क्या ज़माना था लेखकों का / मनोहर चमोली 'मनु'

Gadya Kosh से
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एक ज़माना था ,जब लेखकों का बहुत सम्मान हुआ करता था। गांव हो या शहर। अगर कहीं कोई लेखक रहता था, तो क्षेत्रवासी फूले नहीं समाते थे। लेखक के घर में आगन्तुकों का ठहराव हमेशा बना रहता था। लेखक के अतिथि समूचे क्षेत्र के अतिथि होते थे। अतिथियों के खाने-पीने और ठहरने की व्यवस्था भी क्षेत्रवासी ही किया करते थे। बहरहाल छोड़ों कल की बातें। नये दौर की बात करते हैं। आज ज़माना बदल गया है। पढ़ने-लिखने का दौर खत्म हो गया है, लगता है। ऐसा न होता तो आज के लेखक क्यों उपेक्षित होते। अगर लेखक कुवारा है, तो उसकी शादी नहीं होती। जो सालों से लिख रहा है, वो कहीं छप नहीं पाता। अगर लेखक ने लोगों के प्रयासों से, इधर-उधर से अपनी कुछ किताबें प्रकाशित करा भी दीं तो वे बिकती ही नहीं, न ही स्टालों पर दीखती हैं। लेखक को अपने किराए के मकान में गुमनाम सा जीवन व्यतीत करना पड़ता है। पड़ोसी भी नहीं जानते कि फलां कलम घिसता है।

आज भूले-भटके लेखक से कोई मिलने आ जाता है,तो वो दोबारा कभी नहीं आता। लेखक बातों ही बातों में,अपनी फटे-हालात आगन्तुक को बताता है। बेचारा आगन्तुक लोक-लाज, मानवीय संवेदनाओं के कारण या विवश होकर लेखक के लिए कुछ व्यवस्था करके ही विदा लेता है। यूं भी आज के दौर में लेखकों के सैकड़ों दुश्मन हो गए हैं। लेखक की पूछ न होने के कई कारण हो सकते हैं। पहले तो दस कोस तक एक ही लेखक हुआ करता था। आज एक घर में सदस्य पाॅच हैं तो लेखक सात हैं। गला-काट प्रतिस्पर्धा है। लेखकों के धड़ों में भी कई धड़े बने हुए हैं। लेखकों के संघों ने भी पाठकों को भ्रमित कर दिया है। एक संघ किसी लेखक की रचनाओं को कूड़ा बताता है तो दूसरा संघ उन्हीं रचनाओं के चलते उस लेखक को सम्मानित करता है। आजकल के लेखक लिखते कम हैं। अलबत्ता एक आलोचक के रूप में हर लेखक प्रसिद्ध अवश्य हो जाता है। जो लिखता नहीं है वो किसी लेखक के लेखन की उल्टी-सीधी आलोचना कर चर्चाओं में आ जाता है। चर्चाएं तो एक दिन खत्म हो जाती हैं, मगर लेखकों में चल रहा वाकयुद्व कभी खत्म नहीं होता।

पहले लेखक सीधे-सरल और सच्चे होते थे। आज बिना तिकड़म के कुछ नहीं होता। जो लेखक जिन्दगी भर आशीर्वाद को ’आर्शीवाद’ और मनुष्य को ’मनुस्य’ लिखते रहे, वे पत्र-पत्रिकाओं के संपादक बन गए। स्वयंभू और कथित वरिष्ठ लेखकों में कुण्ठाराज घर करना स्वाभाविक है। छपास प्रेमी और पत्रम-पुष्पम के आकांक्षी लेखक पत्र-पत्रिकाओं में अपनी रचनाएं छपवाने के कई प्रयास करते हैं। तब भी जब उनकी रचना लौटती डाक से वापिस आती है तो संपादक को कोसने के अलावा उनके पास कुछ भी शेष नहीं रहता। चूंकि वे अन्यों को यह भी नहीं बताना चाहते कि उनकी रचनाएं फलां संपादक ने लौटा दी है। इस दशा में वे संपादकों के खिलाफ मोर्चा बनाते हैं। एक अलग तरह का युद्ध उनके बीच शुरू हो जाता है। जो सालों चलता है। पहले लेखकों की रचनाएं पाठकों को ज़बानी याद रहती थीं। लेखकों की पुस्तकों के प्रकाशन का चलन भी न था। अब वो लेखक क्या लेखक, जिसकी दर्जन भर पुस्तकें प्रकाशित न हुई हों। गली-मुहल्लों के सम्मान न मिले हांे। ऐसे में आज ही बने लेखक भी पहले अपनी रचनाओं का संग्रह छपवा लेते हैं। जो लेखक अपनी किताबें नहीं छपवा पाते,वो प्रकाशक बन कर लेखक बनाने का धंधा शुरू कर देते हैं। दस नए लेखकों की कथित रचनाएं एकत्र की और बन गई किताब। फिर मंत्री के संत्री को तैयार किया और सत्तारूढ़ विधायक-सांसद से विमोचन करवा लिया। बनी बनाई पुस्तक समीक्षा पत्रकारों को बांट दी और खबर छपवा दीं। अब पत्रकार भी आए दिन ऐसे विमोचन समारोह में मिलने वाली मोटी-मोटी पुस्तकें कहां तक पढ़कर समीक्षा लिखें। प्रकाशकों ने भी लेखकों को दैनिक मजदूर बना दिया है। पहले प्रकाशक पुरानी पीढ़ी के लेखकों को घर जाकर किताब छपवाने का आग्रह करते थे। प्रकाशक यह भी बताते थे कि आखिर क्यों उनका प्रकाशन सबसे बेहतर है। पर अब तो लेखकों का अपना कोई घर होता ही नहीं। वर्ष के केलैण्डर की तरह वे घर बदलने को मजबूर हैं। फिर प्रकाशकों ने कई लेखकों को अपने यहां मानदेय पर प्रूफ रीडर नियुक्त किया हुआ है। वे प्रकाशकों को बताते हैं कि किस तरह की पुस्तकें बिक सकती हैं। किस लेखक को बिना रायल्टी दिए उससे उसकी पाण्डुलिपि हथियाई जा सकती है।

ऐसे असफल जो कभी लेखक नहीं बन सके, उन्होंने प्रकाशन का धंधा खोलकर एक नई दिशा देने का काम किया है। अब किसी को लेखक बनने के लिए तुलसी, मीरा या प्रेमचंद की तरह संघर्ष नहीं करना पड़ता। लेखक होने का प्रमाण-पत्र भी प्रस्तुत नहीं करना पड़ता। यह भी नहीं बताना पड़ता कि उसकी पाण्डुलिपि बेहद महत्वपूर्ण है, मौलिक है और स्वरचित है। नए मापदण्डों के अनुसार उसे तो बस कुछ रुपए जुटाने पड़ते हैं, ताकि किताब छप जाए। अनुबंध पर हस्ताक्षर करने होते हैं कि वे और उसका परिवार तीन पीढ़ी तक कभी भी रायल्टी की मांग नहीं करेगा। साथ ही प्रकाशित पुस्तक का नब्बे फीसदी भाग वह स्वयं बेचेगा और उसका अंकित मूल्य बतौर पेशगी प्रकाशक को दे देगा।

यही कारण है कि लेखक अपने झोले में अपनी किताबें लेकर पाठकों को ढूंढते हुए मिल जाते हैं। वे सबसे पहले अपने रिश्तेदारों को अपनी किताबें बेचते हैं। उनका ससुराल एक बाजार बन जाता है। किताब बेचते समय वे अपनी रचनाएं पढ़-पढ़ कर सुनाते हैं। ऐसे तमाम कारण हैं जिसके चलते अब कोई लेखकों को अपना मित्र नहीं बनाता। जिसके भी दो-चार मित्र लेखक हैं,वे जानते हैं कि हर साल उन्हें कितने मूल्य की किताबें न चाहकर भी खरीदनी पढ़ती हैं। अब आप ही बतलाइए इस देश में जब आदमी अपने दिवंगत माता-पिता की फोटो सुरक्षित नहीं रख पाता,तब भला वे किताबें क्या सुरक्षित रखेगा। यदि नहीं तो फिर वे लेखकों को मुहं क्यों लगाए?