क्या यही आखरी रास्ता है ? / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

{GKGlobal}}

क्या यही आखरी रास्ता है ?
प्रकाशन तिथि : 24 दिसम्बर 2012

सामूहिक दुष्कर्म की राष्ट्रीय त्रासदी के बाद उसके विरोध का स्वरूप प्रखर होता जा रहा है। कोई दो दशक पूर्व निर्माता पूरनचंद्र राव के लिए के. भाग्यराज ने अमिताभ बच्चन, श्रीदेवी और अनुपम खेर अभिनीत 'आखरी रास्ता' नामक फिल्म बनाई थी, जिसमें क्रिसमस के त्योहार पर गरीब, मेहनतकश नायक की पत्नी का बलात्कार नेता और उसके साथी करते हैं तथा पति को अपनी ही पत्नी के कत्ल के झूठे इल्जाम में आजीवन कारावास दिला देते हैं। जेल जाते समय नायक अपने अबोध बालक की जवाबदारी अपने मित्र को देता है।

सजा काटकर लौटा नायक अपनी पत्नी के बलात्कारियों की एक-एक करके हत्या करना शुरू करता है और इस कातिल को पकडऩे की जवाबदारी एक कर्तव्यनिष्ठ युवा अफसर को दी जाती है। कातिल और अफसर ये नहीं जानते कि वे अपने जीवन में पिता-पुत्र हैं। पिता-पुत्र दोनों ही अत्यंत साहसी और चतुर हैं। पुलिस कमिश्नर की पुत्री युवा इंस्पेक्टर से प्यार करती है, जिसका कातिल अपहरण कर लेता है। परंतु लड़की के लॉकेट में अपने हमशक्ल पुत्र की तस्वीर पहचान लेता है और अपनी होने वाली बहू को बिना कुछ बताए आजाद कर देता है। बूढ़ा पिता अपने दोस्त को जाकर मिलता है, जो उसे बताता है कि समाज में कातिल के पुत्र के लिए कोई स्थान नहीं होने के कारण उसने उसके पुत्र को अपना नाम दिया है।

इसमें एक दृश्य कब्रगाह पर था, जिस जगह बूढ़ा अपनी पत्नी की बरसी पर फूल लेकर आया है और बेटा अपनी मां की कब्र पर पहुंचा है, क्योंकि बेटे को अब सबकुछ मालूम पड़ चुका है। पिता-पुत्र आमने-सामने हैं और उनके बीच है एक कब्र, जिसमें एक की मां और दूसरे की पत्नी वर्षों से कब्र में लेटे हुए न्याय का इंतजार कर रही है। कर्तव्यनिष्ठ युवा पुलिस अफसर अपने सजायाफ्ता पिता से कहता है कि तमाम बलात्कारियों को व्यवस्था दंड देगी और उसे कानून अपने हाथ में नहीं लेना चाहिए। आक्रोश के घोड़े पर सवार पिता कहता है कि अगर व्यवस्था निष्पक्ष और न्यायसंगत होती तो उसकी पत्नी का बलात्कार नहीं होता और उसे जेल नहीं भेजा जाता। उसका अपना अनुभव है कि व्यवस्था अंधी है, अन्यायपूर्ण है और स्वार्थी, लंपट नेताओं के हाथ में है। अत: अनकिए अपराध की सजा भुगतने वाला ही उन्हें अपने ढंग से दंडित करेगा। पुत्र कहता है कि आपने पत्नी खोई है तो उसने अपने बचपन में ही अपनी मां को खो दिया है और उसके हृदय में प्रतिहिंसा है, परंतु वह व्यवस्था के तहत ही न्याय चाहता है और इस मार्ग पर चलते हुए उसे अपने पिता को भी गिरफ्तार करना पड़ा तो उसे संकोच नहीं होगा। पुत्र कहता है कि आपके रास्ते पर चलने से अन्यायपूर्ण व्यवस्था का विकल्प अराजकता बनकर उभरेगा। अगर हर आदमी का दिल अदालत हो जाए, तो भी सभी को न्याय नहीं मिलेगा। इस तरह का व्यवहार तानाशाही को निमंत्रण देने की तरह है। पिता और पुत्र अपने-अपने रास्ते चले जाते हैं। पुलिस की मुस्तैदी के बावजूद कत्ल होते रहते हैं और एक बड़ा पुिलस अधिकारी अपने ही कार्यालय में फांसी पर चढ़ा हुआ मिलता है। इस फिल्म में पुत्र के अंतद्र्वंद्व के दृश्य मर्मस्पर्शी हैं। उसके सीने में भी आग है, परंतु वह जानता है कि अराजकता का स्वागत नहीं किया जा सकता। रुग्ण व्यवस्था का इलाज किया जा सकता है, परंतु अन्याय के विरुद्ध विद्रोह के नाम पर उसे भंग नहीं किया जा सकता। घटनाक्रम कुछ ऐसा है कि युवा अफसर की प्रेयसी भी आक्रोश से घिरे वृद्ध व्यक्ति के साथ सहानुभूति रखती है औैर चाहती है कि उसका प्रेमी अपने पिता का साथ दे। नारी होने के कारण वह उस स्त्री के प्रति सहानुभूति रखती है, जिसे उसने देखा भी नहीं।

के.भाग्यराज ने एक दुष्कर्म के गिर्द मानवीय रिश्तों की गहरी संवेदना जगाने वाली फिल्म रची थी। फिल्म के क्लाइमैक्स में पुत्र अपने पिता को बलात्कारी मंत्री के कत्ल से रोकने के प्रयास में गोली मार देता है। अपने दुश्मन को मरा हुआ समझकर मंत्री सुरक्षा के घेरे से बाहर आकर अपने अहंकार का प्रदर्शन करता है। पुलिस अफसर नायक का हाथ रिवॉल्वर पर रहता है कि अब व्यवस्था का दामन छोड़कर उसे भी अराजक बनना चाहिए। ठीक इसी समय मृत्यु की गोद में जाने वाला बूढ़ा नायक शायद मृत्यु से चंद क्षण मांगकर जाग जाता है और मंत्री को गोली मार देता है।

'आखरी रास्ता' अद्भुत फिल्म थी। इसमें अमिताभ बच्चन ने पिता-पुत्र की दोहरी भूमिकाओं में कमाल किया था। इस फिल्म की याद आते ही मन में प्रश्न उठता है कि क्या सड़ी-गली व्यवस्था के विरोध में अराजकता और जंगल कानून की वापसी उचित है? दिल्ली में किए जा रहे विरोध की तरह ही एक छोटे शहर में लड़कियों को छेडऩे वाले लड़कों की आम जनता ने गंभीर पिटाई की और उनकी मृत्यु हो गई। आज इस बा पर विचार करना जरूरी है कि क्या शहर-दर-शहर कानून को हाथ में लिया जाना उचित है? क्या यह भी हो सकता है कि कोई व्यक्तिगत बदले के लिए इस विरोध की लहर से फायदा उठा जाए। इस स्वाभाविक विरोध के तंदूर पर राजनीतिक रोटियां भी सेंकी जा रही हैं। बाबा रामदेव का दिल्ली पहुंचना भी इसी बात का संकेत है कि भीड़ के मंच की तलाश कई लोग कर रहे हैं। यह विचार व्यवस्था का बचाव नहीं है और बलात्कारी का पक्ष भी नहीं लेता। दरअसल यह व्यवस्था और बलात्कारी सब उसी वृहत समाज से जन्मे हैं, जहां से विरोध हो रहा है। आक्रोश और अन्याय एक ही सांस्कृतिक विरासत या कहें कि सांस्कृतिक शून्य से जन्मे हैं।