कैफी आजमी की बारहवीं पुण्यतिथि / जयप्रकाश चौकसे

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कैफी आजमी की बारहवीं पुण्यतिथि
प्रकाशन तिथि : 10 मई 2014


दस मई को कैफी आजमी साहब की मृत्यु को बारह वर्ष हो गए हैं और उनकी स्मृति में शबाना आजमी और जावेद कैफी आजमी पर एक प्रयोगशाली कार्यक्रम करते हैं। यह अवधारणा बहुत अलग है। पहले शबाना अपने पिता के जीवन के बारे में बात करती हैं, फिर उनके नगमों की संगीतमय प्रस्तुति होती है। जावेद अख्तर आजमी गाथा की कड़ी वहां से पकड़ते हैं, जहां शबाना ने छोड़ी और यही सिलसिला चलता है जिसमें कैफी साहब के जीवन की प्रमुख घटनाओं के साथ उनके नगमे भी गाये जाते हैं। कम्युनिस्ट विचार धारा के कैफी साहब की मुलाकात शौकत से हैदराबाद में आयोजित मुशायरे में हुई और रईस खानदान की लाड़ प्यार से पली शौकत को आर्थिक रूप से कड़के शायर से इश्क हो गया और कैफी ने उन्हें बताया कि वे एक कम्यून में दस-बारह कामरेडों के साथ रहते हैं, उनके पास अपनी कोई निजी संपति नहीं और प्राय: पार्टी के लिए वे अनेक शहरों का भ्रमण करते हैं। सारांश यह कि उनके यायावर जीवन में किसी तरह का आराम उन्हें उपलब्ध नहीं होगा। शौकत इन बातों से घबराईं नहीं और परिवार के जबरदस्त विरोध के बावजूद शादी कर ली। ये आजादी की जंग का अंतिम चरण था और कम्यूनल फसाद जगह-जगह जारी थे। शौकत और कैफी ने कम्यून में ही दिन गुजारे।

अपने प्रेम विवाह के बाद नाजों से पली शौकत ने कड़ा संघर्ष किया और कैफी साहब को यह अहसास भी नहीं होने दिया कि वे कष्टों से गुजर रही हैं। शबाना के जन्म के बाद शौकत ने पृथ्वी थियेटर में अभिनय की नौकरी की और पृथ्वीराज ने उनकी रिहर्सल के समय के लिए एक आया की व्यवस्था की जो नन्ही शबाना की देखरेख करे। शबाना का निष्णात अभिनेत्री होना तो तय था जिसने अपना शैशव काल ही थियेटर के परिसर में बिताया था।

एक बार शौकत पृथ्वी थियेटर के साथ टूर पर जा रहीं थीं और उन्होंने कैफी साहब को कुछ पैसे के बंदोबस्त की इल्तिजा की। ट्रेन के छूटते समय कैफी साहब ने उनके हाथ तीस रुपए रखे जो उन दिनों अच्छी खासी रकम थी। शौकत आश्चर्यचकित थी कि यह उन्होंने कैसे किया। बहरहाल टूर से लौटने पर उन्हें मालूम पड़ा कि कैफी साहब ने पृथ्वीराज कपूर से शौकत का वेतन अग्रिम राशि के रूप में लिया था। उन दोनों ने आर्थिक तंगी को हंस खेलकर जिया।

कैफी आजमी को फिल्मों में गीत लेखन के अवसर मिले और उन्होंने साहित्यिक स्पर्श उनमें भी बनाये रखा। 'नौनिहाल' नामक अल्प बजट की फिल्मों में उन्होंने नेहरु की 'लास्ट विश एंड टेस्टामेंट' से प्रेरित कमाल का गीत लिखा 'मेरी आवाज सुनो दर्द का राग सुनो'। उन्होंने शबाना अभिनीत महेश भट्ट की 'अर्थ' में गीत लिखे 'ये आज तुम जो इतना मुस्कुरा रहे हो, क्या गम है जो छिपा रहे हो'। उन्होंने चेतन आनंद की 'हीर-रांझा' को काव्य ऑपेरा के रूप में गढ़ा। अपने जीवन के एक मोड़ पर वे मुंबई छोड़कर आजमगढ़ अपने पुश्तैनी गांव में बस गए थे, वहां उन्होंने लड़कियों के लिए एक पाठशाला भी खोली। माक्र्सवाद उनकी जीवन शैली था, कहीं कोई दोहरे मानदंड नहीं थे। दरअसल किसी राजनैतिक आदर्श में विश्वास न हो तो आप सार्थक कलाकार नहीं बन सकते। पूंजीवादी देशों में अनेक चिंतक और साहित्यकार वामपंथी विचार धारा से प्रभावित रहे हैं। दक्षिण पंथी केवल लुगदी प्रचार साहित्य ही रचते हैं।

बहरहाल मोदी साहब के दायें हाथ अमित शाह ने बयान दिया कि आजमगढ़ में आतंकवादी और अपराधी ही रहते हैं। उन्हें पता भी नहीं होगा कि महान कैफी आजमी आजमगढ़ में जन्मे हैं। क्या सचमुच कुछ शहर अपराधी ही जन्मता है? चंबल में डाकू व्यवसाय अत्यंत चतुराई से सामंतवादी ताकतों और भ्रष्ट नेताओं ने रचा है। किसी पूरे शहर को आप चार अपराधियों के कारण इस तरह बदनाम कैसे कर सकते हैं। अपराध सामाजिक विषमता की गोद से जन्म लेता है। उसके कीड़े रक्त में नहीं होते। जब एक देश चंद वोटों की खातिर अपनी सांस्कृतिक विरासत को तोड़ता है, शायरों और कवियों का अपमान करता है तब आप कैसा समाज रच रहे हैं। उस अवधारणा को भी ठुकरा रहे हैं कि जब कवि राजा होगा तो सबको न्याय मिलेगा।