केसर-कस्तूरी / भूमिका द्विवेदी

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शराब पीने के लिये यूं तो लम्बी-लम्बी उम्र भी कम है, लेकिन विशम्भर प्रसाद को ना जाने एक दिन क्या सूझी, पचासवां बसन्त पार करते ही उसने ठान लिया कि भई बहोत हुई... अब बस... अब और नहीं पियूंगा मैं... पीते-पीते ही जीवन का अर्धशतक पूरा कर लिया मैंने... अब और नहीं, बस्स" ।

कोई हारी-बीमारी नहीं, किसी से कोई वादा-तगाफ़ुल नहीं, कोई मनाही-परहेज़ी भी सामने नहीं आई और तो और पैसे-कौड़ी की भी कोई दिक्कत पेश नहीं आयी थी, बाप-दादा अकूत दौलत, घर-खानदान के एकलौते चिराग़ विशम्भर प्रसाद के लिये छोड़ कर इस फ़ानी दुनिया से रुख़सत हुये थे। लेकिन फिर भी विशम्भर प्रसाद ने एक दिन तय कर लिया तो बस कर लिया।

हालांकि इसी विशम्भर प्रसाद का एक ज़माना ये भी गुज़रा था कि शाम होते ही बोतल खुलनी ही खुलनी है, भले ही बीवी-बच्चों से मेल-मुलाक़ात हो ना हो। खाना मिले ना मिले। नौकर-चाकर हों या छुट्टी पर गये हों। कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था। वैसे भी उसे खाने की कोई ख़ास सुध नहीं रहती थी। हरेक चीज़ से कहीं ज़्यादा ज़रूरी विशम्भर प्रसाद के लिये एक समय सिर्फ़ पीना हुआ करता था। सुबह से दोपहर, दोपहर से संझा और संझा से देर रात तक भी विशम्भर प्रसाद जमके और शराब में रम के पीता आया था। पीने-पिलाने का हर एक दौर विशम्भर प्रसाद की इन्हीं आंखों ने देखा भी था और अपने हरेक यार को दिखाया भी था। दारू के रंगीन दौर ख़ुद उसके और उसकी सोहबत के हर इन्सान के लिये अनोखे नहीं थे। वह तो यारों-दोस्तों के बीच पक्का जाना-माना पियक्कड़ हुआ करता था। विशम्भर प्रसाद पूरी दुनिया घूमे बैठा था, दुनिया भर में दोस्ती जमा रखी थी, ठीक वैसे ही जैसे पूरी दुनिया में शराब के दौर पर दौर चलते देखता रहा था। आज इस शहर की महफ़िल, तो कल उस कूचे का फेरा। आज इस यार के यहाँ का जश्न तो कल ना जाने किस-किस संगी के यहां, कहाँ की अड्डेबाज़ी। कोई नियत वक़्त नहीं था, कोई तयशुदा अड्डा नहीं था, कोई एक पक्का साथी भी नहीं था पीने-पिलाने का। पीना होता तो कभी भी कहीं भी चार दोस्त इकठ्ठे किये और महफ़िल जमा ली। लेकिन अब जब विशम्भर प्रसाद ना पीने पर ज़िदिया ही गया था, तो कोई माई का लाल उसे शराब पिला भी नहीं सकता था, ये भी एक तयशुदा बात थी।

ये बात ठीक थी कि विशम्भर प्रसाद ने शराब से तौबा कर ली थी, लेकिन उसका एक-एक जानने वाला तो इस बात से परिचित था नहीं। अक्सर देर रात को विशम्भर प्रसाद के किसी ना किसी जानने वाले का फोन, तो कभी दरवाज़ा भड़ाभड़ बजने लगता।

कभी विशम्भर प्रसाद के दारूबाज़ दोस्त काशीनाथ सक्सेना, शहर से कहीं दूर बैठे मस्ती में दो-जाम चढ़ा कर फोन करते, "भाई विशम्भर प्रसाद... बड़ी याद आ रही है तुम्हारी... चले आओ कोई दिन... वह जो है मौसम बड़ा सुहाना हुआ है यहां..." "

विशम्भर प्रसाद शुरू-शुरू में प्रेम से जवाब भी देते रहे, "काशी, अब हमें ना बुलाओ मेरे दोस्त... अब शराब छोड़ दी है मैंने... अब वह सुहाना मौसम मेरे कुछ ख़ास काम का नहीं रहा..." "

यूं ही एक दिन जानकी लाला की तरफ़ से फोन घनघनाया, "विशम्भर प्यारे, तुम कहाँ हो, दर्शन नहीं दिये कई दिनों से... मैं आ जाऊं तुम्हारे दुयारे... मिलकर बैठेंगे, कुछ तुम्हारी सुनेंगे, कुछ अपनी कहेंगे..." "

विशम्भर प्रसाद जवाब देteता रहा, "आने को तो आ जाओ जानकी लाला... लेकिन पीने का चलन अब मेरी देहरी से उठ गया है... बाक़ी तुम्हारी मर्ज़ी..." "

जानकी लाला, काशीनाथ से बेहतर खिलाड़ी थे, आगे बोले, "अरे तुम्हारे कहने से चलन उठ गया है... अभी जानकी लाला के दिन पूरे नहीं हुये हैं... अभी यार तुम्हारा अच्छा-भला ज़िन्दा है, तुम्हारी दुआ से... अरे देहरी क्या, पूरे घर-आंगन को महका देंगे मेरे दोस्त... तुम कहो तो कौन से दिन मुहूरत निकालूं, आता हूँ फिर बात करता हूँ... अरे विशम्भर प्रसाद, शराब है ये शराब, कोई लौंडिया थोड़े है, के जब जी चाहा, जब आत्मा तर हो गयी तो पिंड छुड़ा लिया... जानकी लाला अगले इतवार तुम्हारी दहलीज़ पर खड़ा होगा, क़सम मुझे मेरी बोतल की, जो तुम्हें अपने हाथ से ना पिला दी, तब कहियो विशम्भर प्रसाद तुम..." "

विशम्भर प्रसाद का एक जिगरी दोस्त रमाकांत चन्देल भी था, जो बड़ा प्रयोगवादी था। किस चीज़ में क्या मिलाकर पी जायें, कहना मुश्किल था। अपने इस अजीबोग़रीब प्रयोग को वह 'कौकटेल' की संज्ञा दिया करता था, जो कि 'एलीट-क्लास-कौकटेल' का उतना ही भद्दा प्रयोग निकलकर आता था, जितना ताजमहल की नकल कहे जाने वाले 'चांदबीबी के मक़बरे' को इतिहासकार 'महान फ़ूहड़ निर्माण' कहा करते हैं। रमाकांत चन्देल के इस फ़िज़ूल-प्रयोगवाद के चलते उनके हाथ हमेशा तंग और जेबें प्राय: ख़ाली हुआ करतीं थीं। एक रात रोते-बिसूरते उसने भी अपने कुबेर-मित्र विशम्भर प्रसाद को फोन लगाया और सीधे मतलब की बात करने लगा। रमाकांत चन्देल ने रात दो बजे फोन करने की क्षमायाचना की सुध भी नहीं रही और ना ही उसके दिल में रत्ती भर भी कोई अफ़सोस या ऐसा कोई अहसास ज़ाहिर ही हो रहा था। उसने हिचकी ले लेकर जो बोलना शुरू किया तो उसे बीच में रोकना-टोकना ब्रह्मा के हाथ ही बचा था शायद। उसने अपने स्वरों के भीषण उतार-चढ़ाव के बीच अपनी कहानी शुरू कर दी... प्रारम्भ में वह बहोत धीमा और मदिर था—

"भाई बिसम्भर... अब भला तुमसे भी छुपा है कुछ... एक बार फिर लाला से कर्ज़ा लेना पड़ा... तुम तो जानते हो, मंहगाई के क्या हाल हैं, बेड़ा ग़र्क़ कर रखा है साली सरकार ने..." फिर रमाकांत चन्देल के स्वर एकदम से बहोत तेज़ हो गये, "...और वह साला मा... बड़ा वित्त मन्त्री बनके आया था, हिन्दोस्तान की वित्त-व्यवस्था सुधारने... सब हिजड़े हैं स्साले... कुछ करने लायक बचे नहीं हैं... ये क्या बजट बनायेंगे... अरे बजट बनाना कोई रमाकांत चन्देल से सीखे..." फिर रमाकांत अपने स्वरों को मद्धिम करता गया... "...कैसे बच्चों की फ़ीस, अम्मा का इलाज, मकान का किराया, बीवी की रसोई चलाता हूँ, मुझ्से पूछो... आओ और मुझ्से पूछो..." "सहसा उसका बात करने का अन्दाज़ फिर से बहोत तेज़-तर्रार हो गया," "...है किसी माई के लाल में इतना दम कि वह मुस्से पूछ सके...मैं बताता हूँ तुमको... भाई बिसम्भर... सुन रहे हो ना... देख रहे हो ना... सब तुम्हारे सामने हो रहा है, सब तुम्हारे सामने..." "आखिरकार वापस उसने धीमे अन्दाज़ में अपने फोन करने का मंतव्य बताया," "... भाई बिसम्भर कुछ मदद कर देते इस आड़े बख़त पर... कसम से बच्चों की दुआयें मिलतीं तुम्हें भाई... ठीक है तुमने पीना छोड़ दिया लेकिन यार तो अपने यार ही होते हैं, उनके वक़्त-ज़रूरत तो साथ दोगे ही ना बिसम्भर भाई..." " और रमाकांत चन्देल के स्वर क्रमश: धीमे होते गये, वह आंसू बहाते, हाथ में फोन का रिसीवर पकड़े-पकड़े सदा की तरह सो गया।

विशम्भर प्रसाद समझा-समझा के रह जाता कि वाक़ई नहीं पीता वो। अब उसकी लाल-द्रव्य को हलक़ में ढनगाने की सारी लालसा जाती रही। लेकिन कोई भी एक जैसे, सुनने को तैयार नहीं था उसके दिल-जिगर के हाल, उसकी अन्तरात्मा की आवाज़, उसके मन की बात।

एक दिन रफ़ीक़ मियां बिना कोई ख़ैर-ख़बर दिये, सीधा विशम्भर प्रसाद के दरवाज़े पर आ धमके.

"" अमां क्या सुन रहा हूँ मैं... तुमने तौबा कर ली है... अरे सब ख़ैरियत तो है? हमसे कहो कोई गिला हो, तक़लीफ़ हो, कोई अनचाही आफ़त आ गयी हो, जो कोई भी मसला हो तो कहो मियां... हम यारों के यार हैं... यूं मूं ना फेरने देंगे तुम्हें... मियां विशम्भर प्रसाद, ऐतबार ना हो तो आज़मा के देख लो हमें... जान निकल जायेगी, लेकिन मज़ाल है कि बात एक से दूसरे तक चली जाये... कहो विशम्भर भाई, मेरे यार हुआ क्या? हमें बताओ... भाभी ने क़सम दिलवा दी क्या... या कोई बेवफ़ाई हुई किसी ऐरी-ग़ैरी से... हमसे कहो मियां...? "" 

विशम्भर प्रसाद का सफ़ाई देने का भी सिलसिला रवां हो चला,

"" नहीं रफ़ीक़ भाई, ऐसी कोई बात नहीं... विश्वास करो मेरा कुछ नहीं हुआ... कोई आफ़त गले नहीं पड़ी... कोई परेशानी नहीं आयी। और फिर तुम्हारी भाभी को क्या कमी है जो वह मुझे रोकेगी... भगवान की दया से रुपये-पैसे की कोई किल्लत नहीं उसे, ख़ुद भी बहोत रईस घर से है... क्या कपड़ा, क्या ज़ेवर, क्या शौक़-सिंगार, कुछ भी ऐसा नहीं जिसके नाते वह मुझे रोक-टोक सके... ऐसा कुछ भी नहीं हमारे घर... और ऐरी-ग़ैरी से भला मेरा क्या वास्ता, जो वफ़ा-बेवफ़ाई याद रखता फ़िरूं... भाई कोई भी वजह नहीं... बस अब दिल भर गया दारू से... बहोत पी ली भई... पचास बरस से पी रहा हूँ, बिना एक दिन का भी नागा किये पिये जा रहा हूँ... कितना और पियूं... अब अच्छी नहीं लगती, बस्स... "" 

बड़ी लानत-मलामत के बाद जाकर कहीं रफ़ीक़ मियां का डोला खिसका।

बद्री नारायण को भी एक दिन रात बारह बजे विशम्भर प्रसाद को कुरेदना याद आ गया, जाम पर जाम खाली करता गया और एक निश्चित गति और स्वर में विशम्भर प्रसाद को फोन लगाकर बोलता गया, "विशम्भर प्रसाद कैसे हो... बड़ी सुरीली कन्या से टकराया हूँ... इसीलिये तेरी याद हो आयी मितवा... रंगीन फ़िज़ा है, चले आओ इसी दम... बहोत दिन से तुम्हें देखा नहीं, किसी की बरही-छट्टी में मिले थे शायद आख़िरी बार... कहाँ ग़ुम हो जी तुम..." "

"" बद्री, मैं तुमसे बरही-छट्टी में नहीं, तुम्हारे ही बाप की तेरही में मिला था। ज़्यादा समय गुज़रा नहीं अभी... और तुम सुरीली कन्या के जाल में जा फंसे हो... शर्म आनी चाहिए दोस्त तुम्हें... "" 

बेशर्म बद्री सुनने के लिये फोन थोड़े ही किये था, वह तो बस बके जा रहा था, "शर्म काहे की मेरे प्यारे... कमाल है, कन्या से मिलने के लिये तुम्हीं मरे जाते थे, अब मैं मिला रहा हूँ, तो शरम-लज्जा का सबक़ सिखा रहे हो... बाप-महतारी तो एक दिन सभी के बिछुड़ ही जाते हैं... तो क्या जीना छोड़ दूं... साथ आओ, बैठो तुम भी कुछ जी हल्का कर... कुछ घड़ी तुम भी जी लो मेरे यार..." "

एक बार रोते-कलपते अयोध्या तिवारी ने रात दो बजे अपने फोन से विशम्भर प्रसाद को जगा दिया, "विशम्भर प्रसाद, अब नहीं बचेगी ये... डौक्टर ने जवाब दे दिया है... तुम मिल जाते तो कितना सुक़ून मिल जाता मुझे... तुम्हारे कन्धे पर सर रखकर दो आंसू बहा लेता तो जी हल्का हो जाता मेरा... अपनी भाभी के हाथों की जलेबियां अब नसीब नहीं होंगी तुम्हें..." "

और अयोध्या तिवारी की दहाड़ मार के रोने की आवाज़ों ने रात के सन्नाटे को ध्वस्त कर दिया।

अपनी उचटी हुई नींद के साथ विशम्भर प्रसाद, अयोध्या को ढांढ़स देता रहा और सुबकते-सुबकते नशे में धुत्त अयोध्या अपना फोन लिये-लिये है रमाकांत चन्देल की तरह ही लुढ़क गया।

विशम्भर प्रसाद को समझ नहीं आ रहा था कि वह करे तो क्या करे। उसने पीना क्या छोड़ दिया, लोगों ने उसका जीना हराम कर दिया है। बहोत सोच-विचार के उसने फोन का कनेक्शन कटवा दिया, लेकिन स्थितियां पहले से भी बदतर हो गयीं थीं। अब लोग-बाग जब-तब, वक़्त-बेवक़्त उसके घर आने लगे। अब तो किसी भी चाहे-अनचाहे के घर पर आ टपकने की ख़बरें भी फोन पर मिलना मुमक़िन नहीं रह गया था। खाना खाते हुये अगली रोटी थाली में गिरने से पहले किसी दोस्त के आने की ख़बर मिलती, तो कभी गुसलखाने के भीतर प्रवेश करते ही उसका छोटा बेटा चीखकर फ़लां मित्र के आने की सूचना देता। देर रात बीवी की ओर करवट करते ही किसी नौकर की पुकार सुनता, "" मालिक आपका कोई दोस्त दरवाज़े पर दस्तक दे रहा है..."।" तो कभी कारोबार के कागज़ जैसे ही मेज़ पर फ़ैलाकर बारीक़ी से उन्हें देखने के लिये बैठता, कोई यार मय अपने साज़-ओ-सामान बैठक में उसका इन्तज़ार कर रहा है, इसका समाचार उसे दिया जाता। इन रात-दिन आनेवालों ने विशम्भर प्रसाद का खाना-पीना, सोना-जागना, हगना-मूतना, जीना-मरना सब दूभर कर दिया था। हर एक को पूरी तन्मयता से समझाना पड़ता कि उसने अपनी इच्छा से शराब छोड़ी है ना कि किसी भी दबाव या परेशानी से।

विशम्भर प्रसाद परेशान होकर सोचता, "क्या मैं अखबार में इश्तिहार दे दूं कि मैंने पीना छोड़ दिया है... कैसे मैं अपने चारों ओर के लोगों से निजात पाऊं... हे भगवान तुम्हीं कोई रास्ता सुझाओ..."

कुछ दिनों तक विशम्भर प्रसाद ने ख़ुद को घर में इस तरह छुपा के रखा कि हर आने-जाने वाला ने समझा वह घर पर नहीं है। उसने अपने बीवी-बच्चों से भी झूठ कहलवाने में झिझक महसूस नहीं की कि "घर पर नहीं हैं, बताकर नहीं गये हैं कि कहाँ गये हैं और कब लौट कर आयेंगे..."

कुछ दिनों तक ये परदा ढका रहा लेकिन फिर ये राज़ भी खुलना ही था। यार-दोस्त कभी ना कभी उसे छेक ही लेते और वही पुराना राग सुनाने लगते...

"" यार अब ऐसे नहीं चलेगा... कोई दो दिन के मीत तो तुम हो नहीं कि तुम्हारे जैसे यारबाज़ को हम भूल जायें... ना सही पहले की तरह रोज़ाना, फिर भी हफ़्ता-पन्द्रह दिन में तो एक बार तुम्हें साथ में जमना ही पड़ेगा... गुरु हम तुम्हें ऐसे नहीं छोड़ेंगे... हमसे अलग होने की फ़िराक़ में ना रहो... "" 

विशम्भर प्रसाद कहे तो क्या कहे। चुपचाप बिना कोई जवाब दिये निकलने लगा। 'दग़ाबाज़' होने की भी सारी तोहमतें उसके सर मढ़ दी गयी, लेकिन विशम्भर प्रसाद अपने निर्णय से नहीं डिगा। धीरे-धीरे उसने पाया बिना फोन के ख़ुद उसे उसके काम-काज को लेकर बड़ी दिक्कतें हो रहीं हैं, लिहाज़ा उसने फोन का कनेक्शन भी बहाल कर लिया और घर के भीतर छुप के रहने से भी उसने परहेज़ किया। शराब के लिये उसके यारों की नसीहतें-मश्विरे और प्रेम-अनुनय-विनय विशम्भर प्रसाद की ज़िन्दग़ी का हिस्सा बन गये। विशम्भर प्रसाद ने ख़ुद को उन रोज़-रोज़ के हल्क़ान करने वाले माहौल का आदी बना लिया।

एक रोज़ विशम्भर प्रसाद अपने घर की देहरी तक आया तो उसने घर का किवाड़ खुला पाया। अन्दर कुछ हा-हा-हू-हू भी सुनाई पड़ने लगा। विशम्भर प्रसाद ने घर के भीतर क़दम रखा तो देखा घर की बैठक में उसके चार-पांच पुराने दोस्त बैठे मज़े से ठहाके लगा रहे हैं और मेज़ पर खूब दारू-नमकीन भी सजा हुआ है। मयनोशी की ये मंडली देखकर विशम्भर बड़ा हैरान हुआ। विशम्भर प्रसाद के मुंह से कुछ निकलता, उससे पहले ही उन दोस्तों में एक ने उसे दावत दी,

"" आओ-आओ विशम्भर भाई, तुम्हारा ही इन्तज़ार कर रही है हमारी मंडली... आओ बैठो... "" 

विशम्भर प्रसाद बड़ी सादगी से बोला, "मैंने बताया तो था अब नहीं पीता मैं। मैंने शराब छोड़ दी है..." "

"" अरे पीना छोड़ा है ना प्यारे, केवल चखने में क्या बुराई है। हम कौन-सा तुम्हें भर घड़ा पिलाने आये हैं या के नहलाने आये हैं... कुछ अपनी कहेंगे, कुछ तुम्हारी सुनेंगे और कुछ तुम्हें सुनायेंगे भी और चुपचाप उठकर सिर झुकाये तुम्हारे दर से चले जायेंगे... विशम्भर पल दो पल का साथ निभाओ यार कम से कम... आओ बैठ जाओ हमारे नज़दीक... आओ आओ..." दूसरे दोस्त ने पेंग बढ़ाई.

विशम्भर प्रसाद फिर सीधा-सपाट एक वाक्य बोलकर ख़ामोशी से उनके साथ बैठ गया, "" ठीक है बैठ जाता हूँ... लेकिन पीना छोड़ दिया है तो बस छोड़ दिया... पीने को मत कहना... ""

विशम्भर प्रसाद ने नौकर को आवाज़ दी और पानी, गिलास वगैरह का बन्दोबस्त करवा दिया। कुछ और मेवों और घर के बने नमकीन ने भी दोस्तों के जोश में इज़ाफ़ा कर दिया। विशम्भर प्रसाद ने अपने लिये एक सादा-सा कोक मंगवाया और साथ देने के लिहाज से बगल में रख लिया। आख़िर वह अपने दोस्तों का मेज़बान तो था ही। विशम्भर का कोक देखकर एक और दोस्त ने उसी वक़्त घोषणा कर डाली, "भाई विशम्भर प्रसाद पियें ना पियें। हम तो पियेंगे... दबा के पियेंगे, सुना के पियेंगे, गुनगुना के पियेंगे... क्यों भाईयों क्या कहते हो..." "

सारे दोस्तों ने एक स्वर में हामी भरी और बोतलें खुलनी प्रारम्भ हो गयीं।

बोतलें खुलीं थीं तो सुरूर चढ़ना भी आरम्भ हो गया। विशम्भर प्रसाद को ख़ामोशी से बैठा देखकर दोस्त उसे उकसाने लगे। लेकिन विशम्भर पर कोई असर ना हुआ। दोस्तों ने उसे ललचाना शुरू कर दिया।

"भाई ये केसर-कस्तूरी राजस्थान से स्पेशल मंगवाई थी विशम्भर प्रसाद के लिये... लेकिन अफ़सोस, वह तो पीना छोड़ चुका है, हम ही पी लेते हैं उसके नाम पर... क्यों भई विशम्भर प्रसाद ठीक है ना... बाद में कोई गिला ना करना कि सामने-सामने गटक ली और पूछा भी नहीं... बार-बार पूछ रहे हैं प्यारे तुमसे..." " गिलास भरते हुये और विशम्भर को दिखाते हुये एक थोड़ा कमीने किस्म का दोस्त बोला।

विशम्भर फिर भी ख़ामोश रहा। उसने कोक के दो घूंट हलक़ में उतार लिये।

दूसरे ने विशम्भर को और कोंचा, "देखो दोस्त नहीं पीने का विचार दुरुस्त तो है तुम्हारा, लेकिन केसर-कस्तूरी को गंवाकर बहोत पछताओगे क़सम से... जो बात केसर-कस्तूरी में है, वह तुम्हारे इस नामुराद झटुअल कोक में क्या... इन दोनों की कोई बराबरी ही नहीं विशम्भर भाई. देखो अब रोज़-रोज़ तो ताहिर उधर से आयेगा नहीं और ना हमें इस नशीली चीज़ का आस्वादन ही नसीब होगा। भई वाह, क्या ख़ुशबू है, क्या रंग है, क्या ख़ुमारी है... प्यारे विशम्भर भइय्या मेरी बात मानो तो तुम भी एक पैग उड़ेल लेयो धीरे से, कुछ फ़रक़ नहीं पड़ेगा। ना पीने की तुम्हारी क़सम पर भी कोई आंच नहीं आयेगी, ये बात बाहर नहीं जायेगी, चाहे तो कसम ले लो कस्तूरी-केसर की... यहीं के यहीं ख़तम हो जायेगी... समझ रहे हो ना... क्यों विशम्भर भाई क्या कहते हो..." "

विशम्भर ने फिर कोई जवाब नहीं दिया।

विशम्भर प्रसाद के दिल पर कोई सुगबुगाहट नहीं दिखी तो फिर एक दोस्त ने अपनी नई तरक़ीब बड़ी अदा से आज़माई, बोला, "क्या यार तुम लोग भी देसी तरल पर जान देते फ़िरते हो... विशम्भर प्रसाद पैदा भले ही हिन्दोस्तान में हुआ है लेकिन उसकी पसंद खालिस विलायती है... ये बात सिर्फ़ मैं जानता हूँ... मैं उसका पक्का यार जो ठहरा, तुम लोगों की तरह नहीं हूँ मैं..." कहते-कहते उसने अपने बैग से शराब की एक काफ़ी मंहगी बोतल निकाली, "ये देखो विलायती स्कौच लाया हूँ मैं विशम्भर भाई के लिये... अरे विशम्भर का टेस्ट भला मुझसे ज़्यादा कौन जानता है..." "

दोस्तों ने विलायती बोतल देखकर, ज़ोर-ज़ोर कहकहे लगाये और विशम्भर का जमकर हौसला बढ़ाया। लेकिन विशम्भर प्रसाद भी एक ही मिट्टी का बना था, टस के मस ना हुआ। ख़ामोश बैठा मुस्कुराता रहा। सबको पीता देखता रहा। सबका चढ़ता-उतरता नशा देख देखकर, सबकी बहकी-बहकी बातें सुन सुनकर आनन्दित होता रहा।

आज विशम्भर प्रसाद हमेशा से ज़्यादा ख़ुश था। उसका ये अहसास आज पक्का हो चुका था कि शराब के बिना भी ज़िन्दग़ी बेहद ख़ुशग़वार हो सकती है। आज उसsse nanना पीने में भी अलग ही सुरूर था। वह बिना एक भी घूंट पिये मुस्कुरा रहा था। विशम्भर प्रसाद पर उसके इन झूमते हुये दोस्तों का नशा तारी था। शायद वह ख़ुद दोस्ती के नशे में झूम रहा था।

कुछ देर बाद शेर-ओ-शायरी का दौर चला। उन दोस्तों की मंडली में ग़ालिब, मीर, सौदा, आतिश, ज़ौक़, जफ़र, फ़ैज़ से लेकर दुष्यन्त कुमार, निदा फ़ाज़ली, वसीम बरेलवी और राहत इन्दौरी तक के सारे शायरों के क़लाम उस महफ़िल में ससम्मान बुला लिये गये।

अगर एक ने ख़ुमारी में एक शेर मारा, तो दूसरे ने नहले पर दहला फेंका।

जब रात आधी से ज़्यादा ढल गयी, तो शेर-ओ-शायरी से नाता तोड़कर, गीत-संगीत की महफ़िलें भी दोस्तों ने जमा दीं। भांग-धतूरे में खोये हुये शिव-शंकर के भक्तों की तरह विशम्भर प्रसाद के सारे दोस्त कभी फाग गाते तो कभी बिरहा की हूक में अपनी अरसों-बरसों की भूली-बिछड़ी प्रेमिकाओं और जिनकी बीवियां मर चुकीं थीं उनकी याद में आंसू बहाते रहे। विशम्भर प्रसाद के दोस्तों ने बिन मौसम कजरी भी गायी और सोहर-बन्ना-बन्नी-घोड़ी-सेहरा गा-गाकर ख़ुद का और सारे मित्रो का दिल भी खूब बहलाया। विशम्भर प्रसाद बैठा देखता रहा, उत्साह बढ़ाता रहा, आनन्दित होता रहा। ढोलक-मजीरा की थाप पर उसके यार-दोस्त देर रात तक गाते-गुनगुनाते थिरकते रहे।

ना केसर कस्तूरी, ना विलायती स्कौच, ना ही महुआ का ठर्रा और ना रम-विस्की-जिन कुछ भी आज विशम्भर प्रसाद के अटल इरादों को हिला नहीं पाई, ना उसके मन को डुला ही सकी। लेकिन वह फिर भी चहक रहा था। उसे मित्रो के संग बिना पिये भी झूमना बड़ा रास आ रहा था।

विशम्भर प्रसाद आज बहोत खुश था कि उसके ख़ुद के किये हुये प्रण पर आंच तक नहीं आयी और उसके दोस्त भी उसकी सोहबत का रस बड़े मनोयोग से लेते रहे।

महफ़िल तो आख़िरकार बर्ख़ास्त होनी ही थी, सो हुई और विशम्भर प्रसाद के सभी दोस्त-यार और पीने-पिलाने के पुराने जमावड़ी विदा भी हुए. उनमें से कुछ अगर पीने-पिलाने के इस लम्बे दौर के बाद भी घर जाने लायक़ ठीक-ठाक हालत में थे तो दो-एक ऐसे भी थे जिन्हें अपने साथियों के सहारे की ज़रूरत पड़ रही थी।

चलते-चलाते जानकी लाला ने बड़ा आभार जताया, "भई, आज तो बड़ा मज़ा आया विशम्भर। अर्से बाद इतनी गुलज़ार महफ़िल नसीब हुई. जब से तुमने लाल परी का साथ छोड़ा है, प्यारे, समझो कि हम लोग तो बेआसरा हो गये थे।"

"हां, वैसे भी जब से विशम्भर ने पीने से तौबा की है, हमें तो महफ़िल जमाने के लिए जगह के भी लाले पड़ने लगे थे..." दूसरे ने होश में काबिज़ ना रहते हुये भी अपना दु: ख सुना दिया।

चन्देल ने नशे में डूबे स्वर में इस बात की ताईद करते हुए फुलझड़ी छोड़ी, "और हम तो सोचते हैं कि इस सिलसिले को जारी रखा जाये। अरे, विशम्भर नहीं पीता तो कोई बात नहीं। यह जगह तो है और ऊपर से विशम्भर का साथ। हम तो सोचते हैं कि हर शनिवार को यहीं बैठकी हो। क्यों दोस्तो।"

इस पर नशे में डूबे स्वरों के एक ज़ोरदार कोरस ने मुहर लगाते हुए ऐलान किया कि अब से हर शनिवार को सब यहीं इकट्ठा हुआ करेंगे और यह ऐलान करके सारी मंडली गाती-गुनगुनाती, लहकती-चहकती, गिरती-डगमगाती रुख़सत हुई.

उन सब के जाने के बाद दरवाज़ा बन्द करके अपने कमरे की तरफ़ लौटते हुए विशम्भर को अपना सुरूर कुछ हल्का होता लगा। नौकर-चाकर बेहद ही अस्त-व्यस्त हुये कमरे को ठीक करने लगे। बर्तन, बोतलें, दरी, खाने-पीने के बिखरे सामान समेटने लगे। ढोलक-मंजीरा-झांझ बहोरने लगे। लेकिन इन सब चीज़ों से अलहदा विशम्भर के कानों में बार-बार जानकी लाला और चन्देल की सुरमयी बातें और दोस्तों के बुलन्द ऐलान गूंजने लगे।

कभी-कभार की बात तो और थी, पर अगर हर हफ़्ते यह मंडली बग़ैर नागा किये इसी किस्म की बैठक उस के घर जमने-जमाने लगी तो कितने दिन उसका ये सुरूर, ये संयम, दिल-जिगर की ये मजबूती क़ायम रह पायेगी। ये सब विशम्भर प्रसाद के लिये घोर चिन्तन का विषय बन गया था, उसके लिये ये बेहद गम्भीर रूप से शोचनीय बात थी। वह इसी गम्भीर चिन्तन में डूबा हुआ था और उसे नींद तब जाकर आयी जब आसमान पर सूरज ने हल्की-सी दस्तक दी थी। न सही लाल पानी, सूरज की मद्धम लालिमा ही उसके लिए नींद की गोद बनी और वह गहन अवसाद जैसा टेढ़ा गम ओढ़कर, इसी चिन्ता को सिरहाने रखकर सो गया कि 'केसर-कस्तूरी' से कहीं फिर से राबेता ना बन जाये।