कोरोजीवी कविता और प्रेम / गोलेन्द्र पटेल

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मानव स्वभाव से रागी होता है। उसका रागात्मक संबंध ही व्यापक तौर पर प्रेमानुभूति का जनक है। वह जिस देशकाल में जन्म लेता है। उससे उसका रागात्मक संबंध होता है। अतः इस अर्थ में प्रेम सहज, स्वाभाविक एवं सनातन मानव-प्रवृत्ति है। मनुष्य के रागात्मक संबंध की व्यापकता पूरी दुनिया में, सभी दिशाओं में विद्यमान है। इसकी व्यापकता व्यक्ति की रागात्मकता से जुड़ी है। व्यक्ति के रागात्मक संबंध समाज में अनेक रूपों में विद्यमान है। जैसे व्यक्ति और व्यक्ति के बीच को ही लें, तो इसके अनेक रूप सामने आते हैं। पति-पत्नी, माता-पिता, भाई-भाई, बहन-बहन, भाई-बहन, पिता-पुत्र, गुरु-शिष्य व प्रेमी-प्रेमिका के बीच जो रागात्मक संबंध उत्पन्न होता है, उसे प्रेम की संज्ञा दिया जाता है। पेड़, पौधे, पशु, पक्षी, पहाड़, नदी, झील, सागर व प्रकृति से मानव के संबंध में भी प्रेम तत्व है। जब रागात्मक संबंध सामाजिक हो जाता है, तब प्रेम का फलक व्यापक हो जाता है। वह समाज या राष्ट्र प्रेम का रूप ग्रहण कर लेता है। जिसे साहित्य में मातृभूमि प्रेम, देश-प्रेम व देशभक्ति आदि कहा जाता है। काव्य में राग का क्षेत्र प्रिय-प्रिया तक ही सीमित न होकर विस्तृत फलक पर प्रसारित है। यही प्रेम भाषा में अभिव्यक्ति की शक्ति है और इसकी रागात्मकता की सीमा समाज, राष्ट्र, मानवता, प्रकृति, आत्मा एवं काल तक फैली हुई है। आदिछंद के सृजन में करुणामय प्रेम की अहम भूमिका है। आरंभिक काव्य से लेकर अधुनातम काव्य में प्रेमानुभूति एक अविच्छिन्न-धारा के रूप में प्रवाहित हो रही है। संत व सूफी कवियों के यहाँ यह अलौकिक रूप में है, तो रीतिकालीन कवियों के यहाँ दैहिक आकर्षक के रूप में। कुछ एक अपवादों को छोड़कर। आधुनिक काल में स्त्री और पुरुष के सहज आकर्षक से उत्पन्न प्रेम या प्यार की गहन व सूक्ष्म अभिव्यक्ति हमें देखने को मिलती है। संभवतः सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला पहले कवि हैं जिन्होंने अपनी बेटी के सौंदर्य का वर्णन किया है। इस संदर्भ में आप उनकी कविता 'सरोज स्मृति' को देख सकते हैं। इस कविता में पिता और बेटी की प्रेमानुभूति महान रागात्मकता की कसौटी पर वत्सलता है। इसी क्रम में आप बाबा नागार्जुन की कविता 'यह दंतुरित मुस्कान' को भी देखा सकते हैं।आप सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय' से लेकर शमशेर बहादुर सिंह तक की कविताओं में प्रेम के विविध रूप देख सकते हैं। प्रेम में आत्मीयता जरूरी है। मैत्री के रिश्ते में प्रेम का विकास आजकल विचारणीय है क्योंकि यौन-चेतना की तीक्ष्णता का चित्र सामने आते रहते हैं और आधुनिक विपरीत लैंगिक मैत्री-संबंध की मूल आवश्यकता 'सेक्स' के साथ गहरे अर्थों में जुड़ी हुई है। रीतिकालीन कवियों से लेकर आज तक के कवियों की कविताओं में नारी के विषय में यौन-चेतना को अभिव्यक्त किया गया है। कहीं प्रकृति को आलंबन बनाकर भी चित्रण किया गया है, तो कहीं सीधे-सीधे।

प्रेम ही एक ऐसा तत्व है जो सांसारिक दुःख-दर्द से पीड़ित व्यक्ति के लिए शरण-स्थल है। वासना से ऊपर की चीज़ है प्रेमानुभूति। वासना के स्वरूप और प्रेम की शक्ति को कविगण अच्छी तरह से पहचानते हैं। किन्तु याद रहे कि प्रेम का पथ सीधा नहीं होता, वह ब्लेड की धार पर चलने जैसा है। प्रेम और वासना व्यक्ति के साथ अनंतकाल से जुड़े हुए हैं। जिस प्रकार शब्द से उसके अर्थ जुड़े हुए हैं। कविता में प्रेम का दर्शन व्यापक है। प्रेम किया नहीं जाता, वह हो जाता है। महामारी के दौर में प्रेम अपने उदत्ता रूप में हमारे सामने साहित्य और सिनेमा के माध्यम से आया है। बीमारी में प्रेम की जीत को कवियों ने कविता में दर्शाया है। युद्ध की कविता में बुद्ध की अहिंसा के जो रूप सामने आते हैं, उसमें भी प्रेम पूरी प्रासंगिकता के साथ उपस्थित है। बिम्बों में भावों व विचारों को उद्बुद्ध करने की क्षमता परिवेशगत संलग्नता से प्राप्त होती है। चेतना की विभिन्न स्थितियों-परिस्थितियों, काल के विविध रूपों, देश और काल के संश्लेषण के युक्त, अचेतन सत्ता पर चेतना के आरोप से निर्मित अनेक रागात्मक बिम्ब और प्रेम परक प्रतीक कोरोजीवी कविताओं में आए हैं। कोरोजीवी कविता में स्पर्श, रूप, रस, गंध, रंग, राग व रव संबंध के सूत्र में इस कदर गूँथे हुए हैं कि प्रेम के प्रतीक प्रखरता से प्रकाशित होते हुए संबंध-संवेदना को समोज्ज्वलित करते हैं। मनुष्य की ऐन्द्रिय संवेदनाओं में इन तत्वों का विशेष महत्व होता है। इन तत्वों की चेतनोपस्थित से कालातीत क्रियमान हो जाता है। कोरो-क्रियाओं में ऐन्द्रिय-बोध की महत्ता मानवीय स्पर्श की सीमा का अतिक्रमण करता है। कोरोजयी कवियों की कविताओं में प्रेम प्रतीकात्मक ढंग से अपनी पहचान के साथ उपस्थित है। इनमें प्रेम और सौंदर्य की अभिव्यंजना अद्वितीय है। लेकिन कविता में प्रकृति ऊर्जा, उत्साह और जीवनी शक्ति बनकर उभरती है। यह प्रेम परक कविता प्रकृति और सामाजिक दृष्टि से संयुक्त मानवतावाद की व्यापक चेतना से ओतप्रोत है। इसमें जीवन की मानवीय लय है और उदात्त जिजीविषा है।

असल में आज प्रेम पर जितनी तेज़ी से कविताएँ लिखी जा रही हैं। प्रेम मानव जीवन से उतनी ही तेज़ी से गायब हो रहा है। घृणा दिल और दिमाग में स्थायी रूप से घर कर गयी है, बैठ गयी है। गेह से नेह का गायब होना, भाषा से मानवीय भावना का गायब होना है। मानवीय भावना ही मनुष्य को घृणा पर विजय पाने की शक्ति देती है। ऐसे में सोशल मीडिया पर घृणा का प्रचार-प्रसार चिंतनीय विषय है। सच्चा प्रेम समतामूलक समाज की आवश्यकता है। हमें प्रेम के औदात्य को समझना होगा। प्रेम जीवन की सबसे ख़ुबसूरत अनुभूति है। यह परिभाषा से परे है। इसके बिना सृष्टि के सत्य को समझना बहुत कठिन है। यह लोक-जीवन से संचालित प्रकाशपुंज है। इस पर हर काल में बहसें होती रही हैं। सृजनात्मक संसार का यह एक मात्र ऐसा विषय है, जिस पर लगातार चर्चाएँ-परिचर्चाएँ होती रही हैं। इसमें आसक्ति और आकर्षक होने की वजह यह कभी-कभी प्रश्नांकित भी होता है। प्रेम स्वप्न और संघर्ष के बीच पनपता है। इसकी सार्थकता इसकी स्वतंत्रता में है लेकिन इसकी सफलता इसकी सामाजिकता में है। इसीलिए साहित्य में व्यक्तिगत प्रेम सामाजिक हो जाता है। यह मानव जीवन का प्राथमिक बिन्दु है। एक बात और यह है कि काम ही प्रेम बनता है, काम की ऊर्जा ही प्रेम की ऊर्जा में विकसित होती है। इसलिए कोई भी कोरोजयी कवि वासंतिक वासना को नकार नहीं सकता है। भले ही इनका 'प्रेम' वासना नहीं है। प्रेम इनके यहाँ जीवन के जागरण की क्रांति का प्रतीक है। प्रेम के केंद्र में शुरू से ही मनुष्य और ईश्वर रहे हैं। प्रेम एक प्रतीक्षा है। इसकी पवित्रता प्रकाशित प्रज्ञा है। कोरोजीवी कविता में प्रेम परिश्रम के पसीने की पहचान है। यह श्रम के सौंदर्यशास्त्र से प्रदीप्त है। प्रेम में जीवन का दर्द दृश्य बन जाता है। प्रेम जहाँ होता है, वहाँ कुण्ठा के लिए कोई जगह नहीं होता है। कोरोजीवी कविता का प्रेम जीवन के छोटे-छोटे मानवीय दुखों के अन्वेषण से उपजा है। इस प्रेम में जीवन का दर्द संगीत की तरह बजता रहता है। आप इसे पीड़ा के प्रबोधन का प्रगीत कह सकते हैं। इस कोरोजयी प्रेम की एक विशेषता है कि यह मनुष्य को जीवन के संबंधों के प्रति उद्दाम एवं अकुण्ठ बनाता है। प्रेम साहचर्य से नहीं, बल्कि विरह से उपजा है। लेकिन उन्मुक्त प्रेम की जननी आत्मीयता होती है। इसी आत्मीयता की वजह से सूक्ष्म से सूक्ष्म प्रेमानुभूति का सौंदर्य भी नैसर्गिक हो जाता है। कोरोजयी प्रेम में समर्पण व स्वीकृति से अधिक स्वास्थ की सजगता पर जोर है, अर्थात् संबंध की सेहत पर जोर है।

प्रेम की भाषा हृदय की भाषा होते हुए भी मन की मुलायमता से संचालित होती है। अनुभूति की आँच पर प्रेम मन और शरीर दोनों का व्यापार है। प्रेम की पीड़ा मनुष्य की आत्मा को नवीनता की ओर त्वरित गति प्रदान करती है। जो प्रेम सामाजिक सत्य है, वह आत्मपरक अनुभूति है। लेकिन जो प्रेम प्रणय के प्रतिबिंब माँसलता की ऊष्मा में उपस्थित करता है, वह भावुकता की भूमि पर काम की भूख को जन्म देता है। वास्तविक प्रेम इनसान को बाँधता नहीं, बल्कि मुक्त करता है। कोरोजीवी कविता प्रेम की तीव्र संवेदना लेकर तो आती है, किन्तु प्रेम में डूबना और मर जाना ही प्रेम में सफलता का प्रमाण है, इस तरह की बातों को उसकी संवेनात्मक करुणा ख़ारिज करती है। प्रेम में आनंद का मूल स्रोत एकाकीपन है। कोरोजयी कवि का तटस्थ द्रष्टाभाव जीवन की गति की दिशा और दशा को सांकेतिक स्वर देता हुआ मनुष्यता के मार्ग की तलाश करता है। उसकी आत्मपरकता में वस्तुपरकता का आधार आत्मा की आँख है। जहाँ आत्मीयता से आत्मविश्वास बना हुआ है। प्रेम के आँसू में अपनी बातों को सम्पूर्ण त्वरा के साथ सम्प्रेषित कर देने की क्षमता होती है। यह इनसान को स्नेह से लेकर ख़ुशी की ओर धीरे-धीरे अग्रसर करता है। यदि हम कोरोनाकालीन कोरोकाल को देखें, तो हम पायेंगे कि प्रेम द्रष्टा और दृष्टि का रागात्मक रसायन है, विलयन है। प्रेम मनुष्य के व्यक्तित्व को प्रभावित करता है और मानवीय सौन्दर्य उस प्रेम में समाया रहता है। प्रेम मोह और भक्ति के बीच की अवस्था का नाम है। प्रेम में प्रतिबद्धता एक उम्मीद है जो कि संबंध को सदा के लिये कायम रखती है। पवित्र प्रेम से जीवन निखरता है। इससे कोई बच नहीं सकता है क्योंकि यह स्वभाव है।

प्रेम व्यक्ति की निजी अनुभूति है। मानवीय संबंधों तथा संवेदनाओं के क्षरण को कोरोजयी कवियों ने अपनी प्रेमालोच्य कविता में रेखांकित किया है। कोरोजीवी कविता में गहरी संवेदनशीलता है। आम आदमी, किसान, मजदूर, दलित, आदिवासी एवं शोषित वर्ग के प्रति कवि की संवेदनशीलता अत्यंत मार्मिक है। कोरोजीवी कविता में आम आदमी के प्रति यह संवेदनशीलता निरंतर गतिशील प्रतीत होती है। हाशिये का जीवन जीने के लिए मजबूर प्रतिकूल सामाजिक अवस्था से निष्कासित आम आदमी की व्यथा-कथा से कोरोजीवी कविता की संवेदना संबंध की सार्थकता से द्रवित होती हुई नदी की धारा की तरह प्रवाहित होती है। इसमें समाज में जी रहे या जीने के लिए विवश, हाशिए पर पड़े आम आदमी की समस्याओं, विसंगतियों और विडंबनाओं को कोरोजयी कवियों ने आत्मीयता के साथ चित्रित किया है। लेकिन प्रेम उनकी पुतलियों में प्रत्येक वस्तु को परखता है। अतः प्रेम की स्मृति में लौटना, पुरखों के पास लौटना है। जैसा कि आप देख सकते हैं कि कोरोजयी कवि रैदास व तुलसीदास के यहाँ ही नहीं बल्कि भरतमुनि, भामह व दण्डी के यहाँ भी जाते हैं। वे बुद्ध के यहाँ जाते हैं। वे वहाँ से प्रेम, अहिंसा व करुणा के सूत्र ढूँढ़ कर लाते हैं और उसे मनुष्यता की कसौटी पर अनुभव के साँचे में ढालते हैं। ताकि प्रेम की स्मृति जीवन के पथ पर पथप्रदर्शिका की भूमिका में साथ रहे। 'मैं' और 'ममेतर' के अंतर्सबंधों के बीच प्रेम अपने आप में एक अन्वेषण है। यह कोरोजीवी काव्य में एक केंद्रीय तत्व है और कोरोजयी कवियों का प्रकृति-प्रेम जीवन के संपूर्ण पर्यावरण की सुरक्षा के लिए है। जो कि गहरी जिजीविषा से जन्म दिया है। प्रकृति के सौंदर्य में प्रेम अपनी पूर्णता का रागात्मक प्रगीत रचता है। कोरोजीवी कविता में प्रेम सृजनात्मकता के उत्कृष्ट शिखर पर है। (रचना : 31 अगस्त, 2022)