कोलम्बस कश्यप की खोज यात्रा / जयप्रकाश चौकसे

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कोलम्बस कश्यप की खोज यात्रा
प्रकाशन तिथि :19 मई 2015


जब जॉन एफ. कैनेडी अमेरिकी चुनाव लड़ रहे थे, उनके धनाड्य पिता ने कहा पुत्र चुनाव न जीता तो वे एक देश खरीदेंगे और पुत्र को राष्ट्रपति बना देंगे। कैनेडी जीते और पिता को कोई देश न खरीदना पड़ा। अनुराग कश्यप की 'बॉम्बे वेलवेट' को दर्शकों ने पसंद नहीं किया। समाचार है जून से वे पैरिस रहने जा रहे हैं। वहां उन्होंने फ्लैट किराये पर लिया है। उनका कहना है भारत में सृजन की स्वतंत्रता नहीं है और फ्रांस की खुली हवा में बेहतर सांस ले सकेंगे! फ्रेंच सीखते ही उनके लिए वहां फिल्म बनाने के अवसर उपलब्ध होंगे। वे सरकार से भी नाराज बताए जाते हैं। कथित रूप से सर्विस टैक्स न जमा करने के कारण उनके बैंक खाते फ्रीज किए गए हैं।

उन्होंने कहा है कि वे अपने प्रशंसकों को सहन नहीं कर पाते। उनकी छवि आक्रोश की है और वे हमेशा चीखते नहीं रहना चाहते, हमेशा आक्रोश की मुद्रा धारण किए रहना कठिन है। कि उनके आक्रोश ने उन्हें नष्ट कर दिया है। अब वे स्वयं के लिए जीना चाहते हैं। गायत्री जयरामन ने अनुराग पर लंबा लेख लिखा। इस लेख में अनुराग के बयान उसी लेख से लिए गए हैं। अनुराग का कहना है कि विविध प्रकार की जाति-व्यवस्थाएं भारत में उभर आई हैं और इनमें किसको कितनी स्वतंत्रता मिले, यह तय किया जाता है और पूरी व्यवस्था ही संगठित अपराधनुमा हो गई है। मनुष्यों पर उनके टाइप होने के साइनबोर्ड लगे हैं और असहिष्णुता की हद यह है कि लोग मजाक भी नहीं कर सकते। सर्वत्र पाखंड है। उनकी शिकायत वाजिब है कि भारत में अब सिनेमा व्यवसाय महज कमाई के आंकड़ों का खेल रह गया है और व्यावसायिक सफलता गुणवत्ता का निर्णय करती है। उनका कहना है कि समाज में चमक-दमक निर्णायक हो गई है और उसी चकाचौंध में वे काले साये की तरह रहे हैं।

अनुराग का फ्रांस जाने का निर्णय 'बॉम्बे..' के प्रदर्शन के पहले लिया गया है और इसकी असफलता से उसे नहीं जोड़ा जा सकता। उत्तरप्रदेश से मुंबई आने पर अनुराग ने पृथ्वी थिएटर्स के कॉफी शॉप में वेटर की नौकरी की है। उनका संघर्ष लंबा रहा और रामगोपाल वर्मा ने उनकी पटकथा पर 'सत्या' बनाई। फिल्म निर्माण के पाठ उन्होंने रामू के फिल्म स्कूल से ही पढ़े हैं। रामू ने अपने दौर में अनेक प्रतिभाशाली युवाओं को अवसर दिए। रामू ने भी आक्रोश की मुद्रा धारण की थी। उनके विचार लोगों को चौंका देते थे।

दरअसल, चौंका देना एक किस्म की चाबी है, जिससे कई द्वार खुल जाते हैं। राजनीति में भी युवा तुर्क का दौर आया था। प्राय: व्यवस्था का विरोध अापको लोकप्रियता देता है परंतु सफलता मिलते ही आप व्यवस्था का हिस्सा हो जाते हैं गोयाकि उसे तोड़ने का स्वांग उसी से जुड़ने के लिए किया गया है। युवा वय का अर्थ ही विरोध है या उससे जुड़ा आक्रोश है। हर काल खंड में युवा आक्रोश रहा है। सलीम-जावेद और अमिताभ की 'जंजीर' के बाद आक्रोश को अलग ढंग से परिभाषित किया जाने लगा। मीडिया ने आक्रोश की छवि को प्रचलित सिक्का बना दिया है। अनुराग की तरह का आक्रोश 1964 में महेश भट्‌ट ने भी धारण किया था। और उनकी 'मंजिलें और भी हैं' एक अजूबा ही थी। सच तो यह है कि बीसवीं सदी के प्रारंभिक दशक में देवकी बोस की ब्राह्मण और धोबन की प्रेम-कहानी वाली फिल्म उस कालखंड के युवा आक्रोश की फिल्म थी और हिमांशु राय, देविका रानी तथा निरंजन पाल का 1925 में जर्मनी के इमल्का स्टूडियो के सहयोग से पहली फिल्म बनाना भी क्रांतिकारी कदम था। शांताराम की 'दुनिया न माने' (1937) जैसी साहसी फिल्म तो आज भी कोई नहीं बना सकता।

गोविंद निहलानी की 'अर्ध सत्य' व 'तमस' कोई कम क्रांतिकारी फिल्में नहीं थीं। श्याम बेनेगल की 'अंकुर' व 'निशांत' तथा 'सूरज का सातवां घोड़ा' कोई मामूली काम नहीं थे। सारांश यह कि हर कालखंड में युवा वर्ग आक्रोश की मुद्रा धारण किए कुछ नया करने की ललक के साथ ही आते रहे हैं। अत: इस प्राचीन शृंखला का न तो प्रारंभ अनुराग कश्यप से होता है और न ही अंत। यह सिलसिला सदैव जारी रहने वाला है। अनुराग की सक्रियता के दौर की अ वेडनसडे, कहानी, पानसिंह तोमर, बर्फी, विकी डोनर, क्वीन, पीकू फॉर्मूला फिल्में नहीं हैं और इन फिल्मों ने उच्च कलात्मकता के साथ ही व्यावसायिक सफलता पाई है। 'फंस गए रे ओबामा' से अधिक साहसी हास्य फिल्म आजतक नहीं रची गई है और आर्थिक मंदी विषय पर यह फिल्म बनी थी।

अनुराग के लिए आक्रोश कारण हो सकता है परंतु दर्शक की अस्वीकृति देश छोड़ने का कारण नहीं है। उनकी "बॉम्बे..' रोचक नहीं है, दर्शक से रिश्ता नहीं बना पाई। देवकी बोस से सुजीत सरकार तक सारे निर्देशकों ने सोद्‌देश्य मनोरंजन गढ़ा है। इस प्रसंग में रणबीर कपूर के लिए दुख होता है। उसने हमेशा निर्देशकों से नया करने के लिए सहयोग किया है।