क्या भूख-प्यास का कोई धर्म है? / जयप्रकाश चौकसे

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क्या भूख-प्यास का कोई धर्म है?
प्रकाशन तिथि : 23 अगस्त 2018


मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'ठाकुर का कुआं' में विवरण है कि कैसे एक हरिजन की मृत्यु हो जाती है, क्योंकि वह प्यासा था और गांव में ठाकुर के कुएं से दलित एवं हरिजन को पानी पीने की आज्ञा नहीं है। प्रेमचंद की 'सद्‌गति' में एक हरिजन पंडित के आंगन में लगे एक वृक्ष को काटता है। वह एक मुहूर्त निकालने की प्रार्थना लेकर आया था। बामन दंपती को यह चिंता सता रही थी कि परिश्रम करते हुए यह मर गया तो इसके शव को उन्हें अपने आंगन से बाहर ले जाना होगा और उसके शरीर को स्पर्श करना होगा। सत्यजीत रॉय ने ओमपुरी अभिनीत फिल्म 'सद्‌गति' बनाई थी। गुजरात की एक कथा है कि एक वृद्ध विधवा चार धाम की यात्रा करना चाहती है परंतु उसकी कमजोर काया दुर्गम यात्रा शायद ही कर पाए। उसके पास जितना धन है उसी से गांव में दलित एवं हरिजनों के लिए एक कुआं खुदवा देती है और कुएं के जल में ही उसे चारों धाम की यात्रा से अर्जित पुण्य दिखाई देता है।

मेहबूब खान की फिल्म 'रोटी' का सारांश यह है कि एक धनवान अपने चाय बागान का मुआयना करने जाता है और उसका विमान दुर्घटनाग्रस्त हो जाता है। जनजातियों के लोग उसे एक घने वृक्ष की डालियों में बेहोश पाते हैं। वे उसका इलाज करते हैं। वह एक जनजाति के युवा से कहता है कि शहर जाकर उसके परिवार को उसके जीवित होने की जानकारी दे। वह व्यक्ति रेलवे प्लेटफॉर्म पर देखता है कि एक व्यक्ति 'हिंदू चाय' बेच रहा है, दूसरा व्यक्ति 'मुस्लिम चाय' बेच रहा है। वह दोनों चाय पीता है और आश्चर्यचकित है कि एक ही पेय दो नामों से बेचा जा रहा है। अंग्रेजों ने भारत को बांटकर उस पर राज किया था। विगत सदी के चौथे दशक में न्यू थिएटर्स फिल्म कंपनी ने 'चंडीदास' नामक फिल्म बनाई थी। इसमें एक बामन और हरिजन युवती की प्रेमकथा प्रस्तुत की गई थी। पहले दृश्य में ही कथा का सार प्रतीकात्मक ढंग से यूं प्रस्तुत किया गया है कि चंडीदास और हरिजन युवती नदी के जल में एक-दूसरे की परछाई देखते हैं और एक शरारती बच्चा नदी के जल में पत्थर फेंकता है, जिस कारण परछाइयां मिट जाती हैं। इन पात्रों की प्रेम कथा भी ऐसे ही शरारती तत्व समाप्त करने में सफल हो जाते हैं। इसी फिल्म का एक गीत था 'सुनो रे मानुष भाई, सबसे ऊपर सत्य, ....ऊपर कोई नाई'। दिलीप कुमार रॉय ने यह गीत पंडित जवाहर लाल नेहरू को सुनाया था। उन्हें फिल्म 'चंडीदास' भी दिखाई गई थी। भारत को बांटकर शासन करने की ब्रिटिश नीति आज भी दोहराई जा रही है और उसमें सफलता भी मिल रही है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री इसी तरह का कार्य कर रहे हैं। वे भूल गए हैं कि वे जिस गोरखनाथ पक्ष से आए हैं, उसके भवन निर्माण के लिए जमीन एक अन्य धर्म की अनुयायी ने दान में दी थी। ऋषि कपूर और कई दृश्यों में तापसी पन्नू अभिनीत अनुभव सिन्हा की फिल्म 'मुल्क' में भी इसी बात को अभिव्यक्त किया गया है। फिल्म में परिवार की बहू मुकदमा लड़कर एक परिवार के उम्रदराज व्यक्ति को बचा लेती है। वह और उसका पति विभिन्न धर्म मानने वाले परिवारों के सदस्य हैं। फिल्म में यह भी दिखाया गया है कि उस मुस्लिम परिवार का मकान 1927 में बना था। गोयाकि वे उसके पहले से ही उस शहर में रह रहे हैं। आज नागरिकता प्रमाणित करने में उन लोगों को भी कठिनाई आ रही है जिनकी पीढ़ियां यहां की नागरिक रही हैं। इसी समस्या को राजकुमार हिरानी की फिल्म 'पीके' में भी प्रभावोत्पादक ढंग से प्रस्तुत किया गया था कि किसी भी व्यक्ति के शरीर पर उसकी नागरिकता का कोई ठप्पा नहीं लगा होता।

बॉम्बे टॉकीज निर्माण संस्था ने अशोक कुमार अभिनीत फिल्म 'अछूत कन्या' चौथे दशक में बनाई थी, जिसमें बामन युवक और हरिजन युवती की प्रेमकथा को प्रस्तुत किया गया था। गौरतलब है कि बिमल राय की 'सुजाता' भी इसी तरह की फिल्म थी। सारांश यही है कि जात-पात के भेदभाव से ऊपर उठकर मनुष्यता के महान सार्वभौमिक आदर्श के प्रति साहित्य और सिनेमा हमेशा ही समर्पित रहा है। फिल्म उद्योग में केवल योग्यता ही एकमात्र पासपोर्ट है और उद्योग में सभी त्योहार मनाए जाते रहे हैं। यह देश और समाज कबीर की बुनी हुई चदरिया के समान है, जिसमें विभिन्न रेशों का इस्तेमाल किया गया है।

गौरतलब है कि मेहबूब खान एक अनपढ़ व्यक्ति थे। वे कभी किसी स्कूल या मदरसा नहीं गए थे परंतु उनके फिल्म बैनर पर 'हंसिया और हथौड़ा'अंकित था जो कम्यूनिज्म के प्रतीक हैं। उन्होंने साधनहीन व्यक्ति के प्रति करूणा के होने को ही आवश्यक माना। गांधी जी का प्रिय भजन था 'वैष्णव जन तो तेने कहिए, जे पीड पराई जाणे रे'।