केदार से वापस─ बदरी को / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

फिर हम चट-पट रवाना हो गए। हाँ, यह कहना तो भूल ही गए कि हमने या तो मध्य भारत के उस गरीब ब्राह्मण को ही जी भर के आशीर्वाद दिया था या केदारनाथ के अन्नदाता को। ये दोनों घटनाएँ सदा ताजी रहती हैं। खैर, शाम होते-होते गौरीकुंड आ कर ठहरे। फिर दूसरे दिन आगे बढ़े। जब लौटे तो त्रियुगीनारायण का रास्ता छोड़ नीचे-नीचे ही लौटे। लौटने में कोई उधर जाता ही नहीं व्यर्थ हैंरान होने। ऊखी मठ से आगे तिरछी राह पकड़ी और बदरी बाबा की तरफ चले। रास्ते में तुंगनाथ की भीषण चढ़ाई मिली। उसके बाद हम बढ़ते गए। केदार से लौटने के समय तो हमारे साथी मिले नहीं। हाँ, जब हम बदरीनाथ के दर्शन के बाद लौट रहे थे तो जाते हुए मिले। इस प्रकार चलते-चलाते बदरीनाथ के पास ज्योतिर्मठ या जोषीमठ मिला।

कहते हैं, धर्म-प्रचार की दृष्टि से आदि शंकराचार्य ने भारत के चार कोने में चार मठ स्थापित किए थे। वहीं से उनके अनुयायी भारत को चार भागों में विभक्त कर धर्म-प्रचार करते थे। इनके नाम हैं─शृंगेरीमठ (दक्षिण), शारदामठ (पश्चिम-काठियावाड़), गोबर्धन मठ (पूर्व जगन्नाथ) और ज्योतिर्मठ (उत्तर)। रामेश्वर, द्वारिका, जगन्नाथ और बदरीनारायण यह चार तीर्थ उनके पास पाए जाते हैं। लेकिन अब तो ज्योतिर्मठ पर रावल जी का दखल है जो गृहस्थ हैं, गोबर्धनमठ भी गड़बड़ हो रहा था। मगर सँभला है। ज्योतिर्मठ के सिवाय शेष तीनों ही दंडी संन्यासियों के हाथ में हैं। हालाँकि अब धर्म-प्रचार की बात कुछ ऐसी ही तैसी है।

हम सवेरे ही बदरीनाथ पहुँच गए। जहाँ तक हमें याद है उसी दिन मंदिर खुला था पहले पहल। वहाँ भी चारों ओर मैदान है उसमें एक घास होती है जो बर्फ से सूखी थी। उसे उखाड़ कर जलाते थे। चारों ओर बर्फ से लदे पहाड़ थे और गाछ वृक्ष का पता भी नहीं! वहाँ धर्मशालाएँ अनेक हैं। उन्हीं में एक के ऊपरी तल्ले में हम रहते थे। हमने स्नान और दर्शन किया। गंगा की धारा तो वहाँ भी है। मंदिर के सामने नीचे एक गर्म पानी का झरना भी है जो एक कुंड में गिरता रहता है। उसका पानी ज्यादा होने पर बह कर गंगा में चला जाता है। कुंड पत्थरों से बनाया गया है और डूब न सकें इतना ही गहरा है। पहले तो कुंड का पानी काफी गर्म लगता है। फलत: भीतर जाने की हिम्मत नहीं होती। मगर एक बार पड़ जाने पर पीछे आराम मालूम होता है। हम तो कई-कई घंटे उसमें पड़े रहते थे। हमारे पास सिर्फ एक ऊनी चादर थी। जाड़ा वहाँ ज्यादा था। अत: बहुत देर तक उस कुंड में रह के गुजारते और रात में पूर्वोक्त सूखी घास जला के काम निकालते थे। हमें याद है कि वहाँ तीन-चार दिन ठहरे। फिर रवाना हो गए।

भक्तजनों का विश्वास है कि भगवान के चरणों के नीचे से हो कर झरने का जल आता है। इसलिए उनकी ही कृपा से वह गर्म रहता है, ताकि गरीबों को सर्दी से बचाए। मगर गंगोत्तरी और यमुनोत्तरी में तो बहुत ज्यादा गर्म-उबलता हुआ सोता बताया जाता है। वहाँ किस भगवान के चरण से आता है?असल में प्रकृति की कुछ ऐसी रचना है कि वहाँ नीचे गंधक की खान होगी। उसी से छन कर आने से पानी गर्म हो जाता है। उसमें कुछ गंध भी ऐसी ही रहती है। मगर धर्म के मामले में अक्ल और दलील को गुंजाईश कहाँ?