कैमरा नहीं नश्तर है, फिल्म नहीं शल्य चिकित्सा है / जयप्रकाश चौकसे

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कैमरा नहीं नश्तर है, फिल्म नहीं शल्य चिकित्सा है
प्रकाशन तिथि :11 फरवरी 2017


अगर सुभाषकपूर सेना में होते तो उन्हें वीरचक्र दिया जाता, लेखक होते तो ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किए जाते और अगर अंग्रेजी भाषा में लिखते तो पुलित्जर पुरस्कार से नवाज़े जाते परंतु वे फिल्मकार हैं और अपनी फिल्म 'जॉली एलएलबी-2' के लिए तमाम फिल्म पुरस्कारों से नवाज़े जा सकते हैं। आज के हिंदुस्तान के जिस्म में जितने रोग, कीड़े हैं, जितना मवाद है, जितने घाव हैं, उन सबको उन्होंने फिल्म में उजागर कर दिया है। सारी व्यवस्था अपनी तमाम सड़ांध के साथ जस की तस प्रस्तुत की गई है। फिल्म का अधिकांश कार्यकलाप अदालत में है और प्रतीकात्मक ढंग से व्यवस्था ही कटघरे में मुलज़िम की तरह खड़ी है और उसके खिलाफ जबर्दस्त आरोप और साक्ष्य भी हैं। भारतीय गणतंत्र अपने वीभत्स रूप में उजागर हुआ है।

फिल्म का न्यायाधीश यह कहता है कि सारे जीवन उसने अनमनेपन से अदालती कार्यवाही देखी है और वह शर्मसार भी है परंतु यह मुकदमा कुछ इस कदर गहराई से चोट करता है कि इसका फैसला देते हुए उन्हें अपने जीवन की सार्थकता प्राप्त हुई है और इस व्यापक नैराश्य में अभी भी उम्मीद बाकी है। यह फिल्मकार सुभाष कपूर का जीनियस है कि पूरे समय जज महोदय अपने टेबल पर रखी एक नन्ही-सी कोंपल को पानी देते रहते हैं गोयाकि वे समानता न्याय आधारित समाज के पौधे को ही सींच रहे हैं कि यह कभी मजबूत दरख्त बन सके। प्रतिक्रियावादी ताकतें इस पौधे की जड़ में अपनी हुल्लड़बाजी से मठा डालती रहती हैं। यह फिल्म न्याय की बुरी दशा को उजागर करती है। फिल्मकार का कैमरा किसी कुशल सर्जन के हाथ के चाकू की तरह जख्म पर चीरा लगाते हुए समाज की दुखती रगों से मवाद ही आखिरी बूंद तक बाहर निकालता है।

अदालत को केंद्र में रखकर अनेक फिल्में और किताबें लिखी गई हैं जैसे 'विटनेस फॉर प्रॉसिक्यूशन' और 'क्यूबी सेवन' आदि परंतु यह फिल्म तो 'जजमेंट एट न्यूरमबर्ग' की तरह है, जिसमें दूसरे विश्वयुद्ध के गुनाहगारों का मुकदमा प्रस्तुत था। भारत में भी अघोषित युद्ध जारी है। कमजोर साधनहीन लोगों को तरह-तरह से सताया जा रहा है। हमारी जेलों में हजारों लोग वर्षों से इंतजार कर रहे हैं कि कभी उन्हें अदालत में प्रस्तुत किया जाएगा और संभवत: न्याय भी मिल जाए। बिना आरोप-पत्र दिए ही साधनहीन लोगों को जेल में डाल दिया जाता है। पुलिस कुछ हद तक वर्दी पहने गुनाहगारों की जमात लगती है और काला कोट पहने वकील किसी छत पर श्राद्ध के माल पर झपटते हुए कौओं की तरह लगते हैं।

इस फिल्म को देखते हुए बरबस हमें श्रीलाल शुक्ल के 'राग दरबारी' की याद आती है, जो भ्रष्ट भारत की महाभारत जैसा महत्व रखती है। फिल्म में जज महोदय चौंकाने वाले आंकड़े प्रस्तुत करते हैं कि कितने ही वर्षों से कितने प्रकरण अदालत में प्रस्तुत ही नहीं किए गए और मुकदमे वर्षों तक चलते रहते हैं। फैसले का इंतजार करते-करते लोग मर जाते हैं। अपराध बढ़ते जा रहे हैं परंतु अदालतें कम हैं, जजों की संख्या भी कम है परंतु अदालत में लंबित पड़े फैसलों का क्या करें। एक अत्यंत अन्याय और असमानता आधारित देश में न्याय के नाम पर स्वांग जारी है। दशकों पूर्व विजय तेंडुलकर ने नाटक लिखा था, 'शांतता, कोर्ट चालू आहे।' संजीव बक्शी के उपन्यास 'भूलन कांदा' में भी अदालत का वर्णन है।

सुभाष कपूर की फिल्म के संवाद 'डेट पर डेट दिए जा रहे हैं अौर फैसला होता ही नहीं' का भी सटीक इस्तेमाल किया गया है। इस समय एक ही दर्द से अनगिनत सीने छलनी पड़े हैं। यह फिल्म सामाजिक दस्तावेज की तरह है। फिल्म का क्लाइमैक्स दर्शक के रोंगटे खड़े कर देता है। सरकारी वकील अपने पिता को अदालत में व्हीलचेयर पर प्रस्तुत करता है और बताता है कि कैसे बम विस्फोट में उसके पिता जख्मी हुए हैं और परिवार के कुछ सदस्य मारे गए हैं। यह सुभाष कपूर का कमाल है कि गलती करने जा रहे अपने सरकारी वकील पुत्र का हाथ व्हील चेयर पर लाए गए उसके पिता पकड़ लेते हैं। इस तरह के रोंगटे खड़े करने वाले अनेक दृश्य हैं।

आतंकी हमले मानवता के खिलाफ हैं परंतु इनके नाम पर पूरी जमात विशेष को मुजरिम मानना या उन पर देशद्रोही होने का शक करना, उस जमात को एक कोने में ढकेलने की तरह है। कोई पूरी जमात गुनाहगार नहीं होती, अपराधी और देशदरोहियों का कोई महजब नहीं होता परंतु इसी प्रकरण के नाम पर जुल्म ढाया जा रहा है और जब भी इस तरह की रुग्ण मानसिकता ओहदेदार की होती है या उस तरह का व्यवहार करती है तो समाज में दरारें बन जाती हैं।

हिटलर ने एक वर्ग विशेष के लाखों निर्दोष लोगों को मारा और दूसरे विश्वयुद्ध के बाद उस वर्ग ने एक देश ही हथिया लिया, जिसे उस जमीन पर बसाया गया, जहां हजारों वर्षों से फिलीस्तीनी रह रहे थे। इसी दुर्घटना ने आतंकवाद को जन्म दिया है। सारांश यह कि धर्म के नाम पर अहम राजनीतिक फैसले लेना गलत है। इस समय भारत में धर्म के नाम पर राजनीति और राजनीति के नाम पर धर्म का खेल खेला जा रहा है। सुभाष कपूर की फिल्म का नाम 'इंडिया टुडे' भी रखा जा सकता है।