क्या कहें किससे कहें? ;हस्तीमल हस्ती / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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हस्तीमल ‘हस्ती’ एक ऐसे सशक्त हस्ताक्षर है, जो देश की सभी प्रमुख पत्रिकाओं में छपते रहते हैं। किसी वाद विशेष से प्रतिबद्ध नहीं रहे, तो भी आदमी और आदमीयत से आपने अपनी प्रतिबद्धता बखूबी निभाई है। इनकी गजलों का फलक बहुत व्यापक है। कहीं परिवर्तन की प्रतिध्वनि है, तो कहीं गुमराह करने वाली प्रतिगामी शक्तियों पर प्रहार है। कहीं रास्ते में शक्ति-परीक्षण करती चुनौतियाँ हैं, तो कहीं व्यवस्था की पंगुता है। कहीं अवमूल्यन-मर्दित समाज की विडंबना है, तो कहीं स्वपोषी छिद्रान्वेषी क्रूर संस्कृति है। कवि ने सांसारिक छल, छद्म-त्याग-समर्पण की भूमिका को सूक्ष्मता से परखा है। बड़ी से बड़ी बात को भी सादगी से कहने की क्षमता इनकी ग़ज़लों की प्राण शक्ति बनी है

यह ढंग इनकी ग़ज़लों को नया आयाम देता है। रिश्तों की कैद, रूठने से नहीं छूट जाती, क्योंकि ये निर्वाह से बनते हैं झेलने से नहीं-

रूठे हो तो रूठ लो जीभर, कैद कहाँ छूटेगी।

जल-मछली से रिश्ते हैं ये, तेरे मेरे जी के।।

रिश्तो के निर्वाह के लिए अहंकार विसर्जित करना पड़ता है अपनी खुशियों को नहीं, वरन् दूसरों की खुशियों को प्राथमिकता देनी पड़ती है-

भूलिए अपनी खुशी अपना गुरूर।

कोई रिश्ता जब निभाना हो जनाब।

आत्म साक्षात्कार के द्वारा ही वह शक्ति एवं सहिष्णुता मिलती है, जिससे मानवता की परख होती है। दूसरों की पीड़ा समझने का माद्दा तभी जाग्रत होता है, जब कोई दुनिया जहान भूलकर आत्म विश्लेषण करने के लिए कटिबद्ध हो-

आसान है फ़रेब ज़माने से दोस्तों।

मुश्किल है अपने साथ कभी दग़ा करें।

संसार के कटु अनुभवों को झेलना किसी तपस्या से कम नहीं। संन्यास बहुत आसान है, जबकि दुनियादारी निभाना अग्नि परीक्षा है। गैर ज़रूरी बंधनों, रस्मों रिवाज स्वार्थपरता को नकारने वाला शख़्स ही स्वस्थ समाज के निर्माण में सहायक होता है। सामान्यतः स्वार्थी लोग काम निकलने पर मुँह मोड़ लेते हैं-

आते ही शाम सबकी निगाह मुझ से हट गई

अपना वजूद तो रहा अखबार की तरह।

दिशाहीन सोच ने समाज को संकीर्ण बनाने के साथ-साथ पंगु एवं खण्डित कर दिया है। इससे आदमी कमजोर हुआ है। अलगाववाद को बढ़ावा देने के लिए अनेक चबूतरे बन गए हैं-

हर दौर की गवाहियाँ देते रहे सदा।

झगड़े, फसाद, खून, तबाही चबूतरे।

जन-समस्याओं से विमुख करने में भी दिशाहीनता उत्तरदायी है। यदि गंभीरता से सोचें, तो पता चलेगा कि जनसाधारण की दुर्गति साधनों के अभाव में नहीं हुई है। इसका कारण है उभरती हुई बिचौलिया संस्कृति-

ये मुँह, ये कौर, बीच में कितने बिचौलिए।

बेहाल किस तरह-तरह न हो यह पे बोलिए ।।

प्रतीक-प्रयोग एवं उपमान योजना में हस्ती जी ने काफी सजगता बरती है। बिंबों के द्वारा सूक्ष्मतर भाव को ताज़ा स्वरूप प्रदान किया है। काँटों और फूलों के प्रचलित प्रयोग में नई ऊर्जा भरी है–

काँटों को लंबी ज़िन्दगी जिंदगी, फूलों को चंद साँस।

क्या-क्या निराले खेल हैं, परवरदिगार के।

सुख पल भर का मेहमान है। सुख के लिए टटके उपमानों का प्रयोग हस्ती जी की विशेषता है। परिवेश की सजगता एवं स्थिति की विश्वसनीयता बढ़ाने में उपमान सक्षम हैं-

सुख से अपनी भेंट रही यूँ, जैसे चलती गाड़ी में।

प्यारी सूरत दिखकर कोई, हो जाए ओझल बाबा।

अवसरवादिता से हटकर जीवन मूल्यों की स्थापना की जा सकती है। दुख, दर्द, संताप सबको नितांत आत्मीय एवं अनिवार्य रूप में ग्रहण किया जाए. बच्चों को काँधे पर लादे हुए बाप का दृश्य बिम्ब व्यावहारिक एवं मार्मिक है। -

यूँ अपना किरदार रहे, दु: ख दर्द हो या संताप कोई

बच्चों को कंधों पर लादे, घूमे जैसे बाप कोई ।

इस संसार में दु: ख सर्वव्यापक है। हस्ती जी के अनुसार-गौर करें तो हर इंसाँ, थोड़ा-थोड़ा तो घायल है' सुख की क्षणभंगुरता ही इसका कारण है। मुँडेर पर बैठे रहने वाले पक्षियों के द्वारा सुख-दु: ख का सहज एवं प्रभावशाली बिम्ब प्रस्तुत-प्रस्तुत किया है-

आने को तो दोनों आते हैं जीवन की मुँडेरों पर।

दु:ख अरसे तक बैठे रहते, सुख जल्दी उड़ जाते हैं।

प्रेम की तन्मयता संयोग के नहीं वरन् वियोग के क्षणों में ही अधिक घनीभूत होती है। स्मृति के पाश में बँधा हुआ मन अपने कार्य से किस प्रकार विराट विरत हो जाता है–

वह मुकद्दर वाले हैं हस्ती की नज़रों में तो बस।

याद में जिन की तवे पर रोटियाँ जलती रहीं।

आस्था का स्वर इनकी ग़ज़लों का प्रमुख स्वर है। कवि का विश्वास पलायन में नहीं, वरन् संघर्षों से जूझने में है। इस विश्वास नींव में है चुनौतियों का सामना करने की शक्ति, 'नाव तूफ़ाँ में बहाकर देखें, यूं भी किस्मत आजमाकर देखें'

'कैसी है यह रचना' गजल में वर्ग भेद पर कठोर प्रहार किया है। विभिन्न समस्याओं पर कवि ने अपने बेबाक विचार प्रकट किए हैं। संघर्ष अनुभव प्रदान करते हैं, नया दृष्टिकोण बनाने में सहायक होते हैं।

हस्ती जी ने संवेदना और अभिव्यक्ति का संतुलन बनाने का प्रयास किया है। ये ग़ज़लें हिन्दी काव्य-चेतना के अधिक निकट हैं। दो टूक बात कहना ग़ज़ल की विशेषता होती है। सहज एवं प्रवाहमयी भाषा इसे और निखार देती है। ग़ज़ल संख्या 10, 15, 40 और 41 कुछ शिथिल प्रतीत होती हैं। मुख्यपृष्ठ कलात्मक एवं सुंदर है। अधिकतम ग़ज़लें सबसे मुख़ातिब हैं और बहुत कुछ कह जाती हैं। 'कहने का ढंग' इन्हें और अधिक प्रभावशाली बनाता है-

लाख भले ही रोचक हो पर, कहने का गर ढंग नहीं

अच्छी खासी गाथा भी फिर बेमानी हो जाती है।

क्या कहें किससे कहें (ग़ज़ल-संग्रह) -हस्तीमल हस्ती, मूल्य सजिल्द-30 / -, पृष्ठ-76, संस्करण: 1989; अभिव्यक्ति प्रकाशन आमेट, उदयपुर

-0- ( 6 जनवरी 1990, सैनिक समाचार 18 मार्च 1990 , उत्तर दर्शन , मुम्बई)