कृष्ण सखी / भाग 5 - 8 / प्रतिभा सक्सेना

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5.

'कृष्णे, तुम्हारा कोई मनोभाव मेरा अजाना नहीं है, ये रीति नीति सब अलग रह जाती हैं. तुम्हारी अनुरक्ति और विरक्ति के अंकन मुझसे छिपे कहाँ रहते हैं!'

कृष्ण ने जो कहा था सोच कर पांचाली संकुचित हो जाती है -

कर्ण को देख कितना असंयत हो उठती हो तुम! तुम्हें ही सब से अधिक उत्सुकता थी यह जानने की कि, पत्नी के साथ संबंध में कवच-आड़े आता है. वृषाली के बताने पर कि वह तो त्वचा के समान उसके शरीर का अंग है, कहीं कुछ अस्वाभाविक नही बल्कि अति सुचिक्कण दमक से भरा स्पर्श सुखद, आश्वस्ति-प्रद है- वह धन्य है ऐसा पति पा कर.

'अपने मन में झांक कर देखो. वह आया, मत्स्य-बेध करने. और तुम विचलित. अर्जुन और कर्ण दोनों में से किसी को नहीं देखा था- पहले ही निर्णय कर लिया था न, बिना जाने? उसे देख एक दम विचलित हो गईँ. अर्जुन के सम्मुख उसे तुच्छ बना कर अपना ही समाधान कर लिया तुमने!'

उन आँखों में भी जो राग दिखा था तुम्हारे लिए- स्वयंवर की बेला में, उसका रंग इतना कच्चा नहीं था. पर यह बात पांचाली से कह नही सके कृष्ण. उसके मन की वेदना कहीं और दारुण न हो उठे!

सिर झुकाए सुन रही है, गोद में हाथ पर हाथ रखे मूर्तिवत्.

'क्यों? तुम्हें नहीं लगता कि उन सबकी अपेक्षा तुम्हारे पतियों से कहीं अधिक अनुरूपता है उसमें, इनके साथ वह अधिक शोभता है. मन में आता है पाँच की जगह छः तो नहीं हैं. '

हाँ, यही कहा था कृष्ण ने -

'और जब तुम व्याकुल, सभी गुरु-जनों को टेर रहीं थीं उसे उपेक्षित कर दिया- उसकी गणना भी गुरुजनों में थी. बड़े भैया से बड़ा. अंग देश का स्वामी, एक बार उसका नाम लेतीं, तृप्त हो जाता वह. तुम्हारे किये सारे अपमान भूल तुम्हारे सम्मान के लिए खड़ा हो जाता. पर फिर चूक गईँ तुम!

जो सबसे सक्षम था तुमने हर बार उसे देख कर अनदेखा कर दिया.

दोष उसका कहीं नहीं था. सारे निर्णय तुम्हारे थे. '

'हाँ, निर्णय मेरे थे', उसाँस भरी पांचाली ने,' मैं ऐसा क्यों करती रही स्वयं नहीं जानती, मेरे मन में यह विरोध कैसे भर गए? '

'दोष तुम्हारा नहीं. तुम्हारी मानसिकता ही ऐसी ढाली गई थी. '

चुप सुन रही है. कहने को कुछ है भी नहीं!

समझ में आ रहा है अब, जब प्रतिकार करना संभव नहीं रहा.

कभी द्रुपद पिता की चाल, कभी कुन्ती माता की नीति, कभी पतियों के दाँव. अपने हित साधन के लिए एक मोहरा बना लिया सब ने.

बस, एक ने साथ दिया हर विषम क्षण में, उसे ही बार-बार टेरता है अशान्त मन!

♦♦ • ♦♦

महाभारत बीतने के बाद समझा था कृष्णा ने कि उसके वरण का पहला अधिकार कर्ण को था, कुन्ती पुत्र के रूप में भी और स्वयंवर के प्रतिभागी के रूप में भी. दोनों बार वही छला गया. निरंतर अपमान के दंश उसे प्रतिशोधी बना गये.

कितना अस्थिर कर जाता है कर्ण का उल्लेख!

मन को समझता है केवल यह सखा.

'.... और पांचाली, तुमने दाँव नहीं लगाया क्या? स्वयंवर की शर्त थी मत्स्य-बेध -जो भी पूरी करे. क्या अपराध था कर्ण का? क्यों अपमानित किया गया उसे बार-बार? सूत परिवार में पोषण ही तो पाया था. उसकी तेजस्विता, व्यक्तित्व की गरिमा किसी से कम थी? सोचो,ये कौरव ये पांडव, कौन होते हैं उसे अपमानित करने वाले. ये धीवर की संतान नहीं हैं क्या? सत्यवती कौन थीं, व्यास जिनसे नियोग कराया गया वे कौन थे?

'तुम तो माध्यम बन गईं - अर्जुन को कब देखा-जाना था, उसकी कामना कैसे जगी तुम्हारे मन में? लोगों की कही बातें सुन-सुन कर ही न! पिता की इच्छा थी उस समर्थ धनुर्धर को जामाता बनाने की. प्रतिशोध लेने के लिए अपने पक्ष में करने के लिए. '

द्रौपदी जान चुकी है अपने जन्म की आयोजना. पोषण क्रम में मनोभावों को अपने अनुकूल नियंत्रित करने के पीछे द्रुपद की सावधानियाँ. पुत्री का जीवन, उसका अपना कहाँ रह गया था, वह तो निमित्त थी, अर्जुन को वरे- ऐसी मानसिकता का निर्माण!

'केशव, तुम कहे जा रहे हो ये तुम्हारा आरोप है या मात्र विश्लेषण!'

'और तुम? पाँच पतियों की पत्नी बनने के प्रस्ताव पर क्षत्राणी की तरह कह देतीं कि मैं विभाजन की वस्तु नहीं स्वयंवरा हूँ, वीर्य-शुल्का हूँ. जिसने जीता है उसे पति स्वीकार करूँगी. तुम्हारा तेज उन पलों में क्यों मंद पड़ गया? किसी जन्मान्तर का सोया संस्कार या कोई छिपी कामना तो नहीं जाग उठी कि तुम कमज़ोर पड़ गईं?'

पांचाली चुप!

करते समय इन्सान बिल्कुल नहीं समझता कि कितनी बड़ी गलती कर रहा है. जीवन की बाज़ी खेली पहले जाती है, समझ बाद में आती है.

कैसी विडंबना है!

6.

लकड़ियों का धुआँ आँखों में लगता है, पनियाई आँखें आँचल से पोंछ लेती है याज्ञसेनी.

भीम आगे बढ़ आये हैं -

'आज माँस मैं राँधूँगा. जितना खाता हूँ उतना स्वादिष्ट बना भी लेता हूँ. '

वह हँसती है.

'कितना क्या पड़ेगा जानते हो? कभी राँधा है?'

'तुम एक बार बता देना. जंगल में भूना है कितनी बार.. '

भीम नहीं सुनते, उसे हटा कर बैठ जाते हैं, नकुल आ गये हैं सहायता करने.

'पांचाली, तुम उधर जा कर बैठो, नहीं तो हमें टोकती रहोगी. '

'नकुल, तुम्हारे सुन्दर कोमल हाथ यह सब नहीं सँभाल पायेंगे. कहीं फफोला पड़ गया तो वनवासिनों की चिकित्सा कौन करेगा?'

छेड़ने से चूकती नहीं वह.

नकुल-सहदेव सबसे सुन्दर-सुकुमार और सब से छोटे भी.

सहदेव बोल पड़ते हैं,' कल से मैना आ जायेगी, काम निपटा देगी. '

'कोई नई पाली है क्या?'

पांचाली की विनोद-वृत्ति जाग उठी है, 'ये वनवासिनियाँ. मेरी सेवा करने थोड़े ही, तुम्हारे कारण- तुम्हें निहारने तुम्हारी सेवा कर कृतार्थ होने आती हैं. काम करती हैं उधर, दृष्टि इधर. उन्हें उपकृत कर दिया करो न, कभी -कभी. '

दोनों युवा अव्यवस्थित हो उठते हैं.

'यह बात नहीं, पांचाली. वे लोग इस परिवार की सेवा करना चाहते हैं क्योंकि हम लोगों ने उन्हें लाभान्वित किया है. '

हँसती है वह,' अभी तुम नारी-मन को ठीक से समझते नहीं न.. '

नकुल-सहदेव इतने गंभीर नहीं, प्रारंभ से कोई दायित्व सिर पर पड़ा नहीं. बड़ों की छाया में रहे सदा. उतनी गहनता- गांभीर्य कहाँ विकस पाया!

नकुल को अपनी विद्वत्ता का गुमान है, कुशल पशु-चिकित्सक हैं. सहदेव भी तलवार-संचालन और घुड़सवारी में निपुण. दोनों को वर प्राप्त है - अश्विनी-कुमारों से भी बढ़ कर रूप और शक्तिशाली होने का.

बारह वर्ष के वनवास में कहाँ तक अपने आप में सिमटे रहें दोनों युवक.

जो विद्याएँ आती हैं उनका अभ्यास औऱ प्रयोग करेंगे ही. पास-पड़ोस की बस्तियों में जा कर अपने कौशल का प्रदर्शन कर सबको प्रभावित करते हैं. सहायता भी करते हैं. दूरृ-दूर तक लोग उन्हें पहचानते-मानते हैं. लाभान्वित होनेवाले अपनी सामर्थ्य के अनुसार वन की उपज मधु, फल-फूल, लकड़ी के भारे भेंट कर जाते हैं.

सचमुच दोनों स्वरूपवान कुमार वन-प्रदेश में विचरते देव-कुमारों से लगते हैं. रुक-रुक कर देखने लगते हैं लोग. वन-बालायें और उनकी मातायें गृह- कार्य हेतु तत्त्पर रहती हैं. पांचाली की सेवा कर भोजन आदि पा जाती हैं.

'भइया ने उनके पशुओं की चिकित्सा की थी,' सहदेव फिर भी तर्क करते हैं,'और औषधि का मूल्य नहीं माँगा था. '

'उन्हें घुड़सवारी के गुर सिखाये नकुल ने और कितनी बार अपने अस्त्र- संधान से वन्यपशुओं से उनकी रक्षा भी तो की. '

द्रौपदी को पर्याप्त सहायता मिलने लगी है, पर साधनहीन वन-जीवन की असुविधायें तो हैं ही.

पांचाली भोजन परोसती है. हवा लग कर रोटी कड़ी हो गई है. युधिष्ठिर की असुविधा देख रही है.

मन करुणा से भर आता है. उनकी थाली से निकाल अपने लिये रख लेती है उन्हें गर्म मुलायम दे देती है.

' नहीं पांचाली रहने दो. ठीक है. '

वह चुप अपना काम करती रही.

सारे भाई देख रहे हैं - पांचाल राज-कन्या ने कभी रोटियाँ सेंकी होंगी धुआँते चूल्हे पर? कभी ऐसे भूखों की तृप्ति कराई होगी?

पत्नी को श्रमित देख हाथ खींच बैठ जाते हैं भीम. 'बस मेरा हो गया. '

उनकी भूख जैसे वह जानती नहीं. जबरन थाली में डालती है, कसम दे कर खिलाती है.

'तुम भूखे रहोगे मुझे पाप पड़ेगा. नहीं भीम, ग्रास नहीं उतरेगा मेरे कंठ से... नहीं, ऐसे नहीं उठने दूँगी. '

युधिष्ठिर सुनते रहे चुपचाप.

♦♦ • ♦♦

कुछ दिनों को बड़े भैया कहीं जाना चाहते हैं. सब को लगता है ठीक तो है, उनकी एक और पत्नी है- देविका, और पुत्र भी - यौधेय. स्वाभाविक है. जाना ही चाहिये.

नकुल की भी तो एक और पत्नी है- करेणुका, चेदिराज की पुत्री. नकुल श्वसुरालय नहीं जाते तो क्या. पत्नी को पति के समीप आने से कौन रोक सकता है!

वे भी जाते हैं कभी-कभी.

युधिष्ठिर लौट कर आये - लाल वस्त्र में लिपटी पोटली-सी आगे बढ़ाते बोले, 'लो, याज्ञसेनी!'

चारों भाई उत्सुकता से देख रहे थे, क्या भेंट लाये हैं, हमारे अग्रज!

उत्सुकता से पांचाली ने पोटली खोली - एक पात्र, किसी धातु की हाँडी जैसा.

'अरे, यह क्या?' प्रश्न-वाचक दृष्टि युधिष्ठिर की ओर उठी.

' भोजन की व्यवस्था करने में यह तुम्हारा बहुत सहायक होगा. '

'इतना छोटा पात्र? इसमें तो पर्याप्त ओदन भी नहीं समायेगा!'

भीम कैसे चुप रहते, 'अरे, इतने में कौन-कौन खायेगा, लगता है अब मुझे ही भूखा रखा जायेगा!'

युधिष्ठिर ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया, कहते रहे,

'ये तुम्हें मेरी तुच्छ भेंट है,'

और उसके विषय में विस्तार से बता कर बोले,' जब तक तुम भोजन कर तृप्त नहीं हो जातीं यह पर्याप्त मात्रा में यथेच्छ खाद्य-सामग्री प्रदान करेगा,. हाँ, तुम्हारे तुष्ट होने के बाद किसी के लिये आहार पूर्ति संभव नहीं, स्वामिनी की तुष्टि इसका उद्देश्य है. '

गृहिणी तो सबको तृप्त करके ही संतुष्टि पायेगी - युधिष्ठिर जानते हैं. सबको भोजन कराने बाद ही अन्न-ग्रहण करती है वह.

उपकृत हो गई द्रौपदी.

वन का जीवन बहुत आसान हो गया. .

भोजन की बेला हर बार युठिष्ठिर के प्रति कृतज्ञता से भर उठता है मन!

हाँ, युठिष्ठिर का यह उपकार वह कभी नहीं भूल सकती.

♦♦ • ♦♦

कितने दिनों बाद तीनों इकट्ठे हो सके हैं - कृष्ण,पार्थ और पांचाली.

पार्थ का एक जगह टिकना मुश्किल है. पांचाली एक डोर है जो बार-बार खींच लाती है और पाँचो भाई साथ रह लेते हैं. कृष्ण का आवागमन चलता है.

दोनों मित्र एक से, कब कहाँ होंगे कुछ पता नहीं.

मिलने पर उनकी चर्चायें चलती रहती हैं, शस्त्रों पर शास्त्रों पर और वर्तमान स्थितियों पर.

द्रौपदी, डलिया में पुष्प लिये प्रातःकालीन पूजा के लिए माला गूँथने में व्यस्त है. दोनों की बात-चीत सुनती हुई बीच-बीच में बोलती जा रही है.

'तुम्हें इतनी प्रिय थी ब्रज-भूमि, छोड़ कर चले गए. इतनी दूर सौराष्ट्र में. सिंधु तीर जाकर नये सिरे से पुर की रचना की. ये लोग जो तुम्हारे नेह में बावले हैं उनसे इतनी दूर जा कर..?'

'वे मुझे अत्यंत प्रिय हैं इसीलिए. मेरे साथ कौन शान्ति से रह पाता? अब मैं वहाँ रहूँगा तो इन्हें जरासंध के आतंक से मुक्ति मिलेगी. देखो न, अठारह बार उसने मथुरा पर आक्रमण किया, मुझसे बैर मानता है. जो मेरे साथ हैं उन्हें भी चैन नहीं लेने देगा. ’

अर्जुन, अपने तरकस-तीरों को सँभालते बोल उठे -

'सखे, जीवन में ये लोग कभी शान्ति से बैठने नहीं देंगे. '

द्रौपदी का कहना,' क्यों उन सबका बैर-भाव हमारे लिए है, तुमसे तो नहीं. '

'क्यों? कंस मामा की दोनों पत्नियाँ, अस्ति और प्राप्ति, उसी जरासंध की पुत्रियाँ हैं. विधवा कर दिया मैंने. कैसे चैन पड़ेगा उसे?'

'उसने भी तो कंस जैसे अत्याचारी से पुत्रियां ब्याहीं. जो अपने जनक का भी न हो सका. इतने श्रेष्ठ कुल में जन्म लेकर कैसा निकृष्ट आचरण!'

'जिसके पास सामर्थ्य होती है उसके दोष नही देखे जाते,' पार्थ का मत था.

'फिर वही बात, आचरण किसी कुल की बपौती नहीं. और एक बात जो लोग नहीं जानते कंस का कुल, नाना का कुल नहीं. '

पार्थ ने विस्मय से देखा,' क्या कह रहे हो. पुत्र था उनका?'

'तात उग्रसेन कंस के पिता नहीं थे?'

पांचाली विस्मित, 'तो.. फिर कौन? कहां से आ गया उनके घर में?'

गहन सोच में हैं गोविंद. क्या कहें क्या छोड़ दें तय नहीं कर पा रहे.

'अंदर की बातें हैं पांचाली. लोगों को पता भी नहीं. '

'रहने दो, मन गवाही न दे तो मत बताओ,' पार्थ ने साधने का यत्न किया.

'मीत हो तुम मेरे, तुमसे क्या दुराव. बस तुम्हारे आगे अपना मन खोल देता हूँ, बाँट लेता हूँ सब कुछ...वह महाराज उग्रसेन का क्षेत्रज पुत्र था. '

'अरे, यह तो एक नई बात सुन रही हूँ. ऐसी विचित्र घटनाएँ घटती हैं, कुछ सिर-पैर समझ में नहीं आता. स्पष्ट कहो?'

'हर घर के अपने रहस्य होते हैं, मत कुरेदो पांचाली!'

'नहीं मित्र, पांचाली को पूछने दो, सब जानने का अधिकार है उसे, और तुम्हें भी. तुम्हारे आगे कोई भेद रखना नहीं चाहता. '

फिर बताया गोविन्द नें,

'मेरी नानी, नाना उग्रसेन की पत्नी, सरोवर में क्रीड़ा कर रहीं थी, निर्वस्त्र. उनके स्नात-स्निग्ध सौंदर्य पर आकाश मार्ग से जाते द्रुमिल गंधर्व की द़ष्टि फिसल गई. ये गंधर्व बड़े कामुक होते हैं, द्रौपदी. '

' गंधर्व ही क्यों, पुरुषों का मन ही.... जाने दो, वे बातें नहीं लाऊँगी. और भी तो... जयद्रथ, कीचक. वैसे तुम भी कौन दूध के धुले हो माधव? गोपियों के स्नान के समय उनके वस्त्र.... '

बंकिम मुस्कान पांचाली के मुख पर. कृष्ण को हँसी आ गई.

पार्थ ने टोका -'किसी पर आरोप लगाना जितना आसान होता है, याज्ञसेनी, उसे समझना उतना ही मुश्किल. '

'अरे, सब जानते हैं जो बात, उसमें आरोप क्या?'

' और सबसे कोई अंतर नहीं पड़ता मुझे. हाँ, पर तुम्हें अपना सच बताऊँगा. '

'अपने को छोड़ो, वह बात आगे. हाँ तो.. '

'पहुँच गया प्रणय-याचना करने. इतना शोभन पुरुष, रानी हत्बुद्ध! सँभल गई, लौटा दिया उसे. पर वह कहाँ माननेवाला. द्रुमिल नाना का वेश धर कर पहुँच गया शयनागार में, उनकी अनुपस्थिति में, वाद्य-यंत्रों का मधुर संगीत. मादक-गंध - मालाएँ, उत्तेजक दृष्य और शृंगार के सारे उपकरण,

रानी आत्मविस्मृता-सी, असली रूप पहचान नहीं पाई. लगा पति प्रणयी बन आया है. पर भेद कहीं छिपा रह पाता है, खुल गया.

होना था वह हो चुका था! कंस का जन्म उसी का परिणाम. '

विस्मित द्रौपदी देख रही है कृष्ण की ओर.

'कुल के अनुरूप कैसे होता? ऊपर से जरासंध जैसे उकसानेवाले श्वसुर और वैसी ही मनोवृत्तिवाले मित्र. '

एकदम चुप्पी छा गई. पहले कृष्ण ही बोले,

'हाँ, तुम गोपियों के स्नान की बात कर रही थीं.'

'अच्छा 'अर्जुन ने छेड़ा, 'गोपियों को स्नान करते देखने का तुम्हें चाव नहीं था?'

'तुम और भड़काओ पांचाली को. अपने जैसा समझा है क्या?'

'तुम दोनों आपस में फिर निपट लेना, माधव, तुम अपनी चर्चा पर आओ.'

कृष्ण विचार-मग्न, जैसे अपने को समेट कर तैयार हो रहे हों.

अर्जुन अपने हथियारों की सँभाल में, पर कान इधऱ ही लगाये.

'कंस मामा के जन्म की कथा कानों में पड़ी थी मेरे. मन बड़ा उद्विग्न रहता था पांचाली, कि इस प्रकार मनमानी क्यों की जाती है? करे कोई परिणाम, भोगना पड़ता है कितने निर्दोषों को. नारी को इतना विवश क्यों बनाया विधाता ने?'

पांचाली सुन कर भी चुप- कुछ सोचती-सी.

उसी ने मौन भंग किया,' सृष्टि में अधिकतर स्त्री तत्व कमज़ोर लगने लगता है. वह अपने संसार में व्यस्त, अपनों से जुड़ उन्हीं के नेह-छोह में डूब जाती है. सृजन और पोषण के हेतु कोमलता और शान्ति आवश्यक हैं न. तब पुरुष तत्व की भूमिका संरक्षकवाली. पर जब अपना ही सुख उद्देश्य बन जाए. यह सिर्फ़ मनुष्यों में होता है. पशु-पक्षी सब अपना धर्म पालते हैं. लेकिन तुम बताओ अपनी बात. '

' हाँ, मैं देख चुका था कैसा अनर्थ होता है, कितनों का जीवन दूभर हो जाता है. चाहता था इन सरल बालाओं के जीवन में कभी ऐसी स्थिति न आए. गोपियाँ स्नान करने, वस्त्र किनारे रख उतर जाती थीं -एकदम दिगंबरा. कुमारी -ब्याही सब.... जल में क्रीड़ायें करतीं और पांचाली, आकाश मार्ग में गंधर्वों का आवागमन चलता है. जल में वरुण देव का वास, उनकी भी अवमानना, मैं उन्हें इस सब से विरत करना चाहता था.... '

सुने जा रहें है पार्थ और पांचाली.

'... उन्हें रोकने का कोई और उपाय नहीं था. और कृष्णे, मैंने उनकी लज्जा पर आँच नहीं आने दी, वृक्ष की उस डाल पर मुँह फेर कर बैठा रहा. मित्र, ज़रा विचार करो, वे युवतियाँ, मैं किशोर! लज्जा नहीं आती मुझे? नहीं, मन में ऐसा कुछ नहीं था. बस एक धुन थी, उनका व्यवहार बदल जाय किसी भी तरह. '

'नहीं, केशव, ' अर्जुन ने कहा. 'तुम मर्यादाहीन नहीं, निर्लज्ज नहीं. तुम ने नारी को सदा मान दिया है. '

पांचाली, गंभीर हो उठी, 'ठीक ही किया तुमने, नदी-जलाशयों में इस प्रकार नग्न हो कर स्नान करना शोभनीय नहीं. उन का यह आचरण किसी प्रकार संगत नहीं था. '

पार्थ सजग हुए, 'तुम तो बहुत चौकन्नी हो गईं, याज्ञसेनी. उनका सोचो,घर से निकलती थीं दही बेचने, रास्ते में जलाशय पड़ा,उतर कर नहा लिया. कहाँ कपड़े रखे होंगे बदलने के लिए!'

अनायास तीनों के मुख-मंडल हँसी से भर उठे.

कृष्ण अपनी रौ में कहे जा रहे थे '.. और सीधे से नहीं मानती वे ग्रामीणायें, अपनी सुविधा के लिए मेरी बात चुटकी में उड़ा देतीं. करना पड़ा मुझे. फिर जब उनने आ-आ कर वचन दे दिया, मैंने वस्त्र नीचे फेंक दिये. '

'पर लोग तो.. '

'लोगों की भली कही, तब कहाँ युवक था मैं. नौ वर्ष की आयु में तो मथुरा जाना पड़ा था. लोगों का कहना? उन्हीं की मनोभावना बोलती है. उन्हें रस मिलता है इस प्रकार की कल्पनाओं में, अपनी विकृतियों से औरों को रँग कर. '

इसी बीच पांचाली जा कर प्रातराश ले आई थी - दुग्ध,मधु और फल. चौकी पर रख कर बोली,' चलो मधुसूदन, और पार्थ, जलपान प्रस्तुत है. '

'तुम भी आओ न,' अर्जुन का आग्रह था.

'हाँ, मैं भी हूँ. वो लोग पहले ही कर चुके,' इशारा अन्य भाइयों की ओर था.

'तुम लोग लो.' तीन पात्रें मे रख पांचाली ने दोनों को पकड़ाया.

',अरे, जल-पात्र.. ',अपना भाग चौकी पर रख कर वह लेने चली गई.

लौटने में कुछ समय लग गया.

वाह, तुम लोग वैसे ही रखे बैठे हो?'

उठा कर फिर पकड़ा रही है,

'कौन सा किसका?. '

'सब तो एक साथ रखे हैं, क्या पता?'

'मैंने अभी खाना शुरू नहीं किया था. मेरा जूठा होने का तो प्रश्न ही नहीं '

'हो भी तो क्या.. ' कृष्ण बोल उठे ',तुम्हारा जूठा पार्थ के लिये तो प्रसाद होगा. ' ज़रा-सा रुक कर और जोड़ दिया,' और मैंने तो कभी.. '

अर्जुन भी मुस्करा रहे हैं,

'तुम्हारे जूठे से कब मुझे आपत्ति हुई कृष्णे,' मुख पर वही टेढ़ी हँसी,

'मैं तो चुपचाप खा लेता हूँ!'

चाहे जब खींचने लगता है. इसकी इन आदतों पर चिढ़ छूटती है.

खीझ उठी द्रौपदी. अपने टेढ़ेपन से कभी बाज़ नहीं आता. कहने को कुछ- न-कुछ निकाल ही लेता है. मेरा जूठा खाया था! कैसी लज्जा लगती है सोच कर.

कुछ बोल नहीं पा रही, कहे भी तो क्या कहे.

इसी ने तो उबार लिया था उस दिन.

7.

ओह, उस दिन की बात -

बाहर से दुर्वासा की पुकार आई थी,

युधिष्ठिर बाहर आए, शीष नवाया, अभ्यर्थना की.

'आज्ञा दीजिये ऋषिवर,'

'आज्ञा? हाँ. हम सब अभी स्नान करने जा रहे हैं '.

'तत्पश्चात् सेवा ग्रहण कीजिये, पूज्यवर. '

'हाँ, अवश्य. तब हम सब भोजन ग्रहण करेंगे. '

वे अपनी शिष्य मंडली को ले कर स्नान-ध्यान करने चल दिये.

अब क्या होगा? क्या करेगी पांचाली?

चिन्ता का वार-पार नहीं. क्या करे पांचाली? आज अतिथि को भोजन कराने के लिए कोई साधन नहीं उसके पास.

ये दिन भी देखने थे!

बुरे दिन आते हैं तो उबरने का कोई साधन नहीं मिलता. कैसे बच पाएँगे अनिष्ट से- उनके शाप से!

सब चिन्ता मग्न!

भोजन की बेला कब की बीत चुकी थी, सब निवृत्त हो चुके थे. पांचाली ने रसोई उठा दी थी. किसी को क्या पता था असमय ऐसे अतिथि का आगमन हो जाएगा!

अचानक कानों में स्वर पड़े -

'आज तो वन में भटक गया था, बड़े भैया?

अरे, यह तो गोविन्द की आवाज़ है,

देखा तो कृष्ण चले आ रहे हैं, अस्त-व्यस्त से.

'भूखा-प्यासा चला आया हूँ, कुछ दो न खाने को, कृष्णे. '

'हमें लाचार देख कर तुम भी हँसी उड़ा लो! '

.... 'तुम्हारा भंडार खाली हो, असंभव. '

'यही तो रोना है. सब ऊपर-ऊपर से अपने अनुमान लगा लेते हैं. सच्चाई क्या है, कोई नहीं जानता.'

' दैन्य तुम्हें शोभा नहीं देता, याज्ञसेनी. '

'हाँ. अभी दुर्वासा आकर शाप देंगे तब सारा मान धरा रह जाएगा! '

'पर हो क्या गया?'

बताया गया कृष्ण को.

'तभी सब ऐसे विषण्ण हो बैठे हैं?

'... सारी सोची-समझी चाल होगी दुर्योधन की. अपनी विशाल शिष्य-मंडली के साथ दुर्वासा को प्रेरित किया, यहाँ आ कर आतिथ्य पाने के लिए.

... 'जानता होगा, पांचाली सबको भोजन करवा कर स्वयं भी निवृत्त हो चुकी होगी. '

कृष्ण की समझ में आ रहा था, वे कहे जा रहे थे -

'.... वाह! तब पहुँचेंगे दुर्वासा अपनी मंडली के साथ. कहाँ से कराएगी भोजन! सूर्यदेव का वह पात्र धुल चुका होगा, पांचाली तृप्त है अब भोजन क्यों देगा वह? बस अब तो शाप ही उनका प्राप्य है. ठठा कर हँसा होगा वह. '

कोई बोले तो कहे भी क्या?

'.. पर, मैं तो तुमसे अन्न पाने की आशा में भूखा भटक रहा हूँ '

'वासुदेव, हम संकट में पड़े हैं, हँसी न उड़ाओ. '

'तुम्हारे पास तो अक्षय-पात्र है पांचाली! चिन्ता काहे की?'

'केशव, यह बेला होने आई, भोजन पा चुकी हूँ. पात्र स्वच्छ कर रख दिया है, अब कहाँ भोजन?'

'अच्छा! ऐसा? देखूँ. लाओ तो पात्र, मैं भूखा औऱ पात्र रिक्त! मैं भी तनिक देखूँ तो. '

चुपचाप पात्र लाकर दे दिया द्रौपदी ने.

उठा कर घुमाया-फिराया, झाँका उसके अंदर. मुस्कान से आलोकित हो उठा आनन.

'कैसे पात्र स्वच्छ करती हो पांचाली? ये देखो. '

पात्र टेढ़ा कर दिखाया कृष्ण ने - शाक का एक पत्ता चिपका हुआ गले के मोड़ पर, 'यह क्या.. है तो.. '

विस्मय से देख रही द्रौपदी. जब तक पात्र ले, कृष्ण ने वह शाक-पत्र छुटाया औऱ मुख में डाल लिया 'इसी से परित़प्ति हो बुभुक्षित की! '

सब चकित.

पांचाली जैसे आसमान से गिरी. 'यह क्या किया तुमने. वह जूठा शाक क्यों खाया?'

'सखी, भूख ऐसी ही होती है, सुच्चा-जूठा कुछ नहीं देखती. तृप्त हो गया मैं तो! मैं तृप्त हो गया, समझो संसार तृप्त हो गया. अगर कोई भूखा रह भी गया होगा तो भोजन देगा यह. लो,यह पात्र.. अभी धुला कहाँ है?

और परम-तृप्ति की डकार लेते उठ खड़े हुये.

'बस जल और पिला दो पांचाली!'

'मुझे देख कर अन्यथा न समझ लें कहीं. वे आते होंगे... चलता हूँ. '

जल पी कर चल दिये कृष्ण.

उस दिन दुर्वासा फिर लौटते कैसे! वहीं स्नान-ध्यान करने के बाद उन सबको लगा पेट भरा हैं. पूर्ण तृप्ति हो गई, डकारें आने लगीं.

'नहीं, अब नहीं जाना है पांडवों का आतिथ्य लेने. द्रौपदी का बनाया अन्न ग्रहण नहीं किया तो अनर्थ होगा. '

'चलो, लौट चलो. '

और वे अपनी शिष्य मंडली को ले, वहीं से लौट गए थे.

उस विपत्ति के क्षण में जूठा शाक खा कर पानी पी लिया था उसने और

उसे देख कर हँस गया था - यही टेढ़ी हँसी!

बेबस खीज उठती है द्रौपदी. कोई उत्तर नहीं बन पड़ता.

सारा दृष्य साकार हो गया, पांचाली के मानस में.

उधर वह कहे जा रहा था,

'तुम्हारा क्या ठिकाना! कल को कहो पदत्राण उठा लो मेरा. मुझे उठाना पड़ेगा. '

'बस, चुप करो, तुमसे पदत्राण उठवाऊँगी मैं! सोचना-समझना कुछ नहीं. बोलने की भी हद होती है. '

'मैंनें कहा ही तो है. नाराज़ क्यों हो रही हो? और क्या पता कभी... '

फिर... वही टेढ़ी मुस्कान.

दूसरे को छेड़ कर कैसे मुस्कराता है.

द्रौपदी बुरी तरह खिसिया गई. इससे पार पाना मुश्किल!

तन का काला, जनम का टेढ़ा, कभी सीधी बात करते नहीं देखा!

झुँझलाहट में भूल गई वह कि स्वयं भी श्यामवर्णी है.

8.

रात्रि आधी से अधिक बीत चुकी है. बाहर मद्धिम-सी चाँदनी फैली है - सप्तमी या अष्टमी की तिथि. निशा के जादू भरे उजाले-अँधेरे के जाल सारे संसार को छाये हैं. लगता है एकरसता भंग करने के लिए छाया-प्रकाश ने अपना खेल शुरू कर दिया है. रह-रह कर झिल्लियों की झनकार, तरु-पातों में पवन-संचार का मंद्र रव- जैसे सुप्त हुई विभावरी की मंथर श्वास-ध्वनि गूँज रही हो.

युठिष्ठिर शान्ति से सो रहे हैं. चाहे कुछ होता रहे दुनिया में, वे शान्त रहते हैं.

पांचाली सोचती है - इन्होंने घर-गृहस्थी पता नहीं क्यों की, साधु-संत हो जाते!

कभी-कभी मन करता है खिलखिला कर हँसे. एक निश्चित अवधि के बाद क्रम बदलता है. एक नया आयोजन -एक के स्थान पर दूसरे का आगमन. मनस्थिति बदलती है ,रंग बदलते हैं. कुछ परिचित कुछ नवीन अनुभूतियाँ, अनुभवों की शृंखला में नई कड़ियों का समायोजन. हर एक की बातों का नया आयाम, जैसे एक ही पुस्तक के अध्याय एक के बाद शुरू हो रहे हों. पढ़ कर समझना पड़ता है पांचाली को- ताल मेल बैठाने के लिए,और कथा आगे बढ़ चलती है.

दिन में सभी एक साथ होते हैं. बात तो रात्रि की है. पहले बड़ा अजीब लगता था. अब आदत पड़ गई है. विस्मय होता है, इन भाइयों में कैसा आत्म-नियंत्रण कैसा संयम है! उँह, होगा मुझे क्या मेरे लिए कोई देवर-जेठ थोड़े ही हैं- सब पति हैं.

उसे नींद का सुख नहीं है. गहरे अँधकार में आँखें खोले जागती रहती है.

स्मृतियाँ पीछा करती हैं. विगत-कथा के बिखरे अंश बार-बार सामने ले आती हैं.

पांचाली का मन अस्थिर हो उठता है. कोई समाधान नहीं मिलता तब सखा की याद आती है. अंतर की किसी गहराई में कृष्ण के शब्द जागते हैं -

'तुम्हें समझ रहा हूँ. पांचाली. कितनी बार मैं आत्म के घेरे से निकल कर तुम्हारे स्तर पर जिया हूँ. तुम्हारी यंत्रणा का भागीदार रहा हूँ. तुम्हारा मित्र हूँ न! अपने मन में तुम्हारे मन को अनुभव करता हूँ. '

पांचाली का थकित मन विश्राम पाता है.

जीवन भी कैसी वस्तु है! हमारे निर्णयों पर जाने कितने तंत्र हावी रहते है? वह अपनी ही गति से बहेगा - कहीं कोई छुटकारा है क्या!

कंठ सूख रहा है. जल पीने, शैया से उठी द्रौपदी.

आंचल-पट देह से हट कर पति के कंधे नीचे दब गया था. धीरे से खींचना चाहा.

युठिष्ठिर की नींद खुल गई, उठते देखा पत्नी को -

'सोईं नहीं, कृष्णे?'

'बस यों ही, जल पीने. '

लौट कर शैया पर आ बैठी.

पति ने हाथ फैलाया, भुजा पर शीष धर कर सिमट आने का आमंत्रण.

अनदेखा कर दिया द्रौपदी ने.

अनिच्छा देख युधिष्ठिर ने बाँह समेट ली.

जानती है उनका स्वभाव, पति होने की पूरी मर्यादा निभाते हैं, बहुत सभ्य-संयत हैं प्रेम-प्रदर्शन में भी. हर काम समय से, उचित ढंग से करने में विश्वास. दुनिया में कुछ होता रहे विचलित नहीं होते. द्रौपदी की इच्छा का मान रखते हैं. उनकी बारी जब तक रहती है पांचाली को खूब सोच-विचार करने का अवकाश रहता है.

और कहीं भीम होता तो!

कैसे भींच लेता है - उफ़!

साँस लेना मुश्किल, द्रौपदी, पहले कहती है, फिर घूँसे लगाना शूरू करती है, भीम को चोट लगती है कहीं! हँसता रहता है,' देखो तुम्हारे हाथ पर चोट लग जाएगी. '

पर पत्नी को अनमनी देख कर कितना लाड़ करता है. 'थकी हो प्रिये,आओ तुम्हें सुला दूँ. '

केश सहला कर, थपकी दे कर सब विध विश्रान्त करने का प्रयत्न करता है.

'तुम भी थके हो सारे दिन के, आराम करो. कभी घर नहीं टिकते. '

'तुम्हारी शीतल मलय-गंध मेरी सारी तपन हर लेती हैं, तुम चैन से सोओ. देख कर मुझे सुख मिलता है. '

वह जानती है उसकी हर इच्छा पूरी करने को प्रयत्नशील रहता है भीम. भोजन-प्रिय,निश्छल मन.

हल्के हाथ की स्नेहमय थपकियाँ. पाँव भी दाबने लगता है. वह हाथ पकड़ लेती है, टोकती है 'क्यों मुझे पाप में.. '

चुप कर देता है, 'मेरे तुम्हारे बीच पाप कुछ नहीं, कुछ सुख दे सकूँ तुम्हें. सो जाओ तुम. '

और यों ही जाने कब सो जाती है पांचाली.

हर एक के साथ रहने का अलग ढंग, सबके अपने स्वभाव,और वह सबमें अनुस्यूत.

अर्जुन का प्रणय-भाव एकदम भिन्न, इन्द्र के अंश. रूप-स्वरूप और गुण-गरिमा-संपन्न, अनेक कलाओं-विद्याओं में निष्णात, सौम्य व्यवहार और प्रभावशाली व्यक्तित्व के स्वामी -जिस पर अप्सरियाँ भी रीझ जाएँ. उसी के लिए कामना जागती है पांचाली के मन में, पर साथ कितना कम मिल पाता है. भटकता फिरता है कभी शस्त्रों की खोज में,कभी शाप पाकर. धरती-आकाश एक करता हुआ. कितनी यात्राएँ की हैं इस अवधि में. कुछ दिन बीतते ही अकेला-सा लगने लगता है उसके बिना. पर वह जैसे टिक कर रहना नहीं चाहता.

बाहर निकाल लाता है, पांचाली को भी,

'चलो,यहाँ से बाहर निकल चलें कहीं और. '

ले जाता है प्रिया को दूर की वन-भूमियों में, सघन घाटियों में, या किसी फेनिला के तट पर.

कुछ नये अनुभव पाए हैं उसके साथ. वनवासियों के उत्सव में भी पहुचे हैं दोनों. तब अर्जुन की नृत्य-संगीत विद्या बहुत काम आई. रंग जमा लिया. निश्शंक रहती है पांचाली, पार्थ जैसा धनुर्धर साथ तो भय काहे का!

भीम भी पक्का घुमक्कड़ है, पाँचली को ले जाता है कभी-कभी.

उस दिन, ताल की शोभा दिखाने साथ ले कर चल दिया,

काफ़ी दूर चल कर द्रौपदी ने पूछा,' और कितनी दूर ले जाओगे?'

'डरो मत, मैं हूँ न! थक जाओगी तो यों उठा ले चलूँगा,' और झट उठा कर लेता है, बाहों में भऱ कंधे से लगा लेता है.

वनवासियों का आतिथ्य, उनकी भाषा जानता है. आग जला कर चारों ओर आनन्द मनाते हैं लोग, उनके रंगारंग कार्यक्रम चलते हैं - भीम कहता है 'तुम्हारे मनोरंजन के लिए रंग-मंच नहीं तो क्या हुआ, ये जीवन-मंच तुम्हारे चरणों से धन्य हो रहा है!'

एक बार तो क्या किया भीम ने? ले गया पांचाली को सरोवर का सौंदर्य दिखाने, असंख्य कमल खिले हुए, भ्रमरों की गुँजार!

मुग्ध सी देखती रही, 'कितने सुन्दर ये सरसिज!'

'तुम्हें अच्छे लगे, ला दूँ?'

'नहीं, रहने दो. कहाँ इस शैवालों से भरे जल में उतरोगे. '

पर वह कैसे रुक जाता. पांचाली को जो प्रिय है!

उतर गया भीम.

चुन-चुन कर विविध वर्णों के सरसिज ले गुच्छ बनाये. प्रसन्न मुख आया. साथ चल रही थी पाँवों से निकलती रक्त की धार.

'अरे, रक्त बह रहा है! ज़रा देखो तो.. मैंने मना किया था पहले ही.. ' पांचाली व्यस्त हो उठी, तुरंत उत्तरीय से चींट फाड़ पट्टी बाँधी.

'चिन्ता मत करों. यह तो कुछ नहीं है. '

'अब मैं कभी तुम्हारे साथ नहीं आऊँगी. '

हँस पड़ा,' उठा कर ले आऊँगा. '

मन भर आया था द्रौपदी का.

वे कमल-पुष्प जल के पात्र में डाल कर कक्ष में रख लिए उसने, संध्या को पात की द्रोणी में वर्तिका रख उसमें एक दीप तैरा दिया.

कक्ष में प्रवेश करते युधिष्ठिर अभिभूत से देखते रह गए, मुख से निकला 'वाह पांचाली!'

अधिक कभी वे बोलते ही कहाँ हैं!

नकुल विद्वान है- उससे चर्चा करने में आनन्द आता है. खूब बहस चलती है दोनों में. बड़े उत्साह से हर बात स्पष्ट करता है - कभी-कभी सबके सामने भी वाग्विनोद कर लेते हैं दोनों.

और सहदेव! कुछ संकुचित सा किशोरों की तरह झिझकता देख द्रौपदी का प्यार उमड़ पड़ता है. मित्रता कर ली उससे, सँभाल लिया. स्वेच्छा से छोटी बन गई,उसे बड़ा बना दिया.

सहदेव में भी युवावस्था का चाव, सहज स्वभाव. चतुर है, मनभावन है -प्रसन्न रखने का कौशल भी है.

आँखें मूँदे अपने ही विचारों में भटकती रही वह.

पति सो रहे हैं -निश्चिंत. चुपचाप लेटी है द्रौपदी. विचार चल रहे हैं.

कोई, किसी के समान नहीं. सबके पिता भिन्न हैं न! कुन्ती-माँ ने नियोग के लिए स्वयं चुनाव किया, पूर्वजा अंबिका अंबालिका को विवश कर दिया गया -जिससे वितृष्णा हो वही पुरुष -सहन करो, मन से या बेमन. तभी ऐसी संतानें - पांडु, धृतराष्ट्र.... किधर से संपूर्ण हैं. सब आधे अधूरे!

- अपनी भोगलिप्सा में कितना मत्त हो गया पुरुष कि उचित-अनुचित का भान भी खो बैठा. शान्तनु की बात मन में उठी, गंगा के प्रति आसक्ति, चलो ठीक है! फिर भी वार्धक्य की लालसा मिटी नहीं. युवा पुत्र को वंचित कर डाला.

.... 'नहीं, मुझे नहीं विचारना है यह सब.. ’

ध्यान बटाने लगी अपना.

एकदम कर्ण का ध्यान आ गया. पता नहीं इन लोगों के साथ ध्यान में वह क्यों चला आता है!

उसके प्रति कृष्ण के हृदय में असीम करुणा और सहानुभूति है- शायद स्नेह भी. कौन जाने!

क्या कहा था मीत ने, 'क्यों कृष्णे, वही सूत-संतान है? और ये सब कुलवान हैं?

सचमुच, न पांडव पांडु-पुत्र हैं न कौरव कुरुवंश की संतान. कर्ण की ही बात पर कहा था कृष्ण ने, ' मेरे आगे कुलीनता की चर्चा मत करों. '

और भी कहा था -

उस एक के आगे यह भीड़ कहाँ ठहरती है- मेरा मतलब तुम्हारे पतियों से नहीं,और सब से है जो अपने को संभ्रान्त समझते हैं.. और तुम भी, पालनकर्ता को उसमें आरोपित करोगी? व्यक्ति अपने आप में कुछ नहीं क्या,उसकी तेजस्विता, चाल-ढाल-शील, देह और मन-प्राण के परिमाप क्या विचारणीय नहीं?

मैं तो कुलीन होने की बात कर ही नहीं सकता, उसी वर्ग में आता हूँ न? जब प्राण बचाने को जन्मते ही गोकुल भेज दिया गया, मेरे साथ कुछ अनिष्ट घटता, या मुझे कोई और पालता, तब मैं क्या होता? सब संयोग की बात. अरे पांचाली,प्राण बचाने हों तो कोई ठौर कहाँ देखता है! जहां सुरक्षा मिल जाए वही अपनी शरण. सोचता हूँ कहीं और पाला गया होता तो कैसा होता! मान्यता पालने वाले को दृष्टि में रख कर मिलती या मेरे अपने गुण-अवगुणों के आधार पर? व्यक्तित्व -और आचार व्यवहार पर? जिनके अंश ले कर देह और प्राण साकार हुए उसे किनारे कर दिया तो फिर तो मैं भी... '

'अपनी बात क्यों लाते हो. उसका तो पता भी नहीं किसकी संतान है. '

'तभी तो!... जब किसी के बारे में जानकारी नहीं तो उसे अपमानित करने का क्या अधिकार?'

कोई उत्तर नहीं बन पड़ा पांचाली से.

उत्तर की अपेक्षा भी नहीं की थी कृष्ण ने, अपनी बात कहते रहे -

' कोई कुलकन्या ही माँ बन कर लोक-लाज से त्याग सकती है, संतान मरे कि जिए कोई मतलब नहीं, धींवर कन्या ने तो ऐसी संतान को स्वीकार कर पिता का नाम दे दिया.. हैं तो व्यासदेव, सत्यवती के कानीन पुत्र. जिनके अंश से उसका जीवन निर्मित हुआ वह कहीं नहीं क्या?'

ग्लानि है द्रौपदी के मन में. अपनी मुखरता में कई बार बोल गई है ऐसे बोल जो काँटे बो गए. अब भी मन दुखता है सोच कर.

बाहर अँधेरा बढ़ गया है. उस ओर के नभ में चाँद ढल रहा है. और कितना जगूँ. नींद क्यों नहीं आती! मन कहाँ शान्त हो कर बैठता है!

लोक-लाज? पुरुष को लोक-लाज नहीं होती! ऋषि होकर धीवर-कन्या पर आसक्त हो गये, नाव में ही.

और मान्य पूर्वज शान्तनु -पहले गंगा पर आसक्त, उसकी शर्तों पर विवाह. वह गई तो इसी सत्यवती की लालसा, जो ऋषि के अनुग्रह से योजनगंधा बन गई थी. फिर उसी की शर्तें मान्य, चाहे युवा पुत्र वंचित रह जाय!

उम्र की मर्यादा पुरुष को नहीं होती क्या? या राजा हैं इसलिए सब क्षम्य! उस ढली उम्र में भी भोग का रोग, तभी संतान कैसी? विचित्रवीर्य और चित्रांगद!'

मन में उठती हैं तमाम बातें पर ये सब चर्चाएँ पतियों से करने की नहीं हैं.

अच्छा हुआ जो कृष्ण मेरे पति नहीं हैं, मित्र हैं. सब-कुछ कह सकती हूँ बिना लाग-लपेट के, मन का नाता है. उसे पूरी तरह उँडेल कर हल्का कर सकती हूँ- आश्वस्ति पा सकती हूँ, तन के संबंध ऊपर ही रह जाते हैं, प्रायः ही मन तक नहीं पहुँचते. औपचारिकता का निर्वाह, मर्यादा की दीवार कहीं आड़े नहीं आती.

रात्रि का अँधियार गहरा गया.

शिथिल होती जा रही विचार-परंपरा. तंद्रा छाने लगी. पता नहीं कब धीमे से आगे बढ़ निद्रा ने सारे बोध छा लिये.

ब्राह्म-मुहूर्त में युधिष्ठिर जागे.

पांचाली सो रही थी. खुले सघन श्याम केश शैया के नीचे लटक आए थे. हल्के हाथ समेट कर ऊपर कर दिये.

अपना उत्तरीय हौले से उसके तन पर उढ़ा दिया.

पता नहीं रात कितना जागती रही होगी - सो लेने दो अभी.

बाहर निकल कर द्वार उड़का दिया.