कृष्ण सखी / भाग 37 - 40 / प्रतिभा सक्सेना

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37.

गहराती निशा का नीरव अंधकार समूचे कुरु-क्षेत्र पर छाया है. हवायें गुमसुम.बीच-बीच में उठती शिवाओं और श्वानों की ध्वनियाँ उस घोर गहनता को भयावह बना देती हैं.

आज शर-शैया का तीसरा दिन, युद्ध का तेरहवाँ.

अभिमन्यु-वध का दारुण समाचार सुना - सात महारथियों ने किस प्रकार बर्बरता से एक निहत्थे बालक को मार दिया!

पितामह काँप उठे, शरों की पृष्ठ-भाग पीठ में धँसे जा रहे हैं. पर मन के संताप के आगे चुभन का भान किसे? गोद में खिलाया था उन्होंने कृष्ण के इस भागिनेय को- कितना चंचल बालक! सुभद्रा के समान गौर, पार्थ की अनुहार लिये मुख-छवि!

शर-शैया पर लेटे पितामह के मुँदे नयनों से अश्रु-बिन्दु टपक जाते हैं. कोई भी अंग हिलते ही शरों के पृष्ठ-भाग पीठ में और दारुण हो लगने लगते हैं.

तन शैया पर, किन्तु अशान्त मन थिर नहीं रहता. आगे कुछ करने को नहीं, पीछे भागता है, स्मृतियाँ घेर लेती हैं.अविराम चिन्तन चलता है.

इन लोगों में यह दुर्बुद्धि कैसे उपजी?

अरे, दुर्योधन!

कुछ शब्द कानों से टकराते हैं, 'सचमुच कुरुकुल के होते तो...'

स्मृति-पटल पर कहाँ- कहाँ के दृष्य उभर आये.

वे शब्द, वह दिन कैसे भूल सकते हैं?

उस दिन जब सबसे गुहार लगा कर याज्ञसेनी हताश हो गई, तब उसने जनार्दन को पुकारा था.

अपमान और विवशता से विकृत मुख तमतमा रहा था, पूरे आवेग में बोल उठी थी, 'समझ गई हूँ अच्छी तरह, सचमुच कुरु-कुल के होते तो कभी ऐसा जघन्य आचरण नहीं करते. पूरी खेती कुत्साओँ और अनीति की.., '

पाँचाली, चीखते स्वर में पूछ रही थी, '....सच कह दो, कुरु-रक्त का कण भर भी है तुम लोगों में...?' स्वर- भंग में आगे के शब्द अस्पष्ट ही रहे थे.

सारी सभा स्तब्ध रह गई थी, और पांचाली अचानक चुप!

चीर खींचते उद्धत हाथ एकदम शिथिल पड़ गये. दुर्योधन हतप्रभ. विदुर दूसरी ओर मुख घुमाये जैसे झेल न पा रहे हों. पितामह का झुका हुआ शीष कुछ और झुक गया था.

कर्ण, अब तक बढ़-बढ़ कर बोल रहा था, एकदम सन्न! आँख उठा कर देख न सका.

और पांचाली दुःशासन के हाथ से वस्त्र का छूटा जो छोर उसकी ओर खिंच आया था, उसे समेट स्वयं को आवृत्त कर लेने का प्रयास करती हुई!

सभा नीरव.कोई किसी को नहीं देख रहा.

'सचमुच कुरु-कुल के होते तो..' जैसे उस मौन में यही शब्द समा गये हों. वातावरण का भारीपन असह्य होता जा रहा था.

चौंके हुये धृतराष्ट्र का विवर्ण मुख, दृष्टिहीन नेत्र कार्यस्थल की ओर घूम गये, जैसे देख पाने को आकुल हों -

मौन भंग हुआ था धृतराष्ट्र के स्वर से, ' वधू, क्षमा करो, मर्यादा भंग हुई है.'

वह बिलकुल चुप खड़ी है.

जैसे अनुनय कर रहे हों, फिर वे बोले, 'पुत्री, वय में तुमसे बहुत बड़ा हूँ, पितृतुल्य. विवश हो गया था.क्षमा कर दो.. इन सब की मति मारी गई है.'

फिर कहा ' मेरे संतोष हेतु वर माँग लो पुत्री, जो भी चाहो.'

पांचाली मौन.

अब तक जो लोग मुखर थे, सब चुप्प!

फिर अनुरोध किया था धृतराष्ट्र ने, पर स्वरों में गिड़गिड़ाहट भर आई थी.

कुछ सजग हुई पांचाली और अति गंभीर स्वर से पति का गँवाया हुआ सब वसूल लिया.

पर महाराज के आग्रह पर भी अपने लिये कुछ नहीं माँगा.

उस सभा में उपस्थित होते हुये भी विषण्ण से बैठे रहे थे भीष्म.

उस दिन को याद कर आज भी असहज हो उठते हैं.

उद्विग्न हो कर गहरी श्वास खींची ' तुम्हें दे सके, इतनी सामर्थ्य कहाँ है किसी में, पांचाली!'

आगे कुछ नहीं सोच पा रहे, जैसे विचार-शक्ति कुंठित हो गई हो.

क्या सोच रहे थे...ज़ोर डालते हैं मस्तिष्क पर.

ध्यान आया, 'यदि सचमुच कुरु-कुल के होते '...कहाँ है पुरुकुल?

वंश-नाश का कारण मैं ही बन गया,....हाँ!

'सारी उपज कुत्साओँ और अनीति की' क्या गलत कहा उसने?.....

आगे कुछ नहीं सोच पा रहे. जैसे विचार-शक्ति कुंठित हो गई हो.

क्या सोच रहे थे...ज़ोर डालते हैं मस्तिष्क पर.

' सचमुच कुरु-कुल '....कुरु-कुल कहाँ बचा?

वंश- नाश का कारण मैं ही बन गया.,

कुरुवंश का अंतिम प्रतिनिधि अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा है.

चारों ओर परिवार के लोग, एक दूसरे को मारते-मरते हुये.

उत्तरदायी कौन?

'क्या कर आये अपने कुल की रक्षा के लिये, प्रतिष्ठा के लिये?' - पितर पूछेंगे, 'तुम जो इतने सामर्थ्यवान, इतने दृढ़ और आदर्शवादी थे ,..?'

कैसा मिथ्याभिमान!

सब नष्ट कर दिया. अनीति -अन्याय का विरोध न कर सका!

कैसा आदर्श, कैसी महानता?

उसने कहा था,'मैं जैसी हूँ वैसी ठीक हूँ. बड़ी बात नहीं कहूँगी. दुर्बलतायें हैं मुझमें. अपना आक्रोश जीत नहीं पाती. जो अनुभव करती हूँ उसका प्रभाव पड़ता है, प्रतिक्रिया होती है, सदा गंभीर, संयत.अकारण मृदु होना मेरे स्वभाव में नहीं. कभी-कभी. आवेग निकाल कर सामान्य हो लेती हूँ.,. महान् नहीं होना चाहती, तात, स्वाभाविक रहने दीजिये. प्रकृति के नियमानुसार. उन्हीं नियमों का पालन हमारा धर्म है.'

उस रात्रि को कृष्ण के साथ मार्ग चलते उसने जो कहा था, कानों में गूँजने लगा --' वंश-बेलि सूख कर नष्ट हो रही हो, तो पुत्र का कर्तव्य है उसे सिंचित करना, पल्लवित करना, औरों के आसरे छोड़ देना नहीं.'

याज्ञसेनी की बात बार-बार याद आती है.

विचार परंपरा उधर ही चल पड़ती है -

जिसके कारण सब से बडे ऋण-पितृऋण से विरत हो गये थे, वही अनुरोध करे जब, तब भी कोई बाधा रही क्या, अगर मानो तो माता की आज्ञा भी.'

द्वैपायन ने वीतराग संसार-त्यागी हो कर भी, स्थिति की गंभीरता समझी.माँ की विवशता समझी और अपनी सामर्थ्य भर प्रयत्न किया.

और मैं? व्रत काहे का लिया था?

संसार त्यागने का तो नहीं.व्यापक हित या सीमित स्वार्थों का समर्थन?

अब तक कभी नहीं सोचा.

मैं देव-व्रत.दैवव्रत हो गया.

क्या दे जा रहा हूँ, आगत को कौन सी थाती सौंपे जा रहा हूँ!

काशिराज कन्याओं के विवर्ण मुख याद आये.

राजमहल के रनिवास में उनका घुटता जीवन याद आया. अनजान-अनचाहे पुरुष से वितृष्णापूर्वक किया गया बलात् संसर्ग याद आया. जिसके विकृत फल..., हाँ सामान्य नहीं था दोनों में से कोई , एक अंधा, दूसरा पांडुर!

विवश कर दिया उन बालाओं को. कहाँ जातीं वे? कहीं और ठिकाना था उनके लिये?

सब तो अंबा नहीं हो सकतीं!

माता सत्यवती को आश्वस्त किया था. नारी वीरभोग्या होती है, पर वे वीर नहीं थे, जन्म के रोगी, निर्वीर्य! मेरे पिता का पुत्र होना ही उनका एक मात्र गुण था.'

उस दिन नहीं, आज समझ में आ रहा है. स्वयं भी जीवन भर विवश रहा अन्याय के पक्ष में बने रहने को, अनीतियों का मौन समर्थन करने को. मर्यादाहीन व्यवहार सहन करने को.

क्या आशा लगाई थी उन बेबस नारियों से, जिनके जीवन की स्वाभाविक इच्छाओं पर भी वर्जनायें ठोंक दी गईँ थीं, कुल के रत्नों को जन्म देंगी?

विवाह के नाम पर बलपूर्वक स्वस्थ सुन्दर, सौभाग्यकांक्षिणी, स्वयंवरा कुमारियों को लाकर जन्म के रोगी असमर्थ भाइयों को सौंप देना?

मेरी ही योजना थी. जानता था मेरी सामर्थ्य के, मेरे पराक्रम के सामने सब विवश हो जायेंगे.

मैंने व्रत लिया, भीष्म कहलाया, यश पाया. वे कुमारियाँ जीवन भर वंचित रखी गईँ. विवश कर दिया गया. विरक्ति से भरा मन ले कर जिससे अरुचि हो उससे संसर्ग या बलात्कार! पशुओं से भी गई-बीती रहीं वे.

अंबा के नयनों में प्रश्न था, 'हरण कौन करे और वरण कौन?'

सब कुछ उलट-पलट गया!

पति बनने में असमर्थ, पत्नी का पद कैसे दे पाते, मनोरंजन के लिये स्त्रियाँ चाहिये थीं उन्हें.

गांधार-कुमारी से विवाह का प्रस्ताव मैंने भेजा. अपनी नीति में सफल रहा मैं.

कुरु-साम्राज्ञी जीवन भर आँखों पर पट्टी बाँधे रही.

पतिव्रता?

कैसा विचित्र सत्य - हँसी हो शायद पांचाली!

सौ पुत्र जन्म दिये, पति का मुख तक न देखा.माँ की स्नेहमय दृष्टि कभी संतानों पर न पड़ी. न संस्कार देता? संतानों का जीवन सफल रहा क्या?'

थक गये पितामह.

तंद्रा ने घेर लिया. निस्पंद पड़े हैं. हिलते ही शूलों की चुभन!

जब तक चेतना है निस्पंद कैसे रह सकता है कोई!

मस्तिष्क कुछ सजग हुआ.

सब भूल-भूल जाते हैं.पांचाली ने कहा था या स्वयं की विचारणा - -

'ये ऋत नियम हैं-प्राकृत. जीवन की स्थिति, विकास और कल्याण के लिये. हठपूर्वक उनके विपरीत आचरण. परिणाम- विषमता और व्यतिक्रम के अतिरिक्त और क्या? स्वयं को वर्जित कर, बाधा बन गया वंश के क्रमिक विकास में. जब भी प्रकृति में व्यधान पड़ेगा, विकृतियों का समावेश होगा, जो कुछ अस्वाभाविक है, कल्याणकारी कैसे हो सकता है.'

हाँ, उसने कहा था -

'तात के संयम से किसका हित हुआ? किस महान् उद्देश्य की प्राप्ति हुई कौन सा दायित्व, कहाँ पूरा हुआ?'

उन तीन उछाह-भरी कान्तिमती स्वयंवराओं के मुख सामने आ जाते हैं, जिन्हें हर लाया था मैं. बेबस, भयाक्रान्त.विवाह के समय उन के साथ मेरे हतवीर्य रोगी भाई.... नहीं, याद नहीं करना चाहता.

उस दिन कृष्ण के साथ मार्ग चलती पांचाली हँसी थी.स्वयं के लिये बोली थी , 'मेरा कठिन व्रत! क्या हो गया तुम्हें, जनार्दन? अपने से तुलना कर देखो?'

विवश हैं पितामह.इस ओढ़ी हुई चादर के नीचे कितनी घुटन है, पर उतार सकते नहीं, दुनिया के सामने ओढ़े-ढँके ही ठीक!

♦♦ • ♦♦

कानों में लहरों की मंद्र ध्वनि.

अरे, सरस्वती का प्रवाह इतनी निकट है, अब तक मुझे पता नहीं था.

मन हुआ उठ बैठें, निकल चलें सरिता तट पर.

माँ की याद आई. गंगा कहाँ यहाँ!

हवाओं की थपक भाल पर अनुभव की.हल्का सा सिर घुमाया.आधी रात के बाद हवा गतिमान हो गई थी. पवन झोंकों से शिविर का पट कुछ सिमट आया है. हवा के झकोरे अंदर तक चले आ रहे हैं.

'सौमित्र ' प्रहरी को पुकारा

लगता है निद्रामग्न है.

पड़े रहे चुपचाप.

न सो रहे, न जाग रहे.

रात्रि की नीरवता में जल-तरंगें रह-रह कर बज उठती है, साथ में सदानीरा से होकर आते शीतल पवन झोंक.

जैसे कोई हौले-हौले माथे पर थपकियाँ दे रहा है.

अर्ध-निद्रा में लगता है, माँ के थपकी देते करों की चूड़ियाँ बार-बार खनक रही हैं.

'ओ माँ, मेरी सुध ले रही हो तुम!'

अति क्लान्त नयन, पलकें मुँदने लगीं.

38.

सांध्य-बेला समीप है, आज के युद्ध का विराम.

किसी-न किसी के द्वारा वहाँ की सूचनायें मिलती रहती हैं. बाद में विस्तार से वर्णन करते हैं रण-क्षेत्र से लौटे, वे पाँचों.

जयद्रथ-वध का समाचार भी ऐसे ही मिला था.

और आज आचार्य द्रोण का शिरोच्छेदन! कौरव सेनापति थे वे.

पांचाली चौंक उठी.

रुक न सकी, द्वार के समीप आच्छादन की ओट से बाहर देखती खड़ी रह गई.

आते-जाते लोग, कुछ वाक्यांश, कुछ नई भंगिमाये- दिन की एकरसता से कुछ मुक्ति मिलती है.

दो चर वार्तालाप करते जा रहे थे- 'हाँ, मार दिया आचार्य को.'

' उन्होंने प्रतिरोध नहीं किया?'

'प्रतिरोध? वे जड़ीभूत हो गये थे पुत्र-वध का समाचार सुन कर.'

'पर अश्वत्थामा जीवित है!'

'अब क्या कहें, उन्हें भरमा दिया सब ने मिल कर.'

'तो... मरा तो..हाथी था? '

'उन्हें भी संदेह था, धर्मराज से पूछा था..पर.. '

आगे नहीं सुन पाई, वे दोनों दूर चले गये थे

पांचाली असमंजस में.

इतने गुणी व्यक्ति का कैसा दुर्भाग्य!

मित्र रह कर भी पिता उनकी योग्यताओं का आकलन नहीं कर सके.

दूध माँगते पुत्र को बहलाने के लिये आटा घोल कर देना, करुणा से भर आया था पांचाली का हृदय.

घोर अभावों में पले पिता-पुत्र.

अनायास कृष्ण-सुदामा याद आ जाते हैं.

ओ पिता, दरिद्र विप्र को दिया गया वचन पूरा कर देते!

कहाँ हैं अब पिता, वे भी युद्ध की भेंट चढ़ गये.

♦♦ • ♦♦

निरंतर बढ़ता वैमनस्य और क्या-क्या दिखायेगा - न्याय-अन्याय, नीति-अनीति, सब एक हो गये. चल रहा है हिंसा और क्रूरता का नग्न-नृत्य!

पार्थ को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाने का श्रेय आचार्य को है. इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये औरों के साथ अन्याय भी कर गये- यह भी जानती है वह!

कंठ सूख रहा है, देहरी से लौटी, कक्ष में जा कर पात्र भरा.

पीने की मुद्रा में पकड़े अनमनी सी चली आई. दृष्टि द्वार पर गई. पात्र हाथ से छूट पड़ा.

युधिष्ठिर कक्ष में प्रवेश कर रहे थे. कुछ दूरी से भाइयों के वार्तालाप के स्वर भी.

विस्मित-सी पति का मुख देख रही है.

वे आँखें बचा गये. नीचे झुक कर लुढ़कता पात्र उठाने लगे.

पीछे आते शेष चारों झिझके से खड़े.

' जा कर जल पी लो, पांचाली.'

'हाँ.., हो गया आज का संग्राम?'

श्रान्त बैठ गये वे सब.

आज के समाचार सुनाने का उत्साह किसी में नहीं.

भीम कह रहे थे, 'ये अच्छा हुआ. आज बड़े भैया नीति से काम न लेते तो सब चौपट हो जाता.'

पात्र ले कर जाती हुई वह उनकी बातें सुन रही है.

♦♦ • ♦♦

बाद में कृष्णा ने पूछा था -

'धर्मराज, जान बूझ कर या अनजाने में?'

'मैंने सहज रूप से कहा था.'

'आचार्य ने तुम पर विश्वास किया था, मन में अपराध बोध तो नहीं न?'

वे एकदम सकपका गये.

'रहने दो, मैं समझ गई.'

उन्होंने फिर स्पष्ट किया -

'मैंनें तो सच ही बोला था.'

चुप देख रही है पांचाली अर्ध-सत्य -'....नरो वा कुंजरो वा'.

'पता तो था न..?'

'भैया कृष्ण ने कहा था नीति से काम लो, नहीं तो कोई राह नहीं बचेगी. मैंने...मिथ्या-भाषण नहीं किया..'

'अपना मन सबसे बड़ा निर्णायक है धर्मराज, मेरे -तुम्हारे कहने से क्या.'

कुछ शब्द चुपचाप व्यवधान बन कर दोनों के बीच खड़े रहे.

'बहुत थक गया हूँ. विश्राम करूँगा.

वे चले गये. द्रौपदी उसाँस ले कर रह गई.

भाई ने अपना प्रतिज्ञा पूरी की- समाधिस्थ द्रोणाचार्य का शीश काट कर -

उसके मुख से निकला - ओह, धृष्टद्युम्न!

♦♦ • ♦♦

धर्मराज?

सत्य और मिथ्या के बीच और क्या होता है - विभ्रम!

सारा दृष्य उसके आगे सजीव हो उठा -

भीम के चिल्लाने पर कि अश्वत्थामा मारा गया, आचार्य द्रोण को विश्वास नहीं हुआ- इतना समर्थ मेरा पुत्र, भीम के हाथों मारा जाय? यह कैसे संभव है?

चारों ओर कोलाहल मचा था.

उन्होंने वास्तविकता जानने को सत्यवादी युधिष्ठिर की ओर देखा.

' अश्वत्थामा हतो.' शब्द उनके कानों में और आगे का वाक्य... 'नरो वा कुंजरो वा' (अश्वत्थामा मारा गया है, लेकिन मुझे पता नहीं कि वह नर था या हाथी).शंख, घंटा, तुरही और उत्तेजित कंठ-ध्वनियों के कोलाहल में डूब गया.

सुन कर स्तब्ध, एकदम जड़ी-भूत हो गये द्रोणाचार्य!

और धृष्टद्युम्न ने एक ही वार से उनका शीष, धड़ से छिन्न कर दिया.

♦♦ • ♦♦

यह भी संभव है - कभी सोचा न था.

अश्वत्थामा जीवित है, सब देख रहा है, पिता की जघन्य हत्या. सत्य का मिथ्याकरण.

वह भी क्रोध में अंधा हो गया तो...?

आचार्य की मृत्यु का श्रेय- धृष्टद्युम्न को जाये या धर्मराज को?

कहाँ जाकर विराम लेगा यह महा-समर!

प्रतिशोध की ज्वाला ने विवेकहीन कर डाला सबको!

♦♦ • ♦♦

नीति क्या है?

जान कर भी अनजान बने रहना!

अर्जुन ने कहा था-

'याद करो, हमारे अभि को इन्हीं के नेतृत्व में कैसी अनीति-अन्याय से मारा गया.'

'उनका वही स्तर है, तुम में और दुर्योधन में कोई अंतर नहीं क्या? फिर वे तो धर्मराज ठहरे. '

नीति की बात एक बार पहले भी उठी थी, तब पांचाली ने युधिष्ठिर से कहा था -

'जो रीति एक आड़ बन गई हो अपनी चाल को सफल बनाने का, उसे मानना आवश्यक तो नहीं. आप कह सकते हैं मुझे द्यूत से घृणा हो गई है, नये मान स्थापित करना समर्थ पुरुषों का काम है. आपको जो अनुचित लगता है वह मानने को आप विवश नहीं. '

“स्त्रियों को इस बहस में पड़ना शोभा नहीं देता.. तुम्हारी सोच ही अलग है, पत्नी का धर्म है पति के अनुकूल रहना.'

यह भी याद है कृष्ण ने कहा था, ' मन की द्विधा, बात उनकी हो, तो मत पूछना उनसे. पांचाली, पुरुष स्त्री के प्रति इतना विचारवान नहीं होता. अधिकार की भावना उसकी मानसिकता में होती है. अपनी दुर्बलतायें उसे सहज स्वभाव लगती हैं. कोई कह दे तो चोट पहुँचती है उसे. पत्नी के सभी गुण उसके निमित्त हैं कोई भी कमी हो तो खटकती है.'

आज उसे किसी के खटकने की चिन्ता नहीं. मर्यादा केवल उसी के बाँटे नहीं आई, सभी के लिये है.

वह रुकी, नहीं कहती रही, 'बुद्धिमान मनुष्य, अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिये शब्दों के कुशल वार से मार देता है, किसी को ख़बर नहीं होती कोई दोष नहीं लगाता.साधारण आदमी सब के सामने खुलकर अपना काम साधता है, पापी कहलाता है. शस्त्राघात सबके सामने कर बैठता और धिक्कारा जाता है.बस, चातुर्य का अंतर है.'

युधिष्ठिर मुँह घुमा कर भीम से बात करने लगे.

याज्ञसेनी उठ गई. समर से लौटे पतियों के विश्राम- जलपान की व्यवस्था जो करनी थी.

♦♦ • ♦♦

'तो अब निचिंत हैं?

उत्तर अर्जुन ने दिया, 'अभी कहाँ, अब कर्ण की बारी है सेनापति बनने की, सबसे बड़ी बाधा....'

'ओह, कर्ण!' पांचाली ने सिर झुका लिया.'

सबके अन्याय और आक्रोश का केन्द्र वही रहा. सुपुरुष हो कर भी, समर्थ हो कर भी.....नहीं.. कर्ण, तुम हट जाओ मेरी स्मृतियों से भी. तुम्हारे दैदीप्यमान व्यक्तित्व पर छाया डालनेवाली एक मैं भी हूँ. क्या करूँ मेरी भी विवशता! नहीं जाऊँगी उस छोर जहाँ केवल अशान्ति और अशेष ग्लानि है.

नहीं, नहीं सोचना चाहती वह सब.

कितनी विसंगतियों के पनपने का निमित्त मुझे ही बनना था!

देखा था उसे पहली बार स्वयंवर की संशय भरी मनस्थिति में.

कुछ क्षणों को अनुभव की थी उछाह भरे ज्योतित नयनों की नेह-भीनी दृष्टि.

पर तभी पिता के कितने कथन ध्यान में आ गये. चिर-संचित आक्रोश उमड़ पड़ा, अर्जुन के स्थान पर यह कहाँ से आ गया?

वह वीरासन में बैठ कर नीचे जल में देखते हुये शर-संधान को प्रस्तुत था.

एक दम ज़ोर से बोल उठी, 'नहीं, नहीं, रुको, रुक जाओ! मैं कुलहीन पुरुष का वरण नहीं करूँगी.'

वे आजानु बाहु एकदम शिथिल हो गये, सारा उत्साह झप् से बुझ गया.

पांचाली के वचनों के दाह से, नेहमयी दृष्टि सुलग कर भभक उठी.

आज तक पांचाली उस संताप से मुक्त कहाँ हो पाई और कर्ण भी. आमना-सामना होते ही, एक आँच सुलग उठती है.

भोजन परोसती द्रौपदी का वह मनोयोग आज कहाँ चला गया!

.कोई कुछ पूछ नहीं रहा, कोई कुछ कह नहीं रहा.

चुपचाप भोजन में लीन, सब मौन. जैसे आज के घटना-क्रम से निर्लिप्त हों - नितान्त उदासीन.

39.

उस दिन जो सुन पाया बार-बार क्यों उद्विग्न करता है!

अंतर से कोई बोल उठता है- अब पांचाली के कहने पर चेते हो, सत्यवती ने भी कुछ कहा था.तब संरक्षक बने चुप बैठे रहे?

हाँ, तब मस्तिष्क का प्रवाह दूसरा था- स्त्रियों की बातें! जैसा रखा जायेगा रहेंगी. नीति क्या उनके कहे चलेगी?

एकदम झटका-सा लगा. गंगा-माँ, अपनी शर्तों पर आईं थीं, छोड़ कर चली गईँ. पूर्वज पुरूरवा को भी, सुना है, उर्वशी ने इसीलिये त्यागा.

पहले सोचा होता, कुल-शील की धज्जियाँ, इतना सर्वनाश और ये विकृतियाँ- बचा जा सकता था.

यह पांचाली है! वह विमाता थी - सत्यवती.

फिर ध्यान आया. प्रतिज्ञा की मैंने,पर क्यों? विमाता के कारण ही तो.

परिवार में उनका प्रवेश न हुआ होता तो..

बुद्धि सतर्क हुई -

वे स्वयं नहीं आईँ. मैंने ही रथ भेज कर बुलाया था, उन्हें ले कर उनके पिता साथ आये.

शर्तें उनके पिता ने रखी..

अपनी युवा पुत्री एक वृद्ध को ब्याहने के पहले पिता उसका हित सोचता है --स्वाभाविक है. वे भी कहाँ गलत रहे?

और विमाता?

मन ने प्रश्न किया - सत्यवती संतुष्ट रहीं क्या?

उन्हीं ने कहा था-

'मुझे संसार का क्या अनुभव था, पिता का कहना था तुम दुनियादारी नहीं जानतीं. और मैंने मान लिया, पिता हैं मेरे हित के लिये कर रहे हैं. राजमाता बनूँगी- कितनी शक्ति कितना वैभव. कहीं न कहीं तो मन का समाधान करना था. वृद्ध से विवाह करना मुझे क्यों रुचता पर पुत्री की बात का महत्व ही क्या? दायित्व पिता का होता है, मैं क्या कहती?'

युवा कन्या, धीवर की ही सही बूढ़े के साथ विवाह कर राजमहल में आयेगी. यहाँ के लोग कैसा व्यवहार करेंगे.बड़े घरों की बड़ी बातें, सब छिपा रह जाता है. फिर यह तो राजमहल, जहाँ पति का युवा पुत्र, राज- पद का अधिकारी. और वृद्ध का क्या ठिकाना? अकेली स्त्री, पता नहीं कल को क्या हो? सब अनिश्चित ही तो था. वचन उनके पिता के कहने पर उठाये थे.

उन्होंने कहा था-

'....तुम्हारे पिता मेरे पिता से कम वय के तो नहीं होंगे! देवव्रत, तुम बीच में साधते गये सब! दोनों ने मिल कर सब तय कर लिया और यहाँ की मर्यादायें, वर्जनायें थोप, इन सारे बंधनों में जकड़ दिया.

'जन-जाति की कन्या मैं, बात को सीधे शब्दों में कह देती हूँ. पुरुष में पकी उम्र में भी, वात्सल्य नहीं जागता, लालसा ही जागती है?

ओह, भीष्म, किससे कहूँ पहले वह पराशर, ऋषि कहाते हैं जो. नदी पार करा रही थी वहीं संयम खो बैठे. मैं तो धीवर पुत्री ठहरी.. कितना मुक्त जीवन था. क्या मोल इन स्वर्ण-रत्नों-मोतियों का! रात-दिन का मनस्ताप और चिन्तायें हैं मेरे लिये तो.'

पूछा था उन्होंने -

'तुम्हें क्या सूझा, मेरे पिता की शर्तें मानते गये? तुम्हीं हो इस सब के उत्तरदायी!'

कोई उत्तर नहीं था भीष्म के पास!

'वहाँ निश्चिंत जीवन बिता रही थी. प्रसन्न थी. चाहे नदी पर नाव खेऊँ या वन में विहार करूँ. मैंने तो बता भी दिया था- एक पुत्र है मेरा. पर तुम्हारे पिता..अब मैं क्या कहूँ.

ऊपर से ये दो राजकन्यायें, मुझ से भी अधिक दारुण स्थिति में जीने को विवश.'

सदा एक दूरी बनाये रखी थी विमाता से. भीष्म को असहज लगने लगता था, जितना कम हो सके उतना ही सामना हो.

सोचते-सोचते जब थक जाते हैं श्लथ तंद्रिल-से, शृंखला टूट जाती है, कहीं के तार कहीं से जुड़ जाते हैं.

कितनी बातें, कोई तुक की कोई बेतुकी. माँ क्यों चली गईँ? प्रसन्न और तुष्ट होतीं तो क्यों जातीं! पर यहाँ नारी का अस्तित्व ही क्या? वे नहीं रह पाई होंगी, चली गईं.कुछ कारण रहा होगा. ये सब राज-परिवार के रहस्य हैं मुझे भी किसी ने नहीं बताया, कोई क्या जाने! मैं भी पूछ नहीं सका, जानना चाहता भी नहीं. वैसे ही कौन कम उलझनें हैं!

आज फिर वह अध्याय खोल बैठे. सत्यवती न कहा था-

'क्यों रूप-यौवन दिया ईश्वर ने? पुरुष स्वयं को बस में रख नहीं पाता और दंडित होना पड़ता है हमें!'

चिन्तन चल रहा है -

सब पुरुष एक से नहीं होते,

विराट् को जब उन पाँचो के पांडव होने का पता चला था तो उन्होंने उत्तरा से अर्जुन से विवाह का प्रस्ताव रखा था. अर्जुन ने उत्तरा को पुत्रीवत् कह कर अभिमन्यु के लिये स्वीकार किया. यह है मर्यादा!

और महाराज प्रतीप ने भी गंगा के आग्रह पर भी मर्यादा के ही कारण स्वयं न स्वीकार कर पुत्र के हेतु स्वीकारा.

पर पिता?

उद्वेग से होंठ काट लिया भीष्म ने.

विमाता का प्रश्न था-

'इन संतानों का क्या होगा. कोई देगा इन्हें अपनी पुत्री?'

और वे काशिराज की कन्यायें हर लाये- समाधान हो गया समस्या का.पर उससे भी बड़ी समस्या आ खड़ी हुई.

विभ्रम में पड़ जाते है, विचार भटक जाते हैं.

क्रम आगे चला.तुम्हारे वंश को आगे बढ़ाने उनका पुत्र आया. तब भी तुम्हारा व्रत आड़े आ गया..'

और अधिक उद्विग्न हो उठे पितामह.

कुछ नहीं कर सका..उन्हें लगता है, समर्थ थे तब अनीति नहीं रोक सके तो अब! अब तो....

कितनों के साथ अन्याय किया, अपना कर्तव्य कह कर. क्या-क्या घूमने लगता है मन में जैसे सारा अतीत सामने चक्कर काट रहा हो.

शून्य कर देना चाहते हैं मन को. शान्त - कदम शान्त. विश्राम मिल सके इस मनस्ताप से.

सिर चकराने लगता है. आँखें मूँद लेते हैं- एकदम श्लथ..

इन शरों की चुभन में तन को चैन नहीं. विगत स्मृतियों के दंश से मन को चैन नहीं.

40.

हे ईश्वर, कब होगा सूर्य उत्तरायण!

अब सहा नहीं जाता. विश्रान्त मन विस्मृति में डूब जाना चाहता है. माँ की थपकियों की याद आती है.

हवा तिरपाल से छेड़खानी करने लगी है. माथे पर चुहचुहा आई पसीने की बूँदें -शीतल प्रलेप सा लगाने लगते हैं हवा के झोंके. हाथ-पाँव हिलाने की इच्छा नहीं होती शरों के पृष्ठभाग भी रुक्ष कठोरता से भरे.

सब आते हैं. पर किसी से कुछ कहने-सुनने की इच्छा नहीं होती. भीतर ही भीतर मौन संवाद चलते हैं - अविराम.

भूल जाते हैं क्या विचार चल रहा था.

मन कहाँ शान्त बैठता है. फिर चिन्तन चल पड़ा - कितना अंतर है इन पांडवों और कौरवों में!

दोनों मातायें श्रेष्ठ कुलों की कुमारियाँ, पर संतानों में कितना अंतर!

एक निरीह-सी, उदासीन! जो आ पड़ा, स्वीकार करती जा रही है. आँखों पर पट्टी बाँध लेनेवाली. कभी पति और संतान का मुख न देखनेवाली - पतिव्रता?

और तब सबने बहुत प्रशंसा की थी.

एक-दूसरे के मन को समझ पाया होगा?

उसाँस भर कर रह गये भीष्म!

दुर्योधन! उसकी बात छोड़ो, जिसने कभी माँ की स्नेहभरी दृष्टि न पाई वह नारी का क्या सम्मान करेगा? एक के बाद एक लगभग सारे भाइयों की यही कथा रही.

चाहा था दुर्योधन से सुभद्रा का विवाह होता. हमें यदुकुल का, विशेष रूप से कृष्ण का समर्थन मिलता.बलराम भी तैयार थे. पर नहीं हो सका..

स्मृतियाँ फिर अतल में डुबाने लगीं

क्या विचार कर रहे थे, सब गडमड हो गया.

हाँ, कुन्ती की भूमिका...

तेजस्विनी, समर्थ, बढ़ा हुआ मनोबल, स्वयं वरा था उसने अपनी रुचि से प्रतिष्ठित कुल का कुमार देख कर.कुन्ती ने स्वयं पांडु के कंठ में वरमाला डाली थी.

पांडु की असमर्थता पर वह सचेत रही. काम्य-पुरुष से अंश ग्रहण किया, संतृप्ति के सुख से विह्वल-क्षणों में, नारीत्व की चरम उपलब्धि, मातृत्व का भान. स्वस्थ-समर्थ संतान,

कुन्ती समर्थ और गांधारी विवश - दोनों में कैसी तुलना?

कारण केवल मैं- सिहर उठे पितामह!

तभी कुन्ती संस्कार दे सकी, स्नेह- दृष्टि से सींच सकी, संतानों में संतुलित व्यक्तित्व का विकास कर सकी.

श्रेष्ठ का वरण कर, स्वस्थ आगत जीवन की नींव पड़े- आनन्दमय जीवन-चेतना के क्रोड़ से नवांकुर फूटें. इसीलिये स्वयंवर की प्रथा रखी गई होगी!

एकदम विचार आया, जिसे हरा जाता है उसे कैसा लगता होगा?

अंतर पड़ जाता है. हरण करनेवाला स्वयं विवाह को तत्पर हो तो कन्या को लगता होगा, इसके हृदय में मेरे प्रति इतना चाव है कि सबसे जूझने को प्रस्तुत हो गया, प्राणों की बाज़ी लगा कर पाना चाहता है.

अन्यथा लगेगा, मुझमें रुचि नहीं थी लूट में समर्थ थे सो हर लाये, अहंकार के वशीभूत. किसी को भी सौंप देंगे- कितना उपेक्षित अनुभव करती होगी!

कहाँ से कहाँ भटकने लगते हैं विचार. हाँ, दोनों का अंतर- कुंती की सामर्थ्य गांधारी की विवशता. केवल वही क्यों कितनी और भी तो.

एक की महानता के अभियान में कितनों को स्वाभाविक जीवन से वंचित होना पड़ा!

कैसी महानता जो सिर्फ अपने को प्रमाणित करने के लिये औरों का अस्तित्व रौंद डाले.

अंबा-अंबिका-अंबालिका?

फिर वही कथा आगे बढ़ चली. वैसे ही अध्यायों की रचना होने लगी.

पश्चाताप से भर उठे. आँखें मूँदे, अवसन्न से.

लग रहा है बाहर-भीतर जम-से गये हैं.लेटने की स्थिति बदल ली.शरों के पृष्ठ जैसे पीठ में धँसे जा रहे हों मुख से निकलते सीत्कार को रोक लिया पितामह ने.

माँ गंगा का स्मरण हो आया. वे चली गईँ.

माँ सत्यवती की अपनी शर्तें.

और दोनों के बीच देवव्रत-कितना लाचार!

ऊंह, कैसे -कैसे विचार आ रहे हैं. उनके विषय में सोचना मेरा काम नहीं.

तो कुन्ती के विषय में, द्रौपदी के विषय में!

वे अपने ढंग से रहीं.

उन पर बस नहीं चला. इन सब पर चल गया, ये बेबस हो रह गईं.

तो कैसा होनी चाहिये स्त्री को वैसी या ऐसी?

तब तो ऐसी चाहिये थी जिसे अपने अनुसार चला लें, पर अब लग रहा है, वैसी ही ठीक थी. समर्थ माता ही संतान को उपयुक्त ढंग से ढाल सकती है.

ओह, जिस पर कोई बस नहीं उस विषय में सोचे जा रहे हैं.

अपने ऊपर वश ही नहीं. अनजाने ही कितने विचार चले आते हैं,

करें भी क्या. रात-दिन बस यही तो शेष रह गया है.

नहीं, अब नहीं. बस बहुत हो गया. कुछ क्षण यों ही- दिमाग में कुछ नहीं आने देंगे.

अचानक विचार कौंधा -और पुरुष कैसे होने चाहियें?

मेरे जैसे?

ना, ना. नहीं. बिलकुल नहीं. क्या किया मैंने -सब चौपटकर दिया!

हाँ, विमाता ने कहा था,' यह नारी की ही विवशता है कि समवयस्क को पुत्र माने, पितृ-तुल्य को पति. पुरुष को खुली छूट! पुत्री की वय की कन्या को विवाह लाये.'

इस प्रकार कभी सोचा नही था.

पिता शान्तनु? नहीं. पद तथा वय की गरिमा-गांभीर्य नहीं निभा सके. पहले माँ की शर्तें, फिर सत्यवती-माँ के लिये....कामना- तृप्ति हेतु औरों से संचालित रहे!

अपना उचित-अनुचित स्वयं निर्धारित न कर सके.

आगे, धृतराष्ट्र और उनके सौ पुत्रों की गाथा! आज लग रहा है जो हुआ प्रारंभ से ठीक नहीं था.

और पांडु काका? हाँ ठीक, पर उनकी अपनी विवशतायें. वंश में जो ग्रहण लगा था उन्हें भी छाये रहा.

कुछ क्षण सोचते रह गये- ग्रहण?

मेरे ही कारण! हाय रे दुर्भाग्य!

अनचाही पत्नी से दूर रहने के सैकड़ों उपाय हैं पुरुष के पास, पर विवश हो कर अनचाहे पुरुष से जीवन भर दाम्पत्य निभाना- ओह, कैसे बिताया होगा जीवन!

गहरी सांस छोड़ी पितामह ने.

कुन्ती ने ठीक ही किया.

मस्तिष्क थक गया. शिथिल हो पड़े रहे. विचित्र विचार आते-जाते रहे.

बचपन में माँ गंगा के साथ की स्मृतियाँ जाग उठीं -बस धुँधली यादें.जैसे तंद्रा में हों.

लगा पहुँच गये अपने गंतव्य पर. अशान्ति मौन हो गई.

निद्रा ने घेर लिया.

♦♦ • ♦♦

जीवन का लेखा-जोखा पूरा होने जा रहा है. इस जनम के कर्म इसी में भोग लूँ तो यह पीड़ा सार्थक हो!

कर्ण आया था, कब, किस दिन? दिनों की गिनती भी भूल जाते हैं.

उसके शब्द याद आते हैं

'नहीं तात, कवच-कुंडलों से बढ़ कर मेरे लिये मेरा व्रत है.

किस बात पर कहा था उसने?

अभेद्य कवच-कुंडलों की बात पर? नहीं, कोई गुमान नहीं था उसे.

विनीत है वह! आकर चुपचाप चरणों की ओर खड़ा हो गया था.

स्नेह से समीप बुलाया, वर्तालाप होने लगा.

अब वह सेनापति है. आशीर्वाद लेने आया है.

'आपको कभी प्रसन्न नहीं कर पाया मैं, मेरा दुर्भाग्य!..'

'नहीं. मैं रुष्ट नहीं तुमसे, असंतुष्ट भी नहीं. परिस्थितियां ऐसी बनती चली गईँ. तुम दुर्योधन के हित..'

पूरी बात याद नहीं कर पाते, मन स्थिर कहाँ रह पाता है!

'और क्या करता तात? अकारण सब ओर से तिरस्कार और वंचनायें मिलीं, किसी ने कभी सीधे मुँह बात नहीं की. तब, उसी ने बढ़ कर साधा. सब कुछ उसी का दिया - राज्य, मित्रता, और एक पहचान. वह जो आज मैं हूँ.'

'तुम कौन हो नहीं जानते?'.

'अब चाहता भी नहीं, जान कर क्या होगा. जानना तो औरों को चाहिये था..'

'मैंने किसलिये युद्ध से रोका? नहीं, मुझे तुमसे अरुचि नहीं थी..इसका कारण था. जो मैं जानता हूँ तुम भी जान लो...'

कहते-कहते वे कुछ रुके, कर्ण के मुख की ओर देखते बोले,

'..एक ही माता की संतानों को मरने-काटने के लिये आमने-सामने खड़ा कर दूँ? वह मैं नहीं कर सका. मैं जानता था तुम कुन्ती-पुत्र हो. हाँ वसुषेण, कुन्ती तुम्हारी भी माता है.'

एकदम विस्मयाभिभूत,' मेरी माता? वे.?'

अवाक् कर्ण!

सिर झुकाये अंतर्मंथन में लीन! अचानक मुख तमतमा उठा,

'क्या होता, क्या बना दिया..'.

पितामह ने हाथ उठा कर सांत्वना देनी चाही, बोले, 'जो बीत गया सो गया. आगे की सुध लो. युठिष्ठिर तुम्हें माथे चढ़ाकर पूरा अधिकार देंगे. सारे भाई तुम्हारे अनुकूल रहेंगे. जीवन में जो अप्राप्य रहा, सब तुम्हारे चरणों में होगा.'

स्थिर दृष्टि, पितामह की ओर देखा उसने.

'अप्राप्य रहा था सब कुछ. उस अपरिपक्व वय में बहुत दुखी होता था. अशान्त चित्त, दिन-रात चुभते वही वाक्य. हर स्थान पर केवल इस कारण दुत्कार दिया गया. इधर से उधर भागता था. कहीं कोई सहारा मिल जाय, जीवन सँवार लूँ. सब जगह दुरदुरा दिया गया. मेरी योग्यता का कोई मोल नहीं. आचार्य परशुराम से मिथ्यावाचन कर शिष्यत्व पाया, पर सत्य कहाँ छिप सका. अर्जित विद्या निष्फल हो गई. राधेय रहा जीवन भर, कौन्तेय कभी नहीं. पितामह, उनका बस चलता तो जन्मती ही नहीं. अब पांडव नहीं बनना चाहता. सूत-पुत्र रहा -पग-पग पर प्रताड़ित वंचित.

जिनके लिये मैं कभी था ही नहीं, मेरे हर सच को झुठला दिया गया हो जहाँ, उनका साथ नहीं दे पाऊँगा.'

जैसे स्वगत कथन कर रहा हो, 'माता? जिसने जन्मते ही म़त्यु के मुख में धकेल दिया? अनचाहा था मैं. अब जब सब बीत गया, तो जिसने मान दिया, जिसने जीवन दिया, नेह से पाला, उसे कैसे नकार जाऊँ?'

वहीं धरती पर बैठ कर उसने शर-शैया के किनारे सिर धर दिया. था. पितामह ने, धरती की ओर मुख किये कोर से टिके उस शीष पर हाथ रख, कर्ण को आश्वस्त करने का प्रयत्न किया.

जैसे युग-युग की पीड़ा बाँध तोड़ कर बह निकली हो. आज पहली बार किसी परम मान्य का वात्सल्य उसे सींच रहा था.

'अब सब व्यर्थ लगता है, तात. मित्र बनाया जिसने, मान-सम्मान दिया उसे अधर में नहीं छोड़ सकता. उसका विश्वास नहीं तोड़ूँगा, जिन का ऋण चढ़ा है मुझ पर, अब चुकाने की बार धोखा दे जाऊँ?

नहीं पितामह, वसुषेण अभागा है तो क्या, ऐसा स्वार्थी नीच और कृतघ्न नहीं है ! बहुत सम्मान करता हूँ आपका. आज आपका स्नेह अनुभव कर हृदय विह्वल हो उठा है. पर यह नहीं कर सकूँगा पूज्य, मुझे क्षमा करें.'

पितामह चुप, उसका मुख देख रहे हैं.

'मरण पर मेरा वश नहीं, पर जीना अपनी मान्यताओं पर चाहता हूँ. '

शैया से टिके कर्ण के मस्तक पर, पितामह बड़ी देर हाथ रक्खे रहे थे.

सजल थे दोनों के नेत्र.

रणभूमि के वीभत्स वातावरण में करुणा की क्षीण धारा बह निकली थी.