग्यशाली हो धनंजय., तुम में सामर्थ्य है वह सब धारण करने की, ' गहरी सांस लेकर बोली, ' तभी तो तुम्हें सुलभ हो सका. '

धीर बँधाते बोली, 'तुम्हारे संकट काल में तुम्हारी रक्षा की, तुम्हारी पत्नी थी, मेरी भगिनी तो हुई. उस समय वह नहीं होती तो मेरा पार्थ भटकते-भटकते कहीँ खो न जाता.'

कुछ देर चुप ही रह गये वे फिर द्रौपदी बोली,

'चित्रा ने वभ्रुबाहन को वहाँ भेजा था, स्वागत के लिये?

'हाँ वभ्रुवाहन, मेरा पुत्र. मणिपुर नरेश का उत्तराधिकारी वभ्रु, उलूपी ने उसका मातृवत् सत्कार किया. जननी के रूप मे उसकी जो देख-रेख की चित्रा भी उपकृत हुई. और वभ्रु उसे मातृवत्..उतना ही मान देता है.'

वार्तालाप के बीच बार-बार इरावान की चर्चा आती है, द्रौपदी विह्वल हो उठती है.

आँखों के आँसू रुक नहीं पा रहे. पोंछती हुई कहती है

'नहीं रोऊँगी, नहीं दुर्बल होने दूँगी तुम्हें.विश्वास करो उलूपी को यहाँ लाना है मुझे वीर-पुत्र की जननी..'.

अंतस का हर भार बँटा लेना चाहती है. हाँ, कुछ भी गोपन न रह जाये!

देर तक वह पूछती रही, वह बताते रहे.

पता नहीं कितनी रात बीत गई.

अंत में पांचाली ने ही कहा, ' कल का संग्राम सम्मुख है. उसका घात करनेवालों को पाठ पढ़ाना है. अब शयन करो, सव्यसाची.'