क्या दुष्कर्म के लिए सिनेमा दोषी है ? / जयप्रकाश चौकसे

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क्या दुष्कर्म के लिए सिनेमा दोषी है ?
प्रकाशन तिथि : 22 दिसम्बर 2012


पुराने जमाने के मकानों में खूंटियां होती थीं, जिन पर गंदे कपड़े लटका दिए जाते थे। आजकल बाथरूम में इसी काम के लिए एक बास्केट होती है। हिंदुस्तानी सिनेमा भी उसी खूंटी या बास्केट की तरह है, जिस पर अपराध के लिए उत्तरदायित्व के पूरे समाज के गंदे कपड़े डाल दिए जाते हैं। कहीं भी दुष्कर्म हो, डाका पड़े, संगठित अपराध अपनी जड़ें फैलाए, बदनामी का ठीकरा इस सहज रूप से उपलब्ध माथे पर फोड़ दिया जाता है। हिंदुस्तानी सिनेमा का औरतों के प्रति वही निर्मम रवैया है, जो पूरे भारतीय समाज का है कि शास्त्रों से संविधान तक उसे देवी कहो और यथार्थ जीवन में दोयम दर्जे की नागरिक बनाकर रखो।

बाजार की ताकतें औरत को वस्तु बना देती हैं तो सिनेमा भी उसे 'आयटम' की तरह प्रस्तुत करता है। माताओं और बहनों के चरित्र को सिनेमा महिमामंडित करता है, क्योंकि बॉक्स ऑफिस पर पसंद किया जाता है और उसी तर्ज पर उसे वस्तु की तरह भी प्रस्तुत करते हैं। सिनेमा बाजार के वृहत संयंत्र का हिस्सा है। विज्ञापन फिल्मों में दाढ़ी बनाने की ब्लेड के विज्ञापन में भी महिला को प्रस्तुत करते हैं कि वह इस ब्लेड से चिकने किए चेहरे पर मोहित है।

हम 'मदर इंडिया', 'पाकीजा', 'शारदा' और 'बिराज बहू' इत्यादि की बात नहीं करेंगे, परंतु अरुणा राजे की 'रिहाई' की बात करेंगे, जिसमें नारी जीवन के एक पक्ष को प्रस्तुत किया गया है कि ब्याहता नायिका को परपुरुष से गर्भ ठहर गया है और आस-पड़ोस का दबाव है कि पति के गांव लौटने के पहले वह गर्भपात करा ले। इस गांव के अधिकांश पुरुष वर्ष में ग्यारह महीने महानगरों में पैसा कमाते हैं और उस लंबे प्रवास में पत्नी की याद सीने में छुपाए नियमित वेश्यागमन भी करते हैं तथा एक माह की छुट्टी पर घर आते हैं। बात इतनी गहरी हो जाती है कि पति भी घर लौटने पर उसे गर्भपात की सलाह देता है, परंतु उसका तर्क यह है कि जैसे उसने अपने पति के दो बच्चों को जन्म दिया है, वैसे ही वह तीसरे को भी जन्म देगी। उसकी कोख और उसका मातृत्व तीनों बच्चों में अंतर नहीं करता। वह अपना दोष मानती है और उसे न्यायसंगत नहीं ठहराती। इस फिल्म के अंतिम दृश्य में नायिका को गांव छोडऩे का दंड दिया जाता है और एक बूढ़ी स्त्री आह्वान करती है कि नायिका के साथ गांव की सारी औरतें स्वयं भी गांव छोड़ दें। जो पुरुष औरतों से सीता-सा आचरण चाहते हैं, क्या वे कभी राम-सा आचरण कर पाते हैं?

मुद्दा यह है कि इस फिल्म के प्रदर्शन पर हाउसफुल था, परंतु मध्यांतर के बाद अस्सी प्रतिशत दर्शक पूरी फिल्म देखने नहीं आए और बहिर्गमन करने वाले दर्शकों में महिला वर्ग भी था। हमने औरतों की विचार प्रक्रिया में कुछ पूर्वग्रह और अंधविश्वास ऐसे जमा दिए हैं कि वह स्वतंत्र सोच से ही दूर हो गई है। हमने उसका निजीत्व ही हर लिया है। वह अब बकरियों की तरह हांके जाने की आदी हो गई है। पाकिस्तान में नारी विमर्श पर बनी शक्तिशाली 'बोल' को भी महिला दर्शक नहीं मिले। औरतों के प्रति पुरुषों की सबसे भयावह क्रूरता यही उसके अवचेतन में झूठे मूल्यों की स्थापना है।

यह खेल आईने की खोज से ही शुरू हो गया कि तुम आत्म-मुग्धा बनी रहो और सोचना तुम्हारा काम नहीं है। इस षड्यंत्र का सबसे प्रभावी हथियार प्रेम को बनाया गया है। 'आई लव यू' दोहराते रहो और उसे ठगते रहो। याद आती है धर्मवीर भारती की कनुप्रिया- 'कि तुम अपने लिए नहीं, मेरे लिए मुझे प्यार करते हो, और क्या इसी का प्रमाण दे रहे थे, जब तुम मेरे ही निजीत्व को, मेरे आंतरिक अर्थ को, मेरी मांग में भर रहे थे और जब तुमने कहा कि 'माथे पर पल्ला डालो' तो क्या तुम चेता रहे थे कि अपने इसी निजीत्व को, अपने आंतरिक अर्थ को मैं सदा मर्यादित रखूं।' इसी रचना में राधा कृष्ण से पूछती है कि तुमने मुझे अपने आलिंगन में लिया, परंतु अपने इतिहास से वंचित रखा।

दरअसल हमारे अवचेतन में आख्यानों के लोकप्रिय स्वरूप इस कदर समाए हैं कि स्वतंत्र विचार और उसकी अभिव्यक्ति पर बंदिश है। एक ही कार्य के लिए अहिल्या को दिया दंड और असली अपराधी इंद्र को दिए दंड में अंतर है। असल अर्थ के ऊपर इतने आवरण डाल दिए गए हैं कि सत्य नजर नहीं आता। इस साजिश के लिए सिनेमा को दोष देने का क्या अर्थ है? इस अन्याय की जड़ हजारों वर्ष पूर्व बोई गई है।