क्या दोस्ती दुश्मनी आनुवांशिक होती है? / जयप्रकाश चौकसे

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क्या दोस्ती दुश्मनी आनुवांशिक होती है?
प्रकाशन तिथि :14 सितम्बर 2017


सलीम खान के सुपुत्र सलमान खान फिल्म का अधिकांश मुनाफा अपने मेहनताने के रूप में लेते हैं परंतु जावेद अख्तर के सुपुत्र फरहान उतने बड़े सितारे नहीं हैं। उनकी अपनी निर्माण कंपनी है और वे भी अपने सीमित जहान के बादशाह से कम नहीं हैं। उनके बाल सखा रितेश सिद्धवानी उनकी संस्था का सारा लेखा-जोखा संभालते हैं और फरहान अख्तर की बहन ज़ोया अख्तर भी फिल्मकार हैं। उनकी 'जिंदगी न मिलेगी दोबारा' जितनी सराही गई, उतनी व्यवसाय नहीं कर पाई। उस फिल्म में अमीर-गरीब द्वंद्व खूब नहीं उभरा, क्योंकि उसमें प्रस्तुत अमीर वर्ग खानदानी अमीर नहीं होते हुए स्वतंत्र भारत में भ्रष्टाचार की मदद से उद्योगपति बनकर अमीर हुए लोग थे। खानदानी धनाढ्य और अन्य रईसों में बहुत अंतर होता है। खानदानी रईस अजर-अमर कलाकृतियों का संग्रह करते हैं, नव-धनाढ्य खरीदकर इतराते हैं। खानदानी रईस शास्त्रीय संगीत व नृत्य का आयोजन करते हैं, नव-धनाढ्य फिल्म सितारों को आमंत्रित करते हैं। व्यवस्था के छिद्रों से धन कमाने वाले आईपीएल क्रिकेट टीम खरीदते हैं, असल रईस मोजार्ट और बीथोवेन में रस लेता है।

फरहान अख्तर को राकेश ओमप्रकाश मेहरा की 'भाग मिल्खा भाग' में बहुत सराहा गया। उसकी 'रॉक-ऑन' भी सफल रही परंतु फिल्म का भाग दो बॉक्स ऑफिस पर बेसुरा साबित हुआ। फरहान की 'लखनऊ सेंट्रल' की कथा हाल में प्रदर्शित 'कैदी बैंड' से समानता रखती है परंतु निर्णायक बात तो अंदाजे बयां होता है। शोले के पहले समान कथा पर 'खोटे सिक्के' बनी थी और वह भी सफल फिल्म थी परंतु 'शोले' भव्य बजट की बहुसितारा फिल्म थी। ये सारी फिल्में अकिरा कुरुसोवा की 'सेवन समुराई' से प्रेरित फिल्में थी परंतु इस वर्ग की किसी भी फिल्म ने 'सेवन समुराई' के सार को ग्रहण नहीं किया। फिल्म में 'गांव' सभ्यता का प्रतीक था, डाकू असभ्यता का प्रतिनिधित्व करते थे। सभ्यता संकट में घिरने पर जरायम पेशा लोगों की सहायता से संकट मुक्त होती है। संघर्ष के समय गांव की एक बाला और एक समुराई योद्धा में प्यार हो जाता है परंतु डाकुओं के संहार के बाद ग्रामीण बाला समुराई से पल्ला झाड़कर अपने खेत में बोवनी के लिए चली जाती है गोयाकि सभ्य लोग सुरक्षित होते ही अपने पैदाइश टुच्चेपन पर लौट आते हैं। मनुष्य का व्यवहार युद्ध और शांति के समय अलग-अलग होता है।

एक सामान्य व्यक्ति अपने परिवार से प्रेम करता है और भला मानुष होता है परंतु यही व्यक्ति भीड़ का हिस्सा बनते ही भीड़ की तरह आचरण करते हुए हिंसक हो जाता है। दिनभर की सारी जद्‌दोजहद के बाद शाम को घर लौटता है तो दिन भर के तनाव से मुक्त होने का प्रयास करता है। सड़क पर जो आक्रोश की मुद्रा में फौलाद-सा नजर आता था, घर में पत्नी की बाहों में मोम-सा पिघल जाता है। व्यक्ति के भी तीन रूप होते हैं- वह ठोस भी है, तरल भी है और वाष्प में भी बदल जाता है।

सलीम खान और जावेद अख्तर ने 'जंजीर' से 'शक्ति' तक अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की परंतु टीम के टूटते ही वह जादू समाप्त हो गया। उनकी संतानों के बीच कभी आत्मीयता नहीं बन पाई परंतु वे शत्रु भी नहीं रहे। जावेद अख्तर की पहली पत्नी हनी और सलमा सलीम खान आज भी अच्छे मित्र हैं। हनी अख्तर का कुंदूर में एक फार्म हाउस है जहां सलमान और कृष्णा कपूर छुट्‌टियां मनाने जाते रहे हैं। इस टीम के टूटने के अरसे बाद प्रकाश मेहरा का सुपुत्र 'जंजीर' का नया भाग बना रहा था तब रॉयल्टी की खातिर सलीम और जावेद ने मिलकर मुकदमा कायम किया था गोयाकि परस्पर हित लोगों को दोबारा जोड़ देता है। लाभ गोंद का काम करता है। हानि फटे हुए दूध की तरह होती है। दोस्ती और दुश्मनी आनुवांशिक नहीं होती। अंतरराष्ट्रीय रिश्तों में बाजार में अपने माल की खपत दो दुश्मन देशों को दोस्त बना देती है।

आज सिनेमा संसार में सफल फिल्मों का भारी अकाल है। ऐसे में सलीम-जावेद और सलमान तथा फरहान का साथ आना सनसनीखेज हो सकता है परंतु लाभ के बंटवारे का बखेड़ा ऐसा होने नहीं दे रहा है। इस जोड़ी की दूसरी बारी की अटकल से आप अमिताभ बच्चन को अलग नहीं कर सकते। बूढ़ा आक्रोश भी एक अच्छा विषय है। अभिषेक बच्चन के समाेश से यह बहुसितारा फिल्म हो जाती है परंतु ऐश्वर्या राय बच्चन और सलमान खान कभी अंतरंग मित्र रहे हैं और इसी बात पर यह कॉम्बीनेशन बिखर जाता है। इस तरह के आकल्पन से आप आंकी-बांकी रेखा को कैसे अलग कर सकते हैं। उसका आना डायनामाइट का असर रखता है। ज्ञातव्य है कि यश चोपड़ा की 'सिलसिला' की कश्मीर में शूटिंग की सारी व्यवस्था हो चुकी थी। सारे सितारे मौजूद थे। जाने कैसे यश चोपड़ा और अमिताभ बच्चन ने इस तिकोनी प्रेम-कथा में परवीन बॉबी को हटाकर रेखा का समावेश किया। परवीन बॉबी को लौटने को कहा गया और जिस उड़ान से वे लौट रही थीं, उसी विमान से रेखा आईं तथा एयरपोर्ट पर भावना का ज्वार उठ खड़ा हुआ। गौरतलब यह है कि इस सनसनीखेज सितारा जमावट के बाद भी फिल्म को आशातीत सफलता नहीं मिली। शायद परवीन बॉबी की बद्‌दुआ में दम था।

सारांश यह कि मात्र सनसनीखेज सितारा जमावट से फिल्म नहीं चलती। उसकी भीतरी बुनावट में नीयत का अच्छा होना वजन रखता है।