कोपाल / गोपाल चौधरी

Gadya Kosh से
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मैं हूँ कोपाल। एक अदना-सा इन्सान, जो इन्सान होने की कोशिश में लगा है। पर यही तो समस्या है: हम सोचते हैं! हम हो रहे हैं, कर रहें हैं। मैं आप या वह कर रहे कर रहे हैं। लेकिन क्या यही कोशिश हमारे इन्सान होने या बनने में रुकावट तो नहीं है?

हम जो हैं तो हैं। जिंदगी है तो है! फिर होने में क्यों लगे हैं! जो होना चाहिए वह तो पहले से क्या नहीं हुआ है। जो भी काम या पर्यास करते हैं! उनके सम्बन्धित कार्य-कारण और उनके गति और प्रकृति तय करेंगे! इसी तरह वे सफलीभूत होंगे! फिर हम कहाँ हैं!

उस दिन एक बुजुर्ग महिला से मिला। कह रहीं होती: जो चाहा मिला नहीं। जो नहीं चाहा वह मिलता रहा और उसे ही अपना नसीब मान कर जीती रही! जो मिला उसे चाह न सकी। जिससे भी मिलता हूँ या मिला हूँ उसका यही रोना है प्रतक्ष्य या अप्रतक्ष्य रूप मे। लगता है हमारे आधुनिक जीवन का यही हश्र है! पर आज का ही क्यों? क्या हरेक युग का यही सार नहीं लगता होता?

कितनी अजीब बात है! हरेक युग, हरेक पीढ़ी अपने आप को आधुनिक समझती रही है। पिछले न जाने कितने सदियो से और ऐसा हजारो साल से होता आ रहा है। यह क्रम सिलसिलवार ढंग से चलते चला आ रहा है, पता नहीं कब से! शायद जबसे हमारी मानव सभ्यता की शुरुआत हुई है। अभी भी जारी है: अगला पिछले से अपने आप को हमेशा आधुनिक मानता आ रहा है। यह अनंत श्रृंखला-सा लगता है। फिर क्या आधुनिकता अपनी मुकाम पर पहुँच पायेगी कभी? फिर तो यह अपूर्ण हुई जो पूर्ण होने में लगी है। पर जो अपूर्ण है वह क्या कभी पूर्ण हो पायेगा?

फिर तो क्या हम सभी आधुनिक नहीं रहे हैं हमेशा से! या हरेक युग या हरेक पीढ़ी अपने आप में आधुनिक नहीं रही है! शायद सापेक्षता की वजह से हमे ऐसा लगता है: अपनी सोच, अपने मापदंड से हरेक पीढ़ी या युग अपने आप को ऐसा समझता रहा है! तो क्या हरेक युग, हरेक पीढ़ी अपने आप में पूर्ण नहीं रही है? जैसे कि हरेक लम्हा, हरेक वह कतरा जो जिन्दगी बनता रहा है! क्या हरेक पल पूर्ण नहीं है अपने आप में? अगर नहीं तो जो लम्हा समय बनेगा या दास्ताँ बनेगा या जो कतरा जिंदगी बनेगी वह भी ऐसे ही अपूर्ण होगी!

ऐसा लगता है: हम पूर्णता या अपूर्णता खुद तय करते होते हैं! सुख-दुःख, रात-दिन, हानि-लाभ! कही हमने तो नहीं बना रखे है! दुःख आते हैं, सुख आता है, ठहर जा। सांस आती है, जाती है, ठहर जा। दिन आता है रात जाती है। ठहर जा। जो ठहरा हुआ अस्तित्व है, जो बना ही रहता बदलते दृश्यों और परिदृश्यों के बीच! एका और एकात्मता की पुष्टि ही तो करता होता है!

हरेक लम्हा, हरेक पल, हरेक समय, हरेक जिंदगी अपने आप में पूर्ण-सी नहीं लगती क्या? जैसे एक संगीत रचना या कोई गीत! हरेक संगीत, हरेक गीत अपने आप में पूर्ण होता है: संगीत ही होता है। अच्छा या बुरा, सुन्दर या कुरूप—क्या हम या हमारी व्यकित्गतता ऐसा नहीं बना देते!

कहते हैं कि ब्रह्म का कोई विकल्प नहीं होता। फिर जो ये लम्हे, ये जिंदगी, ये समय, वह दास्ताँ गलत कैसे हो सकते है? ये भी तो ब्रह्म है! फिर ये कैसे अपूर्ण हो सकते हैं जबकि ब्रह्म पूर्ण और विकल्पहीन है!


जब से जीवन में चयन करना छोड़ दिया, शांति ही शांति है। दिन-दिन की तरह बीतते होते हैं! और रात-रात की तरह। न रात दिन हो और न दिन रात—इस तरह की कोई अपेक्षा नहीं। मजे में जिंदगी गुजर रही है। न कोई चुनाव, न अपेक्षा। न कोई रोष, न हर्ष; जब जो होता करते जाता।


कोई स्व-विरेचन नही। कोई मूल्य निर्धारण नहीं! न शिकायत, न अनुगृहीत ही! पर चुनाव का मतलब ये नहीं कि निर्णय ही न लिया जाय! या अपनी स्वतन्त्रता को भाग्य के हवाले कर दिया जाय। निर्णय में मन बनाते हैं, एक विशेष दिशा व दशा का निरर्धारण होता है। इसमे चयन या चुनाव जैसा विकल्प नहीं होता। दूसरी जो सबसे बात: इसमे अपने स्व का मोह और अहम का लगाव होता है। तभी हम चाहते हैं; ये ऐसा हो, तो वह वैसा हो।

कई बार ऐसा होता कि सोच कर या चयन कर चलते हैं कि यह करेंगे, वह करेंगे। जब घड़ी आती है, तो जो होता है: वह न ये होता है, न वो। बल्कि कुछ और ही होता है! इसका यह अर्थ नहीं हुआ: सोचें न, योजनाएँ न बनाएँ। उसमे अपने अहम और मोह को बीच में ले आते। कामना या किसी चीज़ की इच्छा करते ही हम बंध जाते हैं। अगर हम बंधे या न बंधे, चीजें होंगी अपनी गुण और प्रकृति के अनुसार। पर हम अक्सर केवल बांसुरी न रहकर बजानेवाले बन जाते हैं!

कहना तो आसान है। पर क्या करना भी इतना आसान है? लेकिन कोई और विकल्प भी तो नहीं है। अगर सच में देखे तो जीवन सिशिफस की तरह चट्टान को ढोना पर्वत के शिखर तक। ताकि वह फिर लुढ़क कर नीचे आए और फिर वही सिशिफस की अर्थहीन यातनाओं का अनंत सफर! बजने वाला मात्र न रह कर बजानेवाल बन जाने की विवशता! वह भी अपने मोह के कारण। अगर सिर्फ अस्तित्व के तान का बजनेवाल बांसुरी हो जाएँ, तो सफर-सफर नहीं रहेगा! यातना नहीं यातना रहेगी। ऐसी यात्रा जो स्वयं ही जीवन है! जो तय होती जाती है जीने के लिए, आनंद के लिए... ।

अगर स्थूल स्तर पर सोचें तो पूरा जीवन ही हम ऐसा ही कुछ करते होते हैं। एक ही तरह का काम—वही खाना पीना, वही सगे सम्बंधी, समाज और देश दुनिया! अगर जन्मों में विश्वास करते हैं, तो हरेक जन्म में वही चक्कर! वही सारे काम, वही भविष्य की चिंता, आगत की प्रतीक्षा में बीतता सारा जीवन। वही प्यार, नाम, स्नेह, मोह और ममता। एक इच्छा से दूसरी तक शूली की तरह लटकता जीव। कोल्हू के बैल की तरह घूमते रहना। वही सुख दुख का अविरत सिलसिला। इससे ऊब तो होगी, अगर हम सोचने बैठे तब। जीवन में अर्थहीनता आएगी ही!

इस ऊब और जीवन की अर्थहीनता पर पूरी विचारधारा विकसित हुई है। दर्शन, तर्क-शास्त्र और न जाने कितने "वाद" का जन्म हुआ है। अस्तिववाद से लेकर उत्तर आधुनिकवाद इससे जूझते रहे है। पर ये सारे केवल मर्ज का विवरण देते है, उनके प्राकृत और प्रकृति की चर्चा भर ही करते होते हैं! पर मर्ज का केवल उपचार कराते हैं, निवारण नहीं। यह विश्लेषण और तथाकथित वैज्ञानिक पद्धति पर आधारित होता है: चीजों और मूल्यों को पहले तो तोड़ा जाता है। फिर उन में आपसी सम्बंध और कार्य कारण ढूंडा जाता है। अगर उनमे मेल हो गया और आपसी सम्बंध की पुष्टि करते होते, तो ठीक। नहीं तो उसकी उपादेयता नहीं माना जाता।

पर जीवन और दुनिया वैसे ही हैं जैसे है! अगर उनमे अर्थ खोजेंगे, तो कुछ नहीं मिलेगा। क्योंकि वे अपने में ही अर्थ है—अर्थ या मतलब उनमे ही संहित है। जब कोई मानवीय विधा और वस्तु खुद ही अपना अर्थ हैं, जैस की कुछ दार्शनिक और भौतिकविद इस बात को प्रमाणित कर चुके हैं: हरेक वस्तु-चेतन या जड़ अपने आप में अर्थ या मतलब लिए हुए है।

फिर अगर अर्थ में अर्थ, मतलन में मतलब ढूंदेंगे तो क्या हासिल होगा? कुछ नहीं या किस तरह के अर्थ या मतलब का न मिलना। जैसे अगर खुशी में खुशी खोजी जाए तो क्या ऐसा अक्सर नहीं लगता: क्या यही खुशी है! निरशा-सी होती उस खुशी से! लेकिन चलो खुश हो लें, खुशी की बात है, ऐसा समाज कहता है तो ठीक है, खुश हो लेते हैं।

तो अगर खुशी में खुशी तलाशेंगे, तो शायद न मिले। या उतनी न मिले जितना कि सोचा होता। अगर जो खुद ज्ञान स्वरूप है या ज्ञान ही, उसमे क्या ज्ञान मिलेगा अगर ढूढ़ेंगे तो? वैसा ही कुछ जीवन के बारे में बोलते है: कोई अर्थ नहीं इसमे। जीवन जीने लायक नहीं है।

अगरचे जीवन-जीवन जीने लायक नहीं होता तो कोई जीता भला! इतना कष्ट उठा कर! पता नहीं कितने दैहिक, आधिदैविक और दैविक कष्टों को झेलना पड़ता है। गरीबी, भूख और शोषण के वावजूद लोग जीते चले जाते हैं! कोई भी मृत्यु आने के पहले मरता नहीं है! यहाँ तक की अपनों के मरने के साथ भी कोई मरना नहीं चाहता! सभी जीना चाहते हैं।


पर अब अपने आप को बिलकुल ही अस्तित्व के हवाले कर दिया हूँ! जीवन के हवाले हो गया हूँ। बिना अपनी तथाकथित स्वतन्त्रता खोये हुए! जो होता है या नहीं होता वही जीवन है! और उसी में हमे शर्तिया स्वतंत्रता मिली है: उसे स्वीकार करने और उस पर अपना रंग चदाने! उसे अपने मन-मन मुताबिक दिशा और दशा देने।

एक बात और: सभी बोलते हैं, मिलना नहीं चाहता। भागता रहता हूँ सबसे। क्रेडिट तक नहीं लेना चाहता! जो किया है अपनों, अपने देश, समाज और दुनिया के लिए: उसके बारे में बताना नहीं चाहता। कायमा भी मिलना चाहती होती और सत्ता भी। ट्रायम्फ भी चाहता मिलना! उसने भी सत्ता की तरह हमारे पीछे पूरा तंत्र ही झोंक दिया। मुझसे मिलने के लिए या पकड़ने के लिए!

और मैं यहाँ मारिशस आ गया। सब कुछ अपने देश जैसा मालूम होता हुआ! पर अपना देश तो आखिर आपना ही है! वैसा ही कुछ महसूस होता हुआ जैसे अमेरिका में हुआ था!

स्वतंत्रता और समृद्धि के भूमि पर भी अकेलापन! एक घुटन और ऊब। एक अदृस्य-सा बंधन जैसे कोई तन मन को घायल करता हुआ कोई अहसास! बंदिशे न जाने कितनी! देश, नस्ल, जाति, भाषा, उंच नीच वाला वही देशी पैमाना। अपने देश में जाति! तो यहाँ नस्ल और रंग भेद। पर सबसे बड़ी अहम और अहंकार का बंधन।

स्वतंत्रत रहने की परतंत्रता-सा लगता हुआ जीवन!

पर मिला नहीं किसी से! या पकड़ में ही नहीं आ पाया किसी के! वैसे भी जो मिले हुए ही हैं—कम से कम अस्तित्व के स्तर पर! उनसे क्या मिलना! क्या विरह! क्या मिलन! एक ही बात है! क्या आज़ादी क्या गुलामी! सब एक दूसरे से जुड़े हुए हीं हैं। नहीं तो एक के बाद दूसरा नहीं आता होता! जैसे रात के बाद दिन! सुख के दुख या वही सुख दुख बनता हुआ! जैसे वही दिन रात में बदलते होते हैं!


बचपन से ही ऐसा लगता रहा है! जैसे कि मैं कुछ अलग हूँ! कैसे हूँ? क्यों हूँ, पता नहीं। पर लगता रहा जैसे कुछ करना है! क्या करना है? पता नहीं, पर शायद कोई बड़ा सा! ... क्या? स्पष्ट नहीं। एक अजीब से मसीहा काम्प्लेक्स से ग्रस्त रहा! इसका कुछ अस्पष्ट अहसास हुआ जब मैं दस-बारह साल का रहा हूंगा।

तब हम मिडिल स्कूल में थे और हॉस्टल में रह रहे होते! गर्मी की छुट्टियाँ हो गयी थी। घर जाने के पहले हमने राजगीर घूमने की योजना बनाई और अपने दोस्तों के साथ निकल पड़े राजगीर। इसे राजगृह भी कहा जाता। प्राचीन समय में जो जरासंघ राजधानी हुआ करती थी और हम जिस रास्ते से वहाँ गए थे, वह वही खुफिया रास्ता था पुराने जमाने में जब कृष्ण इसी रास्ते से प्रवेश किए थे और अत्याचार और अन्नाय के साम्राज्य का अंत कर एक नए युग का सूत्रपात किया था।

उस समय वह हिलसा भाया खुदा गंज राजगीर रोड के नाम से जाना जाता होता। जहाँ से सुदूर इतिहास में कृष्ण छदम भेष में अर्जुन और भीम के साथ गुजरे थे। अत्यचार और क्रूरता का प्रतीक जरासंघ को ख़त्म करने।

पर ये सब बातें उस समय हमे नहीं पता होती। बाद में पता चला और जरासंघ को उसी के राज्य में तथा एक तरह से उसी के रचे खड्यंत्र मे। या कहे अपने ही कुटिल चाल के कर्मफल का शिकार कर एक नए युग की शुरुआत हुई। हलाकि कुछ लोग इसे कृष्ण और द्वारिका के लिए बड़ी जीत मानते थे और थी भी।

तब ये बात हमे मालूम नहीं थी। मैं करीब बारह-तेरह साल का रहा हूँगा। प्राइमरी स्कूल में, शायद सातवीं में। इतिहास के इन दबे-कुचले विथियो से अनजान था। पर सुदूर इतिहास डेजा वू के रूप में हमारे मन-मस्तिस्क पर छाने लगा। हमे लगा जैसे हम पहले भी यहाँ आये हुए हैं! जबकि हम पहली बार यहाँ आये थे।

बाद में जब मैंने कृष्ण और यादवों का इतिहास पढ़ा तो मालूम हुआ। कृष्ण, अर्जुन और भीम के साथ इस रास्ते से, जो गुप्त मार्ग था, होकर छद्म भेष में राजगीर में प्रवेश किये थे। जरासंघ के गुप्तचरों, सिपाहियों तथा सैनिकों से बचते हुए वे गए। और उसके अन्याय और अत्याचार के साम्राज्य का अंत किया।

बड़ा होकर जब पढ़ा तो मेरे रोंगटे खड़े हो गएँ! क्यों ऐसा लगा: उस रास्ते से गुजर चूका हूँ जैसे। यहाँ तक कि जब हम राजगीर पहुँचे। तब भी ऐसा लगता रहा: जैसे कि हम यहाँ पहले आ चुके हैं! जब कि पहली बार ही आये होते। तब से ही ऐसा लगता रहा जैसे कि इतिहास के उन पात्रों से कोई गहरा सम्बन्ध है! जिन्हे लिजेंड और मिथक बना दिया गया है, निहित स्वार्थो द्वारा!

किशोरावस्था से जो यह सिलसीला शुरू हुआ वह जारी रहा। एक बात और जो मेरे जेहन में रच बस-सी गयी लगती। पता नहीं कब से यह बात मेरे अन्दर घर कर गयी-सी लगती कि कुछ करना है। भाई बहन और रिश्तेदार इस बात पर अक्सर मजाक उड़ाते। क्या करना है? पढ़ना-लिखना, नौकरी या व्यवसाय करना, शादी करना, घर बसाना, बस——!

जब हाई स्कूल में था। तब भी ऐसा लगता कि जीवन का मतलब, इस संसार का अर्थ केवल इतने तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। ऐसी कई बाते उमड़ घुमड़ कर मुझे परेशान करती होती। किसी से पूछता या वाद-विवाद करने की कोशिश करता, तो वे मजाक उड़ाते। या कहते कि ये सब सोचने की क्या जरुरत है। अधिकांश का तो यह मानना होता: खाओ, पीओ और ऐश करो। यही जीवन है! अगर ज्यादा सोचने की कोशिश करोगे, तो मुसीबत आ खड़ी होगी। जीवन क्या है? इसका मकसद क्या है? ये बेकार की बाते होती हैं! शायद ही कोई मायने रखती होती... वैगरह... वैगरह।

पर यह सिलसिला जारी रहा। कॉलेज-यूनिवर्सिटी के दिनों में यह और जोर पकड़ता गया। स्कूल के बाद कॉलेज में प्रवेश किया। और विषयों के चुनाव करने का प्रश्न आया, तो मैं इतिहास पढना चाहता होता। वह भी भारत का इतिहास। विषय का चुनाव करने के पहले भारतीय इतिहास को पढ़ा। गहन अध्ययन तो नहीं, योंही सरसरी तौर पर।

लेकिन पढने के बाद मन को झकझोर देनेवाली भावनात्मक चोट पहुँची। इतनी कि इतिहास को एक विषय के रूप में न पढने का निर्णय लिया। बल्कि इतिहास को बदलने की भी शुरुआत हो गयी-सी लगती शायद! मेरे अवचेतन मन मे। भारत के इतिहास में कुछ भी भारतीय नहीं मिला। वहाँ तो बस लुटेरे, आक्रमणकारियों तथा कौन आया कौन गया, किसका बाप कौन था, कौन किससे हारा या जीता! बस यही लगता होता भारतीय इतिहास का सार!

उसके बाद से तो अजीब से दिन बीतने लगे। खोज, शोध, प्रश्नों-प्रतिप्रश्नों का दौर शुरू हो गया। ऐसा क्यों है? वैसा क्यों नहीं हो? पर कुछ करने का जज्बा बरक़रार रहा। जबकि यह पता तक नहीं होता: की क्या करना है! पर कुछ करना होता, इतना तो जरुर पता था।

इसी से जुड्रा एक वाक्या याद आ रहा है। तब मैं पांचवी या छठी में रहा हूँगा। एक शिक्षक, जो मेरे बड़े भाई ही होते, क्लास ले रहे थे। वे सबसे पूछ रहे होते: क्या बनना चाहते हो बड़ा हो कर! किसी ने डॉक्टर, किसी ने इंजिनियर, शिक्षक, आईएस, आईपीएस बनने की इच्छा जाहिर की। जब मेरी बारी आयी तो मैं बोला: ट्रेक्टर का ड्राईवर! इस पर हमारे शिक्षक महोदय काफी नाराज हुए। उन्हे लगा मैं मजाक उडा रहा हूँ।

पर कहते हैं: वाणी ब्रह्म की ही स्वर होती है। अगर हम सभी ब्रह्म ही तो वाणी भी इसका हिस्सा है! उस दिन के निकले उद्गार जिंदगी भर गूंजते रहे! मैंने बोला था: ट्रैक्टर का ड्राईवर बनना चाहता! ट्रैक्टर का काम है खेत की मिटटी को ऊपर नीचे करना, ताकि उर्वरी मिटटी ऊपर आ सके। शायद ये शब्द सामाजिक इंजीनियरिंग की ओर इशारा करते होते! शायद सोशल इंजिनियर बनना चाहता होता हूँ! समाज में परिवर्तन तथा उथल-पुथल लाना चाहता हूंगा! तभी तो ये उद्गार निकले मेरे अंतर्मन से!

ऐसा लगता होता: बचपन से ही ब्रह्म ने इन शब्दों के माध्यम से जीवन की दशा-दिशा तय कर रखा हो शायद! पर इसका पता लगने में न जाने कितनी बैचैन भरी राते और आवारा से दिन गुजरे! और इसका अहसास हुआ बहुत बाद में। जब जे एन यू में पढ़ाई के आखिर के दिन चल रहे होते!

पर क्या ये प्राक्कथन ब्रह्म के भ्रम की पुष्टि नहीं करता? जब सब ब्रह्म है तो फिर ये अलगाव क्यों ' ब्रह्म ने..." ? ये भी नहीं होने चाहिए अगर सब ब्रह्म में स्थित है? ये विलगाव को दर्शाता है! पर ये विलगाव भी क्या इस एका का हिस्सा नहीं है? एक प्रश्न जो खुद उत्तर बनता हुआ।


उस दिन बैचमेट ने कहा कि मेरा नाम कोपाल यानी गोपाल नहीं होना चाहिए। कुछ और होना चाहिए, क्योंकि नाम व्यक्तित्व से मेल नहीं खाता। उसका मतलब होता: मैं किशन-कान्हा नहीं हूँ, जो वह समझ रही थी। न मैं छेड़-छाड़ करता न कोई चुहलबाजी, न नैन मटक्का करता, न आशिकी। कुछेक को तो यह शिकायत होती कि उनकी ओर देखता भी नहीं!

क्या मेरा नाम कुछ और होना चाहिए? क्या मुझे गीत-गोविन्द के कल्पित किशन-कान्हा होना चाहिए जो केवल नाचता गाता रास रचाता रहता है सुन्दर बालाओं के साथ! पर मैं ऐसा नहीं हूँ और शायद हो भी नहीं सकता अगर चाहुँ भी तो! पर क्या कृष्ण जैसा व्यक्तिव्य जिनके सिर पर बचपन से मौत और खड्यंत्र के साए रहे हो, वे क्या कारत के जनमानस में रचाए बसाये गए किशन-कान्हा का हो सकता है? हो सकता है, क्यों नहीं! कृष्ण पूर्ण ही थे ब्रहम की तरह। तभी तो उन्होने सबको अपनाया!

बहरहाल नाम में क्या रखा है? क्या खूब कहा है शेक्सपियर साहब ने भी! अगर गुलाब का नाम गुलाब नहीं होता तो वह क्या गुलाब नहीं होता! नाम रूप की चर्चा से भरी पड़ी हैं भारतीय आध्यात्मिक परंपरा में और साहित्य में भी इसकी कमी नहीं है। विदेशी साहित्यिक तथ दार्शनिक परंपरा में भी इसकी कमी नहीं महसूस होती।

साधारणतया एक नाम होता है व्यक्ति का और दूसरा समष्टि का। पहले के नाम से अहम् और अहंकार की भावना की पुष्टि होती है तो दूसरे से इस व्यष्टि का निर्धारन होता है। आध्यात्मिक परंपरा में नाम, रूप और अहंकार को व्याधि ही समझा जाता है क्योंकि ये बाधक होते है आनंदपूर्वक जीवन जीने में।

पर यहाँ प्रश्न कुछ और ही खडा हुआ लगता। अपने नाम के अनुरूप के नहीं था मैं शायद, जैसा कि मेरी सहयोगी समझ रही थी। हालाकि नाम और व्यक्तित्व में प्रायः कोई सामंजस्य नहीं होता। नाम होता है गरीब चाँद, पर वे अक्सर मोटे सेठ होते हैं! और आमिर भाई साहब तो नाम के अमीर हैं, गरीबी उनका पीछा ही नहीं छोड़ती।

पर मेरे सहयोगिन का इशारा शयद इस ओर था कि मैं रूमानी नहीं हूँ! पर उन्हें क्या मालूम! किस तरह और कितना रूमानी हूँ! पर मैं बताने के मूड में नहीं था। पर आपको बता रहा हूँ: मैं थोड़ा अध्यात्मिक, थोड़ा प्लेटोनिक और कुछ सुफियाना भी—तरह का रूमानी हूँ!

लेकिन उनकी जो बात मुझे चुभी, वह यह नहीं मैं वैसा नहीं था या होना चाहता, बल्कि कुछ और ही लगता। यह प्रश्न सिर्फ व्यक्तिगत नहीं लगता होता! अगर ऐसा होता, एक आदमी का होता, तो बात आई गई होती। पर यह बात व्यक्ति को छूती हुई समष्टि तक जाती हुई लगती। कृष्ण को लेकर समाज की पलायनवादी मानसिकता का बयान कर रही होती। जिस कृष्ण के सर मौत और दुष्टों की कुटिल साजिशों के साये मंडरा रहे हों वह क्या इस तरह का हो सकता है?

सो यह प्रश्न समष्टि का बन गया लगता होता और व्यक्ति का तो है ही। और अगर थोडी और गहरे में जाया जाए तो पूरी सृष्टि का भी प्रश्न लगता होता। जो अन्दर है वह ही बाहर है! एक ही चैतन्य है जो जड़ और चेतन में विभक्त हुआ-सा लगता!

सब चैतन्य है! जड़ भी जड़ बनता इस चैतन्य से। क्योंकि जड़ भी अपनी जड़ता इस चैतन्य से प्राप्त करता है। जब जड़ का अधिष्ठान और अध्यास चेतन ही है, तो फिर ये विक्षेप क्यों? क्यों ये दृश्य, ये परिदृश्य अलग दीखते हैं? क्यों सब कुछ बदलता-सा दीखता है? क्यों सब अलग दीखते हैं जब सब वही है? क्या सचमुच में ऐसा है? या केवल दीखता है हमे वैसा? तो क्या यह हमारे गलत दृष्टिकोण का परिणाम है?

जब सभी एक हैं! अपने ही हैं फिर वह कौन है जिसे ये सब ऐसा दीखता है? जब सभी आत्मास्वरुप है। या जैसा कहा जाता है: सभीये सृष्टि, ये व्यक्ति, ये समष्टि, समय, स्थान, दृश्य-अदृश्य चेतन-अवचेतन—सभी आत्मा के ही स्वरुप हैं, तो ये विग्रह क्यों? ये विक्षेप क्यों?

क्यों हमे नहीं दीखता? पर जो स्वयं ही अधिष्ठान और अध्यास है! उसके लिए ये विक्षेप! ये विग्रह! ये दृश्य परिदृश्य, समय और देश-काल अलग या भिन्न थोड़े ही हैं! अगर ऐसा दीखता है तो क्या हमारे गलत दृष्टि के कारण? या हमारी अज्ञानता का परिणाम?


जे एन यू की पढ़ाई और शिक्षा का आखिरी साल। दिल्ली में रहते हुए करीब दस साल हो चुके होंगे। पर अभी तक मथुरा जाना नहीं हो पाया! जब कि मथुरा और कृष्ण से जुडे हरेक चीजों के प्रति एक अजीब-सा आकर्षण रहा है! बचपन से ही।

उन दिनों अजीब से दौर से गुजर रही होती जिंदगी भी!। सोये-सोये से लगते दिन! और जागी-जागी रातें! हालाकि लोगों की नज़र में और दुनियावी तर्ज पर सब कुछ मिल चूका था: नौकरी, शिक्षा, तथा यार-दोस्त। सब मिल गया। पर मुझे ऐसा लगता जैसे मिल कर भी कुछ नहीं मिला। सब कुछ मिल कर भी कुछ न मिल पाने का अहसास। ऊपरी तौर पर तो हँसता, पर अन्दर ऐसा कुछ नहीं होता।

ऐसा अकसर होता, शायद औरो के साथ भी होता हो। जहाँ खुश होना हो वहाँ उतनी खुशी नहीं मिलती होती! जितना कभी अनचाहे, यूँ ही अक्सर मिला जाया करती है। जहाँ ख़ुशी मिलने की उम्मीद होती। या जिस चीज़ से यह आशा होती कि वह ख़ुशी देगी। वहाँ उतनी नहीं मिलती। या कहे उतनी ख़ुशी नहीं मिली जितनी अपने आप मिलती रही है। बिना किसी वजह। बस यूं ही!

तो क्या ख़ुशी-गम दूसरे के अधीन है या किसी और प्रक्रिया या तत्व के कारण खुशी और गम मिलते रहते है। अगर ऐसा है तो फिर आदमी की क्या भूमिका है? वह स्वंत्रता, वह शक्तियाँ जिससे दुनिया चलती होती है वह क्या? क्या आदमी खिलौना है उसके आगे या बांसुरी है केवल जिसको बजाने वाला कोई और ही है! या कोई शक्ति या तत्व वगैरह है जो सबको चला रहा है?

पर मन कही लग नहीं पा रहा था। अजीब से दिन लगते। चमकीले होते हुए भी फीके-फीके से लगते हुए। ऐसा लगता जैसे कुछ खो गया है। या मिला ही नहीं। उन तमाम खुशियों के बीच ऐसा लगता हुआ जैसे मैं वह नहीं जिसे ये सब मिला है। तभी तीन चार दिनो की छुट्टी आ गयी। गाँधी बाबा के जन्म दिन के साथ एक दो साप्ताहिक अवकाश भी मिल गए। जे ऐन यू छोड़ चूका था और नौकरी कर रहा था। प्रिया के सामने सरकारी अपार्टमेंट्स में बतौर पेइंग गेस्ट रह रहा था।

मथुरा के लिए कब और कैसे निकल पडा, पता ही नहीं चल पाया। जाना तय तो पिछली रातों के जागे सपनो ने कर दिया, जो सो न सके। क्योंकि उनमे बहुत कुछ छिपा होता जो बहुत कुछ कहते होते और मेरे लिए बहुत मायने रखते होते। पर क्या, कुछ स्पष्ट-सा नहीं हो पाता। पर इतने अहम् की रातो की नींद उड़ जाती। जीवन निष्प्रभ और निरुदेश्य लगने लगता। ख़ुशी में ख़ुशी का अहसास नही। मिलकर भी न मिलने का अहसास। सब कुछ पा कर भी न पाने की टीस! न कोई शिकवा, न शिकायत। यार दोस्त, लोग समाज जब मेरे भाग्य की सरहाना करते होते तो मैं सोचता होता, क्या यही मेरा भाग्य है? और ये मैं हूँ ही?

अचानक ही उस जागी रात ने यह निर्णय लिया कि मथुरा जाना चाहिए। और नींद आ गयी। वैसे मथुरा जाना हुआ तो अचानक। पर न जाने कितने सालों से यह मेरे मन की विथियों में उमड़-घुमड़ रहा-रहा था। पता नहीं क्यों मथुरा, कृष्ण, यमुना, द्वारका से क्या सम्बन्ध था! इनका आकर्षण बचपन से ही रहा है! यह रहस्मय-सा लगता आकर्षण तब से रहा हैं जब मुझे कृष्ण, यादवों और अपने यादव होने के बारे में पता तक नहीं था!

जातिवाद का घिनौना-सा महौल! उसमे से किसी ने मुझे बड़ी बेशर्मी से, पर धृष्टता भरी शालीनता से बताया: मैं यादव नहीं, ग्वाला हूँ ग्वाला! महाभरत में कृष्ण को कई बार ग्वाला बोला जाता रहा है। मुझे तीन चार बार ही बोला गया। बहुत ख़राब लगा। दुःख भी हुआ। पर जो समाज कृष्ण को ग्वाला कह सकता है, उसके लिए मैं क्या हूँ? कुछ भी नहीं!

एक दिन जब मैंने पापा से पूछा तो उन्होंने बताया कि हम यादव हैं, ग्वाला नहीं। कृष्ण, मधु और यदु के वंशज हैं हम। बहुत अच्छा लगा था ये सुनकर। पर समाज में कृष्ण और यादवों के प्रति दृष्टिकोण से थोडा बहुत आहत भी हुआ।

मथुरा जानेवाली बस पर बैठ तो गया। पर मुझे कहाँ मालूम! एक दूसरी दुनिया में जा रहा हूँ! एक ऐसा संसार जो सुदुर इतिहास के स्याह पन्नों के बीच दबा कुचला सा। पर उसकी आवाजें सदियों से रिस-रिस कर वर्तमान को आतंकित करती रही हों मानो। जैसे-जैसे बस मथुरा की ओर बढती जाती, वह सुदुर इतिहास की चेतना मुझ पर हावी होते जाती-सी लगती।

यादों। स्मृतियो और विस्मृतियों और अनसुनी, अनबूझी गुत्थिओं का सिलसिला शुरू होता हुआ। तन बदन इसमें सरोबर होता हुआ सा। कभी ऐसा लगता जैसे मैं किसी स्वप्नलोक में जा रहा हूँ! कही सपना तो नहीं देख रहा हूँ? मैंने अपने आप को टटोला। छू कर देखा। पर मैं तो जाग रहा था। तो क्या ये जागी आँखों के सपने है! पर ये न तो सपने थे, न विचारों के अनवरत चलते सिलसिले। ये तो मेरी चेतना की गहराई या इसका विवर्त-सा लगता हुआ।

ये केवल विचार ही न थे। क्योंकि विचारों की गति बड़ी असम्बन्ध, असंगत और आड़ी तिरछी होती है। इनके भंवर जाल में तो सारी दुनिया ही है! और कुछेक संस्कृति तथा इनके पैरोकारों ने तो इन असंगत विचारों को मानव जीवन का सत्य और मुख्य आधार ही बना रखा है। इसका परिणाम सामने है: पूरी मानव समुदाय इन विचारों में मकड़ी के जाल की नाइ अधर में लटका पडा-सा लगता है और इसे ही जीवन का सत्य मान लिया गया है!

...बस तेजी से मथुरा की ओर बढ़ी जा रही थी। राष्ट्रीय उच्च मार्ग के दोनों ओर के पेड़-पौधे और हरियाली चादर ओढ़े खेत। तेजी से पीछे छूटते जाते। कितने सुन्दर लग रहे है ... ये भगाते दृश्य, तेजी से बदलते परिदृश्य। मोहित मन इन चंचल दृश्यों के मोहपाश में बंध-सा गया ... कृष्ण भी इस रास्ते गुजरे होंगे कभी... इस विचार ने एक साथ ही मुझे अतीत, वर्तंमान और भविष्य के चौराहे पर ला खडा कर दिया। समय के तीन खण्डों के टी-जंक्शन से चौथा रास्ता मेरे निज स्वरूपता को जाता हुआ। जिसमे से तीन रूपों में विभाजित समय फलीभूत होता हुआ सा।

वर्तमान, अतीत और भविष्य! ये मेरे निज स्वरूप का हिस्सा लगते हुए! मेरे स्व या मेरे वास्तविक स्वरुप से ही समय और उसके तीन आयाम निकलते लगते हुए... कभी अतीत... कभी भविष्य... तो कभी वर्तमान... एक कर मेरे से...मेरे अंदर फैले आकाश और अवकाश से...अगर ऐसा नहीं होता तो ये पहले नजर आते! या हमेशा रहते, आते जाते नहीं। क्या मेरा चेतन स्वरुप जो मेरा वास्तविक स्वरुप ही है इनका अधिष्ठान और अध्यास दोनों नहीं हैं?

लेकिन क्या यह अतीत है? एक शक-सा उठता हुआ। जो हमारी सामजिक विडम्बना तथा इतिहास को लोक इतिहास या मिथ या लीजेंड बनाने, एवम मिथकों और लीजेंड को इतिहास बनाने की मुहीम का परिणाम-सा लगता हुआ। अतीत एवम इतिहास को क्षत-विक्षत करने के परिणाम स्वरुप ही शायद इन्हें जमीन मिली हो। इतिहास और मिथक। धर्म और विज्ञान, सत्य-असत्य और न जाने कितने द्वंद और द्वय! अपनी द्वंद भरे द्वंदगी से मुझे वापिस उसी दुनिया में ले जाते हुए। जहाँ से अभी-अभी बाहर आया हुआ लगा था।

पर जैसे-जैसे मथुरा नजदीक आते गया, वर्तमान और अतीत के बीच की दूरी बढती-सी गयी। ऐसी दूरी जिसमे वर्तमान अतीत के रंग में डूबा हो। पर जैसे ही बस मथुरा पहुँची, वर्तमान का सूरज अतीत के पाश से निकल कर जैसे क्षितिज पर आ गया हो।

बस से उतर कर कब मैंने मथुरा की पावन धरती को छू कर प्रणाम किया, पता ही न चला। फिर मुझे थोड़ी झेंप-सी भी हुई। शायद मेरी आधुनिक शिक्षा के कारण! या फिर यह मेरे पूर्वजों की धरती है, शायद इस कारण ऐसा हुआ हो! मुझे लगा जैसे मैं आज के मथुरा में न होकर पुरातन मथुरा में हूँ! विस्मृत सा, कुछ दिग्भ्रमित हुआ कब मथुरा के जन्मभूमि काम्प्लेक्स के इंटरनेशनल इन् में पहुँच गया, पता ही नहीं चला।

जब कृष्ण जन्मभूमि के इंटरनेशनल में कमरे के लिए पूछा, तो केयर टेकर ने प्रश्नों की झड़ी-सी लगा दी। क्यों आये? क्या मकसद है आने का? कहाँ से आये हैं? कहाँ जाना है? वगैरह... वगैरह। पुलिस की सुरक्षा भी काफी थी। ये सब क्यों पूछा जा रहा है, मुझे बाद में पता चल गया। कृष्ण जन्मभूमि का विवाद चल रहा था उस समय। एक धर्मं के राजा ने जन्म भूमि के अन्दर घुस कर अपने धर्मं का इबादतगाह बनाया था। दूसरे धर्म के लोग उसे तोडना चाहते। इस कारण उस क्षेत्र में काफी तनाव था। पुलिस की घेराबंदी भी इसी कारण था।

कैसी विडम्बना है! जिस कृष्ण ने अन्धविश्वास तथा डर पर आधारित धर्म को अस्वीकार कर उसे कर्म आधारित धर्म बनाया। उसे ब्रहम से जोड़ कर सबसे स्नेह और श्रधा भाव रखने का आह्वान किया। नर-नारी को नारायण मान कर इंद्र जैसे वैदिक देवी-देवताओं की पूजा बंद कराई। कालिया नाग को मार कर सांप, भूत-प्रेत की पूजा-अर्चना बंद की। उसी कृष्ण की जन्म स्थली पर धर्म के वीभत्स रूप का तांडव हो रहा था!

मुझे कुछ अजीब-सा लगा। न जाने सभी नदियों में कितने पानी बह गए होंगे। आज के आधुनिक युग ने धर्म को न केवल डर और स्वर्ग-नरक के प्रलोभन पर आधारित कर दिया है, बल्कि मानव जीवन की हरेक विधा को इन नकारात्मक मापदंडों पर प्रतिष्ठित कर दिया है। चिक्त्सिक मौत के खौफ पर अपने उल्लू सीधा कर रहा! तो कानून व्यवस्था जेल और फांसी और उसके डर पर आधारित है! वकील साहब जेल के डर से मुवक्किलों की जेब खाली करते है। तो उधर, सौन्दर्य प्रसाधन व्यवसाय आसन्न तथा अवश्यमभावी देहांत पर फल-फूल रहा है! बीमा और फिटनेस उद्दयोग इस तय देहांत को खूब भूना रहा है!


मथुरा के आस-पास घूमते हुए ऐसा लगा! जैसे मैं पहले भी आ चूका हूँ! जबकि पहली बार ही आना हुआ था। वही डेजा वू जो किशोरावस्था में राजगीर में हुआ था। यहाँ तो ऐसा लगता हुआ जैसे इस धरती से जन्म-जन्म का रिश्ता हो! भला क्यों न हो, हमारे पूर्वजों की भूमि जो ठहरी! ये अलग बात है कि हमारा समाज इस बात पर अक्सर खिल्ली उडाता है। हमारे पूर्वज को तो भगवान बना दिया और हमे छोटी-पिछड़ी जात! मेरा मन थोडा ख़राब-सा होने लगा।

पर इस सामजिक-राजनैतिक दाव-पेंच के बारे में अधिक सोचना नहीं चाहता। मैं तो किसी और ही दुनिया में था। खाना खा कर बेड पर गया। पर नींद का कही नमो-निशान नही। सामने की खिड़की से जन्म भूमि और उससे जुड़ा राजमहल दीखता हुआ। नींद से थकी हुई आँखें वही कही अटक गयी-सी लगी। एक बार जो अटकी तो अटकी ही रही। पूरी रात।

इस जागी रात में अतीत, वर्तमान और भविष्य गडमड हो गए से लगे। उनके अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह-सा लगता हुआ सा। पहली बार मुझे थोडा-थोडा अहसास होता हुआ कि हम केवल शारीर ही नहीं हैं! और कुछ भी हैं! एक चेतना जो शारीर से परे और उसके बावजूद है!

सोने की कोशिश में लगी, जागी-जागी वह रात। क़यामत की रात से किसी मामले में कम नहीं लगती हुई। फिर पता चलता हुआ... इस शारीर के अलावे भी कुछ है और उस कुछ की तलाश शुरू हो गयी। और अभी तक जारी है! उस रात की सुबह आज तक नहीं हो पाई है! वह रात न जाने कितने प्रश्नों को अपने नीम अंधरे में छुपाये हुए सुबह के इंतजार में है अभी तक!

वो रात! रात नहीं थी जो दिन के बाद आती है! और सुबह होने के पहले तक रहती है। वह तो घटनाओ, दुर्घटनाओ, हादसों, आक्रमण और प्रति-आक्रमण। प्रताड़ना और छल। प्रतिशोध, भीतरघात, धोखेबाजी, एवम एक सभ्यता की पतन की रात हो जैसे! जो उस अंधेरे में मथुरा के जन्म भूमि पर आ उतरी थी और अभी तक जारी है।

सुबह की प्रतीक्षा मे! ऐसी सुबह जब सब कुछ साफ हो जाएगा। सारे धुंध छट जाएँगे। नीम अंधेरे, वह इतिहास और समाज से छिपाए गए सच और सच्चाई की कब्र पर फलता फूलता वह झूठ, आडंबर और पाखंड का कारोबार! क्या इस रात की सुबह होगी? सुबह के इन्तजार में न जाने कितनी सदियाँ बीत गई लगती। पर ये रात न बीती।

यह प्रश्न उस रात ही उठा था और अभी तक प्रश्न ही बना हुआ है। ऐसा प्रश्न जिसका उत्तर खोजने लगे तो प्रश्नों की झड़ी ही लग जाती है! मुझे क्या पता कि मथुरा की वह रात मील का पत्थर बन जाएगी। ऐसा मील का पत्थर जो एक अंतहीन यात्रा का इशारा करता हुआ।

अनंत-सा लगता सफ़र! शून्य से शुरू हो कर शून्य में ही विलीन होता हुआ। शायद ऐसी यात्रा की जो पहले तो अव्यक्त रहती है और अंत में भी अव्यक्त हो जाती है! केवल बीच में व्यक्त रहती है। उस अव्यक्त को व्यक्त कर फिर अव्यक्त हो जाने के लिए! बिलकुल इस जीवन की तरह। पहले अव्यक्त रहता है और फिर व्यक्त होता है। अंत में फिर अव्यक्त!

जीवन का वास्तविक स्वरुप ऐसा ही है! यह बात अभी भी पूरी तरह समझ में नहीं आ पायी है! इसे समझना और वास्तविकता के धरातल पर उताराना कोई आसान काम नहीं लगता। कहना आसान है, पर इसे समझाना उतना ही दुरूह जिंतना की विरोधाभासों, उतार-चड़ाव, उठा-पटक एवम द्वैत से भरा हमारा ये जीवन!

इस बात को समझते-समझते दस पंद्रह साल बीत गए और इन सालों के दिन-घंटे ऐसे बीते जैसे प्रेमी के इन्तजार में प्रेमिका। एक-एक पल एक साल जैसे। पर मेरी स्थिति बड़ी ही विचित्र होती! एक ऐसा प्रेमी जिसे न तो प्रेमिका का पता और न ही इस बात का कब मिलन होगा? होगा भी या नहीं!

इसके पहले मेरा मन अँधेरे में तीर मारता हुआ सा। देश, समाज और अपने जीवन की दिशा-दशा के बारे में। कुछ भी समझ में नहीं आ पा रहा था। पर मेरे लिए ये सब समझना जरुरी बनता जा रहा था। इससे जीवन या यूँ कहें पूरे अस्तित्व का ही सबाल उठ खड़ा हुआ लगता। ऐसा कुछ हो गया-सा लगता कि ये सबाल और उनका जवाब पाना जैसे जिंदगी का मकसद बन गया हो! जिन्दा होने का जैसे आधार बन गया हो!

उस पर बचपन से किसी भी चीज़ के तह में जाना। जो अब आदत-सी बन गई है। ये ऐसा क्यों है? वह वैसा क्यों नहीं है? फिर देश के अपेक्षकृत पिछड़े एवम हिंसक क्षेत्र में बीता बचपन और किशोरावस्था! मन मस्तिष्क पर गहरा छाप छोड़ रखा था। वहाँ के विरोधाभास, गरीबी, पिछड़ापन, मार-धाड़, सामंती मानसिकता का कब विरोधी बन गया, पता ही नहीं चला। दिन-रात यही सोचता रहता। ऐसा क्यों है? तो वह वैसा क्यों नहीं है?

उधर कुछ करने की चाह पता नहीं कब से बाहर आने को बेचैन हुए जाती। पर मालूम न होता कि ये कुछ क्या है? मुझे उस समय नहीं पता! पर इतना तो जान गया था कि कुछ तो है जो गड़बड़ है! जब छोटा था और बच्चे आपस में बात करते होते कि क्या करना है या क्या बनना है, तो मैं मुसीबत में फँस जाता। एक तरह से। क्योंकि मैं न तो पैसे कमाना चाहता और न शोहरत ही। न इंजिनियर बनना चाहता, न डॉक्टर, न आईएस, न आईपीएस। मैं चाहता होता परिवर्तन लाना देश और समाज में। इस पर बच्चे मजाक उड़ाते, खूब हँसते। अकसर ऐसा होता और मुझे ख़राब भी लगता।

उधर अपने देश, समाज और लोगों की दशा-दिशा के बारे में कुछ करने की चाहत बढ़ते ही जाती। शायद यही कारण उच्चतर शिक्षा की ओर ले गया। और जे एन यू में पढ़ने के लिए दिल्ली आ गया। हालाकि घरवाले चाहते कि मैं सिविल सर्विस की तैयारी करूँ। पर मैं इस नौकरशाही का कभी भी हिस्सा नहीं होना चाहता। जो कदाचार, अनाचार, लूट, शोषण और सामंती मूल्यों पर आधारित है! ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन को बरक़रार रखने के लिए बनाई गयी इंडियन नौकरशाही! जिसे स्वंतंत्रत भारत के कर्णधार नेताओं ने ज्यों को त्यों भारतियों पर थोप दिया! स्वन्त्रत भारत के लोगों पर शासन करने के लिए!

ऐसी नौकरशाही का कम-कम से मैं तो हिस्सा नहीं होना चाहता। सब में क्रेज था इसका। पर मैं नहीं चाहता। पर क्या चाहने से कभी कुछ हुआ है? जो अब होगा या तब होता! न चाहते हुए भी, निजी क्षेत्र की अपमानजनक स्थिति व् परिस्थितियों से गुजरता हुआ। जगह-जगह धक्के खा कर, 10 साल में 12 नौकरियों का रिकॉर्ड बनाता हुआ: आखिर सरकारी नौकरी की शरणगाह में मजबूरन आना ही पड़ गया।

इतने उठ-पटक तथा भागम-भाग के बाद, एक नतीजे पर पहुँचा। निजी क्षेत्र की नौकरिओं में मालिक शोषण करता है कर्मचारियो का। तो सरकारी क्षेत्र में कर्मचारी ऐसा करते लगते हैं! नव-मार्क्सवादियो और मार्क्सवादियो को शायद इस पर एक नयी थीसिस विकसित करनी चाहिए! ताकि एंटी-थीसिस और सिंथेसिस के माध्यम से कुछ ऐसी व्यवस्था हो कि शोषण लाभ में परवर्तित हो जाए! शोषितों के लिए। और शोषकों के लिए भी—दोनों पक्षों के लिए।

वैसे भी शोषक और शोषित! शोषण के एक ही राह के रहगुज़र से लगते है। इस राह में एक बिंदु है जहाँ दोनों मिलते से होते है-जिजीविषा की। पर उनका मिलन अनभिज्ञ होता है एक दुसरे से। क्योंकि एक सुरक्षा से उपजी असुरक्षा की रक्षा में जीता है, तो दूसरा असुरक्षा एवम अनिश्चितत्ता की मजबूरन रक्षा में जीता है! और पल-पल कुर्बान होता हुआ होने पर। इस होने में उलझी और इसमे रिसती जिंदगी। एक दिन सुरक्षा और असुरक्षा से परे जाते हुए। अज्ञात और अव्यक्त की असीम गहराई में फिर से विलीन होने, असीम से एकाकार होने! या फिर से व्यक्त हो जाने के लिए।

वैसे देखें तो कोई भेद नहीं है! अलगाव नहीं लगता! अलग-अलग और विलग से दिखते हुए भी ये दृश्य और परिदृश्य! चेतना के प्रक्षेपण मात्र ही तो लगते होते हैं। स्व और अहंकार के मोहजाल के कारण ये हमेशा ही विभ्रम में डाल देते हैं!

वैसे भी सब कुछ उस चेतना का ही विवर्त-सा ही लगता है! जो सबमे साक्षी रूप व्याप्त हैं। सब एक है—कम से कम इस जिजीविषा के स्तर पर! इस एक से निकले अनेक भी उसी एका का ही प्रतिफलन से लगते हैं! फिर शोषण-शोषित द्वय क्यों? क्या शोषित ही शोषक नहीं बन जाता जैसे निजी क्षेत्र से सरकारी में जा कर मेरे जैसे लोगों का होता!

फिर जो एक बिंदु पर शोषक है वही दूसरे काल और परिस्थिति में शोषित बन जाता-सा दीखता! फिर शोषण भी सापेक्ष-सा लगता हुआ, जबकि कहते हैं कि ब्रह्म का कोई विकल्प नहीं होता!


जे एन यू में एडमिशन होना! सपनो का सच हो जाने के सामान ही था! कम से कम मेरे लिए। कई जागती रातों और बेचैन दिनों का सपना—दिल्ली का जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय! जो जे एन यू के नाम से जाना जाता है। ऐसा सपना जो सच में बदल गया हो। सबसे अहम् बात कि मेरे सारे प्रश्नों, देश-समाज की दशा और दिशा सम्बन्धी सारे सबलों का जवाब यहाँ मिलने वाला था। कम से कम मुझे ऐसा लगता। उन दिनो।

और इन सबालों का जवाब मिलना कब मेरे जीवन का मकसद और आधार बन गया, पता ही नहीं चला।

शायद इसी कारण जब जे एन यू में एडमिशन मिला, तो बहुत ख़ुशी हुई। मुझे लगा जैसे अपने सपने, अपने प्रश्नो के उत्तर के करीब हूँ। पर वहाँ दाखिला मिलते ही मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट की गिरफ्त में आ गया। उनका नेटवर्क काफी मजबूत हुआ करता था जे एन यू में। वे प्रवेश के पहले या प्रवेश के समय ही नए लड़के-लड़कियों अपने प्रभाव में ले कर कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य बना देते। उनके पास ऐसे-ऐसे कई बड़े हथकंडे थे। उनमे से एक हथकंडे का मैं भी शिकार बन गया।

बहरहाल मार्क्सवाद से मुझमे थोड़ी आशा की किरण तो नज़र आई। एक झलक-सी मिली। एक नए आशयाँ और सपनो का अगाज-सा हुआ लगा। हमे लगने लगा जैसे बस अब क्रांति आनेवाली ही है! एक नयी प्रेरणा मिली! एक नयी ऊर्जा, शक्ति मिली जीने के लिए।

वह भी क्या दिन होते! क्रांति की बाते करते-करते दिन बीतते और राते उसी के सपने में। फिर वह चमकीले दिन और सपनीली राते जो आती हुई क्रांति के आहटो से प्रकशित होती। सेमिनार, जुलुस, चर्चा, परिचर्चाओं एवम स्टडी सर्किल के दायरे में दिन बीतते। और राते कैंडल लाइट जुलुस एवम गढ़े हुए सपनो को जीने में गुजर जाती!

पर जैसे-जैसे अध्यन, परिचर्चा, चर्चा और विश्लेषण की गति तेज होने लगी, वैसे सच के नस्तर फिर से चुभने लगे। झीनी आशा की भीनी-सी चादर तार-तार होती हुई। धीरे-धीरे मोह भंग की पाश में बंधता पूरा अस्तित्व। सच और ज्ञान के अग्नि की तपिश में मार्क्सवाद और विशेष कर भारतीय मार्क्सवाद की खोखली और एकांगी पह्लू सामने आने लगे।

रही सही कसर पूरी की चीन के तियनामन स्क्वायर की नृशंस घटना। प्रजातांत्रिक मूल्यों के लिए शांतिपूर्वक प्रदर्शन कर रहे चीनी छात्रों को टैंक से रौंद डाला गया था। पर चीन और उसके अंध भक्त भारतीय मार्क्सवादीयों ने इसे क्रांति के नए आयाम का आगाज़ माना और सेमिनारों, चर्चाओं और जुलूसों से जश्न मनाने लगे।

वैसे भी कुछ अजीब-सा लगता है! मन को विश्वास नहीं होता कि इन्सान के जीवन का एक पहलू सब कुछ निर्धारित कर सकता है। एक आर्थिक पहलू या पदार्थ से दुनिया चलती है! उसके ढंग और शैली तय होती? इतिहास उस एक-आर्थिक-से निकलता है? संस्कृति उसकी धरोहर है! सभ्यता उसकी दासी है? वगैरह, वगैरह।

पदार्थ ही चेतन को जन्म देता है! जैसे हल-बैल और मशीनीकृत खेती अविकसित और विकसित जीवन को! पदार्थ अपनी पदार्थाता पदार्थ से ही प्राप्त करता है? अगर ऐसा है तो पदार्थ को कभी ख़त्म नहीं होना चाहिए था। उसका उर्जा में बदलना भी नहीं होना चाहिए था। क्योंकि वह अध्यास और अधिष्ठान भी खुद है चेतना की तरह। आत्मा की तरह, अगर मानते हो तो। नहीं तो ज्ञान की तरह, अगर आत्मा को न भी मानते हो तो!

पदार्थ या अर्थ या आर्थिक पहलू की अहमियत को इंकार नहीं किया जा सकता। पर इस पर सब कुछ आधारित करना, इसको ही इतिहास और संस्कृति का जनक मानना कुछ उचित नहीं लगता। उस पर मार्क्सवाद का कर्म और कर्मफल या कार्य और कारण की गति को उलट देना! कर्म या कार्य फल या कारण को (क्रांति-वर्ग विहीन समाज) को पहले ही हुआ मान कर कार्य को शुरू करना। इसका नतीजा या दुशपरिणाम पूरी दुनिया के सामने है। कर्मन की न्यारी गति को उलटी करने का दुष्चक्र अभी भी जारी हुआ-सा लागत। कुछ जगहों पर!

इसके परिणाम स्वरुप, अगर नहीं कहा जा सकता, तो इस बात को नकारा भी नहीं जा सकता: कट्टरता, विभन्न धर्मों की धर्मान्धता तथा उनसे उपजे आतंकवाद कही न कही इनसे जुड़े जरुर हैं। क्या स्वर्ग, जन्नत और किंगडम ऑफ गॉड जैसा ही मरुभूमि की मरीचिका की तरह नहीं लगता है वर्ग-विहीन कम्यूनिस्ट समाज? हजारों साल से कोशिशे चल रही उस मरीचिका को पाने के। पता नहीं कितनी लड़ाइयाँ हुईं! कितने धर्म-युद्ध हुए, कितने क्रूसेड हुए, नर-संहार, अत्याचार हुए। पर वह नहीं मिला। न मिलना था और न ही मिलेगा। क्योंकि जो मिला हुआ है, वह फिर कैसे मिल सकता है!

पर ये सब मुझे पता नहीं था, उस समय। केवल आलोचना, आलोचको की विवेचना तथा स्टडी सर्किल के रटे-रटाये चंद जुमलों से अधिक नहीं आता। वैसे आलोचना पढ़ा तो खूब, पर पल्ले कुछ खास नहीं लगा। उस समय इतना ही समझ में आया लगता: जिसकी तलाश है, जिस प्रश्न का उत्तर पाने में लगा हूँ, वह यहाँ नहीं मिलेगा। वह कारण जो हमारे देश, समाज और दुनिया की इस दशा के लिए जिम्मेवार हैं, वह दृष्टिकोण यहाँ नहीं मिल पाएगा। पर सचमुच उस समय मुझे यह समझ में नहीं आ पाता कि अर्थ या आर्थिक स्थितियाँ कैसे इतिहास से लेकर जीवन और संसार की दशा और दिशा तय कर सकती हैं! क्योंकि उस समय शायद यह मालूम न था: ये समझ में आनेवाली बात भी नहीं है!

उन्हीं दिनों के किसी रात में एक सपना देखा। थोडा हिंसक सा, पर कई अहम् सबालों के जवाब की कुंजी छिपाए हुए भी। सपना एक युद्ध-स्थल के परिदृश्य से शुरु होता है। लड़ाई किस लिए हो रही है! शायद किसी अस्पष्ट से बड़े मकसद के लिए। समय, देश और काल का भी पता नहीं—अनंत-सा दीखता हुआ। समुद्र-सा उमड़ता हुआ सैनिक दल।

संभावी युद्ध के दो पक्षों में एक का सेनापति तो मैं हूँ! और दूसरी सेना है बहुत विशाल—अनंत तक फैली हुई। लड़ाई किस लिए हो रही कुछ स्पष्ट नहीं है! पर कोई बहुत बड़ा मुद्दा लगता है। पूरी मानवता की अस्मिता का प्रश्न-सा लगता हुआ! मेरे हाथ में तलवार है जो उस गुजरे जमाने की ओर इशारा करता हुआ जब तलवार से लड़ाई लड़ी जाती थी।

सपने में तेजी से आगे बढ़ता हुआ। सारी बाधाओं एवम दुश्मनों के जाल को काटते हुए। अभिमंयु चक्रव्यूह-सा लगता हुआ! एक दो ...तीन ...चार... सात।। न जाने कितने और सुरक्षा घेरा बना रखा होता मानवता के दुश्मनों ने! सबको भेदता हुआ, निरस्त करता हुआ। व्यूह पर व्यूह तोड़ता हुआ और अंत में उनके सूत्रधार तथा सारी समस्याओं के मूल जड़ तक पहुँचता हुआ। फिर एक झन्नाता हुआ-सा सन्नाटा और विस्मय भरा धक्का...दुःख भी, गुस्सा भी! क्योंकि वह मेरा भाई ही था!

नींद खुलनी ही थी। सो खुली और एक समस्या-हमारी बहन-की शादी-का तुरंत जवाब मिल गया-सा लगा। बड़े भाई बहन की शादी नहीं होने दे रहे होते। जहाँ शादी तय होती, वहाँ से टूट जाती। भाई साहब के कारण। क्योंकि वे अपनी बहन की शादी अपने साले राम से कराना चाहते होते! ताकि वे बहन की शादी के लिए रखे गए रकम, जो काफी थी, डकार सके। उस रात जब इस सपने के बाद नींद खुली तो समझ में आ गया कि वह ही हैं, जो ऐसा कर रहे है।

और दूसरा, जो पहले से ज्यादा अहमियत रखता होता: देश समाज और दुनिया की इस स्थिति के जिम्मेवार अपने ही हैं, अपने ही लोग हैं! एक नयी दृष्टि मिलती हुई-सी लगी और मैं जुट गया अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर खोजने मे। पर इसके साथ एक शून्य-सी स्थिति भी आ उतरी थी जीवन में। एक ऐसा शून्य जो कोई अंक खोज रहा होता। सार्थकता लिए। जीवन में जो शून्यता आ उतरी उसको निरस्त करने के लिए यह जरूरी बनाता जाता लगा।

पर कभी-कभी ऐसा लगता जैसे मैं ऐसा क्यों कर रहा हूँ? किसी चीज में अगर अर्थ या मतलब खोजेंगे तो क्या वह मिल पाएगा? जीवन तथा इसके सारे आयाम अपने आप में सार्थक ही तो लगते है। वे ही अपनी अर्थवत्ता को छुपाये हुए है! अगर अर्थ या मतलब में अर्थ या मतलब खोजा जायेगा, तो क्या वह मिल पायेगा? जो खुद ही अपना अर्थ हो या मतलब हो, तो क्या उसमे कोई मतलब मिल पायेगा?

पर युवा मन को कहाँ ये प्रौढ़ बाते भाती! सब कुछ अटपटा-सा लगता हुआ। पर सपने में एक झलक-सी मिलती लगी। एक कुंजी छिपी हुई-सी मिलती नज़र आई सारे अनुत्तरित प्रश्नो की। भले ही वह अन्ध्रेरे में तीर चलने के बराबर लगती होती। पर एक सूत्र-सा मिल गया हुआ लगा। देश-समाज और अपने परिवार की समस्याओं के सन्दर्भ में और में लग गया इस सूत्र के अगले-पिछले सिरों को मिलाने में।


अजीब-सी सुबह। सुबह वैसी लगती हुई जैसे रात हो! उदास मन की स्याही सुन्दर और निम् उजाले को निगल-सी गयी लगती। विक्षिप्त मन की परवाज से पूरी सृष्टि प्रभावित-सी लगती हुई। क्यों न हो हम सब उसी एक के हिस्से है!

अंदर बाहर एक ही। अंदर का अँधेरा उजाले की खोज में और बदता जाता। बाहर तक फैला पड़ा हुआ-सा लगता। जो और कुछ नहीं उजाले की तलाश-सी लगती हुई। अंधेरे को भगाने की जरूरत तो नहीं। वह है ही नहीं। वह तो बस प्रकाश का अभाव है!

पर मार्क्सवाद और आदर्शवाद से हताश। किसी ऐसे दृष्टिकोण, केंद्रीय बिन्दु की तलाश में जहाँ से चीजों को उनके सही परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता हो। बिना किसी पूर्व्राग्रह के, किसी मशीनी व सैद्धांतिक आग्रह के। शायद कुछ ऐसे ही किसी परिप्रक्ष्य की तलाश में।

पर कहीं ऐसा कुछ नहीं मिल पाता हुआ। जिससे जमाने के गम से आक्रांत मन को निजात तो नहीं, पर कुछ सहारा ही मिल जाता! सब जगह वही खोखली बाते। वही जुमलेबाजी! वही अंधी भक्ति की तरह संकीर्ण, ठहरा हुआ, अपने ही दृष्टिकोण से बंधा आदर्शवाद और अन्य वाद।

उस दिन न तो क्लास करने में मन लगता, न पुस्तकालय में ही। लेक्चर सुनते वक़्त ऐसा लगता होता जैसे कहीं दूर से कोई आवाज आ रही हो! कुछ भी समझ में नहीं आता हुआ। सब कुछ बेमानी-सा लगता हुआ।

वो मटमैली सुबह! धूल-धूसरित अंधेर-सी लगती दुपहरी! पर आंखो में कीरकिरी बन कर चुभती हुई। क्लास, लाइब्रेरी, छात्रों के अड्डेकहीं भी मन नहीं लग पाता होता। उड़ा उड़ा-सा रहता। कैंपस में रहना मुश्किल-सा लगता हुआ।

बस, निकल पड़ा कैंपस के बाहर। पता नहीं, कहाँ-कहाँ भटकते रहा! इसी बेखुदी की आवारगी में अपने आप को कनाट प्लेस के जनपथ पर पाता हुआ। वहाँ लोगों की भीड़ दिखती हुई। भीड़ का हिस्सा बनता हुआ। हरे कृष्णा सोसाइटी के देशी-विदेशी भक्त बेखुदी और बेसुधी में मग्न हो कर नाच रहे होते! बस योंही नाचने के लिए।

पर ऐसा लगता हुआ जैसे पूरी सृष्टि, पूरा जीवन उनके साथ आनंद में मग्न हो! या आनंद स्वरुप जीवन अपने पूरेपन में उनपर उतर आया हुआ-सा लगता। क्या यही जीवन तो नहीं! बिना खोजे और मांगे आनंद की बारिश होती हुई और उस आनंद की बारिश में हम सब दर्शक गण भी सरोबर हो उठे से लगते हुए।

हम उस बेवजह और अनायास आनंद की बारिश में डूबे हुए। उनमे से एक कृष्ण की गीता हाथो में रख ता हुआ। मानो वह भी इसका हिस्सा हो! कहने को तो किताब बेच रहे होते वो। पर ऐसा लगता हुआ जैसे आनंद बाँट रहे हों! और अपनी बेमानी-सी हो चली जिंदगी के लिए कोई मतलब मिल गया-सा लगता हुआ।

कृष्ण और गीता! और हरे कृष्णा सोसाइटी के बेसुध से मग्न हुए नाचते देशी-विदेशी! एकाकार से लगते हुए सबों से। जैसे जीवन के आनंदस्वरूप प्रकृति की एक झलक मिलती हुई। क्या ये सब जुड़े हुए नहीं हैं उससे, जो सबका जोड़ है! मैं शायद इससे विमुख हूँ। शायद इसी कारण ऐसा अहसास होता आया है। पर ऐसा क्यों हैं? जिस आनंद की बर्रिश में वह डूबे थे, वह सबके लिए है! पर मैं क्यों इससे मरहूम हूँ? शायद अज्ञानता या बेफिजूल के ज्ञान के कारण!

जो भी हो! बस मैं जुट गया गीता पढने में। पर वहाँ कुछ भी हाथ नहीं लगा! यानी कुछ भी समझ में नहीं आया! कहाँ से आता? ज्ञान, दर्शन और विज्ञान यानी कि विशिष्ट ज्ञान के किताब को जब धार्मिक बना दिया गया हो, तो कैसे समझ में आता? फिर दुबारा उस किताब को नहीं पढ़ पाया। बहुत दिनों तक। फिर बाद में एक समय ऐसा आया कि गीता प्रतिदिन पढ़ने लगा और पढ़ कर ही पता चला, कैसे एक विशिष्ट ज्ञान के किताब को धार्मिक बना दिया गया। हालाकि ये काफी बाद की बात है।

वैसे भी बचपन से ही लाल कपड़े में लिपटे तथा मंदिर या पूजा स्थल पर भगवान की तरह प्रतिस्थापित गीता, महाभारत, रामायण के प्रति एक अजीब-सी कुतूहल भरा जिज्ञासा रही है। इसे पढ़ने या देखने की। पर हरेक कोशिश नाकाम साबित होती! इतनी शर्ते होती-पहले नहाओ, शुद्ध हो जाओ, कपड़े बदलो, भगवान का नाम लो, फिर पढ़ो या देखो।

खैर ये सब अतीत है। पर जब भी हमारे अतीत या विरासत की बात होती है, सभ्यता और संस्कृति की बात होती, ऐसा लगता कि बहुत कुछ छिपाया जा रहा हो! जैसे हमारा इतिहास, हमारी संस्कृति, हमारी सभ्यता, धरोहर एक हिमखंड की तरह है जिसका अधिकांश हिस्सा छिपा हुआ है! या छिपा कर रखा ज्ञ है! जो दिख रहा है या दिखया जा रहा है वह बस केवल आवरण-सा लगता हुआ। वह भी एक फरेब-सा ही लगता हुआ! सच को झूठ साबित करने का तथा झूठ को सच!

मैट्रिक के बाद जब इतिहास को विषय के रूप में पढ्ने को सोचा, तो इसका आध्यन करने लगा। विशेष कर भारतीय इतिहास का। तब भी कुछ ऐसा ही लगा था। पूरा भारतीय इतिहास पढ़ गया। पर कही भी भारतीयता नजर नहीं आयी और विश्व इतिहास में तो कारत के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत को किसी और के खाते में डाल दिया गया-सा लगता! ये कैसा इतिहास है? क्या ये इतिहास है या किसी सामाजिक-राजनैतिक विडम्बना का विवरण?

शायद इसी कारण मैंने इतिहास को एक विषय के रूप में नहीं पढ़ पाया। इसे छोड़ दिया। पर क्या इतिहास को छोड़ा जा सकता है? अगर छोड़े भी तो क्या वह हमे छोड़ देगा! हमारा वर्तमान जब अतीत का प्रतिफलन है, तो इतिहास से कैसे बच सकते हैं? हमारा आज भी उसी कल का हिस्सा है जो था। वह अभी है। 'था' ही 'है' बनता और 'होगा' को तो हमेशा होना ही रहना होता है। आज जो है वह क्या कल के परिणाम स्वरूप नहीं है?

बहरहाल, जे एन यू से निकलते ही नौकरी मिल गई। एक शोध पदाधिकारी की। जबकि मैं पीएचडी नहीं कर पाया था, क्योंकि अंतिम समय में मेरे शोध का विषय बदल दिया गया। ताकि मैं शोध पत्र समय पर नहीं जमा कर पाऊँ। इसका बस एक ही मकसद था: पीएचडी न कर पाऊँ उस विषय पर—इस्राइल, जिस पर वे नहीं चाहते थे।

इसका तान बाना तो तभी से शुरू हुआ जब जे एन यू की अखिल भारतीय परीक्षा में सर्व प्रथम आया। टापर होने के कारण सभी गाइड चाहते कि मैं पी एच डी उनके साथ करूँ। स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीस के वेस्ट एशिया का टापर था। इस लिए हर कोई चाहता उनके आध्यान क्षेत्र के विषय पर शोध करूँ। ईरान पर शोध करो, तो कोई कहता इराक पर करो। दूसरे गाइड चाहते के मैं ईरान-इराक पर काम करूँ, तो विभागादक्ष्य चाहते कि टर्की पर।

वहीं एक महिला प्रोफेसर चाह रही होती कि सऊदी अरब पर काम करूँ। वह बहुत दवाब डालने लगी। एक दिन मैंने उन्हें बता ही दिया साफ शब्दों मे: 'मदाम सऊदी अरब पर शोध करने की बात तो बहुत मुश्किल है, वहाँ जाना तक पसंद नहीं करूंगा। अगर कोई करोड़ो भी दे तो भी नहीं। कोई धार्मिक कारण नहीं, ... वहाँ किसी बात या चीज़ की आज़ादी ही नहीं लगती!'

मैं इस्राइल पर शोध करना चाहता। वही एक देश है इस क्षेत्र में टर्की के अलावा, जहाँ प्रजातन्त्र है। शेष सारे देश तो सामंतवादी राजशाही और तानाशाही में आकंठ डूबे हुए होते! पर समस्या कुछ और ही लगती। जवाहर लाल नेहरू विश्वविदायल का पश्चिमी एशिया सेंटर के फ़ैकल्टि मुस्लिम-बहुल था और वे, साधारण मुस्लिम की तरह कट्टर इस्राइल-विरोधी लगते होते! इस बात का पता तब चल जब मैं पीएचडी नहीं कर पाया।

इस्राइल पश्चिमी एशिया का ऐसा देश है जिसकी सबों से अनबन है। अधिकतर मुस्लिम देश इसे दुनिया के नक्शे से मिटाना चाहते। बक़ौल तारीख, पहले मुस्लिम ने इसरालियों को उनके देश से बेदखल किया। बाद में इसरालियों ने उन्हे भागा दिया। अब मुस्लिम चाहते कि संसार के मानचित्र पर इस्राइल नामक कोई देश ही न रहे और इस्राइल चाहता कि कोई फिलस्तीन नाम का।

पर मुझे इससे उतना लेना देना न होता जितना अपने देश और उसके अंतर्राषट्रीय सम्बंध से। अपने देश के हितों के परिप्रेक्ष्य में इस्राइल पर शोध करना चाहता। पर मेरे साथी शोधकर्ता इस बात को मानने को राजी न होते। उनका कहना होता कि फिलिस्तीन पर क्यों नहीं किया शोध? इस्राइल पर क्यों?

मैंने उन्हे समझाने की ना जाने कितनी विफल कोशिशें बात एक ही है: चाहे इस्राइल पर शोध करे या फिलिस्तीन पर, शोध तो दोनों पर होगा।

पर विचारों की कट्टरता, अपनी विचारधारा, अपने अंधविश्वास और अपने दरबे, संकीर्णता एवम अपनी सब्जेक्तिविटी में आकंठ डूबी-सी लगती दुनिया! तभी तो टापर होने बाद भी डॉक्टर बनने का सपना अधूरा रह गया! अपने निहित स्वार्थ और विचारधारा में डूबी फ़ैकल्टि इस तर्क को समझ कर भी नहीं समझ पाती। ऐसा लगता जैसे इस्राइल पर काम कारना वर्जित हो। फिर सहयोगी शोधकर्ता क्या समझ पाते! मुझे पहले से ही अंदेशा हो रखा था: शोध नहीं करने दिया जाएगा। वही हुआ। न मैं पी एच डी कर पाया और नाही डॉक्टर बन पाया।

बक़ौल चाचा गालिब, बड़े बेआबरू हो कर, जे एन यू! तेरे कूचे से निकले! न डिग्री ही मिल पायी न लड़की या जीवन साथी!


कर्मो का फल कहे या संयोग। इसी बीच मेरा चुनाव कारतीय सूचना सेवा में हो गया। जब ये खबर मिली तो मुंबई में था। अगर सच बोलूँ तो दिल्ली से ऊबकर मुंबई रहने गया था। पी एच डी का हाल वैसे ही खराब चल रहा होता। उस पर पत्रकारिता के काम में भी घुटन-सी हो रही होती। ऐसा लगता होता: जैसे किसी निरर्थक काम में लगा हुआ हूँ।

दिल्ली छोड़ दिया और मुंबई आ गया। इस आश में कि शायद कोई अर्थ मिल जाय! निरर्थक-सी हो चली जिंदगी को कोई वजह मिल जाए। जीने की! बेरंग और उबाऊ रूटीन जिंदगी में शायद कोई रंग आ जाए! पर यहाँ भी वैसा ही लगता हुआ जैसा दिल्ली मे।

समस्या स्थान परिवर्तन की नहीं थी। यह बात मेरा मन उस समय नहीं स्वीकार कर पा रहा होता। या पता ही नहीं होता शायद। यह मन का विक्षेप ही लगता जो अपनी कमियों, अपने सपनों को न जीने के कारण आ खड़ा हुआ-सा लगता।

बहरहाल, मैं दिल्ली लौट आया और नई नौकरी का पद ग्रहण कर लिया। पटियाला हाउस में पहली पोस्टिंग हुई। पर मेरी समस्या बनी रही। उधर घर वाले शादी का तगादा करने लगे। इधर मैं शादी नहीं करना चाहता। वे सोचते, शायद मैंने कोई लड़की पसंद कर रखी हो तभी शादी के लिए मना कर रहा थ। पर उन्हे क्या पता मैं शादी ही नहीं करना चाहता। कौन शादी के बंधन में बंधे!

बहुत पहले से ही तय हो रखा था कि शादी नहीं करूंगा। यहाँ तक कि जे एन यू के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीस के एम ए के अंतिम दिनों से पहले से भी! जब अपने बैच के लड़के-लड़कियों के साथ आगामी जीवन के बारे बातें हो रही थी। सभी अपने-अपने सपने, अरमान और आगामी कार्य-कलालपों, भावी योजनाओ के बारे में बातें करते हुए और एक दूसरे से पूछते हुए। अपनी बताते हुए। जब उन्होने मुझसे पूछा तो, कुछ भी नहीं बता पाया।

मेरे बैच की लड़कियाँ विशेष कर शादी के बारे में पूछ रही थी। उनमे से एक ने जब मुझसे पूछा, तो मैंने कहा: शादी? वह तो मैंने सोचा ही नहीं... क्योंकि मुझे करनी ही नहीं... कौन बंधन में बंधे?

'अच्छा! हें! पागल! सारी लड़कियों ने एक साथ कहा। फिर जोड़ा,' पागल! तुमसे शादी भी कौन करेगी? '

'पर जब मैं शादी ही नहीं करना चाहता, तो क्या फर्क पड़ता कोई इस पागल से शादी करे या न करे।' तभी हमारे दूसरी साथी ने शिकायत के लहजे में कहा: 'आजकल के लड़के प्रपोज़ करना भी नहीं जानते'।

मैं समझ गया। उसका इशारा मेरी तरफ ही था शायद। पर मैं बस इतना ही कह पाया: जिसको प्रपोज़ करना होगा वह करेगा ही और जिसको नहीं करना है, वह नहीं करेगा।

मेरे इस उत्तर से लड़कियों के बीच चुप्पी छा गई। एक उदासी भरी। शायद ये हमारा आखिरी जमावड़ा था। जे एन यू की सेंट्रल लाइब्ररी के बाजू वाली चट्टान पर। जहाँ से कैंटीन और उससे लगे अरावली की सुंदर घाटी का मनोरम दृश्य दीखता हुआ। बात वही पर खत्म होती हुई। पर पूरी तरह नहीं। दो-तीन दिनों तक शादी और प्रेम पर वार्तालाप और विचार विमर्श चलते रहे। यारों-दोस्तों के साथ भी और अपने आप से भी। पर अपने आप से कहीं अधिक!

मुझे किससे प्यार है या मेरी गर्लफ्रेंड कौन है? यह मेरे दोस्तों तथा बैचमेट-सीनिरस के लिए उतनी ही पहेली रही है जितनी मेरे लिए। हमारे प्यार की त्रासदी भी कुछ अजीब-सी ही रही है! यह त्रासदी कम, कामेडी की सीमा रेखा पर मंडराती दुखांत नाटक-सी कही अधिक रही है। जब भी प्यार हुआ एक से नहीं, अनेक से हुआ। कम से तीन तो जरूर रही। त्रिमूर्ति की तरह!

या कहे हमारा प्रेम डाइलेक्टिकल (वर्तुलकार) रहा है! हेगेल के डाइलेक्टिक्स की तरह: पहली लड़की थेसीस। दूसरी एंटि-थेसीस बन कर आती। पहली वाली के प्यार पर कुठाराघात करती हुई और तीसरी के आते ही सिन्थिसिस शुरू! यानी तीनों मेरी जिंदगी से चली जाती। किसी चौथी के लिए जगह छोडती हुई। फिर वही सिलसिला।

जब पहलीवाली को पता चलता कि मेरा कहीं और भी टांका भिड़ा है, तो वह चली जाती। यह सुनकर दूसरी वाली भी को भी अक्सर शक हो जाता और संशय जीवन को नष्ट करता है, तो शक प्रेम को। दूसरी का भी मेरे जीवन से असमय जाने का समय आ जाता और वह मुझे प्रेम का जानी दुश्मन समझती हुई चली जाती दूर: मेरी जिंदगी से।

और तीसरी को जब पता चलता कि पहली दो के साथ भी प्रेम का खेल खेला जा चुका है। तो वह भी इसे मेरा खेल समझ कर प्यार के बंधन से आज़ाद हो जाती! और साथ मुझे भी मरहूम कर जाती अपने संभावी प्रेम से। मेरे लिए किसी और का प्यार मिलने की संभावना को दूरगामी और दुर्गम बनाते हुए।

पर प्यार कोई खेल नहीं। यह उनसे ज्यादा मैं महसूस करता होता। जब मैं फिर अकेले का अकेला रह जाता! और यारो-दोस्तो के बीच मेरे लिए नफरत बढ़ती जाती। हुस्न-इश्क के दुश्मन की उपाधि बोनस में मिलती, सो अलग। होता यूं कि एक के प्रेम में पड़ते ही मेरा दम घुटने लगता। क्या यही प्यार है? क्या एक का प्रेम बंधन नहीं है?

ऐसा सुन रखा था कि प्यार आज़ादी देता है, स्वतन्त्रता प्रदान करता है। पर मुझे उस समय पता नहीं कि अहम, अहंकार और पृथकता से मुक्ति देता है ये प्रेम! जीवन के बंधनो से आज़ादी दिलाता है। यह अस्तित्वपरक स्वतन्त्रता होती है! फिर एक से प्रेम तो प्रतिनिधितव करता है सबसे प्यार करने का। एक के माध्यम से हम पूरी सृष्टि से प्यार करने लगते है!

जैसा कि होता है, अनेक से प्यार करने वालों का। वही हुआ। जो सबका होता है: उसका कही ठौर-ठिकाना नहीं होता। उसका कोई नहीं होता। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। पर सबसे प्यार कर के, सबके प्रति प्रेम भावना रख कर मैंने जिंदगी को अच्छे से जिया। खूब मस्ती की। कोई बंधन नहीं। कोई आशा नहीं, कोई अपेक्षा नहीं। जो जब मिला, या नहीं मिला उसी को जिया, ऐश किया; जिंदगी के मजे लिए। शायद इसी कारण फेअरवेल के समय सबों ने—सीनियर, जूनियर तथा बैचमेट ने कहा कि मैंने सबसे ज्यादा मजे किए।

हालाकि कभी-कभी ऐसा लगता: औरों की तरह मेरी भी कोई गर्ल फ्रेंड होती! ऐसा तब होता जब कैम्पस में या गंगा ढ़ाबे पर किसी जोड़े को देखता। या जब कोई ऐसी लड़की दीखती होती जिसे मैंने या उसने गर्लफ्रेंड या बॉयफ्रेंड बनाने का ख्वाब देखा हो कभी। या जब कोई ऐसी लड़की दीख जाती जिसने मुझे बॉयफ्रेंड बनाने का सोचा हो। पर मेरी आवारा जिंदगी या बेपरवाह व्यवहार से तंग आ कर किस और को बॉयफ्रेंड बना लिया हो और उसके साथ दीखने पर मुझे जलाने के जलवे दिखा रही होती, तो ऐसा लगता: काश! मेरी भी कोई गर्ल फ्रेंड होती!

फिर कभी-कभी ऐसा होता कि कुछ दोस्त या जो मुझे किसी कारण पसंद करती हो और वह जब अपने बॉयफ्रेंड के साथ गंगा ढ़ाबा पर बैठी होती या घूमती होती और मुझे हमेशा की तरह अकेला देखती या लड़को के साथ देखती। तो वह उदास हो जाती या उसे मुझ पर दया आती होती कि मेरी कोई गर्लफ्रेंड नहीं है। तब मुझे अहसास होता, वह भी शिद्दत से कि मेरी भी गर्ल फ्रेंड होती!

ऐसा उस सुंदर और बहुत ही क्यूट सीनियर, कजाता के साथ अक्सर होता। वह एक बहुत ही बड़े फिल्म निदेशक की पोती थी। अक्सर वह अपने बॉयफ्रेंड के साथ बैठी होती। कैम्पस में घूमती होती उसके साथ और मुझे हमेशा की तरह अकेला ही देखती। तो उदास हो जाती। या दुखी हुई-सी लगने लगती। तब ऐसा लगता: काश! मेरी भी कोई गर्ल फ्रेंड होती!

पहले तो समझ में नहीं आता कि वह क्यों उदास हो जाती? कहीं प्यार तो नहीं करती! वह मुझे बहुत पसंद करती होती! देखते ही खुश हो जाती। हमेशा ख्याल रखती होती हमारा। पर जब अपने बॉयफ्रेंड के साथ होती, तो देख कर उदास क्यों हो जाती? ये बात मुझे बाद में समझ में आई। जब एक दिन उसने मुझे किसी लड़की के साथ देखा, तो बहुत खुश हुई। पर अगले दिन जब फिर मुझे अकेला पाया, तो उदास हो गई। तब मुझे समझ में आया।

हमारी एक बैचमेट हुआ करती जो हरेक महीने बॉयफ्रेंड बदलती रहती। उसकी सुंदरता और स्मार्टनेस्स थोड़ा हट के थी। अल्ट्रा मॉड-सी पर थोड़ी शर्मीली भी। देश के बड़े पुलिस ऑफिसर की बेटी थी। वह करीब एक सप्ताह तक मेरे हॉस्टल के आगे जासूसी करती रही अपने फ्रेंड और बॉयफ्रेंड के साथ। कभी दिन में तो कभी रात मे। यह पता लगाने के लिए मेरी कोई गर्लफ्रेंड है या नहीं। पर मेरी कोई गर्लफ्रेंड होती तो उसे पता लगता। बाद में हम दोनों में काफी दोस्ती हो गई। पर बात इससे अधिक नहीं बढ़नी थी, सो नहीं बढ़ी।

अक्सर लड़के लड़कियाँ दोनों पूछते होते: कोई गर्लफ्रेंड नहीं है! जब उन्हे सच्चाई बताता, तो शायद ही किसी को विश्वास होता। किसी को क्या मालूम कि सुंदर लड़कियों से इतना अभिभूत हो जाता कि कुछ भी नहीं बोल पाता! कुछ लोग इसे मेरा शर्मिलापन समझते। दूसरी बात यह होती कि मैं उनसे इतना ज्यादा प्रेम करने लगता कि जल्द ही इससे निकलना भी चाहता! भाग जाना चाहता! क्योंकि वह मुझे प्रेम कम बंधन कही अधिक लगता होता!

इश्क कैसे-कैसे मंजर दिखाता है! ये तो आशिक ही जानता है! पर ये कैसा समा होता इश्क़ का: सामने महबूब होता और उससे इतनी ज्यादा मोहब्बत होती कि वह बंधन लगने लगता!

ऐसा ही कुछ कमीला के साथ भी हुआ। वह हमारी सीनियर हुआ करती। हमारा थर्ड सेमेस्टर था और कमीला का लास्ट। हमने उनको फेयरेवेल भी दे दिया था। वह कनाट प्लेस जा रही थी। मैं भी शायद उधर ही जा रहा होता। शायद अमेरिकन सेंटर लाइब्ररी जाने की सोच कर निकला हुंगा। गंगा स्टॉप पर वह बस में चढ़ी और वह मेरे पास वाली सीट पर बैठ गई। मेरा दिल धक-धक करने लगा। हम करीब एक घंटे तक साथ बैठे रहे। पर कुछ भी बात नहीं हो पायी!

अब क्या होती! जब दो साल तक नहीं हो पायी। एक बार, जब हम मनाली से लौट कर आए थे, तो कमीला ने हॉस्टल बुलाया। फोटो देने के बहाने। मैं गया भी था। पर इससे पहले की वह गर्ल्स हॉस्टल के विजिटर्स रूम में आती, मैं जा चुका होता। उससे बिना मिले। इंतजार की घड़ियाँ इतनी भारी हो गयी की महबूबा की गली ही छोड़ आया। हमेशा के लिए!

और फिर कजाता! जे एन यू की सबसे सुन्दर लड़की! उसके साथ पता नहीं कितने मौन प्रेम संवाद हुए। पर उससे कभी एक या दो शब्दों से ज्यादा बात नहीं हो पायी। हाय, हैलो से आगे नहीं बढ़ पायी। जब हम मनाली गए थे यूनिवरसिटि की तरफ से।

तब सोलंग घाटी में वह मेरे साथ दस मिनट तक चलती रही। चारों ओर बर्फ से ढके उच्च हिमालय! और बीच में मनोरम और अवर्णनीय सोलंग घाटी! एक सुंदर लड़की—कजाता के साथ घूमते हुए। फिर भी इतनी-सी ही बात हो पायी: यू आर वेरी फास्ट। उसने एक मनमोहक मुस्कान दी और हम फिर चलने लगे। पर कहीं पहुँच नहीं पाए!

बाद में स्कीइंग करते हुए कजाता के स्नो बूट में बर्फ के फाहे घुस गए। कजाता के पैर सुन्न होने लगे और वह रोने लगी। सभी उसकी मदद करने लगे। उसके बूट निकाले गए। उसके पैरों पर मालिश की गई। पर मैं बुद्धू-सा खड़ा देखता रहा। किंकर्तव्य विमूढ़-सा हुआ! सभी जरूरत से ज्यादा मदद करते होते और मै? कुछ करने की तो दूर, कुछ बोल भी नहीं पाया।

सोलंग घाटी में जाने के पहले, हमलोगों का ग्रुप मनाली के आस पास नेचर वॉक के लिए निकला था। कजाता, कमीला और दूसरे हमसे आगे थे। हिडिंबा देवी के पहले एक खुले जगह पर काफी बर्फ जमी थी। वे बर्फ के गोले बनाकर एक दूसरे पर फेकेने लगे। मैं थोड़ा पीछे रह गया था।

जब पास आया तो कजाता को कमीला और अन्य लड़कियों से स्नो मैन बनाने का प्रस्ताव करते सुना और सबों ने एक साथ इसका स्वागत किया। कजाता ने हम लोगों से कहा: कम ऑन गाईस! ब्रिंग स्नो एंड हेल्प अस। हम सभी स्नौ मैन बनाने में जुट गए।

कजाता तथा कमीला के नेतृत्व में स्नो मैन बनने लगा। वह दृश्य, वह समा आज तक भी न भुला! कैसे भूल पता भला! उस पल हम, लड़कियाँ-लड़कियाँ होती हैं और लड़के तो लड़के, की सीमा से परे एक से हो गए लगते होते! न केवल बर्फ और बर्फ-आदमी बल्कि पूरा समा, सारी कायनात, मानो ब्रह्म हो गए हो! बिना विकल्प के, बिना भेद और भाव के! आनंद की बारिश होती हुई और उसमे सरोबर होतेहम सब!

और फिर जे एन यू के बुद्धिजीवी स्नो मैन बनाते हुए और भी अच्छे लग रहे होते! इसी बीच कुछ वामपंथी इसे बौर्जुयाजी काम की उपाधि देते हुए। कजाता और कमीला ने उन्हे हूटिंग और कैट काल्स से चुप कराती हुई।

और देखते-देखते हंसी खेल में ही स्नो मैन तैयार हो गया। कजाता ने अपना स्कार्फ उसके गले में डाल दिया। कमीला ने सरोज से सिगरेट ले कर स्नौ मैन के होंठों के बीच में दबा दिया। फिर कजाता ने अपने बॉय फ्रेंड का हैट उतारा। स्नौमान के उजले गंजे सिर पर रख दिया। मुझसे मेरा सन ग्लास लिया और उसे पहना दिया। फिर स्नो मैन के साथ फोटो ओप्स शुरू हो गया।

बहुत बाद में टिवीटर पर कजाता को ढूँढ रहा था। और टिवीटर पर उसके नाम के सारे अकौण्ट्स को फॉलो करता जा रहा था! तब वही स्नौ मैन! वही सनग्लास पहने दिखा था! शायद वह कजाता का ही था। इससे पहले कि उससे मैं संपर्क करता। टिवीटर पर उनके जासूस मेरे पीछे लग गए जिनके खिलाफ सोश्ल मीडिया पर मुहिम चलाया हुआ था।

बाद में जब टिवीटर पर गया, तो वह नहीं मिल पायी। मैंने भी ज्यादा कोशिश नहीं की। क्या फायदा? शायद फिर उसके सामने कुछ नहीं बोल पाऊँ! मिल कर भी न मिल पाऊँ!

ऐसा पहली बार नहीं हुआ। एक बार नहीं कई बार हुआ। पर यह उसस पहले की बात है। कजाता ने जे एन यू छोड़ दिया था। पर एक दिन हमारे हॉस्टल आयी थी। वह मुझे दीखी थी और मैंने भी उसे देखा था। वह बहुत अरसे बाद आई थी। मुझे ऐसा क्यों लगा की शायद वह अपनी मम्मी के दोस्त, जो हमारे साथ दिल्ली प्रैस में पार्ट टाइम संपादक का कम कर रही थी, उनसे अपने बारे में मेरे विचार सुन कर आई हो।

उसकी मम्मी की दोस्त दिल्ली प्रैस की वुमनस एरा की संपादक थी और मैं वहीं के अलाइव, इंग्लिश समाचार पत्रिका में बतौर अंशकालिक संपादक का काम कर रहा होता। जब उन्हे किसी से पता चला कि मैं जे एन यू में हूँ, तो उन्होने कजाता के बारे में पूछा: क्या उसे जानता हूँ? जब मैंने कहा कि जानता हूँ, तो उन्होने बताया के वह कजाता की मम्मी की दोस्त हैं। कजाता को बचपन से ही जानती हैं। उनके घर आना जाना लगा रहता।

' तुम भी तो जानते होगे उसे? उन्होने कहा: अगर कुछ मैसेज देना हो तो बताओ? तुमसे बात तो होती होगी?

' नहीं मदाम, जानता तो हूँ। वह हमारी सीनियर है। पर इतनी सुंदर है कि उसके सामने कुछ भी नहीं बोल पाता। "

उसके अगले दिन ही कजाता जे एन यू में दीखी। काफी अर्से बाद आई थी। वह जे एन यू छोड़ चुकी थी। एक दो बार और भी दीखी। शायद इस आश में कि दिल की बात बाहर आ जाए। पर ऐसा हो न सका। फिर कुछ नहीं बोल पाया। एक पल में सब कुछ खत्म और जो कुछ बचा भी तो एक टीस, एक दर्द कि कह नहीं पाया। कुछ भी हो न सका!