कोहरा / सुशील कुमार फुल्ल

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भला चंगा घर छावनी बन गया था। दोनों में ठन गई थी। सत्यपाल हैरान परेशान था। उसकी आंखों में भय का मोतिया उतरने लगा। उसे इस बात का कतई अफसोस नहीं था कि राम अवतार अब रामगुलाम हो गया था कि उसने अब्दुल्ला की लड़की रसूलाँ से निकाह चला लिया था। सच पूछो तो वह मन ही मन बेहद प्रसन्न हुआ था, मानो उसका रिश्ता सलमा से जुड़ गया था। सलमा जो पीछे रह गई थी, सलमा जो उसकी जिंद-जान थी।

लेकिन अचानक ही घर में भय का कोहरा लटक गया था और वह आतंकित हो उठा था।

बड़े भाई लालचंद ने निकाह की बात सुनते ही कहा था, ‘‘कर दिया न सत्यानाश। जरा तो शर्म आनी चाहिए थी। उठा लाए रसूलों को कूड़े-कर्कट के ढेर से। वाह रे राम अवतार।’’

‘‘भाई जान! मैं। राम अवतार नहीं राम गुलाम हूँ। आप ठीक से बात करें।

‘‘केंचुली बदलने से क्या साँप नहीं रहता?’’ लालचंद फुँफकार उठा।

‘‘तो मैं। साँप हूँ।

‘‘साँप डस भी सकता है।’’

‘‘राम गुलाम और क्या डसोगे। तुमने सब सत्यानाश कर दिया।’’

‘‘सिर्फ रसूलों से निकाह रचाने से सत्यानाश हो गया?’’

‘‘हाँ।’’

‘‘वह गैर खून क्या? सदियों से हम लोग इक्ठ्ठे रहते आ रहे हैं, आज वह गैर-खून हो गया। वाह भाई लाला लालचंद जी।

‘‘हूँ अपने बाप के पेट में छुरे के निशान देखे हैं कभी।’’ और तुरंत सने अपने बाप की कमीज जबरदस्ती पेट से उठा दी तथा बोला-

‘‘जानते हो, रसूलों के रिश्तेदारों ने हमारे बाप की आंतड़ियाँ बाहर निकाल दी थी और और....चूचक काट कर हाथ में पकड़ा दिए थे। जाहिल लोग। और तुम इस इतिहास को दोहराना चाहते हो।’’

रसूलाँ नमाज पढ़ रही थी। उसकी सास पूजा के लिए दीया-बाती कर रही थी। और घर में संशय का कोहर लटक गया था।

भली चंगी बस्ती छावनी बन गई थी। हर साँस में भय का कोहरा उतरने लगा। शंकर की रेखाएँ मचलने लगी थीं।

आदमी की पहचान खो गई थी। बहशी ही बहशी नजर आने लगे थे तथा साँप कुलबुलाने लगे थे।

‘‘रामदेव मर गया।’’ सलमा ने कहा।

‘‘कैसे?’’ सत्यपाल ने पूछा।

‘‘किसी ने उसे गोली मार दी।’’

‘‘क्यों?’’

‘‘मुझे नहीं पता। हों, अब्बा कहते थे अब दादन खाँ हमारा हो जाएगा।

‘‘क्यों?’’

‘‘तू भी संता ही रहा।’’

सलमा सत्यपाल से दो-तीन वर्ष ही बड़ी थी। रामदेव भी उन्हीं की उमर का था। तीनों एक ही स्कूल में पढ़ते थे। वे इकठ्ठे ही चक्र दादन खाँ से मीरपुर डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के स्कूल में पढ़ने जाया करते थे।

आपस में खूब गुत्थम-गुत्था होते परंतु बनती भी बहुत थी। जिस ढंग से सलमा ने रामदेव की मृत्यु की घोषणा की, वह सत्यपाल को अच्छा नहीं लगा।

क्षण भर के मौन के बाद सत्यपाल बोला था....‘‘रामदेव का गिल्ली-डंडा तो मेरे पास है।’’

‘‘फिर।’’

‘‘मैं उसका गिल्ली-डंडा उसे लौटा दूँगा।’’

‘‘एक बार मर कर फिर नहीं उठते क्या? क्या वह हमसे गिल्ली-डंडा नहीं खेलेंगे?’’

‘‘नहीं, नहीं कभी नहीं।’’ सलमा के स्वर में चिढ़ थी फिर अचानक ही वह फफक कर रोने लगी।

सत्यपाल ने फिर ‘‘क्या वह सचमुच नहीं खेलेगा?’’

‘‘नहीं। गोली तो उसके बाप को मारी गई थी। लेकिन वह सामने आ गया। उसका खोपड़ा खुल गया। अजीब-सी अनुभूमि में लड़ती हुई वह बोली....संते, उसका सिर लाला तरबूज की तरह फट गया था। देख कर मुझे उल्टी होने लगी। जानते हो वह कैसे पड़ा था?’’

‘‘कैसे?’’

‘‘जैसे वह मुझसे लड़ने के बाद जमीन पर ढेर हो जाया करता था, बड़ा बना करता था न। उसने वैसा ही अभिनय किया।’’

दोनों उदास हो गए थे।

‘‘सलमा, रामदेव मर गया?’’ कहकर वह भी सिसकने लगा।

सलमा ने उसे सहलाया। बोला-‘‘ऐसा कर पाना इतना ही आसान होता तो क्या बात थी।’’ खोई हुई-सी वह बोली-‘‘लेकिन सत्यपाल, तुम भी तो चले जाओगे?’’

‘‘कहाँ? क्यों?’’

‘‘उस पार।’’

‘‘मैं। तुम्हारे साथ ‘वो’ कर दूँगा...मै। क्यों जाऊँगा यहाँ मेरा घर......’’

‘‘कौन-सा घर?’’

‘‘सलमा, मैं तुम्हारा कचूमर निकाल दूँगा।’’ उसने मुठियों भीच लीं तथा सलमा के पीछे दौड़ने लगा। वह उसे दबोच लेना चाहता था। उसकी आँखों के सामने अपनी ऊँची हवेली घूम रही थी....घर के इतने सारे लोग....सब उसकी आँखों के सामने थे।

अचानक सलमा ठर गइ थी। संतू ने उसे पकड़ लिया था। बोला था-‘‘फिर कहोगी ऐसी बात?’’

‘‘सुन।’’ मायूस स्वर में बोली-‘‘देख किसी से कहना नहीं, मैंने अब्बा को कहते हुए सुना है-महाजन लोग जब चले जाएँगे और हवेली पर हमारा कब्जा हो जाएगा।’’ ‘‘क्या सत्यपाल भी चला जाएगा।’’

‘‘फिर और भी बातें होती रहीं। तुम्हारे ही घर वालों की। अब्बा के पास दो बंदूक है। उससे वे तुम्हारे घर वालों को मार देंगे। तब तुम सब अल्ला के पास चले जाओगे और हवेली हमारी हो जाएगी।’’ वह भीगे हुए स्वर में बोली।

‘‘तू नहीं अल्ला के पास चलेगी हमारे साथ?

‘‘नहीं।’’

‘‘तो हम कभी पील पलांगड़ा नहीं खेलेगे। कभी बोरियों पर नहीं चढ़ेंगे। कभी धोल-धप्पा नहीं करेंगे।’’

दोनों अभी बात कर ही रहे थे कि सलमा का अब्बा आ गया था। उसने अपनी आँखें लाल-पीली करते हुए कहा-‘‘सलमा तू हिंदू के साथ बैठी है?’’

‘‘नहीं अब्बा, यह तो अपना संतू है।’’

‘‘संतू के साथ तुम्हें भी कोई काट कर रख देगा।’’

‘‘क्यों अब्बा?’’

‘‘इसका वतन उस पार है। यह हमारा वतन है।’’

‘‘वतन क्या होता है अब्बा?’’

‘‘अब्बा, जैसे संतू होता है। ऐसे न।’’

‘‘बेटी ये लोग ईश्वर को मानते है और हम अल्ला को।’

‘‘पर चचा जान, हम हर रोज जो स्कूल में प्रार्थना करते हैं, उसमें तो हर रोज कहते है-ईश्वर अल्ला तेरे नाम, सबको सन्मति दे भगवान। क्या ईश्वर और अल्ला अलग-अलग है?’’ सत्यपाल ने तर्क किया। उसे स्कूल की सारी प्रार्थना जबानी याद थी।

चचा जान फुसफुसाया था...‘‘तुम उल्लू के पटठे हो, तुम्हें कौन समझाए?’’ और वह सलमा को घसीटता हुआ अपने घर ले गया था।

संतू मरियल कुत्ते-सा अपनी हवेली की ओर बढ़ रहा था।

सलमा के अब्बा के शब्द सत्यपाल को आज भी याद है-तुम तो उल्लू के पट्ठे हो, तुम्हें कौन समझाए। वह ठीक ही कहता था, सत्यपाल को आज यह अहसास होता है। आदमी सदा उल्लू का पट्ठा ही रहा था, छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए आदमी-आदमी होता है। आदमी सदा उल्लू का पट्ठा ही रहा है, छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए आदमी-आदमी को ही काट देता है। सबसे भयंकर जानवर.....जमीन का भूखा आदमी जन्म-जन्म का भूखा आदमी.....बहशी.....कुत्ता....उल्लू का पट्ठा....उसे लगा जब सलमा का अब्बा उसे घसीट कर ले गया था तो वह भी उल्लू का पट्ठा हो गया था।

आज फिर तीन-पैंतीस वर्ष बाद उसके अपने घर के ही लोग उल्लू के पट्ठे हो गए थे....एक संशय की दीवार खड़ी हो गई थी....एक भय का कोहरा उनकी नसों में जमने लगा था।

राम अवतार रामगुलाम हो गया था। लालचंद लाल सिंह हो रहा था। सत्यपाल को फर्क नज़र नहीं आता था। रामगुलाम के निकाह से उसे प्रसन्नता ही हुई थी। उसे लगा उसका सलमा से रिश्ता जुड़ गया था। उसे लगा वह एक ही साँस में गीता-पाठ, गुर बानी तथा कुरान पढ़ने लगा था।....उसे अपने साँस बेहतर प्रतीत होती हुई लगी परंतु उसके पुत्र एक-दूसरे से टकराकर चूर हो जाने की मुद्रा में खड़े थे। वह सहम गया था। इतने वर्षों बाद भी उन्हें रिफ्यूजी ही कहा जाता था। उस पार से आए लोग....इस पार से गए लोग तो जन्मजात हैं। कहीं न कहीं संरक्षण ढूँढ़ता है। दुनिया का कोई भी ओर-छोर हो कहीं भी पहुँच जाता है, उल्लू का पट्ठा जो हुआ भले ही बिजली के तारों से चमगादड़-सा उल्टा-सीधा लटकना पड़े.......उसे घृणित शब्द से वह सदा परेशान हुआ । उसके बेटै इस पार जन्मे हैं, फिर भी रिफ्यूजी हैं। यह लेबल कभी मिट पाएग......कहीं उसे दोबारा तो रिफ्यूजी नहीं होना पड़ेगा.....नहीं, नहीं अब वह कहीं नहीं जाएगा....अपनी दादी की तरह यहीं रहेगा.....यहीं आकर उसने सपनों का संसार बुना है.....एक सुनहरा संसार लहूलुहान होकर सलमा के पीछे छूट गया था।

आँधियाँ चलने लगी थीं। बिजलियाँ कड़कड़ाने लगी थीं। सारे वातावरण में दशहत व्याप्त थी। दरवाजे खिड़कियाँ भिड़ने लगे थे । मार-काट की वारदातें हवा में तैरने लगी थीं.....एक पागल औरतों के चूचक इक्ट्ठा करता था, वहशी कहीं का।

सत्यपाल घर पहुँच था तो किसी ने दौड़कर उसे पुचकारा नहीं, किसी ने उसे खाने-पीने के लिए भी नहीं पूछा। वह सहमे हुए थे। उसका पिता गठरियाँ बाँध रहा था और बार-बार चिल्ला रहा था-तुम तो यों ही हिम्मत हार कर बैठ गए। अभी भी वक्त है। उठो, तैयारी कर लो। जितना सामान जा सकता है, ले चलेंगे। अभी समय है हम रिफ्यूजी कैंप में पहुँच सकते हैं या कोई गाड़ी ही अमृतसर के लिए मिल सकती है।

‘‘बेटा, तुम ठीक कहते हो। तुम सब जल्दी तैयार हो जाओ और यहाँ से निकल जाओ लेकिन मैं नहीं जाऊँगी। सत्यपाल की दादी ने कहा।

‘‘क्यों?

‘‘बस, इस मिट्टी में जन्म लिया है। यहीं पली हूँ। यहीं जिंदगी के सपने बुने हैं। अब इस या उस पार का प्रश्न ही पैदा कहाँ होता है?’’

‘‘माँ, वे तुम्हारी बोटी-बोटी कर देंगे।’’ बेटे ने डरे हुए स्वर में कहा।

‘‘कर देने दो। मैं बोटी-बोटी करके जी लँगी। और मरना तो एक ही बार होता है। जैसा लिखा है, भुगत लूँगी। मैं तो तुम पर भी बोझ नहीं बनना चाहती हूँ। बूढ़ी चरमराती हड्डियाँ हैं.....यहाँ रहो या वहाँ कोई अंतर नहीं। हाँ, तुम जल्दी निकल जाओ।’’ पूरे संतुष्ट स्वर में दादी ने कहा।

‘‘दादी अम्मा! मैं भी तुम्हारे साथ रहूँगा और फिर सलमा भी तो यहाँ है। मैं नहीं जाऊँगा।’’

‘‘चुप बे! बड़ा आया है सलमा का सगा। बाप ने घुड़क दिया। दादी ने उस सब की तैयारी करवा दी रास्ते में खाने के लिए चना-चबैना बाँध दिया। चाँदी-सोना दे दिया। छोटी-छोटी गठरियों में सामान बाँध दिया। काफिला तैयार हो गया।

सत्यपाल दादी से चिपक गया था। उसी का डंडा छीन कर पिता ने सत्यपाल के सिर पर दे मारा था और कहा था-‘‘तू हमारा खून करवाएगा, चल उठ।’’

वह सिसक रहा था-‘‘मैं। दादी अम्मा को छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगा। मैं सलमा के बिना नहीं रह सकता। मैं नहीं जाऊँगा।’’

लेकिन कसाई बाप उसे घसीटता हुआ ले गया और वह सिसकता रहा.....सरकता रहा।

बिजलियाँ कड़क रही थी। आदमी की पहचान खो गई थी। इस पार और उस पार में सारा संसार बँट गया था।

फौजियों के बूटों की धपक-धपक सुनाई दे जाती तो उनकी जान में जान आ जाती।

रात का गहराता अंधकार। मासूम लोगों का चीत्कार।

सलमा पीछे छूट गई थी और संता परेशान था। उसकी बार-बार इच्छा होती कि चुपके से पीछे लौट जाए.....पर वे लोग सलमा का नाम तक न गवारा करते। कल तक सब ठीक था लेकिन आज अचानक क्या हो गया। पेड़ों पर डरे हुए, दुबके हुए बैठे लोग देखकर सत्यपाल को अचानक छलाँगते बंदरों की याद आई। उसे भाग रहे सब लोग बंदर दिखाई देने लगे........डालियों को छलाँगते- फलाँगते।

दादी पीछे छूट गई थी। सलमा अपने अब्बा के पास थी। रामदेव वहाँ रह गया था। सत्यपाल क्षण भर के लिए रुक गया, उसने पीछे छूट गए अपने गाँव दादनखाँ को देखा-तभी एक धौल उसकी गर्दन पर पड़ी। उसका पिता था। बोला, ‘‘चल बे उल्लू के पट्ठे। कहीं हमें मरवा न देना।’’

और सत्यपाल फिर रेंगने लगा था।

एक स्थान से उखड़ कर दूसरे स्थान की तलाश, एक घर के उजड़ने पर नए घर की फिराक....घोंसले का बार-बार निर्माण....प्रचंड वायु में उसका बिखर जाना......अंडों का टूट-फूट जाना.....कितनी बड़ी विडंबना है।

इंसान काफिले बन गए थे......एक दूसरे के खून के प्यासे, सहमे से......सरकते से....सिमटते से लोग। सत्यपाल की हड्डबीती है.......सो तीस-पैंतीस साल बाद भी स्मरण करके उसके रोंगटे खड़े हो जाते हैं। चालीसा स्टेशन की ओर वे बदहवास भागे जा रहे थे। आठ साल का संता भी दौड़ा जा रहा था-उसकी धुँधली कल्पना में खोया हुआ, तभी अचानक किसी ने बच्चे को रोक लिया था और नेजा तानकर कहा था-ठहरो।

और वह ठहर गया था। काफिला आगे निकल गया था। नन्हा बालक सहम गया था। फिर भी अपनी सुत्थन ठीक करते हुए बोला-चचा जान मेरे अब्बा आगे निकल गए हैं, मुझे जाने दो।

‘चचा जान’ और ‘अब्बा’ शब्द सुनकर वे पिघल गए। इन शब्दों को वह अपनी भाषा के शब्द मानते थे। फिर भी एक मनचले युवक ने उसके हाथ पर मांस का एक लोथड़ा रखते हुए कहा था-‘‘ले अपनी माँ का चूचक। जहाँ भूख लगे वहाँ इसे चूस लेना। संते ने मांस का टुकड़ा पकड़ लिया। इस कमीनी हरकत का अर्थ उसे वर्षों बाद समझ आया था और वह भड़क उठा था।

यह सोचता है-कैसा जुनून था। लोग अचानक बहशी कैसे बन जाते हैं? आदमी की पहचान कैसे खो जाती है। वह उल्लू का पट्ठा हो जाता है। साउथ हॉल में गोरे-काले का सवाल, श्रीलंका में काले-काले का सवाल........लेकिन खून तो सबका लाल.....सत्यपाल को लगता है-ये सवाल आदिम हैं.....स्वार्थ के प्रतीक हैं खून का क्षण भर में सफेद हो जाना उसकी लाली का व्यर्थ हो जाना.....लेकिन अपने ही घर में उसका खून कई रंगों में बंट गया है। उन सबकी अलग-अलग तरंगे हैं। रामगुलाम रामचंद को सहन नहीं करता.....रामअवतार लाल सिंह को नहीं बख्शता और लाल सिंह बरकत मसीह पर झपटना चाहता है।

कहीं कुछ गड़बड़ा गया है....रंगों के संयोजन में कोई चीज बेमेल पड़ गई है.....कोई विष मिल गया है। शायद वह विष अंदर ही अंदर घुल रहा है। क्या फिर से नए वतन की तलाश में निकलना पड़ेगा? क्या फिर उसे रिफ्यूजी कैंप में जाना पड़ेगा? क्या फिर भेड़िए परोपकार का स्वांग रचकर विषयुक्त फल निरीह लोगों में बाँटेंगे? और क्या कुएँ का पानी फिर मारक हो जाएगा? दहशत का कोहरा सत्यपाल की नसों में जमने लगा था।

आँधियाँ चलने लगी थीं। बारिश की संभावना थी। चालीसा स्टेशन पर गाड़ी खड़ी थी लेकिन उनके हिस्से में मालगाड़ी का खुला डिब्बा ही आया था। वे उसी पर चढ़कर बैठ गए थे। दुबके हुए से। गाड़ी चल पड़ी थी उस पार के लिए। थोड़ी देर बाद गाड़ी हिचकोले खाती हुई रुकने लगी थी। कुछ बंदूकधारी ऊपर आ चढ़े थे। लोग भागने कूदने लगे, कुछ गोलियों का शिकार हो गए।

वह कूद नहीं सका था। उसके परिवार के लोग नीचे कूद गए थे। वह सहमा-सा एक कोने में बैठा था। तभी एक व्यक्ति ने उसे खड़ा किया तथा दूसरे ने उसके पेट में छूरा घोंप दिया। वह कराह उठा था। अँतड़ियाँ बाहर आ गई थी। खून की धार फूट निकली थी। एक आदमी ने उसे उठाकर नीचे फेंक दिया। उसकी हड्डियाँ कड़कड़ाई तो परंतु वह डरा-सहमा-सा गाड़ी की ओट में बैठ गया।

थोड़ी ही दूरी पर एक बुढ़िया बैठी थी। उससे कुछ फासले पर चाँदी के रुपयों का एक ढेर पड़ा था। शायद लुटेरे धन देखकर बुढ़िया को न मारें। संते को उस ढेर की चमक आज भी किसी बूढ़े की बलगम-सी दिखाई दे जाती है।

खून की धारा बह रही थी। संता अपने परिवार के व्यक्तियों को ढूँढ रहा था। तभी उसका बड़ा भाई आ गया था। अपने छोटे भाई को दिलासा दिया। फिर मिट्टी के तेल में भिगोया कपड़ा अँतड़ियों समेत सत्यपाल के पेट में ठँस दिया था। बस ऑपरेशन हो गया था।

सत्यपाल सोचता है आज उसके पास सब कुछ है। अब वह रिफ्यूजी नहीं है। भले ही ज्यादा लोग आज भी इसी संबोधन से जानते हैं। आज उसका कोई बच्चा बीमार हो जाए तो तीन-तीन डॉक्टर बुलाए जाते हैं या पता लगने पर डॉक्टर अपने आप भी चले आते हैं। उस मसय मिट्टी का तेल ही संजीवनी बन गया था।

अब वे सवारी गाड़ी के डिब्बे में चढ़ गए थे लोगों ने शटर गिरा लिए थे। क्या पता कोई अंदर घुस आए और हल्ला बोल दे। आदमी इस पार या उस पार के बहाने आदमी के ही टुकड़े-टुकड़े करने पर तुला हुआ था। निरीह लोगों की कत्ल.....खून के पिपासु लोग.....जन्म-जन्म के बैरी लोग गाड़ी के एक डिब्बे को पेट्रोल छिड़ककर सवारियों सहित जला दिया था। वे चीखते-चिल्लाते चिता मे दग्ध हो गए..........और उसी आग पर आततायी मांस भून-भूनकर खाते रहे।

इस पार और उस पार। भ्रम का कोहरा। वतन और अपना वतन.....मिट्टी की खुशबू.....आज भी सत्यपाल को अपने नथुनों में दादन खाँ की मिट्टी की महक महसूस होती है। परंतु अब उसका वतन बदल चुका है.....अब वह मिट्टी उसकी नहीं रहीं लेकिन वह सोचता है क्या कपड़े उतार पर फेंक देने से शरीर बदल जाता है....या क्या नए कपड़े पहन लेने से व्यक्ति बदल जाता है....दादन खाँ उसे अब भी अपना वतन लगता है लेकिन आदमी की खड़ी की हुई दीवारें उसे पार नहीं लाँघने देती......वह कसमसा उठता है।

क्या रामगुलाम और रामचंद्र को फिर अपने अलग-अलग वतन ढँढने पड़ेंगे....क्या फिर वे रिफ्यूजी बनकर निकल पड़ेंगे....नहीं, वह ऐसा नहीं होने देगा। दोनों की माँ एक है......क्या कोई आततायी उनकी माँ के चूचक काटकर दोनों को एक-एक बाँट देगा.....शरीर का विभाजन......ओह! नहीं.......नहीं। धन का विभाजन हो सकता है.....आदमी लालची हो सकता है....सत्यपाल ऐसा सोचकर फिर सिहर उठता है। रत्न सूद इलाही का सगे से भी ज्यादा था। लोग उसे रत्न इलाही कहते और इलाही सूद कहते। रत्न सूद सन् 30-35 में कुल्लू से भाग कर लाहौर जा पहुँचा था.....धीरे-धीरे वहाँ जमने लगा था। इलाही उसका यार था....दोनों का सांझा व्यापार था। दोनों शरीर अलग थे परंतु जान एक थी।

वतन उजड़ रहा था। हवेलियों पर लोगों के कब्जे हो रहे थे। धन-माल की लूट-पाट मची थी। अचानक रत्न के घर इलाही आ गया था। वह कोई नई बात नहीं थी, कोई अनहोनी नहीं थी। इलाही कुछ बेचैन लग रहा था। रत्न ने पूछा, ‘‘क्यों मियाँ, इतने परेशान क्यों हो।’’

‘‘रत्न, तुम जानते ही हो कि आजकल क्या हो रहा है? गुरमीत की बीवी को पठान उठा ले गए। सरस्वती को पींजे ले गए।’’ वह चुप हो गया।

‘‘तुम कहना क्या चाहते हो? बको भी न।’’ रत्न ने आत्मीयता से कहा।

‘‘मै तुम्हारी गुड्डो के बारे में सोच रहा था।’’

‘‘गुड्डो तुम्हारी भी उतनी ही है, जितनी मेरी। हमारा तो सब कुछ सांझा है।’’ रत्न गिगिड़ाया था।

‘‘ते ले जाऊँ उसे?’’

‘‘कहाँ?’’

‘‘मैं अभी काजी से निकाह पढ़वा लूँगा।’’

‘‘इलाही तुम होश में तो हो! गुड्डो तुम्हारी बेटी जैसी है।’’

‘‘अब मैं बेटी को बेगम बनाकर रखूँगा।’’ क्षण भर के मौन के बाद वह फिर बोला-‘‘कम से कम वह जीवित तो रहेगी......और ठाठ से नहीं तो कोई और पठान उसकी इज्जत लूटा लेगा।’’

रत्न को काठ मार गया। वह बोला, ‘‘इलाही, यह तुम क्या कह रहे हो?’’

‘‘हाँ, रत्न! तुम्हारे भले के लिए ही। तुम चाहो तो मैं। गुड्डो की माँ को भी अपनी बेगम बना लूँगा....तुम जाना चाहो तो मैं तुम्हें रिफ्यूजी कैंप में भिजवा देता हूँ।’’

‘‘इलाही, मैं तुम्हें जिंदा ही कब्र में डाल दूँगा।’’

‘‘रत्न, मत भूलो। मै। तुम पर अहसान कर रहा हूँ। चाहूँ तो तुम्हारा गला अभी काट सकता हूँ और गुड़ो तथा उसकी माँ को जबर्दस्ती उठवा लूँ। तुम कल सुबह तक सोचकर मुझे बता देना।’’ वह चला गया था।

रत्न के घर में आग लग गई थी। गुड्डो बोली, ‘‘पापा, मैंने अपना प्रबंध कर लिया है.....तुम मेरी वजह...।’’

‘‘पापा, मैंने इलाही तथा आपकी बात सुन ली है और अपना प्रबंध कर लिया है। आप भाग जाएँ। कहकर यह निढ़ाल होने लगी....उसे खून की उल्टियाँ आने लगीं।’’ रत्न सन्न रह गया। गुड्डो बोली, ‘‘मैं तो चली पापा। तुम लोग भाग जाओ, इलाही की आँखें बदली हुई है....मैं इतनी कमज़ोर नहीं हूँ कि इलाही के सामने बिछ जाऊँ....सिर्फ इसलिए कि मेरा वतन उस पार है। थू.....थू.....ऐसे दरिंदे पर।’’ वह ढेर हो गई थी।

रत्न तथा उसकी बीवी रात भर एक गटर में बैठे रहे थे फिर प्रातः के अंधकार में एक रिफ्यूजी कैंप में पहुँच गए थे....इलाही ने घर जाकर देखा था, गुड्डो का मृत शरीर पड़ा था तथा उसके चेहरे पर एक संतोष की झलक थी। इलाही दाँत पीसकर रह गया।

बहुत वर्षों बाद रत्न को इलाही का पत्र आया था-‘‘रत्न, मैं तुम्हें दोस्त कहूँ भी तो कैसे? मेरी आँखों पर तो स्वार्थ का भूत सुवार था और गुड्डो की देह....मैं पागल हो गया था....मैं आज बहुत शर्मिदा हूँ। शायद अल्ला ने ठीक ही किया, मेरे परिवार के सब सदस्य अल्ला को प्यारे हो गए....मुझे मेरी करनी का फल मिल गया....मुझे लगता है तेरी जान भी तुम्हारे दर्शनों में अटकी है। मैं तुमसे एक बार याचना चाहता हूँ। क्या तुम मुझे माफ नहीं करोगे!’’

रत्न ने केवल इतना ही लिखा था-‘मेरे लिए बेटी चो....इलाही उसी दिन मर गया था, जब वह गुड्डो तथा गुड्डो की माँ से निकाह करने का प्रस्ताव लाया था ओर अब वह रत्न भी कहाँ है?’’

बहुत चिट्ठियाँ आई परंतु रत्न ने कोई जवाब नहीं दिया। फिर एक दिन इलाही उसके दरवाजे पर आ गया था....बदहवास, बदसूरत-सा लेकिन रत्न ने उसकी शक्त भी न देखी। इलाही गिड़गिड़ाता रहा परंतु रत्न का दरवाजा नहीं खुला। इलाही सोचने लगा कि प्रायश्चित के लिए वह अपना एक-एक अंग काट कर रत्न के घर के सामने दफना देगा। शायद प्रायश्चित हो जाए।

रसूला नमाज पढ़ती है। सत्यपाल को अच्छा लगता है। रामगुलाम नमाज पढ़ने की कोशिश करता है लेकिन नमाज पढ़ते हुए भी वह बराबर ऊँ नमो शिवायः का जाप करता रहता है। वह यही बात रसूला से कहता है। रसूला हँस-हँस कर दोहरी हो जाती है और अब्बा सत्यपाल को यही कहानी सुनाती है।

सत्यपाल को सलमा याद आ जाती है। उसकी इच्छा होती है रसूला सलमा के बारे में पूछे लेकन उसे क्या पता उसके बारे में.....सत्यपाल के मन में टीस उठती हे,.....पिंड दादन खाँ.....सलमा रामदेव और वह मीरपुर को जाते हुए.....सुत्थन पहने हुए अपनी छवि की कल्पना कर वह मुस्करा उठती है। अब तो उसका रहन-सहन ही बदल गया है।

उनकी गाड़ी अमृतसर पहुँची थी, तो जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल का शब्द गूँज उठा था। वे फिर भी सहमे हुए थे, डिब्बों की खिड़कियाँ नहीं खोल रहे थे। धीरे-धीरे अमृतसर का अहसास हुआ, अपने वतन की गर्मी की अनुभूति हुई,गाड़ियों के दरवाजे खुले। हिंदू सिख गले मिले। उस पार से आए लोग जार-जार रो रहे थे। दादन खाँ पीछे छूट गया था। सलमा पीछे रह गई थी। खून से सनी-पुती गाड़ियाँ जिंदा-मुर्दा शवों को ढो रही थी।

सारा देश श्मशान हो गयाथा। शव ही शव दिखाई देते थे....पोर-पोर कटते लोग.....हो हल्ला मचाते लोग.....उल्लू के पट्ठे बन गए लोग। दहशत का कोहरा सच्चाई में बदल गया था

सत्यपाल के घर में दादन खाँ ने जन्म ले लिया था। सलमा की आत्मा आ पहुँची थी। रसूला सलमा की ही भांति घूम रही थी। राम अवतार रामगुलाम हो गया था। लालचंद लाल सिंह हो गया था। दोनों एक-दूसरे पर प्रहार करने के लिए तत्पर। दोनों घात लगाए हुए।

उसे रात भर नींद आती थी। उसकी पत्नी भी करवटें के बदलती। वह भी जाग रही थी। तभी घर का सन्नाटा भंग हुआ। लाल सिंह चुपके से उठा तथा उसने अपनी बंदूक उठा ली। दूसरी तरफ भी सरसराहट थी शायद रामगुलाम को इल्हाम हो गया था। उसने भी अपनी पिस्तौल संभाल ली थी। सत्यपाल को लगा वे दोनों आमने-सामने से घात लगाए हुए....एक-दूसरे को मिटाने को तत्पर.....तभी सत्यपाल को लगा दोनों के बीच चुपचाप रसूला आकर खड़ी हो गई।

‘‘नहीं, सलमा को नहीं मारा जा सकता।’’ वह खयालों में ही चिल्ला उठे। रसूला भी उठ आई थी......दो क्षण पहले घर में दहशत का कोहरा लटका हुआ था। अब एका एक दूर होने लगा था। वह अपने ससुर के सिर की मालिश कर रही थी।

रामगुलाम और लालचंद की बंदूकें मन ही मन तनी हुई थी परंतु दशहत का कोहरा मिटने लगा था.....सत्यपाल को सुकून मिल रहा था.....पहला ही रिफ्यूजी का शब्द अभी उसके नाम से नहीं हटा.....और दोबारा जुड़ने के लिए तैयार हो गया। नहीं, इस बार वह ऐसा नहीं होने देगा।

वह अपनी माँ की भांति बन जाएगा। वह बुदबुदा रहा था-इलाही का भूत भगा दो.....नहीं तो वह तुम्हारी माँ के चूचक काट कर एक-एक तुम्हारे हाथ में पकड़ा देगा। मैं कहता हूँ इलाही का भूत भगा दो।

रसूला हतप्रभ-सी अपने ससुर को देख रही थी। उसकी नसों में भी दहशत का कोहरा जमने लगा।

इलाही फिर से आकार लेने गया था।