क्या फिल्म जीवन का कोई पाठ्यक्रम भी है? / जयप्रकाश चौकसे

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क्या फिल्म जीवन का कोई पाठ्यक्रम भी है?
प्रकाशन तिथि : 24 सितम्बर 2019


अरसे पूर्व जर्मन प्रोफेसर लोठार लुत्से ने कहा था कि हिंदुस्तानी फिल्मों को हम 'पांचवा वेद' मान सकते हैं। उनके इस कथन का आशय यह है कि वेद जीवन-मृत्यु, प्रकृति, समय, स्थान इत्यादि शाश्वत समस्याओं को समझने में मदद करते हैं। इसी तरह फिल्में भी कुछ रहस्य को सुलझाने में हमारी मदद कर सकती हैं। फिल्में साहित्य की तरह समाज का आईना नहीं है वरन् एक ऐसा आईना हैं जिसमें छवियां आपस में गड्मड् होते हुए कभी-कभी विकृत स्वरूप दिखाती हैं, परंतु उसमें कड़वे यथार्थ का एक रेशा जरूर होता है। जिसे पकड़कर आप कुछ नतीजों पर पहुंच सकते हैं। पुरानी फिल्मों को पुनः देखने पर अर्थ की नई परत खुल जाती है। किताबों के साथ भी यही होता है। ज्ञातव्य है कि अजय देवगन अभिनीत फिल्म "दृश्यम" में मात्र आठवीं पास व्यक्ति पूरी पुलिस फोर्स को उलझा देता है। तब्बू द्वारा अभिनीत पात्र पुलिस की आला अफसर है परंतु अपने लाड़-प्यार से बिगड़े हुए अराजक पुत्र की मृत्यु के रहस्य को सुलझा नहीं पाती।

नायक को सारा ज्ञान फिल्में देखने से प्राप्त हुआ है। अतः यह बेहतर होगा कि पुलिस के प्रशिक्षण पाठ्यक्रम में कुछ फिल्मों को भी शामिल किया जाए। हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित करने का मुद्दा वर्तमान में जेरे बहस है। गौरतलब है कि हिंदी का सबसे अधिक प्रचार व प्रसार मसाला हिंदुस्तानी फिल्मों ने किया है। पूरे देश के हर भाग में अधिकांश लोग हिंदी समझ लेते हैं, परंतु इस तथ्य को वे सरेआम स्वीकार नहीं करते। मनुष्य स्वप्न में मातृभाषा ही बोलता है। जासूसों को प्रशिक्षित किया जाता है कि स्वप्न में उसी देश की भाषा बोले जहां उन्हें जासूसी करने भेजा गया। बादशाह अकबर द्वारा तैयार किए गए 'गूंगा महल' का परिणाम यह निकला था कि मनुष्य वही भाषा बोलता है जो अपने आसपास सुनता है। दरअसल मातृभाषा मनुष्य चेतन की भीतरी सतह में हमेशा मौजूद होती है और ऊपरी सतह सुनी हुई भाषा बोलता है। मराठी कन्नड़ और बंगाली भाषा की फिल्मों में अभिनय करने वाले जब हिंदी फिल्म करते हैं तो वे पात्र की भाषा बोलते हैं परंतु उनके उच्चारण उनकी जन्म भाषा को उजागर करते थे। रजनीकांत और कमल हासन श्रेष्ठ अभिनेता हैं परंतु उच्चारण पर वे भी नियंत्रण नहीं कर पाते। अपनी प्रारंभिक फिल्मों में श्रीदेवी के संवाद डब किए जाते थे परंतु बाद की फिल्मों में वे स्वयं ही अपनी डबिंग करने लगी थीं। संकेत द्वारा भी संवाद किया जाता है। इतना ही नहीं मनुष्य का स्पर्श भी बहुत कुछ अभिव्यक्त करता है। मानव त्वचा का एंटीना बड़ा शक्तिशाली है। खाकसार की लिखी 'शायद' का एक संवाद है-'जब तुम मेरे करीब होती हो और स्पर्श करती हो तो जिस्म की नदी में सतह पर सोए हुए सारे चुंबन जागकर त्वचा के किनारों तक आ जाते हैं।' ज्ञातव्य है कि सई परांजपे ने नसीरुद्दीन शाह एवं शबाना आजमी अभिनीत 'स्पर्श' नामक फिल्म में एक दृष्टिहीन नायक की प्रेम कथा प्रस्तुत की थी। कुछ लोग हाथ मिलाते ही मनुष्य के विचार जान लेते हैं। कभी-कभी किसी व्यक्ति की हथेली मरे हुए मेंढक की तरह लिजलिजी होने का आभास देती है। दंगल करने वाले पहलवान पहले हाथ मिलाते हैं और इसी हाथ मिलाने से वे सामने वाली की ताकत का आकलन कर लेते हैं। यह भी गौरतलब है कि विवाह के समय दूल्हा-दुल्हन का हस्त मिलान भी रीति है और यह हस्त मिलान ही उनके बीच पहला संवाद होता है। विवाह की सारी रीतियों और परंपराओं को गीतों के साथ फिल्मों में प्रस्तुत किया गया। तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव और उनके वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने आर्थिक उदारवाद का शंखनाद किया। जिसने समाज में परिवर्तन प्रक्रिया को तेज गति दी। मेहंदी की रात, संगीत की रात, और बारात में बैंड-बाजे के साथ नृत्य करने के तथ्य में भी फिल्मी प्रभाव देखा जा सकता है। फिल्म का जो गीत शादी के बैंड वाले चुन लेते हैं वह बहुत लोकप्रिय हो जाता है। यह कितने आश्चर्य की बात है कि 'नया दौर' का गीत-'ये देश है वीर जवानों का...' बारात के बैंड मास्टर बजाते हैं। मानो दूल्हा कोई किला जीतने जा रहा हो। उसके पास एक कटार होती है और स्वागत द्वार पर लगा हुआ नारियल वह ऐसे तोड़ता है मानो युद्ध में विजय के बाद पराजित देश में प्रवेश कर रहा हो।

'लुबना' नामक फिल्म में मुस्लिम परिवार की तलाकशुदा स्त्री से उसका पति ही दोबारा विवाह करना चाहता है। उस समाज की परंपरा के अनुसार स्त्री का विवाह किसी किराए के व्यक्ति से कराकर उसे तलाक दिलवाया जाता है। इसी के बाद वह अपने पहले पति से विवाह कर पाती है। 'लुबना' में किराए का पति पहले किए गए अनुबंध के अनुरूप अपनी पत्नी के साथ हमबिस्तर नहीं होता। विवाह के संपूर्ण होने के लिए हमबिस्तर होना जरूरी है। किराए का पति अपने अनुबंध पर टिका है और पत्नी को कहता है कि बंद कमरे में क्या हुआ कोई नहीं जानता। उसकी पत्नी कहती है कि ऊपर वाला तो सभी जगह सारे समय मौजूद होता है। अतः हमबिस्तर होने की रस्म अदा करनी चाहिए। फिल्म 'लुबना'में उस संप्रदाय के विवाह व तलाक के सारे कायदों का विशद विवरण है।

फिल्मों से हम बहुत कुछ सीखते हैं। जिसमें बुरी आदतें भी शामिल हैं, परंतु सरेआम इसे स्वीकार नहीं करते। तीन बार तलाक एक-एक माह के अंतराल में बोला जाता है। उसे एक वाक्य की तरह एक ही बार में नहीं बोला जाता, परंतु इस नियम का निर्वाह भी नहीं हुआ है।