क्या ज़रूरत थी / अनुराधा सिंह

Gadya Kosh से
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मेरा होना बड़ा ज़रूरी था .....रहती दुनिया के लिए। मैं दुनिया के होने की सबसे अद्भुत निशानी थी और उसके होने का कारण भी। फिर भी कुछ ज़रूरी नहीं था मेरा होना। अपने होने की, यूँ और यहाँ होने की सफ़ाई देते-देते मैंने कई ज़िन्दगियाँ काट दीं।

रोज़ सुबह चढ़ाती रात को भिगोए गैरज़रूरी बीज गैस पर उतारती जाती निषिद्ध सुखों के छिलके मुँह अँधेरे करती देवों और दानवों का शुकराना बनी रहे छीलने और उबालने की प्रासंगिकता ऐसी ही रात लिखती निरर्थक कामनाओं की स्वीकारोक्ति अगले दिन की तैयारी प्रायश्चित की इमला सिहरती उस दिन से जब नहीं सिद्ध कर पाएगी किसी एक काम की सार्थकता।

लगभग तीन सौ सालों से जानती थी वह कि पति नाम का इनसान जो प्रेम या साधन से जैसे भी वरण करेगा उसका. तुरन्त ही उसके सब अच्छे-बुरे (या जो उसे अच्छा-बुरा लगेगा) का उत्तरदायी हो जाएगा। कम से कम वह तो ऐसा ही मान कर चलेगा। लगभग दस सालों से जानती थी कि उसके बोलने का लहज़ा हर वक़्त इतना नरम होना चाहिए कि किसी काँच से अहम् पर चटख न लगे। उसने देखा था, पुरुष अच्छे मित्र होते हैं, बस पति बनते ही ऐसे हो जाते हैं. वरना भला ग्यारह साल पहले प्रेम-विवाह ही क्यों करती वह अनुज से।

ताज्ज़ुब है कि अब भी उसे बोलने की इच्छा होती थी, ढेर सा कहने की। ज़ोर से कहने की. ठहाके लगा कर हँसने की। इतना हँसने की कि भीतर का पत्थर पानी बनकर आँखों के रास्ते बह निकले। लेकिन उन पहाड़ों में ऐसी एक दरार तक न थी जहाँ से वह धारा बाहर आ पाती सो उसने रास्ता दूसरा चुना, चुप से सन्नाटे की तरफ जाता। वह शाम को लाइब्रेरी जाने लगी। वहाँ संजय से दोस्ती हुई और जल्द ही वह उसका भरोसेमन्द हो गया। वे बातें जो इससे पहले उसने खुद ने भी नोटिस नहीं की थीं संजय पुलों में बाँध देता, लेकिन एकदम जेन्युइन। हाँ? बन्दे को देखकर पता चल जाता है। मज़ा आने लगा खुलकर बोलते हुए, एक अनजान व्यक्ति से अपनी घुटन और कुण्ठा बाँटते हुए। अँधेरी कोठरी में छोटी-सी ही सही एक खिड़की खुल गई। वे पुस्तकालय से विश्वविद्यालय तक जाने वाली छायादार सुकूनभरी सड़क पर घण्टा भर चहलकदमी करते। इस दोस्ती से न उसे परहेज़ हुआ न गुरेज़ क्योंकि वह एक पूरी दुनिया जी लेती उसके साथ। थिएटर की, साहित्य की, यायावरी की, मुक्ति की। लगता था जैसे भाग आई हो अपने जीवन और मन से। हालाँकि देह अब भी वहीँ थी उसी संयुक्त परिवार की दोमंजिला कोठी में अनुशासित यांत्रिक. तमाम वर्जनाओं और हदबंदियों के बीच। यही एक घण्टे की पैरोल मिली थी उसे। यही सरल सहज रास्ता लगा, नैतिक और ईमानदार भी। लेकिन दोस्ती के दूसरे ही महीने में वह भाग आई वापस अपने पिंजरे में।

संजय ने कुछ नहीं किया था बस यह पूछा था, ‘तुम्हें ज़रूरत क्या थी कैफेटेरिया के लड़के को डाँटने की, मैं था न वहाँ?’ पौलिश्ड चेहरे के साथ सलीकेदार पार्क एवेन्यू आवाज़ भी तमतमाने लगी। सीएफएल चाँद टूटा छनाक !! वह धुँधलके में आँखें गड़ा कर पहचानने कर कोशिश करती रही, संजय या अनुज? अनुज या संजय? सब गड्ड-मड्ड हो गया। फिर भी बात के दूसरे हिस्से को नज़रंदाज़ करते हुए उसने बमुश्किल कहा, “अरे यार रोज़ बद्तमीज़ी करता था डाँट दिया तो क्या बड़ी बात हो गई?” पता है न हम स्त्रियाँ अन्तिम साँस तक बात सम्हालने की कोशिश करती रहती हैं। “और अगर वह तुम्हारी डाँट के बदले में भिड़ जाता तुमसे, तो? बेइज्ज़ती तो मेरी होती. ज़रूरत ही क्या थी कुछ कहने की?’....‘संजय, आज न मुझे ज़रा जल्दी घर जाना है, फिर मिलते हैं", और वह उलटे पैरों प्रथम पुरुष के पास लौट आई, जिसे समाज और विधान ने ऐसे सवाल पूछने का हक़ दिया था, जिस जवाबदेही से घबराकर वह उस घनी छायादार सड़क पर भागी थी, लौट आई उसी बाध्यता पर. मसलन, ज़रूरत ही क्या थी? जाने की, आने की, बोलने की, चुप रहने की, लिखने की, पढ़ने की? और अनन्त .....लेकिन इस वाकये से वह इतना तो समझ ही गई थी कि बात पति और मित्र की नहीं पोजीशन की होती है। अधिकार हो जाने की थी। मानसिकता की थी। भाग कर जाती भी कहाँ? इससे पहले भी तो कोई बात कभी ज़रूरी नहीं थी उसके लिए। दुनिया के किसी कोने में वह धक्का मार कर गिरा दी गई? भीड़-भाड़ में कोई अपनी लोहे जैसी कोहनी घोंप देता है उसकी छाती में और घर में सांत्वना की बजाय सवाल पूछा जाता है ‘ क्या ज़रूरत थी इतनी भीड़ भरी ब्रिगेड रोड पर अकेले जाने की, क्या ज़रूरी थे बच्चों के कपड़े आज ही ख़रीदने? ज़रूरत ही क्या थी पाँच लड़कियों के अकेले सिनेमा जाने की? वह हताशा से सर झटकती अपने आसपास खिंचा कटघरा उतारते हुए हाथ-मुँह धोने चली जाती है, आँखें भी, जो क्षोभ और अपमान से भर आयीं हैं।

ज़रूरत क्या थी तुम्हें ......?..यह सवाल देखते ही देखते प्रताड़ित को अपराधी के कटघरे में खड़ा करने कि क़ुव्वत रखता है। बहुत पुरानी नज़ीर है, दिल्ली के जघन्य निर्भया कांड के विषय में पुरुषों से भी अधिक स्त्रियाँ यह सोच रही थीं कि ज़रूरत ही क्या थी, भला, निर्भया को इतनी रात गए एक पुरुष मित्र के साथ सड़कों पर घूमने की। ऐसी लड़कियों के साथ ऐसा ही...शायद मैंने मिसाल भी ऐसी दे दी है जिसके पक्ष में बहुसंख्या है। ज़ाहिरन यह तो सब मानते थे कि निर्भया के साथ बहुत-बहुत बुरा हुआ और उसके अपराधियों को कड़ी से कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए। लेकिन अन्ततः ज़िम्मेदार वह खुद थी। हम सोच ही नहीं पाते कि घूमने-फिरने या ज़रूरी काम से बाहर जाने वाले स्त्री या पुरुष के लिए रात के १० और ११ में बहुत भारी अन्तर नहीं होता। इतना बड़ा तो नहीं ही, जिसकी सज़ा बलात्कार या हत्या करके दी जाए। अगर निर्भया के साथ उसका मित्र नहीं, पति होता और वह गले में मंगलसूत्र पहने होती तो क्या वे बलात्कारी उसे बख़्श देते? लेकिन कहाँ छोड़ पाएँगे हम शोषित को कसूरवार ठहराने की मनोवृत्ति? आसान नहीं है।

आजकल व्हाट्सएप समूहों के ज़रिये साहित्यिक चर्चाएँ खूब सफल हो रही हैं। लेकिन यदि न सफल हो और खटास पड़ जाए तो वह एडमिन और सदस्य नहीं बल्कि एक स्त्री और पुरुष के बीच की बात हो जाती है। सबसे पहले छवि ख़राब करने की साज़िश को अंजाम दिया जाता है। यहाँ स्त्री की असम्प्रक्तता या शालीन चुप्पी से सामने वाले का साहस बढ़ता है। अब क्या करेगी वह? पहले तो यह यक्ष प्रश्न ही अड़ जाएगा कि ज़रूरत ही क्या थी कोई व्हाट्सएप ग्रुप जॉइन करने की और फिर वहाँ बोलने (नेतागीरी करने) की?

क्या कहेगी वह कि ये सब जीने के ज़ोखिम हैं, स्त्री होकर जीने के ज़ोखिम. स्त्री होकर लिखने के ज़ोखिम? कौन मानेगा उसे बिना सन्देह सही।

किशोरावस्था में ज़रूरी काम से बाज़ार गई, बारिश आ गई, चप्पल टूट गई या पैसे खो गए तो जवाब इसी सवाल का सबसे पहले देना पड़ा ‘ज़रूरत ही क्या थी आज, अभी या कभी जाने की?’ इतना गैरज़रूरी होता है उनका सब किया धरा कि कुछ करते समय पूरा विश्वास ही नहीं आया अपने आप पर" साइंस पढ़नी चाहिए या आर्ट्स? कहाँ के निमहांस में एडमिशन लेना चाहिए, पढ़ने बाहर जाएँ या शहर में ही रुक जाना चाहिए? छोटे से छोटा निर्णय लेते समय तमाम किन्तु परन्तु और ज़रूरी गैर ज़रूरी होने की तलवारें लटकने लगीं। अन्ततः खारिज़ कर दिए कई ज़रूरी निर्णय खुद ही, कि आख़िर कौन बहस में पड़े, दलील दे, चुपचाप घर में बैठो।

अकूत दौलत के मालिक की बीवी को भी अपना होना ऐसा ज़रूरी नहीं लगता। दसियों कमरे के एक घर में जहाँ नौकरों तक के कमरे होते हैं, वहाँ उसके पास बस पति के साथ साझा एक शयनकक्ष ही होता है। हाँ, पति के पास व्यवधानरहित स्टडी हो सकती है। कमरा होना तो बहुत बड़ी बात है, एक मेज तक नहीं हो सकती है उसकी अपनी। कुसुम ने कहा कि वह अक्सर शाम को घर से १ किलोमीटर दूर एक बाज़ार में सब्जी लेने चली जाती है, या बेसन, पोहा, बच्चों का क्राफ्ट का सामान या ऐसा ही कुछ और। वह वहाँ तक पैदल जाती है। यह छोटी-सी वाक उसे अच्छी लगती है। लेकिन अगर कोई व्यक्तिगत ज़रूरत हो तो जाना खुद ही टाल जाती है। एक बार नितान्त आवश्यक हो आने पर कुछ निजी सामान लेने निकली तो घर में तमाम हिदायतें और इन्तज़ामात करती गई, जैसे जाने कैसी अय्याशी और गैरज़रूरी तफ़रीह के लिए और कई दिनों के लिए बाहर जा रही हो। घर में किसी ने उसे जाने से नहीं रोका या शायद पहले कभी किसी ने ऐसे गैरज़रूरी कामों पर समय बर्बाद करने पर गुरेज़ किया भी हो जो अब उसे याद नहीं। लेकिन उस दिन वह रास्ते में अपने आप पर बुरी तरह झुंझला उठी। क्या है? क्या अपने आपको इस लायक भी नहीं समझती कि अपने ही समय में से आधा घण्टा अपने ऊपर खर्च कर सके। दूसरों को क्यों दोष दे। ऐसी भी मेण्टल कण्डीशनिंग किस काम की।

क्रिस्टोफ़र पोइण्डेक्सटर की एक कविता खुली है मेरे सामने –

‘दरअसल यह बेहद खूबसूरत था कि कैसे उसने उसके भीतर की सारी असुरक्षाओं को सुला दिया कैसे उसकी आँखों में डूब कर वह उसके सारे भय निकाल लाया और फिर स्वाद चखा उन सपनों का जो छुपा रखे थे उसने अपनी हड्डियों के पीछे गुडी-मुड़ी करके। ’

कविताओं से बाहर अब भी कुछ ज़रूरी नहीं उसके लिए. बेटी कहती है उसे बारह सौ रूपए की कहानियों की किताब लेनी है, तो वह पूछ ही लेती है, ‘क्या ज़रूरी है खरीदनी?’ पति तुरंत ऑनलाइन आर्डर कर देता है, बिना किसी संशय के। घर उसका, पैसा उसका, बेटी उसकी, निर्णय उसका। मना तो उसे भी कोई नहीं करेगा। बैंक में लाखों रुपये उसके नाम हैं लेकिन डरती है कि अगर पूछ लिया गया कि क्या ज़रूरत थी यह किताब लेने की तो क्या कहेगी। निर्णय लेना बड़ी ज़िम्मेदारी है, सफाई देना और भी बड़ी। पैसा ही नहीं आराम, मनोरंजन, इलाज, दोस्त, शौक, कैरियर. अन्तहीन सूची है गैरज़रूरी बातों की।

बहुत से पुरुष भी इतने ही समर्पित होते हैं परिवार के लिए, वे भी अपने शौकों और व्यक्तिगत प्राथमिकताओं को तरजीह नहीं देते हैं। लेकिन यह फर्क समझना बहुत ज़रूरी है कि ऐसा करना वे खुद चुनते हैं. बाध्यता नहीं होती कहीं से. सो बात यहाँ आ कर रूकती है कि हमारा चुप रहना ज़रूरी नहीं था, बोलना भी क्या ज़रूरी था. फिर भी जिए जा रहे हैं यह गैरज़रूरी ज़िन्दगी इसकी बेहद ज़रूरी शर्तों पर। अपने होने और मुक़म्मल बने रहने के संशय के बीच फैज़ याद आ जाते हैं —

सफ़े-ज़ाहदां है तो बेयकीं, सफ़े-मयकशां है तो बेतलब न वो सुबह विरदो-वज़ू की है, न वो शाम जामो-सुबू की है.

(मेरे लिए धर्म उपदेशकों की या शराबियों की कतारें एक जैसी ही बेमायनी हैं, क्योंकि न मेरी सुबहों में इबादत और वज़ू के लिए यकीन शामिल हैं, न ही मेरी शामों में सुराही और प्याले की तलब है।)