कोख / अरुणा जेठवाणी / देवी नांगरानी

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अरुणा जेठवाणी »

यह उसका आख़िरी बार मनाली जाना था।

मनाली एक पड़ाव था, जो वह पिछले अठारह साल से टालती आ रही थी, पर आज हालात और थे। उसकी शादी हो चुकी थी और उसे छः माह का गर्भ था। इन पिछले छः महीनों में बहुत सारा पानी भावनाओं की पुल तले बह गया था और वह अपने पिता के साथ मनाली पहुँची थी। यूँ कहें कि अपनी माँ के घर।

ऐसा नहीं है कि विगत काल की कड़वाहटें लुप्त हो गई हैं। ऐसा भी नहीं कि उसके जख्म अब सूख गए हैं, पर आज वह हर चीज़ बिलकुल अलग नज़रिए से देख सकती थी।

अचानक होटल ब्यॉस की बालकनी में खड़े, सोनिया अपने बचपन की आवाज़ें अपने आस-पास गूँजते सुन सकती थी-' मैं अम्मा के पास कभी नहीं जाऊँगी, मैं उस अंकिल के साथ कभी नहीं जाऊँगी। मैं दोनों से नफ़रत करती हूँ। वह अपने भीतर ज़हर लिए फिर रही थी। जैसे ही उसने अपने बचपन की भावनाओं, कटु अनुभवों पर तवज्जू दी, तो गरजती ब्यास नदी के बहाव की ओर उसका ध्यान गया। वह चक्करदार घुमाव के साथ, छलकती, पटकती कँपकँपाती पहाड़ी स्थानों से शोर मचाती बिलौर से चमकते पत्थर से, हिमपात को साथ लिए, बेअंत आनंदोल्लास से गुनगुनाते हुए आगे बढ़ती रही थी।

'प्यारी सोनिया, क्या तुम तैयार हो? काका का ट्रक किसी भी पल यहाँ आ सकता है, तुम्हें ले जाने के लिए.' सैम मुनचिस, उसके पिता ने अपने कमरे से आवाज़ दी। सोनिया झटके से अपने ख्यालों की कैद से निकली। उसने एक भेड़ को नदी के उस पार ठंड से कँपकँपाते हुए देखा। उसने पहाड़ों की पनाह में झोपड़ियों का जमघट देखा, जो धुएँ की काली परतों से लिपटी हुई थी।

'आ रही हूँ पापा' , उसने कुछ विराम के उपरांत उत्तर दिया। अपनी आँखों से धुंध को हटाते हुए, उसने अपना पर्स खोला और एक पुराने पीले कागज़ का टुकड़ा खोज निकाला। गर्मी के मौसम में सूखे हुए पत्ते की तरह टुकड़े-टुकड़े हो रहा था। यह उसकी माँ का लिखा हुआ ख़त था, जो उसकी माँ ने बारहवीं जन्मतिथि पर लिखकर भेजा था। उसने उसे एक बार फिर पढ़ा-

'मेरी सबसे अनमोल बेटी, मैं कैसे तुम्हें अपने प्यार का विश्वास दिलाऊँ? माँ का प्यार तो नदी की तरह अनंत होता है। तुम तो मेरे ख़ून, हाड़मांस का हिस्सा हो। नाभि-रज्जु का नाता अभी मज़बूत और सलामत है। अगर तुम अपने पिता के साथ इन गर्मियों में आओगी, तो मुझे ख़ुशी होगी। मेरा विश्वास करो सैम और मैं अब भी अच्छे दोस्त हैं। जब वह आता है, तो सब-कुछ मधुर व सुंदर होता है, पर तुम्हारी अनुपस्थिति एक रिक्तता भर देती है। तुम्हारा अभाव सदा रहता है। काश, तुम आ पातीं। मैं तुम्हें देखने के लिए तड़पती हूँ। सिर्फ़ एक बार...स्नेह, मम्मा।'

उसे याद था, मनाली में फ़कत माँ के जिक्र से वह बहुत गुस्से में हो गई थी। वह चीख़ी थी, उसने आईने तोड़ दिए, उसने दीवारों को भी अपने बेलगाम ग़ुस्से में मारा। सैम, उसके पिता ने उसे आइस-क्रीम, चॉकलेट व उसके चचेरे भाई-बहनों के साथ पिकनिक पर ले जाकर ठंडा करने की कोशिश की।

'सोना मेरी बच्ची' , उसके पिता सैम ने फिर आवाज़ दी। झटके से उसे जैसे होश आया और उसे अहसास हुआ कि वह अभी तक चित्र को थामे हुए थी। हिमपात की हल्की-सी परत उसके शरीर पर थी और हवाएँ भी बर्फ़ की तरह ठंडी थीं। वह गरम कमरे की ओर मुड़ी। उसके पिता अभी भी बासी अख़बार पढ़ रहे थे, जो उन्होंने रेलगाड़ी में ख़रीदा था। उसने अपने पाँव झटके, अपने ऊनी मफ़लर को गले के इर्द-गिर्द तंग किया और उसने व्हिस्की के आख़िरी पेग को समाप्त किया।

'ट्रक किसी भी समय यहाँ आ सकता है।' उसने कनखियों से उसकी ओर देखते हुए कहा।

उसने अपने होंठों को बंद कर लिया।

'सोनिया अब तुम मुझे शर्मिंदा मत करना' , एक छिपा हुआ डर उसकी आँखों से ज़ाहिर था।

'प्रिय सोनिया, तुमने वादा किया था कि तुम पीछे नहीं हटोगी। तुम्हारी मम्मा बेसब्री से तुम्हारा इंतज़ार कर रही है।' वह आँसुओं के बीच मुस्कुराने की कोशिश कर रहा था।

'नहीं पापा, कभी नहीं।' ऐसा कहते हुए उसने अपनी बाहें सैम के इर्द-गिर्द लपेटी और उसे चूम लिया।

'पापा, मैं मम्मा से मिलना चाहती हूँ, मैं निश्चित ही...' उसने शब्दों को अपने भीतर जब्त करते हुए कहा।

सैम ने उसकी आँखों में देखा-'सोनिया तुमने कभी एक बार भी यह नहीं पूछा कि क्यों मैंने तुम्हारी माँ डॉली को काका के साथ शादी करने दी।'

यह सवाल था, जो पापा ने कल रात ट्रेन में भी उससे किया था। उसने अपने कंधे उचकाकर अपना ध्यान सरसों के खेतों की ओर कर दिया, जो रेलगाड़ी से पीछे की ओर भागते नज़र आ रहे थे। उसने अपना ध्यान हिमाचल प्रदेश के खंडहरों पर, समाधि-स्तंभ पर, पहाड़ी पर, मंदिर और बर्फ़ से ढके पहाड़ों पर गोधूल की किरणों में लगा दिया।

'यह निर्णय इतना आसान नहीं था।' सैम ने उसका हाथ दबाते हुए कहा। 'पर जिस दिन मुझे अहसास हुआ कि तुम्हारी माँ काका से प्यार करती है, मैंने उसे जाने दिया। वह उसका पहला प्यार था, उसका हक़ पहले था।'

सोना को इस बात की जानकारी थी कि उसकी माँ का किसी रूपवान नौजवान के साथ प्रेम था, जो भेड़ों के कृषि फार्म के बारे में पढ़ने आस्ट्रेलिया चला गया था। वह पाँच साल से अधिक वहाँ रहा। इसी दौरान डॉली के वृद्ध दादा-दादी ने उसे सैम के साथ शादी करने के लिए मजबूर किया, पर पहले प्यार का यह तर्क और उसका दावा करना, उसके गले के नीचे नहीं उतर रहा था। न ही यह कल्पना थी कि उसका पिता अब भी उसकी माँ का दोस्त है। यह किस तरह का त्रिकोणीय सम्बंध है। वह सोचती रही, 'प्रिय, काका यहाँ किसी भी पल आ सकते हैं।' सैम ने अख़बार को लपेटते हुए कहा। सोनिया ने पल-भर के लिए संपूर्ण अविश्वास की नज़र से देखा। कितनी आसानी से 'काका' का नाम उनकी ज़बान पर आया, उसी आदमी का जिसने उनकी पीठ में खंजर खोंपा था।

'पापा, सचमुच अच्छे इंसान हैं, जिसने अपनी पत्नी उस आदमी को दे दी, जिसे वह प्यार करती थी और वे अब दोस्ती के टुकड़ों पर जी रहे हैं।' वह विचार करते हुए बाथरूम की ओर गई.

'काका' , उसे अब भी उसके लिए कुछ कड़वाहट थी। वह आदमी आस्ट्रेलिया से आकर ऐसे कैसे उसकी माँ को उससे और उसके पिता से छीन सकता है।

बाथरूम में उसने अपने नग्न शरीर की परछाई देखी। उसका पेट अब स्पष्ट रूप से बाहर आ गया था। लड़का या लड़की... उसने और उसके पति अरविंद ने शर्त लगाई थी...अरविंद...उसे अब उसकी ज़रूरत थी।

वह हजारों मील दूर थी, अपने पति अरविंद से। फिर भी वह उसके पास था। यह एक पागलपन था, एक जुनून था। एक भावनाओं का व्हर्लपूल, एक आत्मा पागलपन की हद तक दूसरे की चाह रखती है। क्या वह उसे त्याग सकती है? क्या अगर पापा उसकी शादी किसी और से तय कर दें, जो समाज में उच्च स्थान पर हो। नहीं, नहीं कभी नहीं। '

'ओ माँ...' वह बड़बड़ाई 'मैं तुम्हें समझ रही हूँ... बिल्कुल समझ रही हूँ।' वह सिर्फ़ अपनी माँ और काका के बीच का प्यार ही नहीं समझ रही थी, पर यह भी अच्छी तरह समझ रही थी कि गर्भाशय में बच्चा उसे अपनी माँ की ओर खीचें जा रहा था। वह कोख में जिसमें जीवन का स्पंदन है... वह अपनी माँ का हाथ पकड़ना चाहती थी।

दरवाज़े पर एक ज़ोरदार दस्तक सुनते ही उसने जल्दी से कपड़े बदले। एक ढीला-सा फ्रॉक और ऊपर से एक पुलओवर। कुछ धीमी आवाज़ें थीं, शायद काका आ गए थे। वह सीढ़ियों से नीचे उतर आई. होटल के बाहर खंदकों में सुलगती आग बलूत के पेड़ों के तले दमक रही थी। जैसे ही वे खुरदरे पहाड़ी रास्ते पर सफर कर रहे थे, उसके खयाल वेग के साथ अरविंद की ओर गए, उसका सुंदर चेहरा, भूरे रंग की आँखें, धरती की तरह भूरा। वह प्यार के जाल में कब फँसी थी?

18 सितंबर, शाम के 8 बजे क्लब में! उसे एक नज़र देखा, इच्छा की भावना, प्यार का जलवा और अभिलाषा की तीव्रता, चोरी छुपे सफ़र करती, उसके मन की खिड़की खोल गई. वह चमत्कार का एक पल था। एक सौगात का पल, जागरूकता का पल; एक जगाती हुई आवाज़, अजीब अध्याय, एक प्यासी बदरी की तरह, जो बारिश को तरसती, तड़पती है। ऐसा ही प्यार था, उसे अपने पति अरविंद के लिए. हो सकता है ऐसा ही प्यार माँ को काका से था।

जैसे ही जीप टीले पर पहुँची, काका ने धुंध को देखते हुए कहा-'ये मनिक्रम की बर्फीली पहाड़ियाँ हैं।' सोना ने मुड़कर पीछे देखा और उनकी आँखे मिलीं। क्या उसने अरविंद की छवि देखी उन आँखों में?

'सोनिया, हम सब तुम्हारी माँ से प्यार करते हैं। तुम एक मेहरबानी करना, उसे चोट न पहुँचाना।'

उसकी आवाज़ मधुर थी, देवदार की ख़ुशबू की तरह। उनकी जीप बर्फ़-सी ख़ामोशी के साथ चल रही थी। जब तक वे एक छोटे से किले पर नहीं पहुँचे, जो ऊँचाई पर बना हुआ था। काका ने उसके कंधे को थपथपाया। वे एक शाही पथ पर चलते रहे। एक लाहाउली औरत बैंगनी रंग के दुशाले से लिपटी हुई, दरवाज़ा खोल रही थी।

घर के भीतर माहौल गरम था। चिमनी में लकड़े जल रहे थे। फ़ायर प्लेस के ऊपर फ्रेम की तस्वीरें सुंदर ढंग से सजाई हुई थीं। उसके सामने झूलने वाली कुर्सी, जिस पर शायद उसकी माँ बैठती हो-ऊनी सौग़ातें बुनते हुए अपने दोस्तों और रिश्तोंदारों के लिए खाली थी।

क़िले के रास्ते और गलियारे जाने बिना, वह भागी किसी अतंर्ज्ञान के तहत, वहाँ-जहाँ उसकी माँ बीमार पड़ी हुई थी।

'माँ, मैं आ गई हूँ।' वह रोई, जैसे ही उसने अपनी माँ के कमरे का दरवाज़ा खोला। एक निरीह, हताश औरत उदासी को ओढ़े शीशे लकड़ी के बने राजाई बिस्तरे पर लेटी थी। सोनिया उसकी ओर लपकी।

'माँ...माँ।' सोनिया ने उस चेहरे को चुंबन किया और आँसुओं से तर कर दिया। दो मर्द खड़े होकर उस भावनात्मक विस्फोट के मिलन को देख रहे थे। दो औरतों के बीच, एक वृद्ध और एक जवान। ऐसा लगता था जैसे व्यास नदी का उफनता पानी पर्वतों के बीच के एक संकुचित मार्ग से बह रहा हो।

चाय के बाद, सोनिया माँ के बिस्तरे पर एक आरामदेह स्थान पर बैठी। ख़ुद को गरम और महफ़ूज पा रही थी। वह सोचकर हैरान थी कि वह कैसे इस औरत से, अपनी माँ से नफ़रत कर पाई, जो देखने में नाजुक और पाकीज़ा थी, एक गुलाब की पंखुड़ी की तरह। उसकी माँ फुसफुसाई-'सोनिया, मैंने इस दिन का बहुत इंतज़ार किया है। मुझे पता था कि तुम किसी दिन जब ख़ुद प्यार करने लगोगी, तो तुम समझ पाओगी कि इसकी शक्ति क्या है? प्रिय, क्या तुम प्यार के बारे में बहुत ही अनोखा, अद्वितीय सच जानती हो?' उसकी माँ ने पूछा।

'हाँ मम्मा, एक प्यार की चिंगारी दूसरी को प्रज्वलित करती है।'

और उसने अपनी माँ को फिर से चूमा। पेट के भीतर बच्चे ने उसे ज़ोर से लात मारी।

'आओ सोनिया, चलो हम सैर करें पिछवाड़े के जंगल में।' काका ने कहा और सोनिया को क़िले के पिछवाड़े का रास्ता दिखाने लगे। सैम और डॉली कमरे में रह गए. चाय की चुस्कियाँ लेते हुए और एक-दूसरे की ओर देखकर मुस्कुराते हुए. उन्हें ख़ुशी थी कि उनकी बेटी का अब माँ से मिलन हो गया है। यह पुनर्मिलन दिलों को नम करता रहा और बीते बरसों की धूल को साफ़ करता रहा।

पिछवाड़े में देवनार के पेड़ों का एक घना जंगल-सा था। अठारह देवनार के पेड़ अलग-अलग उम्र के, एक करामाती कोलॉज बनकर प्यार का इज़हार कर रहे थे, मनाली की बर्फ़ीली ढाल पर। हाँ, प्यार का कोलॉज, क्योंकि हर एक पेड़ पर सोनिया के जन्म की तारीख़ टँकी हुई थी। सोनिया को विश्वास नहीं हो रहा था। वह भीतर गहराई तक इस प्यार की आँच को महसूस कर रही थी। उसकी आँखें तर थीं। हर साल उसकी माँ ने एक पेड़ लगाया था, देवनार का पेड़, उसके प्यार का तोहफ़ा, उसके जन्मदिन का उत्सव मनाने के लिए, जब बेटी माँ से मीलों दूर थी। वह बेटी जिसने अपने बचकाने बर्ताव व ग़ुस्से से फ़ासले पैदा किए थे। वही फ़ासले कोख में पनप रही नई जान ने इतनी सुंदरता से पाट लिए।